समावेशी शिक्षा
Samaaveshee Shiksha
विषय | समावेशी शिक्षा सिलेबस नोट्स क्वेश्चन पेपर
SAMAAVESHEE SHIKSHA SYLLABUS NOTES QUESTION PAPER |
SUBJECT | Inclusive Education Syllabus Notes Question Paper |
पेपर कोड | 304 |
विश्वविद्यालय | महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय |
कोर्स | बी.एड |
सेमेस्टर | तृतीय सेमेस्टर |
FULL MARKS | 50 |
lnfo | यहाँ महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय बी.एड तृतीय सेमेस्टर के पेपर -304 समावेशी शिक्षा के सिलेबस नोट्स एवं क्वेश्चन पेपर दिया गया है | यह विषय सभी स्टूडेंट्स का समान होता है | |
VVINOTES.INके इस पेज में महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय बी.एड तृतीय सेमेस्टर के पेपर -304 समावेशी शिक्षा के सिलेबस , समावेशी शिक्षा नोट्स , समावेशी शिक्षा क्वेश्चन पेपर दिया गया है |
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In this page of VVINOTES.IN, Mahatma Gandhi Kashi Vidyapeeth University B.Ed Third Semester Paper-304 Inclusive Education Syllabus, Inclusive Education Notes and Inclusive Education Question Paper is given.
विषय | समावेशी शिक्षा सिलेबस
SAMAAVESHEE SHIKSHA SYLLABUS |
SUBJECT | Inclusive Education Syllabus |
पेपर कोड | 304 |
विश्वविद्यालय | महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय |
कोर्स | बी.एड |
सेमेस्टर | तृतीय सेमेस्टर |
FULL MARKS | 50 |
lnfo | यहाँ महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय बी.एड तृतीय सेमेस्टर के पेपर -304 समावेशी शिक्षा के सिलेबस दिया गया है | यह विषय सभी स्टूडेंट्स का समान होता है | इसे जल्द जोडा जायेगा | |
विषय | समावेशी शिक्षा नोट्स
SAMAAVESHEE SHIKSHA NOTES |
SUBJECT | Inclusive Education Notes |
पेपर कोड | 304 |
विश्वविद्यालय | महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय |
कोर्स | बी.एड |
सेमेस्टर | तृतीय सेमेस्टर |
FULL MARKS | 50 |
lnfo | यहाँ महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय बी.एड तृतीय सेमेस्टर के पेपर -304 समावेशी शिक्षा के नोट्स दिया गया है | यह विषय सभी स्टूडेंट्स का समान होता है | |
इकाई-I
लघु उत्तरीय प्रश्न
(Short Answer Type Questions)
नोट : प्रश्न संख्या 1 (a से j) लघु उत्तरीय प्रश्न है। परीक्षार्थियों को सभी दस प्रश्नों का उत्तर देना अनिवार्य है। प्रत्येक प्रश्न के लिए 2 अंक निर्धारित हैं। (10 x 2 = 20 अंक)
प्रश्न 1. निम्नलिखित प्रश्नों के लघु उत्तर दीजिए-
प्रश्न a (i) समावेशी शिक्षा का अर्थ बताइए ।
अथवा
समावेशीकरण।
अथवा
समावेशी शिक्षा से आप क्या समझते हैं?
उत्तर- विशिष्टता की कमी या अपरिपूर्णता आधुनिक वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों व शिक्षाविदों के अनुसार एक विशिष्टता ही है, जो कि आगे जाकर किसी भी मनुष्य के लिए ‘आवश्यकता’ की जननी बन सकती है। इस आवश्यकता को पूर्ण कर मनुष्य को विकास करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।
विकास को शिक्षा के माध्यम से सर्वांगीण रूप प्रदान किया जा सकता है। परन्तु प्रश्न यह उठता है कि इन विशिष्टताओं की पूर्ति कैसे की जाए?
इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि समाज एवं राष्ट्र इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा, कर सकते हैं। समाज व राष्ट्र द्वारा की गई विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों की व्यवस्था एवं प्रणाली से विशिष्टता के नकारात्मक व मनुष्य को विकास में पीछे धकेलने वाले अर्थ को बदला जा सकता है और समाज व राष्ट्र, विद्यालयों, विश्वविद्यालयों आदि की विशिष्टताओं की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में समावेशीकरण सबसे अधिक सहायक सिद्ध हो सकता है। बस आवश्यकता केवल इतनी ही है कि इसको सही एवं व्यापक अर्थों में प्रयोग में लाया जाये।
समावेशीकरण का अर्थ यह भी है कि विद्यालय का कक्षागत परिस्थितियों में नाना प्रकार के उपागम, तकनीक, तरीके आदि का प्रयोग कर विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों के लिए ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न करना जो कि शिक्षा को ग्रहण करने में सुगमता प्रदान कर सकें।
प्रश्न a (ii) समावेशी शिक्षा की परिभाषा दीजिए।
उत्तर- “समावेशी शिक्षा प्रणाली की संरचना तभी की जा सकती है, जब सामान्य विद्यालयों को और भी अधिक समावेशित कर दिया जाए।” दूसरे शब्दों में, “अपने समुदाय के ही अन्दर सभी बच्चों को पढ़ाना और भी बेहतर होगा।”
समावेशी शिक्षा को निम्न परिभाषाओं से भी समझा जा सकता है-
“समावेशी शिक्षा को एक आधुनिक सोच की तरह परिभाषित किया जा सकता है, जो कि शिक्षा को अपने में सिमटे हुए दृष्टिकोण से मुक्त करती है और ऊपर उठाने के लिए प्रोत्साहित करती है।”
“समावेशी शिक्षा अपवर्जन के विरुद्ध एक पहल है।”
“समावेशीकरण शिक्षकों को छात्रों के रूप में विद्यालय व कक्षागत परिस्थितियों के अन्तर्गत उन बालकों के बारे में जानने व प्रशिक्षित होने के लिए तैयार कर देती है जो सामान्य बालकों से अपने स्वरूप में भिन्न एवं विशिष्ट हैं।”
“समावेशी शिक्षा-अधिगम के ही नहीं, बल्कि विशिष्ट अधिगम के नए आयाम खोलती है।”
प्रश्न a (iii) कुसमायोजित बालक का अर्थ बताइए।
उत्तर- कुसमायोजित बालक का अर्थ-व्यक्ति जिस परिवेश में निवास करता है उसकी शिक्षा, विकास व व्यवहार पर उसका प्रभाव पड़ता है। उसकी आवश्यकताएँ भी उसी वातावरण के अनुरूप हो जाती हैं। जब किसी बालक की आकांक्षाएँ उसकी इच्छा के अनुरूप पूर्ण नहीं होती हैं, तब वह कुण्ठाग्रस्त, मानसिक द्वन्द्व, मानसिक रूप से अस्वस्थ जैसी स्थिति में पहुँच जाता है।
कुसमायोजित बालक वे बालक कहलाते हैं जो सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक समस्याओं से स्वयं को घिरा पाते हैं। इन समस्याओं का समाधान करना इनके वश में नहीं होता है।
आइजेन्क व अन्य के अनुसार, “यह वह अवस्था है जिसमें एक ओर व्यक्ति की आवश्यकताएँ तथा दूसरी ओर वातावरण में अधिकारों में पूर्ण असन्तुष्टि होती है अथवा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा इन दोनों अवस्थाओं में असामंजस्य प्राप्त होता है।”
प्रश्न a (iv) समावेशी शिक्षा के कार्य बताइए।
उत्तर- यह विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों की शिक्षा को मुख्य धारा वाली शिक्षा में समाहित करते हुए उनके विकास के हित में भी कार्य करती है। समावेशी शिक्षा ने एक ही युग का प्रारम्भ किया है। यह अपनी प्रकृति में अनूठी है और अति व्यापक भी। समावेशी शिक्षा विशिष्ट शिक्षा से अलग हटकर नहीं बल्कि इसी के साथ एकजुट होकर अपने कार्य करती ही रहेगी जो कि विकासोन्मुख है। समावेशी शिक्षा का कार्यक्षेत्र विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के विकास हेतु कुछ संवेदनशील व व्यावहारिक बिन्दुओं को समाहित किये हुए है। जैसे कि-
(i) विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के व्यक्तित्व का विकास,
(ii) विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के लिए नई शिक्षण विधियों की रचना पर जोर देना,
(iii) अपवर्जन जैसी क्रिया पर विराम लगाना,
(iv) विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के लिए नवीन पाठ्यक्रम का निर्माण करना,
(v) विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के लिए मुख्यधारा वाली शिक्षा से जोड़ना,
(vi) विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के निर्देशन व परामर्श की व्यवस्था करना,
(vii) विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के लिए अधिगम के नए तरीके इजात करना,
(viii) समावेशीकरण के क्षेत्र में अनुसन्धान को बढ़ावा देना
प्रश्न a (v) समावेशी शिक्षा के विषय-क्षेत्र का वर्णन कीजिए।
उत्तर-समावेशी शिक्षा के विषय-क्षेत्र हैं-विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के व्यक्तित्व का विकास, विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के लिए नई शिक्षण विधियों की रचना पर जोर देना, अपवर्जन जैसी क्रिया पर विराम लगाना, विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के लिए नवीन पाठ्यक्रम का निर्माण करना, विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों को मुख्यधारा वाली शिक्षा से जोड़ना, विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के निर्देशन व परामर्श की व्यवस्था करना, विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के लिए अधिगम के नए तरीके इजात करना, समावेशीकरण के क्षेत्र में अनुसंधान को बढ़ावा देना, विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के हित में शिक्षण संस्थानों के प्रशासन की प्रणाली में विशिष्ट शिक्षा के साथ ताल- मेल बैठाते हुए आवश्यक परिवर्तन करना, विशिष्ट एवं अपवर्जित बालकों के समावेश के लिए सरकार द्वारा निर्धारित नीतियों की समीक्षा करना, समावेशीकरण के क्षेत्र में नवीनीकरण हेतु आवश्यक सुझाव देना, समावेशीकरण हेतु शिक्षकों, विद्यालय प्रशासन, विद्यालय के अध्ययन करने वाले, सामान्य छात्रों को एवं कर्मचारियों को विशिष्ट व अपवर्जित बालकों की शिक्षा हेतु तैयार करना ।
प्रश्न a (vi) समावेशी शिक्षा की संकल्पना या प्रत्यय बताइए।
उत्तर- समावेशीकरण शिक्षा के इतिहास में नया नहीं है, इसकी पहुँच को प्राचीन समय में भिन्न व विशिष्ट मनुष्यों को उन मनुष्यों ने प्रताड़ित, शोषित अमानवता कर दबा दिया था जो अपने आपको सबसे भिन्न व अतिविशिष्ट मानसिकता वाले समझते थे। परन्तु ऐसे अमानवीय कृत्यों को अंजाम देते समय यह मनुष्य भूल गए थे कि अगर ये विशिष्ट भिन्न भी हैं तो क्या इनकी विशिष्टता और भिन्नता मनुष्यों की दमनात्मक, रूढ़िवादी और अपने आपको सर्वश्रेष्ठ एवं अन्य विभिन्नता या विशिष्टता से परिपूर्ण मनुष्यों को हीन मानने व समझने वाली थी। परन्तु समय के परिवर्तन के साथ-साथ जब जनसंख्या में वृद्धि हुई तो विशिष्टता के विभिन्न पक्ष जैसे-सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक, योग्य, निर्योग्य आदि सामने आए। जैसे-जैसे मनुष्य के आपसी व्यवहारों में अन्तर होता गया वैसे-वैसे विशिष्टता की मात्रा के आधार पर वर्गीकरण व श्रेणीकरण बढ़ता गया। जिसमें जैसी विशिष्टता की मात्रा पायी गई उसे वैसी ही शिक्षा प्रदान की जाने लगी। लेकिन इस बीच ऐसे बालक भी सामने आए जो शिक्षा शब्द के नाम से भी अपरिचित थे और समय के परिवर्तन की माँग को देखते हुए इन बालकों को अपनाने के लिए विद्यालय, समाज या राष्ट्र समावेशन की ओर कदम बढ़ाने लगे जिसके फलस्वरूप आज इतने प्रयासों के बाद कहीं शिक्षा के अर्थों को समय-समय पर शिक्षाविदों द्वारा बदले जाने के बाद समावेशीकरण का मुद्दा अपना सिर उठा पाया है।
प्रश्न a (vii) समावेशी शिक्षा में शिक्षकों के विचार एवं क्षमताएँ बताइए । अथवा समावेशी शिक्षा में शिक्षक की क्या भूमिका है?
उत्तर-समावेशीकरण का प्रत्यय इतना व्यापक है कि इसे मूर्त रूप से परिवर्तित करने के लिए समाज के दृष्टिकोण में परिवर्तन आवश्यक है, यदि समाज समावेशीकरण चाहता है तो उसे सामान्य व विशिष्ट बालकों के मध्य भेदभाव को समाप्त करना होगा। जब तक भेदभाव समाप्त नहीं होगा, तब तक समावेशीकरण सम्भव नहीं है।
समाज के सभी नागरिकों को समावेशीकरण के लिए अग्र पंक्ति में खड़ा होना आवश्यक है तथा वे स्वयं कर्त्तव्य समझकर समावेशीकरण में सहयोग प्रदान करें व इसी कड़ी में शिक्षक जो कि समाज का एक ऐसा सदस्य होता है जो स्वयं समाज का व भविष्य का निर्माणकर्त्ता होता है, शिक्षकों को स्वयं में अपने कर्त्तव्य के प्रति ईमानदार होना चाहिए। उसे स्वयं में महसूस करना होगा कि सामान्य व विशिष्ट बालक एक ही समाज के सदस्य हैं, उनमें भेदभाव सम्भव नहीं है। अतः वह स्वयं भेदभाव कैसे कर सकता है, इसके लिए उसमें आत्मीयता होना अत्यन्त आवश्यक है। जब कोई विशिष्ट बालक, हमारा अपना भाई, बहन अथवा परिवार का अन्य सदस्य होता है तब हम उसके प्रति सहानुभूति रखते हैं। उसकी सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। परन्तु यही परिस्थिति समाज के किसी अन्य सदस्य के साथ घटित होती है तो वहाँ पर हम सहानुभूति नहीं रखते हैं।
प्रश्न (viii) समावेशी शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
अथवा
समावेशी शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर- समावेशी शिक्षा की विशेषताएँ
(i) समावेशी शिक्षा के माध्यम से बालकों में जो गुण विकसित होते हैं, वे उसे समाज का सभ्य नागरिक बनाते हैं।
(ii) सामान्य बालक सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना सीख जाते हैं।
(iii) समूह में कार्य करना, जातिगत, लैंगिक, वर्ग आधारित भेदभाव न रखना सीख जाते हैं।
(iv) शिक्षा ग्रहण करते समय यदि कोई बालक वाक् दोष, श्रवण दोष, दृष्टि दोष आदि किसी भी दोष से पीड़ित हैं और उसका शिक्षक उस छात्र के प्रति सहानुभूति रखता है तो अन्य ज्ञात्र भी शिक्षक का अनुकरण करते हुए विशिष्ट बालकों के प्रति सहानुभूति व प्रेमपूर्ण व्यवहार करने लगते हैं।
(v) विशिष्ट बालकों का वह समूह जिसे सामान्य बालकों के साथ शिक्षित किया जा सकता है. उसे सामान्य बालकों के साथ ही शिक्षित करना चाहिए. इससे वह कुण्ठाग्रस्त नहीं होते हैं।
(vi) विद्यालय समाज का लघुरूप होता है। इसलिए विद्यालय में सभी वर्ग, जाति, शारीरिक,मानसिक, सामाजिक, आर्थिक विशेषताओं वाले बालक शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते हैं, जिससे बालक में सामाजिक गुणों का विकास होता है और एक सामाजिक प्राणी बनता है।
(vi) समावेशी शिक्षा बालक को सामाजिक बनाने के साथ-साथ दूसरों के प्रति उसके कर्त्तव्य का बोध कराती है।
(vii) समावेशी शिक्षा निश्चित करती है कि बालक को शिक्षा का प्रथम तत्त्व माना जाए एवं क्षमतानुसार ही शिक्षा प्रदान की जाए।
प्रश्न : (ix) समावेशी शिक्षा को प्रभावित करने वाले दो कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
(i) भाषा व सम्प्रेषण-
भाषा व सम्प्रेषण ऐसा कारक है, जो उसके (बालक) व्यवहार द्वारा प्रदर्शित होता है। बालक जिस परिवेश से निकलकर विद्यालय में आता है वह उसी भाषा को बोलता व समझता है। धनी परिवारों से आने वाले (उच्च सामाजिक-आर्थिक स्तर) बालकों का शब्दकोश अधिक व निर्धन परिवारों (निम्न सामाजिक-आर्थिक स्तर) से आने वाले बालकों का शब्दकोश कम होता है। वर्तमान समय में अधिकतर विद्यालयों का माध्यम अंग्रेजी होता है जो कि बालकों के लिए समस्या का रूप धारण करता है जो निम्न सामाजिक-आर्थिक परिवारों से हैं। ऐसी समस्या आने पर वह अपने समूह में स्वयं को कम पाते हैं जिससे वे कुण्ठाग्रस्त होने लगते हैं
(ii) वित्तीय संसाधन-
समावेशीकरण के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि समय-समय पर बालकों की आवश्यकता पूर्ति, आवश्यक संसाधनों की पूर्ति की जाती रहे तथा इन संसाधनों की पूर्ति के लिए वित्त की व्यवस्था होना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि सारे उपकरणों, संसाधनों को वित्त से ही पूर्ण करना सम्भव है, इसके अभाव में समावेशन शून्य की स्थिति में आ जाता है। जैसे-यदि कोई बालक दृष्टिकोण, श्रवण दोष, अस्थि विकलांगता से पीड़ित है तो उसे क्रमशः नजर का चश्मा, श्रवण यंत्र, वैशाखी अथवा ट्राई-साइकिल की आवश्यकता पड़ेगी। इन उपकरणों की खरीद तभी सम्भव हो पाती है, जब हमारे पास वित्तीय संसाधन हों। इन संसाधनों की पूर्ति केन्द्र/ राज्य सरकार एवं अन्य समाजसेवी संगठनों द्वारा अंशदान के रूप में दी गई राशि से की जा सकती है
प्रश्न a (x) समावेशी शिक्षा के अवरोध क्या हैं? विस्तार से लिखिए।
उत्तर- समावेशी शिक्षा के निम्न अवरोध हैं—
1. समावेशी बालकों को समझने की समस्या-
किसी बालक को शिक्षा प्रदान करने से पहले उसके व्यक्तित्व को समझना अत्यन्त आवश्यक है। यह समावेशी बालकों के लिए तो अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि विशिष्ट बालक की विशेषताएँ साधारण बालकों की तुलना में अधिक तीव्र व विचित्र हैं। इन बालकों के माता-पिता व शिक्षकों को चाहिए कि वह बालक को समझाएँ कि वे भी ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें सभी के समान आदर, विश्वास, स्नेह और सुरक्षा चाहिए। समावेशी बालकों के व्यक्तित्व के विषय में पूर्ण जानकारी एवं समझ शिक्षकों के लिए समावेशी बालकों के शिक्षण एवं प्रशिक्षण की प्रक्रिया को सरल प्रगतिशील एवं रुचिकर बना देगी।
2. औपचारिक शिक्षा की समस्या-
समावेशी बालकों को भी सामान्य बालकों के समान औपचारिक शिक्षा की आवश्यकता होती है। उनके लिए व्यवस्था करनी चाहिए कि उन्हें कम-से-कम पढ़ने, लिखने और साधारण गणित का ज्ञान हो जाये। आधुनिक शैक्षिक तकनीकी ने ऐसी विधियों, तकनीकों एवं उपकरणों का आविष्कार किया है जिनकी सहायता से विकलांग बच्चों को भी औपचारिक शिक्षा दी जा सकती है जिनकी सहायता से बालकों की शिक्षा का स्तर उनके शारीरिक एवं मानसिक स्तर के अनुरूप होना चाहिए। औपचारिक शिक्षा हेतु स्कूल में अति समावेशी वातावरण की नहीं, बल्कि समावेशी प्रशिक्षित शिक्षक की नितान्त आवश्यकता है।
3. व्यावसायिक प्रशिक्षण की समस्या-
समावेशी बालकों के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण भी आवश्यक है किन्तु ये समावेशी शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य नहीं होना चाहिए। विकलांग बालकों को रोजगारपरक काम-धन्धों में प्रशिक्षित करने की व्यवस्था होनी चाहिए। इन्हें जैसे—संगीत, टाइप- राइटिंग, कताई-बुनाई, सिलाई-कढ़ाई, धुनाई, पाक-विद्या आदि कार्यों में प्रशिक्षित करना चाहिए।
प्रश्न b (i) सामान्य बालक की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-सामान्य बालक-सामान्य बालक वे बालक होते हैं जिनका IQ 90 से 110 के मध्य होता है। ये अध्ययन में रुचि रखते हैं एवं शिक्षकों द्वारा पढ़ाए गये पाठ को ध्यानपूर्वक समझते, पढ़ते व कण्ठस्थ करते हैं। पढ़ने के साथ-साथ पाठ्यसहगामी क्रियाओं में भाग लेना, खेल-कूद प्रतियोगिता व अन्य प्रतियोगिताओं में सहभागिता निभाना, सभी विषयों पर ध्यान देने के साथ शिक्षकों का आदर, सहपाठियों के साथ समायोजन, प्रेमपूर्ण व्यवहार करना इनकी प्रमुख विशेषताएँ हैं। सामान्य बालक की विशेषताओं का बिन्दुवार वर्णन निम्नलिखित है-
(i) इन बालकों का आकांक्षा स्तर मध्यम होता है।
(ii) ये बालक ऐसा कोई व्यवहार नहीं करते, जिससे दूसरों को परेशानी हो।
(III) अध्ययन में रुचि रखते हैं, सभी विषयों को समान रूप से पढ़ते हैं।
(iv) इनका शैक्षिक प्रदर्शन औसत स्तर का होता है।
(v) ये सकारात्मक व नकारात्मक संवेगों में सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं।
(vi) सामाजिक कार्यों में रुचि लेना।
(vii) परिवार, समाज व राष्ट्र के द्वारा बनाए नियमों का पालन करना।
(viii) अवसर का लाभ उठाना।
(ix) शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ होना ।
(x) कक्षा में औसत स्तर का होना।
(xi) खेलकूद प्रतियोगिताओं में भाग लेना व सहयोग प्रदान करना ।
प्रश्न b (ii) समावेशी अधिगम को सुगम बनाने के लिए विद्यालय की बिल्डिंग को कैसे बनाया जाना चाहिए?
उत्तर- स्कूल भवन का ढाँचा तथा उसकी योजना बनाते समय निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना चाहिए-
(i) स्कूल भवन का ढाँचा तथा उसकी योजना बनाते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि स्कूल कम-से-कम खर्च पर तैयार हों।
(ii) इसके द्वारा समाज को आगामी समय के लिए एक दीर्घकालीन योजना की क्षमता प्राप्त होगी।
(iii) योजना बनाते समय आर्थिक व्यय का बोझ राज्य सरकार की अपेक्षा स्थानीय जनता का होना चाहिए।
(iv) योजना बनाने से छात्र, अध्यापक, अभिभावक, राज्य सरकार आदि मिल-जुलकर समुचित ढंग से उसे पूरा कर सकें।
(v) योजना बनाने के समय कृषि के लिए भूमि का प्रयोजन हो ।
(vi) खेल का मैदान हो ।
(vii) मुख्य अध्यापक का कमरा तथा दफ्तर-रिकार्ड कक्ष, पुस्तकालय एवं अध्यापक वर्ग का कक्ष उचित स्थान पर होने चाहिए।
(viii) पानी पीने का नल तथा स्टोर कक्ष की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
(ix) वाचनालय के रूप में प्रयुक्त होने वाला बरामदा होना चाहिए।
(x) आगामी विस्तार के लिए भवन में समुचित स्थान होना चाहिए।
(xi) क्रीड़ा के लिए पर्याप्त स्थान होना चाहिए।
(xii) सामाजिक मनोरंजनात्मक गतिविधियों के लिए उचित भूमि हो ।
(xiii) अस्वस्थ बालकों के लिए अस्पताल और वाचनालय जैसी सामाजिक सुविधाएँ स्कूल प्रांगण में उपलब्ध होनी चाहिए।
(xiv) समाज की सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए अनुकूल स्थान होना चाहिए।
(xv) अध्यापक वर्ग के लिए उद्यान हेतु उचित स्थान हो ।
प्रश्न b (iii) राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना (NCF) 2005 की मुख्य बाधाओं का उल्लेख करें।
उत्तर-
राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना, 2005 की प्रमुख बाधाएँ
राष्ट्रीय पाठ्यक्रम सन् 2005 के निर्माण में तथा इसके सफलतम क्रियान्वयन में अनेक प्रकार की बाधायें उत्पन्न हुई हैं, जिनका समाधान करना अनिवार्य है। पाठ्यक्रम के निर्माण करने तथा उसके क्रियान्वयन को पूर्णतः समस्याओं से रहित होना चाहिये, जिससे उसको क्रियान्वित करने वालों के
समक्ष किसी भी प्रकार की समस्या न हो। राष्ट्रीय पाठ्यक्रम सन् 2005 की सरंचना एवं क्रियान्वयन सम्बन्धी प्रमुख समस्यायें निम्नलिखित हैं-
1. शिक्षक सम्बन्धी समस्याएँ –
पाठ्यक्रम का निर्माण उचित शिक्षक संख्या के आधार पर किया जाता है, जबकि शिक्षक कम संख्या में होते हैं, जिससे पाठ्यक्रम का क्रियान्वयन उचित प्रकार से नहीं होता है। पाठ्यक्रम में प्रस्तुत अनेक बिन्दुओं पर शिक्षकों की संख्या सम्बन्धी समस्या उत्पन्न हो जाती है; जैसे छात्र को प्रारम्भ के दो वर्षों में मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करनी चाहिये। यह सुझाव राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 का है, परन्तु शिक्षकों की उपलब्धता जो कि विभिन्न भाषाओं का ज्ञान रखते हों, सम्भव नहीं है क्योंकि एक विद्यालय में भोजपुरी हिन्दी एवं उर्दू मातृभाषा के छात्र पाये जा सकते हैं। द्वितीय स्तर पर विद्यालयों की संख्या तो अधिक है परन्तु शिक्षकों की संख्या नगण्य है।
2. भाषाओं की समस्या-
भाषा की समस्या राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना सन् 2005 के समय की उत्पन्न हुई कि शिक्षण का माध्यम कौन-सी भाषा हो ? कौन-सी भाषा को पाठ्यक्रम में प्रमुख स्थान प्रदान किया जाये ? भारतीय समाज में अनेक प्रकार की भाषाओं का प्रचलन होने के कारण भाषाओं ने विवाद की स्थिति उत्पन्न कर दी है। प्रत्येक राज्य अपनी भाषा की उपेक्षा का दोष लगाना आरम्भ कर. देता है कि उसकी भाषा को पाठ्यक्रम में उचित स्थान प्रदान नहीं किया जा रहा है। भाषा विवाद की जो स्थिति प्रारम्भ में थी, वही समस्या आज भी विद्यमान है।
3. धर्म सम्बन्धी समस्याएँ —
धर्म सम्बन्धी समस्या राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना, 2005 की प्रमुख समस्या रही है। राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की संरचना करते समय धन की सीमितता को ध्यान में रखना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप पाठ्यक्रम में उन विषयों का समावेश नहीं हो पाता है जिनकी आवश्यकता अनुभव की जाती है, जैसे वर्तमान समय में कम्प्यूटर की सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक शिक्षा प्राथमिक स्तर से ही प्रदान करनी चाहिये। इसके लिए विद्यालयों में कम्प्यूटर की व्यवस्था होनी चाहिये, परन्तु धनाभाव के कारण यह सम्भव नहीं हो पाता है।
4. संसाधनों का अभाव-
भारत एक विशाल देश होने के कारण संसाधनों का अभाव पाया जाना स्वाभाविक है। संसाधनों के अभाव में महत्त्वपूर्ण विचार-विमर्श न होने के कारण संसाधनों का अभाव पाठ्यक्रम संरचना में एक प्रमुख बाधा है।
5. वैश्वीकरण का प्रभाव-
वैश्वीकरण का नकारात्मक प्रभाव भी पाठ्यक्रम संरचना की एक प्रमुख समस्या है। वैश्वीकरण के कारण प्रत्येक देश के पाठ्यक्रम शिक्षा-व्यवस्था, शिक्षा दर्शन एवं उद्देश्यों का ज्ञान दिया जाता है। अतः भारत के पाठ्यक्रम निर्माता भी विश्वस्तरीय पाठ्यक्रम निर्माण करने के प्रयत्न में लगे रहते हैं। संसाधन एवं विस्तृत सोच के अभाव के कारण पाठ्यक्रम का स्वरूप विश्व स्तर पर श्रेष्ठ गणना में नहीं आ पाता है।
प्रश्न b (iv) प्रतिभाशाली बच्चों के शिक्षण के लिए क्या व्यवस्था होनी चाहिए?
प्रतिभाशाली बालकों की शिक्षा का स्वरूप
उत्तर-
प्रतिभावान बालकों की शिक्षा का क्या स्वरूप होना चाहिए इसके लिए Havighurst ने अपनी पुस्तक ” A Survey of the Education of Gifted Children’ में लिखा, “प्रतिभावान बालकों के लिए शिक्षा का सफल कार्यक्रम नहीं हो सकता है, जिसका उद्देश्य विभिन्न योग्यताओं का विकास करना न हो।” इस कथन के अनुसार प्रतिभावान बालकों के कार्यक्रम का स्वरूप निम्नवत् होना चाहिए-
1. सामान्य रूप से पदोन्नति-
कुछ मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि प्रतिभावान बालकों को एक वर्ष में दो बार कक्षोन्नति दी जानी चाहिए। इसके विपरीत दूसरे मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि ऐसा करना, उनको सीखने की प्रकिया के ‘क्रमिक विकास’ के लाभ से वंचित करना है। उनका विचार है कि यह आवश्यक नहीं है कि उनकी सब विषयों में विशेष योग्यता हो। ऐसी दशा में उच्च शिक्षा में पहुँचकर, उसमें असमायोजन उत्पन्न हो सकता है। क्रो व क्रो का सुझाव है, “प्रतिभावान बालक का सामान्य रूप से विभिन्न कक्षाओं में अध्ययन करना चाहिए।” दूसरे शब्दों में, इनके अनुसार प्रतिभावान बालकों को वर्ष के अन्त में उसी प्रकार पदोन्नति दी जानी चाहिए जिस प्रकार अन्य बालकों को दी जाती है।
2. विशेष एवं विस्तृत पाठ्यक्रम –
एक वर्ष में दो बार उन्नति देने की बजाय प्रतिभावान बालकों के लिए विशेष एवं विस्तृत पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए। इस पाठ्यक्रम
में अधिक व कठिन विषय होने चाहिए, ताकि वे अपनी विशेष योग्यताओं के कारण अधिक ज्ञान का अर्जन कर सकें। इस सम्बन्ध में स्किनर ने लिखा है “इन बालकों के पाठ्यक्रम का निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिए, जिससे उनकी मौखिक योग्यता, सामान्य मानसिक योग्यता और तर्क, चिन्तन और रचनात्मक शक्तियों का अधिकतम विकास हो सके। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उनको खोज, मौखिक और स्वतंत्र कार्यों, क्रियात्मक और प्रयोगात्मक कार्यों के लिए उत्तम अवसर प्रदान किये जाने चाहिए। ”
3. शिक्षक का व्यक्तिगत ध्यान-
प्रतिभावान बालकों के प्रति शिक्षक को व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना चाहिए। उसे उनको नियमित रूप से परामर्श एवं निर्देशन देना चाहिए। इन विधियों का अनुसरण करके ही वह उनको उनकी विशेष योग्यताओं के अनुसार प्रगति करने के लिए अनुप्रभावित एवं अनुप्रेरित कर सकता है।
4. चुनाव व वर्गीकरण-
प्रतिभावान बालकों की उचित शिक्षा हेतु सर्वप्रथम यह पता लगाना आवश्यक है कि किस ‘कक्षा’ में कौन-कौन से बालक प्रतिभावान हैं। इन बालकों का चुनाव निम्न आधार पर किया जा सकता है, जैसे- (1) बुद्धि परीक्षाएँ, (2) व्यक्तित्व परीक्षाएँ, (3) उपलब्धि व निष्पत्ति परीक्षाएँ, (4) पूर्व कक्षाओं के प्राप्तांक, (5) शिक्षकों एवं माता-पिता की सम्मतियाँ आदि।
प्रश्न b (v) एकीकृत शिक्षा किसे कहते हैं?
अथवा
एकीकृत शिक्षा क्या है?
उत्तर- शिक्षाशास्त्रियों व मनोवैज्ञानिकों में इस बात को लेकर मतभेद रहा है कि विशिष्ट बच्चों को शिक्षा विशिष्ट विद्यालयों में दी जाये या सामान्य विद्यालयों में सामान्य विद्यार्थियों के साथ दी जाये। असमर्थ बच्चों के लिए ‘विशेष विद्यालयों’ की शुरुआत 18वीं शताब्दी में हुई थी, लेकिन मनोवैज्ञानिकों ने यह महसूस किया कि विशिष्ट बच्चों को सामान्य विद्यालयों में ही पढ़ाया जाना चाहिए ताकि उनमें हीन भावना न आये और वे समाज की मुख्य धारा से अलग न हों।
समाकलित शिक्षा का प्रत्यय अभी नया है। अमेरिका में 1975 ई० में अमेरिकन कांग्रेस ने ‘प्रत्येक अक्षम बच्चे को शिक्षा’ का एक कानून पास किया था। इस कानून का मुख्य उद्देश्य असमर्थ बच्चों को देश की मुख्य धारा से जोड़ना था।
भारत में भी ‘समाकलित शिक्षा’ अमेरिका के ‘मुख्य धारा आन्दोलन’ का ही परिणाम है। इस बात पर अधिक जोर दिया जा रहा है कि कम अपंग बालकों को विशेष शिक्षा की नहीं, अपितु समाकलित या एकीकृत शिक्षा की आवश्यकता है।
बीसवीं शताब्दी के अन्त तक नये विचारों व नई तकनीकों ने विकलांग बच्चों की शिक्षा के नये रास्ते खोल दिये। यह महसूस किया गया कि कम व मध्यम श्रेणी के विकलांग बच्चों को अतिरिक्त सहायता का प्रबन्ध करके, जैसे-विशेष कक्षाएँ, विशेष अध्यापक आदि की सहायता से सामान्य बच्चों के साथ शिक्षित किया जा सकता है। लागत व विषय-वृतान्त के सन्दर्भ में भी यह कम खर्चीली है। समता व अवसरों की समानता के सिद्धान्तों के अनुसार भी विकलांग बच्चों के लिए एकीकृत शिक्षा की धारणा ही उत्तम है।
एकीकृत शिक्षा की आवश्यकता एवं विशेषताएँ
एकीकृत शिक्षा में विकलांग बच्चे को सामान्य विद्यालय के अंतर्गत विशेष कक्षा में पढ़ाया जाता है। विकलांग बच्चे अलग कक्षा में तो पढ़ते हैं परन्तु कक्षा के बाहर दूसरे कार्य सामान्य बच्चों के साथ करते हैं। एकीकृत शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विकलांग बच्चों को अलग शिक्षा जो कि विशेष शिक्षा के रूप में होता था, को हटाकर उनको सामान्य विद्यालय के सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा देना है।
एकीकृत शिक्षा चार प्रकार के सीखने के सिद्धान्त पर बल देती है, जो है-
(i) जानने के लिए सीखना;
(ii) करने के लिए सीखना;
(iii) एक साथ रखने के लिए सीखना;
(iv) पूरे शिक्षा के एकीकरण के लिए सीखना।
प्रश्न b (vi) समन्वित शिक्षा की प्रकृति स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
(1) यह शिक्षा अपंग व सामान्य बालकों के मध्य स्वस्थ सामाजिक वातावरण व सम्बन्ध बनाने में समाज के प्रत्येक स्तर पर सहायक है।
(2) यह शिक्षा ‘सबके लिए शिक्षा’ के अधिकार का अनुपालन करती है। यह शिक्षा जाति, रंग व धर्म आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करती है।
(3) समन्वित शिक्षा द्वारा समर्थ व असमर्थ बच्चे एक-दूसरे के नजदीक आते हैं जिससे विद्यालय का वातावरण अच्छा बनता है।
(4) यह शिक्षा अपंग बच्चों को कम प्रतिबंधित व अधिक प्रभावी वातावरण उपलब्ध कराती है, जिससे वे सामान्य बालकों के समान जीवनयापन कर सकें।
(5) समन्वित शिक्षा द्वारा जो सुविधाएँ सामान्य बालकों को प्रदान की जाती हैं वही सुविधाएँ असमर्थ बालकों को भी प्रदान की जाती हैं।
(6) यह शिक्षा असमर्थ बालकों को उनके व्यक्तित्व की पहचान के आधार पर व्यवहार करती है, उनकी बाधिता के अनुसार नहीं।
(7) समन्वित शिक्षा माता-पिता, अध्यापकों व शिक्षाविदों के सामूहिक प्रयास पर आधारित है।
(8) समन्वित शिक्षा कम खर्चीली है तथा सामाजिक एकीकरण को सुनिश्चित करती है। ‘
प्रश्न b (vii) समाकलित शिक्षा का महत्त्व।
उत्तर-
1. प्राकृतिक वातावरण-
सामान्य विद्यालयों के असमर्थ बच्चों को प्राकृतिक वातावरण प्राप्त होता है। असमर्थ बच्चे समर्थ बच्चों के साथ रहते-रहते अपने आपको सहजता से उनके साथ समायोजित कर लेते हैं।
2. मानसिक विकास-
विशिष्ट बच्चों को विशेष विद्यालयों व प्रशिक्षित अध्यापकों द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती है। इससे उनमें हीन भावना पैदा होती है कि हमें सामान्य बच्चों के साथ क्यों नहीं पढ़ाया जा रहा है। इस बात का उन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, लेकिन समन्वित शिक्षा विशिष्ट बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ सामान्य विद्यालयों में प्रदान की जाती है. इससे उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न होता है।
3. समानता का सिद्धान्त-
हमारे संविधान में प्रत्येक बालक के लिए समान शिक्षा देने की बात कही गयी है, बिना किसी भेदभाव के। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए समन्वित शिक्षा की आवश्यकता है।
4. कम खर्चीली –
विशिष्ट शिक्षा देने के लिए विशेष अध्यापक, विशेष प्रकार की शिक्षण विधियाँ, विशेष पाठ्यक्रम व विशेष शिक्षा-व्यवस्था की आवश्यकता होती है जो काफी खर्चीली होती है। इसके अतिरिक्त समाकलित शिक्षा सामान्य विद्यालयों में प्रदान की जाती है जो कम खर्चीली है
प्रश्न b (viii) समावेशी प्रणाली में बाधा उत्पन्न करने वाली प्रथाएँ बताइए।
उत्तर-
(i) समावेशी प्रणाली में बाधा उत्पन्न करने वाली प्रथाएँ समावेशी विद्यालयों के निर्माण की बजाए विशिष्ट स्कूलों पर अधिक जोर देना
(ii) शिक्षक केन्द्रित शिक्षा पर जोर देना, जबकि बाल केन्द्रित शिक्षा को कोई जगह न देना।
(iii) कक्षागत परिस्थितियों में सामान्य बालकों पर शिक्षक द्वारा अधिक जोर दिया जाना व विशिष्ट बालकों को महत्त्व न देना।
(iv) शिक्षकों की अभिवृत्ति विशिष्टता की ओर सकारात्मक होना।
(v) सामान्य विद्यालयों में समावेशी वातावरण हेतु संसाधन का उपलब्ध न होना ।
(vi) शिक्षकों की विशिष्ट शिक्षा में दक्षता व समझ का अभाव होना।
(vii) शिक्षकों के प्रशिक्षण की योजनाओं को समय-समय पर परिष्कृत न करना ।
(viii) शिक्षकों का समावेशी शिक्षा में रुचि व जागरूकता का न होना ।
(ix) शिक्षकों का आपसी मन-मुटाव व एक-दूसरे के साथ समावेशीकरण की प्रक्रिया में समायोजन न कर पाना।
(x) सरकारी व गैर-सरकारी संगठनों द्वारा आवश्यक कार्यक्रम जो समावेशी वातावरण को तैयार करते हैं, उनका क्रियान्वयन न किया जाना व विशिष्ट बालकों को अलग वातावरण में रखकर अध्ययन करवाना, समावेशीकरण में बाधक हैं।
प्रश्न c (i) मानसिक रूप से भिन्न बालक ।
उत्तर- मानसिक रूप से भिन्न बालक-इस वर्ग में वे बालक आते हैं, जो सामान्य बौद्धिक क्षमता से कम अथवा अधिक कुशलता रखते हैं। मानसिक रूप से भिन्न बालकों में प्रतिभाशाली, सृजनात्मक व मंद बुद्धि बालकों को सम्मिलित किया गया है।
मानसिक रूप से भिन्न बालक में निम्न व असाधारण दोनों प्रतिभा वाले बालक आते हैं। येँ बालक सामान्य बालकों से भिन्न होते हैं। इनकी आवश्यकताएँ भी भिन्न होती हैं, इनके कार्यों एवं व्यवहार द्वारा विशिष्टता अलग ही प्रतीत होती है। ये अपने कार्यों को बहुत ही शीघ्र अथवा निम्न गति से करते हैं।
जिन बालकों की बुद्धिलब्धि 120 से ऊपर होती है वे प्रतिभाशाली बालक तथा जिन बालकों की बुद्धिलब्धि 90 से कम होती है वे मानसिक रूप से पिछड़े बालकों की श्रेणी में आते हैं।
प्रतिभाशाली बालक अपने कार्यों को शीघ्रता के साथ-साथ आकर्षक ढंग से करते हैं। इस वर्ग में प्रतिभाशाली बालक, सृजनात्मक बालक व मन्द बुद्धि बालक आते हैं।
मानसिक रूप से भिन्न बालकों की विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-
• इस वर्ग में आने वाले बालकों की पहचान उनकी बुद्धिलब्धि व उनके कार्य करने की शैली से की जा सकती है।
• शिक्षण कक्ष में शिक्षक द्वारा बताई गई बातों को तुरन्त समझ लेते हैं अथवा काफी समय लगाते हैं।
• संवेगों में स्थिरता पायी जाती है।
• इनका बौद्धिक स्तर अत्यधिक उच्च अथवा निम्न होता है।
• मानसिक रूप से विशिष्ट बालक के अन्तर्गत जिन बालकों को रखा गया है उनकी बौद्धिक क्षमता भिन्न-भिन्न होती है।
प्रश्न c (ii) समावेशी शिक्षा के सिद्धान्त।
उत्तर- समावेशी शिक्षा को मुख्यतः निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित किया गया है-
1. विशिष्ट कार्यक्रमों द्वारा शिक्षा-
विशिष्ट शिक्षा हेतु कई विशिष्ट कार्यक्रमों को किया जाता है। शारीरिक रूप से बाधित छात्रों की शिक्षा हेतु उनके माता-पिता को विद्यालय का पूर्ण लागू सर्वे करने का अधिकार प्राप्त होता है। यदि माता-पिता शिक्षण संस्था की कार्यप्रणाली से सन्तुष्ट नहीं होते हैं तो वह इच्छानुसार बालकों को शिक्षण संस्थाओं से निकालकर किसी अन्य शिक्षण संस्था में भेज सकते हैं। अतः विशिष्ट बालकों को विशिष्ट कार्यक्रमों के द्वारा ही उचित शिक्षा प्रदान की जा सकती है।
2. वातावरण नियन्त्रणपूर्ण होना-
जहाँ तक उचित हो, प्रत्येक शारीरिक बाधित बालकों को निःशुल्क उपयुक्त शिक्षा मिलनी चाहिये। सामान्यतः शिक्षा संस्थाओं में किसी बालक को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने का विकल्प किसी विद्यालय की व्यवस्था में नहीं है।
3. व्यक्तिगत रूप से भिन्नता-
व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक व्यक्तियों में भिन्नता पाई जाती है। यह भिन्नता रंग, रूप तथा व्यक्तित्व आदि में पाई जाती है। विशिष्ट बालकों को उनके व्यक्तित्व आदि के अनुसार ही शिक्षित किया जाता है। जैसे प्रतिभावान छात्रों को अधिक विस्तारपूर्वक पढ़ाया जाता है तथा मन्द बुद्धि व मन्द अधिगम बालकों को प्रत्येक कार्य को धीरे-धीरे सिखाया जाता है तथा कुछ बालक ऐसे होते हैं, जो बिल्कुल भी रुचिपूर्ण तरीकों से पढ़ाई नहीं करते, उनको शिक्षा के प्रति जाग्रत करना ही समावेशी शिक्षा का मुख्य सिद्धान्त होता है। अतः व्यक्तिगत भिन्नताओं के अनुसार ही छात्रों को समावेशी शिक्षा प्रदान की जा सकती है।
4. माता-पिता का सहयोग प्रदान करना-
समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत माता-पिता का सहयोग होना अति आवश्यक है। यदि माता-पिता पूर्णतः सहयोग देंगे तभी विशिष्ट छात्रों को उचित प्रकार से समावेशी शिक्षा प्रदान की जा सकती है।
5. भेदभाव रहित शिक्षा-
भेदभाव रहित शिक्षा हेतु सर्वप्रथम छात्रों की पहचान की जानी अति आवश्यक है क्योंकि इसके आधार पर ही छात्रों को वर्गीकृत किया जा सकता है तथा उन्हें शिक्षा प्रदान की जा सकती है।
प्रश्न c (iii) सभी बच्चों के लिए समावेशी शिक्षा का लाभ।
अथवा – समावेशी शिक्षा आज क्यों आवश्यक है?
उत्तर- 1. विशिष्ट बालकों की समस्याओं को समझने के लिए समावेशी शिक्षा- अभिभावकों, शिक्षकों तथा शिक्षक प्रबन्धक विशिष्ट बालकों की समस्याओं को अच्छी तरह से समझकर विशेष शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये जिससे उन्हें लाभ प्राप्त हो ।
2. समस्यात्मक बालक बनने से रोकने के लिए समावेशी शिक्षा-यदि विशिष्ट बालकों के लिए विशेष शिक्षा के लिए शिक्षण-विधियों, पाठ्यक्रम एवं शिक्षकों की उचित व्यवस्था नहीं की जाती है तो वह समस्यात्मक बालक बन जाते हैं। इसे दूर करने के लिए विशिष्ट शिक्षा की उचित व्यवस्था उपलब्ध करायी जाती है।
3. कुण्ठा एवं ग्रन्थियों को समाप्त करने के लिए समावेशी शिक्षा-मंदबुद्धि तथा पिछड़े बालक सामान्य कक्षाओं में बार-बार असफल होने के फलस्वरूप हीन ग्रन्थियों से युक्त हो जाते हैं, जिससे कुण्ठा की मात्रा अधिक हो जाती है, जिसके फलस्वरूप उनका विकास अवरुद्ध होने लगता है। इसलिए इनसे मुक्ति पाने के लिए विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता होती है।
4. वैयक्तिक भिन्नताओं के फलस्वरूप समावेशी शिक्षा- बालकों की वैयक्तिक भिन्नतायें इस सीमा तक होती हैं, जिसमें अधिकांश विशिष्ट बालक पूर्णरूपेण विचलित हो जाते हैं। इन्हें सामान्य बालकों की श्रेणी में रखकर शिक्षा देना कठिन होता है। सामान्य शिक्षण पद्धतियों तथा शिक्षा-व्यवस्था से इन्हें लाभ प्राप्त नहीं हो पाता है। नेत्रहीन बालक सामान्य कक्षाओं में लिख-पढ़ नहीं सकते क्योंकि यह देखने में अक्षम होते हैं। इनके लिए अलग विशेष शिक्षा की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार प्रतिभाशाली बालक तथा मन्द बुद्धि बालक सामान्य कक्षाओं से लाभान्वित नहीं हो पाते जिससे इन बालकों के लिए विशेष शिक्षा की व्यवस्था की जाती है।
5. अधिकतम विकास के लिए—जनतन्त्र में विशिष्ट बालकों के लिए शिक्षा इसलिए आवश्यक होती है कि इन बालकों का अधिक से अधिक विकास हो सके ताकि उनमें निहित क्षमतायें प्रस्फुटित हो सकें जिससे कि भविष्य में अच्छे प्रौढ़ बनकर समाज तथा देश को लाभ पहुँचा सकें तथा वे सबके साथ मिलकर कार्य कर सकें।
इकाई-II
प्रश्न c (iv) समावेशी शिक्षा में भेदभाव से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-भेदभाव का अर्थ किसी व्यक्ति अथवा समूह के साथ ऐसा व्यवहार करना जो उसे सामान्य जीवन या अपने अधिकारों के पूरे उपयोग से दूर रखता है
भेदभाव का आधार कुछ भी हो सकता है। जैसे—जाति, रंग, धर्म, भाषा, लिंग, निर्योग्यता, जन्म, आर्थिक स्तर, सामाजिक स्तर व राष्ट्रीयता सम्बन्धी आदि ।
भेदभाव का आधार नकारात्मक प्रवृत्ति, कुण्ठा, अज्ञान इनमें से कोई भी हो सकता है परन्तु इसका प्रभाव समाज पर दीर्घकाल के लिए होता है।
भेदभाव के कारण पृथक्कीकरण या अपवर्जन जैसी प्रक्रियाएँ समाज में पकड़ और तेजी से बना रही हैं जिसके कारण समावेशीकरण की प्रक्रिया अधूरी या अपूर्ण रह जाती है। समाज में बढ़ती भेदभाव की प्रक्रिया को शिक्षा द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है क्योंकि जाति, प्रजाति, संस्कृति, लिंग, धर्म, निर्योग्यता किसी भी आधार पर हो, समाज में अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न करती है
प्रश्न c (v) समावेशी शिक्षा किस प्रकार सामाजिक भेदभाव के नकारात्मक प्रभावों को कम करने का कार्य करती है?
उत्तर-किसी भी व्यक्ति अथवा समूह को किसी भी समाज से उसके धर्म, जाति, प्रजाति, रंग आदि के नाम पर उसके अधिकारों से अलग करना भेदभाव माना जाएगा। भेदभाव मनुष्य होने की गुणवत्ता पर प्रश्न-चिह्न लगाता है। क्योंकि रंग, जाति, प्रजाति यह सब समाज में रहने वाले व्यक्तियों के बनाये गये अपने दायरे हैं। इन दायरों से उठकर सिर्फ सोचा ही नहीं जाएगा बल्कि ठोस कदम भी उठाया जायेगा, तब ही समावेशन सम्भव है।
केवल शारीरिक या मानसिक रूप से कमी होने पर या जाति, धर्म आदि के नाम पर किसी व्यक्ति या वर्ग को अलग कर देना उचित नहीं है। केवल सामाजिक भेदभाव-सामाजिक पृथक्कीकरण के लिए ही जिम्मेदार नहीं है। बल्कि सामाजिक अस्थिरता भी इससे प्रभावित होती है। जिन समूहों अथवा व्यक्तियों का अलग-अलग आधार पर शोषण किया गया, तो वह सबके सामने आ जाता है। उदाहरण के लिए, किन्नर या किन्नरों का समूह भी ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो कि दीर्घकाल से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। क्योंकि समाज ने उन्हें उनकी शारीरिक कमियों की वजह से उन व्यक्तियों के योग्य नहीं समझा जो कि बुद्धिजीवी कहला सके और आज सदियों के शोषण के सहने व शिक्षा के अधिकार से वंचित रहने के बाद कहीं जाकर अब वह अपनी पहचान बना पाए हैं।
ऐसे समाज व समाज की सोच पर आसानी से प्रश्न-चिह्न लगाया जा सकता है कि क्यों किन्नर समाज के लोगों का समावेशीकरण आज तक नहीं हो पाया या समाज ने उन्हें इसलिए नहीं स्वीकार किया कि वह यदि शिक्षा व अधिकार प्राप्त कर लेते हैं तो वे बुद्धिजीवी बन जायेंगे तो समाज में निवास करने वाले उन व्यक्तियों का क्या होगा, जो उनसे घृणा करते हैं।
भेदभाव मनुष्य की समझ का एक नया पक्ष नहीं है, यह उतना ही पुराना है जितना कि मनुष्य के संवेग, जो कि भेदभाव को मनुष्यों की क्रियाओं व व्यवहार में परिलक्षित होते हैं। सामान्य तौर पर सामाजिक भेदभाव का अर्थ है कि किसी-न-किसी कारण (धर्म, जाति, रंग, प्रजाति आदि) सामाजिक संस्थाओं में किसी व्यक्ति अथवा समूह का जाना या वहाँ कार्य करना या उस सामाजिक संस्था से कोई भी सुविधा प्राप्त करना आदि सामाजिक भेदभाव हो सकता है।
सामाजिक संस्थाओं का निर्माण समाज द्वारा समाज के व्यक्तियों के हित एवं विकास हेतु किया जाता है। अतः इनसे किसी भी व्यक्ति या समूह को दूर रखना सामाजिक भेदभाव व सामाजिक पृथक्कीकरण के कारण बालक जो कि उन सामाजिक परिवारों से है वह कहीं-न-कहीं अपने विकास और शिक्षा से दूर रह जाते हैं, अर्थात् नुकसान व अज्ञान में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। जब इस प्रकार के बालकों को शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थानों में प्रवेश नहीं लेने दिया जाता है तो यह शिक्षा की मुख्य धारा से अलग हो जाते हैं।
प्रश्न c (vi) सामाजिक भेदभाव से प्रभावित बालकों की समावेशी शिक्षा पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
1. समावेशीकरण केवल शारीरिक निर्योग्यता या मानसिक निर्योग्यता से पीड़ित या प्रभावित बालकों की समावेशी शिक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें सामाजिक भेदभाव के कारण शिक्षा के अधिकार से दूर रह जाने वाले बालक भी आते हैं।
2. सामाजिक भेदभाव के शिकार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़ा वर्ग के व्यक्ति भी हो जाते हैं।
3. इन सभी का समावेशन सामाजिक भेदभाव को खत्म कर देने में सहायक सिद्ध होगा। समावेशीकरण के लिए इन्हें सामाजिक स्थलों, शैक्षिक संस्थानों पर स्वतंत्रता से आने-जाने की अनुमति दे देनी चाहिए इसके अलावा सामाजिक सुविधाओं का लाभ उठाने का अवसर देना होगा।
4. समावेशी शिक्षा के लिए इन्हें उन सभी बालकों के साथ अध्ययन करने की अनुमति देनी होगी जिन्हें समाज समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने की अनुमति देता है।
5. समाज से भेदभाव के कारण अलग हुए तबकों को मुफ्त किताबें, कपड़े और आवश्यकता पड़ने पर खाना की व्यवस्था सरकार की सहमति से सरकारी या गैर-सरकारी विद्यालयों में कराई जा सकती है।
6. इनके विकास के लिए और समाज के दृष्टिकोण को इनकी शिक्षा के लिए सकारात्मक करना अति आवश्यक है। जिसके लिए समावेशी सम्बन्धी कार्यक्रम, औपचारिक शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा, दूरस्थ शिक्षा आदि को शिक्षित करने के लिए अधिक महत्व देना चाहिए।
प्रश्न c (vii) सामाजिक भेदभाव से प्रभावित बालकों के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के प्रावधान लिखिए।
उत्तर-
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ने इन बालकों की शिक्षा के लिए निम्न प्रावधानों को बताया गया है—
1. अनुसूचित जाति अथवा जनजाति के लिए कस्बों, ग्रामों, पहाड़ी इलाकों व जनजातीय क्षेत्रों में विद्यालय खोले जायेंगे ।
2. इस हद तक प्रयास किये जायेंगे कि इन्हीं की जाति व क्षेत्रों के शिक्षकों को नियुक्त किया जाएगा। 3. दूर-दराज के स्थानों से आने वाले छात्रों को हॉस्टल की सुविधा दी जाएगी।
4. इस वर्ग के छात्रों के लिए आर्थिक सहायता बढ़ा दी जायेगी।
5. जनजातीय क्षेत्रों में क्षेत्रीय भाषा या अंग्रेजी भाषा को पहली भाषा के रूप में अपनाना ।
6. वर्तमान में SSA के तहत् प्राथमिक, उच्च प्राथमिक विद्यालय, आँगनबाड़ी और इन क्षेत्रों में शैक्षिक केन्द्रों को खोलने पर जोर देगा।
7. इन क्षेत्रों के बच्चों को मुफ्त में किताबें, कपड़े व मिड-डे मील देने का प्रयोजन है जो प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्तर पर दिये जाने पर जोर दिया जा रहा है।
8. कोठारी कमीशन और SSA ने भी इनकी शिक्षा हेतु प्रयास की बात कही है।
प्रश्न d (i) शिक्षा में आर्थिक भेदभाव का कारण लिखिए।
उत्तर—
शिक्षा में आर्थिक भेदभाव का अर्थ है कि आर्थिक कारणों के कारण ऐसे बालक जो शिक्षा लेने से वंचित रह गए हैं। आर्थिक भेदभाव किसी भी तरह की आर्थिक कमी के कारण हो सकता है। इस तरह का आर्थिक भेदभाव नौकरी में नियुक्ति पर, कार्यस्थल पर, विद्यालयों में प्रवेश लेने पर देखा जा सकता है। आर्थिक कमी के कारण बालक अपनी शिक्षा में निवेश नहीं कर पाते जिसके कारण वे पढ़ नहीं पाते व गुण को विकसित नहीं कर पाते हैं।
अतः वे शिक्षा की मुख्यधारा से भी दूर हो जाते हैं और भविष्य में जीविकोपार्जन के लिए अपनी जगह नहीं बना पाते हैं। इनमें किसी भी धर्म, जाति, प्रजाति आदि वर्ग के बालक आते हैं।
इन आर्थिक रूप से वंचित बालकों को या आर्थिक रूप से भेदभाव झेल रहे बालकों की समावेशी शिक्षा की सुविधा प्रदान कर उन्हें मुख्य धारा वाली शिक्षा से जोड़ा जा सकता है।
1. समावेशी शिक्षा के लिए इनको सामान्य बालकों के साथ ही कक्षा में ही अध्ययन करवाया जाए।
2. इन्हें अन्य आर्थिक रूप से सम्बद्ध बालकों की तरह ही शिक्षा के अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।
3. इन्हें शिक्षा हेतु आर्थिक रूप से सहायता प्रदान की जानी चाहिए।
4. इन बालकों की शिक्षा की व्यवस्था हेतु NCERT, UGC एवं विभिन्न संगठनों के द्वारा छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है जो कि सराहनीय कार्य है।
5. आर्थिक रूप से कमजोर बालकों की शिक्षा पर आने वाला व्यय भी निश्चित कक्षा तक माफ कर देना चाहिए एवं इनका भार सरकार एवं अन्य संगठनों द्वारा वहन किया जाना चाहिए।
6. गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों से सम्बन्धित बालकों की शिक्षा- व्यवस्था प्रशासन द्वारा की जानी चाहिए।
7. प्रतिभाशाली एवं आर्थिक रूप से कमजोर बालकों को समय-समय पर प्रोत्साहन के रूप में उनके अच्छे कार्य के लिए पुरस्कृत किया जाना चाहिए।
प्रश्न d (ii) शिक्षा में लैंगिक भेदभाव पर प्रकाश डालिए।
उत्तर –
लैंगिक भेदभाव-लैंगिक भेदभाव उसे कहा जाएगा, जहाँ पर किसी व्यक्ति को उसके लिंग के आधार पर शिक्षा के समान अवसर प्रदान न करना। शिक्षा में लैंगिक भेदभाव से दर्शाता है।लैंगिक भेदभाव एक संवेगात्मक मुद्दा, अस्तित्व का मुद्दा और स्वयं आत्म-सम्मान के साथ दूसरे के सम्मान का मुद्दा, जो कि संवेगों के आक्रामक गुबार के साथ एक-दूसरे के अस्तित्व के बिना, भेदभाव के साथ अपनाने का मुद्दा। कौन किससे ज्यादा है इस बात पर ध्यान केन्द्रित न करके समावेश को बढ़ावा देना लैंगिक भेदभाव को कम करने का प्रयत्न है।
हमारे देश में लम्बे समय से महिलाओं की बड़ी संख्या के लिए शिक्षा थी ही नहीं। शिक्षा को ग्रहण करने की अधिकारी केवल वही महिलायें थीं जो कि धनाढ्य परिवार या राजघराने से सम्बन्धित थीं। सबसे ज्यादा महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबन्ध मुस्लिम काल में लगाये गये। इस काल में कुछ ही विदुषी महिलाओं ने शिक्षा ग्रहण की जिसके यदा-कदा परिणाम मिलते हैं ।शिक्षा के अभाव में न तो महिला का विकास हो पाया और न ही उसकी शिक्षा का ।
शारीरिक और मानसिक रूप से शोषण और लैंगिक रूप से भेदभाव के कारण बहुत समय तक यह तबका विकसित नहीं हो पाया।
प्रश्न d (iii) लैंगिक भेदभाव में समावेशी शिक्षा की भूमिका बताइए ।
उत्तर –
समाज में पुरुषों को सदैव ही अग्रिम स्थान मिला हुआ है। हम परिवारों में भी देखते हैं कि लड़के की चाह में कितनी ही बार लड़कियों की गर्भ में ही हत्या (भ्रूण हत्या) कर दी जाती है। उसे इस दुनिया में आने से पहले ही मार दिया जाता है और प्रायः ऐसा देखा जाता है कि जिन परिवारों में केवल लड़कियाँ होती हैं तो लड़कियों को हमेशा निम्न दृष्टि से देखा जाता है। लड़कियों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता। उनकी सुरक्षा पर भी कोई ध्यान नहीं दिया जाता जिससे उनका सम्पूर्ण विकास बाधित होता है और वे हीन भावना से ग्रसित हो जाती हैं। इस लिंग भेदभाव को दूर करना होगा। समावेशी शिक्षा के द्वारा लड़कियों को उचित शिक्षा देकर एवं उनका मार्गदर्शन करके उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाया जा सकता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक, आर्थिक एवं लिंग भेद-भाव समावेशी शिक्षा को आधार प्रदान करते हैं। यदि समाज को इन क्षेत्रों की समस्याओं से समाधान चाहिए तो समावेशी शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। इसलिए समावेशी शिक्षा को और उन्नत बनाने के लिए हर स्तर पर शोध एवं समझ की आवश्यकता है जिसमें समाज, विद्यालय, परिवार एवं सरकार सभी को एक उद्देश्य के साथ एक साथ मिलकर चलना होगा।
प्रश्न d (iv) समावेशी शिक्षा में लिंगों में भेदभाव के कारण उत्पन्न लक्षण बताइए।
उत्तर-
समावेशी शिक्षा में लिंगों में उत्पन्न भेदभाव से बालकों का व्यक्तित्व पूर्णरूप से विकृत हो जाता है। ऐसे बालकों में निम्न लक्षण हो सकते हैं-
1. यह औसत शारीरिक संरचना वाले, गठीले, शक्तिशाली तथा निर्भीक होते हैं।
2. स्वभाव से ये बेचैन, बहिर्मुखी, उग्र एवं विध्वंसक होते हैं।
3. इनके व्यक्तित्व में अस्थिरता पाई जाती है।
4. दूरदर्शिता का अभाव पाया जाता है।
5. इनमें योजना का निर्माण करना व उसका निर्वाह करने में असमर्थता पाई जाती है।
6. ये प्रायः अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं।
7. संवेगात्मक रूप से विचलित होते हैं।
प्रश्न d (v) आर्थिक कारणों से शोषित बालक एवं समावेशी शिक्षा की भूमिका बताइए।
उत्तर-
परिवार की आर्थिक स्थिति निम्न होने के कारण बालकों को अपना समुचित विकास करने के पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाते हैं, जैसे-आर्थिक तंगी के कारण बालक विद्यालय नहीं जा पाते हैं। उन्हें दो समय का भोजन भी मुश्किल से ही मिल पाता है तथा वे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं। वे अच्छे कपड़े भी नहीं खरीद सकते और वे अपने साथी बालकों के साथ खेलने में भी संकोच करते हैं। इन सब कारणों से बालकों का मानसिक, शारीरिक व सामाजिक विकास बाधित हो जाता है। कई बार बच्चों को माता या पिता की आकस्मिक मृत्यु के कारण परिवार में छोटे भाई-बहनों के लालन-पालन की जिम्मेदारी भी उठानी पड़ जाती है जिसके निर्वाह के लिए उसे आर्थिक गतिविधियों में भाग लेना पड़ता है। उसे जीविका चलाने के लिए धन कमाना पड़ता है और वह कभी-कभी अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए गलत तरीके भी अपना लेते है ? जैसे चोरी करना, गलत तरीके से धन कमाना आदि जिससे वह समाज में कुसमाजिक हो जाता है और बाल अपराधी तक बन जाता है। जिससे ऐसे बालक समाज के लिए समस्या बन जाते हैं। ऐसे बालकों को समाज की मुख्य धारा में लाना भी जरूरी हो जाता है। अतः आर्थिक कारणों से शोषित बालकों को समावेशी-शिक्षा के द्वारा मुख्य धारा में लाकर उनका भविष्य सुधारा जा सकता है।
प्रश्न d (vi) समावेशी शिक्षा केवल अशक्त के लिए नहीं। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
समावेशी शिक्षा केवल विशिष्ट बालकों के लिए विशिष्ट शिक्षा तक सीमित नहीं है बल्कि इससे बहुत अधिक है। यह सच है कि जब हम शिक्षा के अधिकार की बात करते हैं तो विशेष संदर्भ अशक्त बालकों से ही सम्बन्धित होता है क्योंकि ऐसे बालक बहुत ही स्पष्ट उपेक्षित समूह का निर्माण करते हैं लेकिन समावेशी शिक्षा का सम्बन्ध शिक्षा ग्रहण करने योग्य सभी बालकों से है। भारत में 6 से 14 वर्ष के बालकों की संख्या 22 करोड़ के लगभग है तथा असमर्थ व्यक्तियों की संख्या 2 करोड़ तीस लाख के लगभग है जिसमें से दो-तिहाई से अधिक अशक्त ग्रामीण क्षेत्रों से है। अतः समावेशी शिक्षा उन सभी के लिए जो किन्हीं कारणों से शिक्षा ग्रहण करने से वंचित रह गए हैं, सम्मिलित करती है।
प्रश्न d (vii) समावेशी शिक्षा में विकलांगता एवं पुनर्वास कार्य-योजना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
इस योजना के अंतर्गत सभी असमर्थ बालकों को समान अधिकार एवं सुअवसरों का लाभ उठाने का पूरा-पूरा अधिकार है। इन बच्चों के जीवन में धार्मिक राष्ट्रीय एवं वैश्विक प्रयत्नों के द्वारा सुधार लाने के लिए सेवाएँ उपलब्ध करवाना इस योजना का महत्त्व पूर्ण लक्ष्य है। समुदाय आधारित पुनर्वास को बढ़ावा देने में भी समावेश बहुत सहायक हो जाता है। असमर्थ बालकों से सम्बन्धित विकास मापन प्रयोग की योजनाओं को बढ़ावा देना इन बच्चों के अधिकारों एवं सुअवसरों को सुरक्षित रखने में कारगर सिद्ध हो सकता है। विभिन्न समुदायों एवं योजनाओं का निर्माण करने वालों के बीच सामंजस्य बनाना अत्यावश्यक है। भारत सरकार ने असमर्थी व्यक्तियों के लिए तीन प्रमुख कानून लागू किये हैं जो हैं – असमर्थ व्यक्ति अधिनियम 1995, समान अवसरों, अधिकारों के संरक्षण तथा पूर्ण भागीदारी का अधिनियम। यह अधिनियम विशिष्ट बालकों के लिए शिक्षा, व्यवसाय, बाधारहित वातावरण, सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था करने की व्यवस्था करता है तथा भारतीय पुनर्वास परिषद् अधिनियम 1992, इन बच्चों को पुनर्वास सेवाएँ प्रदान करने का कार्य करता है।
प्रश्न d (viii) समावेशी शिक्षा में योग्यता एवं निर्योग्यता पर आधारित शैक्षिक प्रथाओं एवं भेदभाव हेतु सुझाव बताइए।
उत्तर –
योग्यता एवं निर्योग्यता पर आधारित शैक्षिक प्रथाओं एवं भेदभाव हेतु सुझाव निम्नलिखित निम्नलिखित हैं-
(1) छात्रों की शैक्षिक योग्यताओं की पूर्ति हेतु अध्यापक विषय-वस्तु को विविध तरीकों से समझता है परन्तु यह आवश्यक नहीं होता है कि छात्र अधिगमकर्ता के रूप में एक समान अधिगम दर से अधिगम करें। अतः आवश्यक है कि सर्वप्रथम छात्रों की विशिष्टता को समझा जाए तत्पश्चात् उन्हें मुख्य धारा वाली शिक्षा से जोड़ दिया जाए।
(2) वस्तुतः सामान्य योग्यता रखने वाले बालकों को सामान्य विद्यालयों में प्रवेश दिया जाता है, जहाँ उनका अध्ययन कार्य सामान्य रूप से चलता रहता है। अतः सामान्य बालकों के शिक्षण हेतु अपनाई जाने वाली शिक्षण प्रथाएँ या परम्परागत तरीके यदि औसत से अधिक या औसत से कम बालकों के लिए अपनाई जाए तो यह अपने आप में भेदभाव का कारण होगा
(3) शिक्षण प्रक्रिया के विविध अंग जैसे—शिक्षण विधियाँ, पाठ्यक्रम, कक्षागत शिक्षण व परिस्थितियाँ एवं शिक्षण कौशल आदि ऐसे अंग हैं जो शिक्षक, शैक्षिक संगठन, शैक्षिक प्रशासन में कार्यरत व्यक्ति भेदभाव को जन्म देने या उसे मिटाने, दोनों ही तरह से प्रयोग कर सकते हैं।
(4) विद्यालय या कक्षा एक शोध स्थल की तरह है। यहाँ पर शिक्षक शोधकर्ता के रूप में होता है एवं छात्र न्यादर्श के रूप में। अतः अध्यापक को स्व अनुभव एवं सूझबूझ के आधार पर बालकों के हित में उन विधियों का प्रयोग करना चाहिए जो छात्र की शैक्षिक आवश्यकता की पूर्ति करने वाली हो न कि किसी एक विशेष वर्ग वाले छात्रों की।
(5) विद्यालयी वातावरण में सभी छात्रों के मध्य, अभिभावकों एवं अध्यापकों की उपस्थिति में समावेशीकरण को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए ताकि सकारात्मक दृष्टिकोण में व्यापकता आए।
प्रश्न e (i) असमर्थ बालकों एवं वयस्कों की समावेशी शिक्षा हेतु क्रियात्मक योजनाओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
असमर्थ बालकों एवं वयस्कों की समावेशी शिक्षा हेतु क्रियात्मक योजना निम्नलिखित
(1) यह सुनिश्चित करना कि किसी भी बच्चे को मुख्य धारा में शिक्षा के लिए मना न किया जाए।
(2) यह सुनिश्चित करना कि किसी भी बच्चे को असमर्थता के आधार पर किसी भी आँगनबाड़ी या विद्यालय से बाहर न निकाला जाए।
(3) यह सुनिश्चित करना कि सभी अध्यापक जिन्हें समावेशन के लिए प्रशिक्षित किया गया है उन्हें मुख्य धारा एवं समावेशन से सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी हो।
(4) सरकारी छात्रावास में असमर्थ लड़कियों के दाखिले के लिए ग्रामीण क्षेत्रों के व्यक्तियों को अभिप्रेरित करना ।
(5) गम्भीर रूप से मानसिक असमर्थता वाले बालकों के घर पर शिक्षण प्रदान करने की व्यवस्था करना।
(6) जिन बच्चों को व्यक्तिगत अधिगम की आवश्यकता है। उनके लिए दूरवर्ती शिक्षा का प्रबन्ध करना।
(7) व्यवसाय आधारित प्रशिक्षण पर बल देना।
(8) उपकार की अपेक्षा इन बच्चों के विकास पर ध्यान देना।
प्रश्न e (ii) विशिष्ट बालक।
अथवा
आप विशिष्ट बालक किसे कहेंगे?
उत्तर –
विशिष्ट बालक की परिभाषा हीवर्ड के अनुसार, “विशिष्ट बालकों की श्रेणी में वे बच्चे आते हैं, जिन्हें सीखने में कठिनाई का अनुभव होता है या जिनका मानसिक या शैक्षिक निष्पादन या सृजन अत्यन्त उच्च कोटि का होता है या जिनको व्यावसायिक, सांवेगिक एवं सामाजिक समस्याएँ घेर लेती हैं या वे विभिन्न शारीरिक अपंगताओं या निर्बलताओं से पीड़ित रहते हैं, जिसके कारण ही उनके लिए अलग से विशिष्ट प्रकार की शिक्षा-व्यवस्था करनी होती है।”
विशिष्ट बालकों की विशेषताएँ-
विशिष्ट बालक की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
• विशिष्ट बालक, सामान्य बालक की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान या निम्न बुद्धि वाले होते हैं।
• विशिष्ट बालक, सामान्य बालक की अपेक्षा किसी विषय पर अधिक समय तक ध्यान केन्द्रित कर पाते हैं या कुछ क्षणों के लिए ही केन्द्रित कर पाते हैं।
• कक्षा में पढ़ाए गए पाठ को तुरन्त समझ लेते हैं या कई बार समझाने पर भी नहीं समझ पाते हैं।
• इन्हें विशेष प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता होती है।
• ये विद्यालय, समाज में उपस्थित समन्वय समूह व अन्य व्यक्तियों के साथ समायोजन नहीं कर पाते।
• विशिष्ट बालक, शारीरिक गुणों में सामान्य बालकों से भिन्न होते हैं, अर्थात् अंग-भंग या किसी बीमारी से ग्रस्त होते हैं।
• विशिष्ट बालकों का आकांक्षा स्तर उच्च होता है अथवा अति-निराशावादी ।
• ये शैक्षिक दृष्टि से तीव्र होते हैं या फिर पिछड़े। ये बालक संवेगात्मक रूप से अस्थिर होते हैं।
• ये बालक अन्तर्मुखी होते हैं, अपने में ही खोये रहते हैं।
प्रश्न e (iii) विशिष्ट बालकों के प्रकार बताइए।
अथवा
विशिष्ट बालक कितने प्रकार के होते हैं? वर्णन कीजिए।
उत्तर-
विशिष्ट बालकों के प्रकार- प्रत्येक शिक्षण संस्थान में शिक्षा ग्रहण करने वाले समूह में अनेक प्रकार के छात्र होते हैं, जिनमें सामान्य बालकों की संख्या अधिक होती है, परन्तु कुछ छात्र ऐसे भी होते हैं जो प्रतिभाशाली, सृजनात्मक एवं कुछ शारीरिक व मानसिक दोषों वाले भी होते हैं। विशिष्ट बालकों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है-
(i) शारीरिक रूप से भिन्न बालक,
(ii) मानसिक रूप से भिन्न बालक,
(iii) शैक्षिक रूप से भिन्न बालक,
(iv) मनोसामाजिक रूप से भिन्न बालक ।
प्रश्न e (iv) समावेशी शिक्षा में वाक् विकलांग बालक की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-
वाक् विकलांग बालक-वाक् विकलांग बालक वर्ग के अन्तर्गत, वाणी दोष से ग्रसित बालक आते हैं। यह दोष बालकों में शारीरिक व मनोवैज्ञानिक कारणों से उत्पन्न हो जाता है, जिससे उनमें तुतलाना, हकलाना, उच्चारण दोष आदि देखने को मिलते हैं। कभी-कभी माता-पिता के अति संरक्षण के कारण वाणी दोष (तुतलाना) देखने को मिलता है, जो कि एक अति गम्भीर समस्या है। यदि समय पर इस समस्या का समाधान नहीं किया जाए तो यह समस्या और जटिल हो जाती है संसार में प्रत्येक जीव द्वारा अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए मुख के द्वारा जिन शब्दों को व्यक्त किया जाता है, उसे वाणी की संज्ञा दी जाती है।
परन्तु कुछ बालकों में ऐसी भी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जिससे वे दोषंयुक्त वाणी बोलने लगते हैं। जैसे-बोलते समय अचानक रुक जाना, सही उच्चारण न कर पाना, हकलाना, तुतलाना आदि गम्भीर समस्याएँ देखने को मिलती हैं।
वाक् विकलांगता के निम्नलिखित कारण हैं-
• तालु का विकृत होना।
• होंठ का कटा होना ।
• शब्दों के गलत उच्चारण पर सुधार के लिए प्रयास न करना।
• मनोवैज्ञानिक संवेगों का असन्तुलन ।
• गले के रोग ।
• भय एवं घबराहट का होना।
• वंशानुक्रम में दोष ।
• मस्तिष्क का असन्तुलन ।
• बार-बार टोकना।
• बोलने पर डराना, धमकाना आदि।
प्रश्न e (v) – प्रतिभाशाली बालक की विशेषताएँ बताइए ।
उत्तर-
प्रतिभाशाली बालकों की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
• सामान्य ज्ञान उच्च कोटि का होना।
• अनुशासित रखना ।
• अपने से बड़ों का सम्मान करना
• इनका शारीरिक विकास सामान्य बालकों की अपेक्षा तीव्र गति से होता है।
• टरमैन के अनुसार प्रतिभाशाली बालिकाएँ विद्यालय जाने से पहले पढ़ना-लिखना सीख जाती हैं।
• प्रतिभाशाली बालक की बुद्धिलब्धि 120 से अधिक होती है।
• इनका शब्दकोश अच्छा होता है।
• प्रतिभाशाली बालक की अध्ययन में रुचि होती है।
• सामाजिक कार्यों में कम रुचि लेते हैं।
• सूक्ष्म दृष्टि वाले होते हैं।
• कार्य विशेष में विशिष्टता ।
• सामान्य कक्षाओं में उदासीनता ।
• इनके ज्ञानेन्द्रियों का शीघ्र विकास हो जाता है।
• शारीरिक गुणों का सामान्य बालकों की अपेक्षा जल्दी प्रदर्शित होना।
प्रश्न e (vi)श्रवण विकलांग बालक।
उत्तर-
श्रवण विकलांग बालक-श्रवण विकलांग बालक वर्ग के अन्तर्गत श्रवण दोष (जिन्हें कम सुनाई देता है) से ग्रसित या पूर्ण बहरे बालक आते हैं। बालकों में यह दोष जन्म से या किसी बीमारी के कारण हो जाता है। शिक्षा ग्रहण करने के लिए बालक की पाँचों इन्द्रियों का स्वस्थ होना अत्यन्त आवश्यक है, परन्तु कभी-कभी परिस्थितियाँ इसके विपरीत हो जाती हैं, यदि इन इन्द्रियों में किसी एक में भी कमी होने पर वह विकलांगता की श्रेणी में आ जाता है।
श्रवण दोष में सुनने के साथ बोलने की शक्ति का भी ह्रास हो जाता है, श्रवण दोष मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-
1. पूर्ण बहरे बालक, 2. आंशिक बहरे बालक ।
पूर्ण बहरे बालक के अन्तर्गत वे बालक आते हैं, जो 10 डेसीबल की ध्वनि को भी बिल्कुल नहीं सुन पाते ।
आंशिक बहरे बालक के अन्तर्गत वे बालक आते हैं जिन्हें कम सुनाई देता है। ये बालक तीव्र ध्वनि को सुन लेते हैं। आंशिक रूप से बहरे बालकों की शिक्षा-व्यवस्था सामान्य बालक के साथ किया जाना सम्भव होता है, इनकी इस कमी को दूर करने के लिए श्रवण यंत्र का सहारा लिया जा सकता है, परन्तु पूर्ण रूप से बहरे बालकों को सामान्य बालकों के साथ शिक्षित करना सम्भव नहीं है।
प्रश्न e (vii) मंद बुद्धि बालक ।
उत्तर-
मन्द बुद्धि बालक वे बालक कहलाते हैं, जिनका शारीरिक विकास होने के साथ. मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। इसके कारण उनमें अपनी आयु के बालकों के समान बौद्धिक कार्य करने की क्षमता नहीं होती। इनका IQ 70-80 के मध्य होता है।
विशिष्ट बालकों के अन्तर्गत मन्द बुद्धि बालकों के वर्ग में आने वाले बालकों को दैनिक जीवन के कार्यों को करने में समस्या का सामना करना पड़ता है। खाने-पीने, कपड़े पहनने आदि में अन्य व्यक्ति के सहारे की आवश्यकता पड़ती है।मानसिक रूप से मन्द होने के कारण विचार करने की योग्यता नहीं पायी जाती। इनकी शिक्षा- व्यवस्था सामान्य बालकों के साथ करना असम्भव नहीं तो जटिल अवश्य है क्योंकि सामान्य कक्षाओं में पढ़ाये गये पाठ को भी ये ग्रहण नहीं कर पाते। इनका IQ का स्तर इतना कम होता है कि ये सामान्य बालकों के समान भी नहीं सीख पाते। मन्द बुद्धि बालकों की बुद्धिलब्धि 70 से कम होती है। मानसिक रूप से मन्द होने के कारण शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
क्रो एवं क्रो के अनुसार, “जिन बालकों की बुद्धिलब्धि 70 से कम होती है, उन्हें मन्द बुद्धि बालक कहते हैं।”
होलिंगवर्थ के अनुसार, “वह व्यक्ति मन्द बुद्धि कहा जाएगा जिसकी मौलिक बुद्धिलब्धि 70 या उससे कम हो और जो बौद्धिक दृष्टि से कम-से-कम बुद्धि वालों के अन्तर्गत हो।”
बेण्डा के अनुसार, “एक मानसिक दोष वाला व्यक्ति वह है जो अपने-आपको, अपने क्रियाकलापों को व्यवस्थित करने में असमर्थ होता है या उसे सब कुछ सिखाना पड़ता है तथा जिसके स्वयं के और समुदाय के कल्याण के लिए निरीक्षण, नियंत्रण तथा देखभाल की आवश्यकता होती है।”
प्रश्न f(i) मंद बुद्धि बालक की विशेषताएँ बताइए।
अथवा
मानसिक रूप से पिछड़े बालकों की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर- मन्द बुद्धि बालक की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
• मंद बुद्धि बालक शैक्षिक रूप से पिछड़े होते हैं।
• शारीरिक गठन भिन्न होता है।
इन्द्रियों पर नियन्त्रण न होना। कुसमायोजित होना।
• संवेगात्मक रूप से अस्थिर ।
बुद्धिलब्धि 70 से कम होना।
• ये सामाजिक नहीं होते हैं।
• प्रत्यक्षीकरण मन्द गति से होना।
• इनकी स्मरणशक्ति कमजोर होती है।
- समन्वय समूह के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते।
प्रश्न f (ii) सृजनात्मक बालक की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-
सृजनात्मक बालकों को शैक्षिक रूप से सम्पन्न बनाने के लिए उनकी शिक्षा-व्यवस्था करना अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षकों को अपनी कक्षा में अनेक प्रकार की आवश्यकताओं से युक्त बालकों से सामना करना पड़ता है। अतः उसे यह भी पता होना चाहिए कि सृजनात्मक बालकों की क्या विशेषताएँ होती हैं। मनोवैज्ञानिकों ने सृजनात्मक बालकों पर अध्ययन कर अपने-अपने शब्दों में उन विशेषताओं का वर्णन किया, परन्तु मनोवैज्ञानिक टॉरेन्स ने सृजनात्मक बालकों का गहन अध्ययन कर 84 विशेषताओं की एक सूची तैयार की, इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-
• दृढ भावात्मक,
•अवस्था को स्वीकारना,
• जोखिम उठाना,
• अन्यों के प्रति जागरूकता,
अवस्था के प्रति आकर्षण,
• कठिन कार्यों को करना,
• रचनात्मक आलोचना,
• तीव्र व अन्तःविवेकशील परम्परायें,
• परार्थोन्मुख,
• सदैव परेशान करना,
•रहस्यात्मक खोजों के प्रति आकर्षित होना,
•शेपू या लज्जालु,
•ये साहसी होते हैं,
• शिष्टाचार परम्पराओं को स्पष्ट करना,
•स्वास्थ्य की परम्पराओं को स्पष्ट करना,
• श्रेष्ठ बनने की इच्छा,
•ये दृढ़ निश्चय वाले होते हैं।
प्रश्न f (iii) समस्यात्मक बालक।
उत्तर-
समस्यात्मक बालक-सामान्य-शिक्षण कक्ष में कुछ बालक ऐसे होते हैं जो अन्य छात्रों, शिक्षकों, विद्यालयों व समाज के लिए समस्या खड़ी कर देते हैं। इन बालकों में अनुशासनहीनता, गृहकार्य में त्रुटियाँ अधिक करना अथवा गृहकार्य न करना, लड़ना, झगड़ना, ईर्ष्या, क्रूरता, सन्देह, धूम्रपान आदि जैसे लक्षण पाये जाते हैं।
अतः इन कारणों से वह समाज व परिवार के लिए समस्यात्मक बालक के रूप में उभरकर सामने आता है। समस्यात्मक बालक शैक्षिक रूप से कमजोर होता चला जाता है क्योंकि कक्षा में पढ़ाये गये पाठ को न पढ़कर शरारत करता रहता है।
वैलेन्टाइन ने अपने शब्दों में समस्यात्मक बालक को निम्न रूप में व्यक्त किया है-
“समस्यात्मक बालक वे बालक हैं जिनका व्यवहार अथवा व्यक्तित्व किसी बात में गम्भीर रूप से असाधारण होता है।”
समस्यात्मक बालकों की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
• भयभीत करना ।
• ये धूम्रपान करते हैं।
• ये ईर्ष्यालु होते हैं।
•कक्षा में अन्य छात्रों को परेशान करते रहते हैं।
• अव्यवस्थित रहना ।
• ये अनुशासनहीन होते हैं।
• नैतिक शिक्षा का अभाव।
•संवेगों में अस्थिरता । दूषित वातावरण।
• असामाजिक व्यवहार ।
प्रश्न f (iv) सामाजिक भेदभाव से प्रभावित बालकों की समावेशी शिक्षा के महत्त्वपूर्ण तथ्य बताइए।
उत्तर-सामाजिक भेदभाव से प्रभावित बालकों की समावेशी शिक्षा से जुड़े तथ्य निम्नलिखित हैं- समावेशीकरण केवल शारीरिक निर्योग्यता या मानसिक निर्योग्यता से पीड़ित या प्रभावित बालकों की समावेशी शिक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें सामाजिक भेदभाव के कारण शिक्षा के अधिकार से दूर रह जाने वाले बालक भी आते हैं।
(ii) सामाजिक भेदभाव के शिकार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़ा वर्ग के व्यक्ति भी हो जाते हैं।
(iii) इन सभी का समावेशन सामाजिक भेदभाव को खत्म कर देने में सहायक सिद्ध होगा। समावेशीकरण के लिए इन्हें सामाजिक स्थलों, शैक्षिक संस्थानों पर स्वतन्त्रता से आने- जाने की अनुमति दे देनी चाहिए। इसके अलावा सामाजिक सुविधाओं का लाभ उठाने का अवसर देना होगा।
(iv) समावेशी शिक्षा के लिए इन्हें उन सभी बालकों के साथ अध्ययन करने की अनुमति देनी होगी जिन्हें समाज समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने की अनुमति देता है।
(v) समाज से भेदभाव के कारण अलग हुए तबकों को मुफ्त किताबें, कपड़े और आवश्यकता पड़ने पर खाना की व्यवस्था सरकार की सहमति से सरकारी या गैर-सरकारी विद्यालयों में कराई जा सकती है।
(vi) इनके विकास के लिए और समाज के दृष्टिकोण को इनकी शिक्षा के लिए सकारात्मक करना अति आवश्यक है। जिसके लिए समावेशी सम्बन्धी कार्यक्रम, औपचारिक शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा, दूरस्थ शिक्षा आदि को शिक्षित करने के लिए अधिक महत्त्व देना चाहिए।
(vii) इनके लिए शिक्षा योजना पर Block-Grant (SC/ST) के लिए राज्य सरकारों को देती है। इसके अतिरिक्त Special Scholarships भी प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च माध्यमिक स्तर आदि के बालकों के लिए मुहैया कराई जाती है।
(viii) आवासीय विद्यालयों की सुविधा या विद्यालयों के अन्तर्गत सुविधा भी इन बालकों को दी जाने की योजना है।
प्रश्न f (v) पाठ्य सहगामी क्रियाओं से आप क्या समझते हैं? इसके महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर-पाठ्य सहगामी क्रियाएँ एक ऐसा पाठ्यक्रम है जो मुख्य पाठ्यक्रम के पूरक के रूप में काम करता है। ये पाठ्यक्रम का बहुत ही महत्त्वपूर्ण हिस्सा है जो छात्रों के व्यक्तित्व का विकास करने के साथ ही कक्षा को मजबूत करने में सहायक है। इस तरह का कार्यक्रम स्कूल में नियमित समय के बाद आयोजित किया जाता है इसलिए इसे पाठ्येतर गतिविधियों के रूप में जाना जाता है।
पाठ्य सहगामी क्रियाओं का महत्त्व
(i) ये गतिविधियाँ खेल, अभिनय, गायन एवं कविता पाठ को प्रोत्साहित करता है।
(ii) गतिविधियाँ जैसे खेल, बहस में भागीदारी, संगीत, नाटक आदि शिक्षा को पूर्ण करने में मदद करता है।
(iii) यह बहस के माध्यम से स्वतंत्र रूप से खुद को अभिव्यक्त करने के लिए छात्रों को सक्षम बनाता है।
(iv) खेल बच्चों को फिट और ऊर्जावान बनाने में मदद करता है।
(v) यह समाजीकरण, आत्म-पहचान और आत्म-मूल्यांकन का अवसर प्रदान करता है।
(vi) यह व्यक्ति को निर्णय लेने में सक्षम बनाती हैं।
(vii) यह अपनेपन की भावना विकसित करने में मदद करती हैं।
प्रश्न f(vi) परिवार शिक्षा के अभिकरण के रूप में।
उत्तर- प्रारम्भ में परिवारों का विधान सामाजिक जीवन को सरल बनाने के लिए हुआ था। आज भी उनका यही उद्देश्य होता है। परन्तु इन परिवारों में बच्चे जाने-अनजाने बहुत कुछ सीखते हैं। सच पूछिए तो बच्चे की शिक्षा का प्रारम्भ इन्हीं परिवारों से होता है। माँ की गोद बच्चे का सर्वप्रथम विद्यालय होता है तथा उसकी माँ उसकी सर्वप्रथम शिक्षिका होती है। परन्तु परिवार में होने वाली इस शिक्षा के न तो उद्देश्य निश्चित होते हैं, न पाठ्यक्रम और न ही शिक्षा विधियाँ। इस प्रकार परिवार शिक्षा का अनौपचारिक अभिकरण है। आदि युग में मनुष्य अपना जीवन पशु स्तर पर व्यतीत करता था। वह अपने रहने के लिए सुरक्षित स्थान का निर्माण अवश्य करता था जिसे आज घर कहते हैं। परन्तु उस घर के सदस्यों में आज जैसे भावात्मक सम्बन्ध नहीं होते थे। उस समय विवाह प्रथा का भी प्रचलन नहीं था। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करने के लिए पशु-पक्षियों की भाँति स्वच्छंद था। भावात्मक सम्बन्ध के अभाव में नवजात शिशु के पालन-पोषण में बड़ी बाधा पड़ती थी। माँ की ममता से बच्चों का पालन-पोषण का पूरा-पूरा भार माँ पर ही पड़ता था तो कभी- कभी यह असम्भव हो जाता था। इसके अतिरिक्त मनुष्य की वृद्धावस्था पर उसकी देखभाल की आवश्यकता का अनुभव हुआ। इन आवश्यकताओं और इसी प्रकार की अनेक अन्य आवश्यकताओं ने मनुष्य को परिवार में बाँध दिया। इस प्रकार परिवार सबसे पहला, छोटा तथा मूलभूत सामाजिक समूह है।
प्रश्न f (vii) परिवार की विशेषताएँ।
उत्तर- 1. सामाजिक गुणों का पालना-बच्चे में सामाजिक गुण परिवार में रहकर ही विकसित होते हैं। परिवार सामाजिक गुणों का पालना है। परिवार का बच्चे के व्यक्तित्व पर बहुत प्रभाव पड़ता है।
2. जन्मजात प्रवृत्तियाँ पारिवारिक आधार के रूप में- लैंगिक सम्बन्ध तथा माता-पिता का अपनी सन्तान से प्रेम आदि जन्मजात प्रवृत्तियाँ परिवार के निर्माण का आधार होती हैं।
3. संस्था के रूप में स्थायी — परिवार संस्था के रूप में स्थायी होता है।
4. सार्वभौमिकता-संसार का कोई भी समाज ऐसा नहीं है जहाँ परिवार किसी-न-किसी रूप में न पाया जाता हो। परिवार एक सार्वभौमिक संस्था है। यह विश्व के कोने-कोने में पाई जाती है।
5. सीमित आकार-परिवार एक छोटा-सा सीमित आकार का होता है, इसके सदस्यों की संख्या सीमित होती है।
6. उत्तरदायित्व – अपने पारिवारिक संगठन में प्रत्येक व्यक्ति की पारिवारिक जिम्मेदारी होती है।
7. सामाजिक संगठन का केन्द्र-परिवार सामाजिक संगठन का केन्द्र होता है। विभिन्न परिवारों से मिलकर समाज की रचना होती है। परिवार समाज की ही छोटी इकाई होती है।
प्रश्न f (viii) श्रवण बाधित बालकों का वर्गीकरण।
उत्तर- वे सभी बालक जिनको सुनने में किसी भी तरह की कोई कठिनाई होती है, श्रवण बाधित बालक कहलाते हैं। ध्वनि का परिसर 1 से 130 डेसीबल (dB) होता है। 130 dB से ऊपर की ध्वनि दर्द की संवेदना देती है। श्रवण बाधित बच्चों को ध्वनि परिसर के अनुसार निम्न चार भागों में बाँटा गया है-
(i) कम श्रवण बाधिता-कम श्रवण बाधितों को 27 से 40 dB की श्रवण बाधिता होती है। कम श्रवण बाधित बालक सामान्य स्तर की बातचीत को तो आसानी से सुन लेते हैं, परन्तु उससे धीमे स्तर से बोलने पर ये बालक सुन नहीं पाते हैं।
(ii) मन्द श्रवण बाधिता-मन्द श्रवण बाधित बच्चों की श्रवण शक्ति में 40 dB से 55 dB तक का नुकसान होता है। इनको सामान्य वार्तालाप सुनने में भी कठिनाई होती है। इस प्रकार के बच्चे सुनने के यन्त्र का प्रयोग करके सुन सकते हैं।
(iii) गम्भीर श्रवण बाधिता-गम्भीर श्रवण बाधित बच्चों की श्रवण बाधिता 55 dB से 70 dB तक होती है। इन्हें काफी ऊँचा बोलने पर सुनाई देता है। इस प्रकार के बच्चों को विशेष प्रकार का शिक्षण दिया जाता है।
(iv) पूर्णतया श्रवण बाधिता-इस प्रकार के बच्चों की श्रवण बाधिता 70 dB से 90 dB या इससे भी अधिक होती है। इस प्रकार के बच्चों को श्रवण यन्त्र के प्रयोग के साथ भी सुनने में कठिनाई होती है। ये प्रायः बधिर (Deaf) होते हैं। अतः यह आवश्यक है कि इस प्रकार के बच्चों पर विशेष ध्यान दिया जाये।
प्रश्न f (ix) श्रवण बाधित बच्चों की विशेषताएँ ।
उत्तर- 1. उच्चारण-इनको उच्चारण सम्बन्धी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इनके द्वारा बोले जाने वाले शब्दों में बहुत त्रुटियाँ होती हैं। श्रवण बाधित बच्चों में भाषा के उच्चारण में अधिक दोष होता है।
2. आवाज-इनकी आवाज बहुत ऊँचे स्तर की होती है और अपनी आवाज को एक असाधारण लय के साथ पेश करते हैं अर्थात् इनकी आवाज में एक असाधारण-सा संगीत होता है। ये आवाज के साथ परिश्रम करते महसूस होते हैं
3. शैक्षिक उपलब्धि-शैक्षिक निष्पत्ति की दृष्टि से ऐसे बच्चों में अधिक भिन्नता पायी जाती है। इनको सम्प्रत्यय निर्माण में, पढ़ने में, शब्दावली में, अमूर्त चिन्तन में, शाब्दिक भाषा में बहुत-सी समस्याएँ आती हैं। इस प्रकार ऐसे बच्चों की शैक्षिक निष्पत्ति निम्न स्तर की होती है, क्योंकि शैक्षिक निष्पत्ति में शाब्दिक योग्यता की अहम् भूमिका होती है। ऐसे बच्चों का बौद्धिक स्तर तो ऊँचा होता है, परन्तु फिर भी इनकी शैक्षिक उपलब्धि अधिक नहीं हो पाती है।
4. बुद्धि – श्रवण बाधित बालकों का मानसिक विकास सामान्य बालकों के समान ही होता है परन्तु कुछ श्रवण बाधित बच्चों की बुद्धिलब्धि (IQ) सामान्य अवस्था में कम होती है। कुछ श्रवण बाधित बच्चे अमूर्त चिन्तन व प्रत्यय निर्माण में कठिनाई का अनुभव करते हैं। बौद्धिक अशाब्दिक परीक्षा में इनकी बुद्धिलब्धि उच्च स्तर की होती है।
5. शब्दावली कौशल -इनका शब्दावली कौशल निम्न प्रकार का होता है। इनकी शब्दावली सीमित होती है। दूसरे लोगों से सम्प्रेषण करते समय इनके पास प्रायः शब्द नहीं होते हैं। सीमित शब्दावली के कारण ये अपनी भाषा सम्बन्धी योग्यता में निम्न होते हैं।
प्रश्न f (x) आंशिक रूप से दृष्टिबाधितों के लिए शिक्षा-व्यवस्था ।
उत्तर- 1. आंशिक रूप से असमर्थी बच्चों को मोटी छापे वाली मुद्रित सामग्री उपलब्ध करानी चाहिए।
2. आंशिक रूप से असमर्थी बच्चों के लिए रोशनी की व्यवस्था पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिए। कक्षा की छतें सफेद तथा दीवारें हल्के रंग की होनी चाहिए तथा उनमें चमक नहीं होनी चाहिए।
3. फर्नीचर इस प्रकार का होना चाहिए जो पढ़ते हुए बालक के लिए उपयुक्त हो। इसका रंग भी हल्का होना चाहिए।
4. आंशिक रूप से दृष्टि बाधित बालक प्रायः चश्मे व लैंस आदि के प्रयोग द्वारा आसानी से देख सकते हैं।
5. आंशिक बाधितों व औसत बालकों का पाठ्यक्रम एक-सा होना चाहिए। अध्यापक द्वारा ऐसा कोई भी कार्य अधिक नहीं करवाना चाहिए जिससे आँखों पर जोर पड़े।
6. आंशिक रूप से दृष्टि बाधित बच्चों को अध्यापक द्वारा कक्षा में आगे बिठाना चाहिए।
7. मैग्नीफाइंग शीशा इस प्रकार के बच्चों की सहायता के लिए उपलब्ध होना चाहिए ताकि छोटे छापे की मुद्रित पुस्तकों को बड़ा करके पढ़ा जा सके।
प्रश्न g (i) दृष्टिबाधितों के शिक्षण में अध्यापक की भूमिका।
उत्तर- 1. अध्यापक द्वारा ऐसे बच्चों को ‘करके सीखना’ विधि से पढ़ाना चाहिए व इनकी उपयुक्त सहायता करनी चाहिए।
2. दृष्टि बाधित बच्चों को सामान्य बच्चों की तरह गृहकार्य भी दिया जाये।
3. अध्यापक द्वारा जहाँ तक सम्भव हो सके, ऐसे बच्चों को विद्यालय की सभी क्रियाओं में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए और अवसर भी देना चाहिए।
4. अशाब्दिक भाषा का प्रयोग न करके शाब्दिक भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए।
5. शिक्षक को इन बच्चों के लिए कक्षा में समुचित वातावरण व बैठने की सुविधा का ध्यान रखना चाहिए। उपयुक्त प्रकाश की व्यवस्था व फर्नीचर भी अच्छी तरह समायोजित होने चाहिए।
6. शिक्षक में धैर्य, आपसी समझ, मेहनती आदि गुण अवश्य होने चाहिए।
7. दृष्टि बाधितों को सामान्य बालकों की भाँति अधिगम अनुभव प्रदान किया जाये। समस्याओं का समाधान अलग से किया जाये।
8. शिक्षक को सामान्य बच्चों से दृष्टि बाधितों की प्रत्येक प्रकार की सहायता के लिए कहना चाहिए।
9. शिक्षक द्वारा दृष्टि बाधित बच्चों के अधिगम में बाधा पैदा करने वाली सभी समस्याओं को दूर करना चाहिए।
10. दृष्टि बाधित बच्चों को उपयुक्त शैक्षिक व व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करना चाहिए।
प्रश्न g (ii) प्रतिभाशाली बच्चे की पहचान के व्यावहारिक संकेत।
उत्तर-प्रतिभाशीलता को प्रकट करने के बहुत-से व्यावहारिक संकेत होते हैं। इनमें से कुछ का वर्णन इस प्रकार है-
(i) शीघ्रतापूर्वक और आसानी से याद करना या सीख जाता है।
(ii) अपने आयु स्तर के हिसाब से इनका शब्द भण्डार विशाल होता है।
(iii) जो कुछ सुनता व पढ़ता है, उसे बिना रटे हुए काफी लम्बे समय तक याद रख सकता है।
(iv) (iv) इनकी जिज्ञासा प्रवृत्ति तीव्र होती है।
(v) ऐसी बहुत-सी बातों के बारे में जानता है जिन्हें उसके अन्य समवयस्क साथी नहीं जानते।
(vi) (vi) काफी कठिन मानसिक कार्यों को कर सकने की स्थिति में होता है।
(vii) इनका ध्यान व एकाग्रता काफी होती है।
(viii) ये चुस्त, सूक्ष्म दृष्टि वाले और शीघ्र उत्तर देने वाले होते हैं।
(ix) वह मौलिक चिन्तन कर सकता है और उसके काम करने के ढंग में भी मौलिकता होती है।
(x) सामान्य बुद्धि और व्यावहारिक ज्ञान का बहुत अच्छा उपयोग करता है।
प्रश्न g (iii) प्रतिभाशाली बच्चों की समस्याएँ।
उत्तर- 1. लापरवाही और हवाई किले-ये बच्चे साधारण कक्षा कक्ष में पढ़ाये जाने वाले पाठ्यक्रम व शिक्षण विधियों में रुचि नहीं लेते और लापरवाह, बेध्यान तथा सुस्त हो जाते हैं। वे हवाई किले बनाने लग जाते हैं। लापरवाही और ध्यान न देने की प्रवृत्ति कई बार उन्हें आलसी बना देती है और ये कोई कार्य करने की पहल नहीं करते।
2. बुद्धि का अनुचित उपयोग-प्रतिभाशाली बच्चों को यदि उचित समय पर मार्गदर्शन या निर्देशन नहीं मिलता तो ये अपनी बुद्धि का गलत उपयोग करने लगते हैं। ये अपनी बुद्धि को शरारतों, अनुशासनहीनता, दलबन्दी और बड़ों के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने में प्रयुक्त करते हैं। इस प्रकार की परिस्थितियों में ये बालक अपराधी बन जाते हैं जो एक अभिशाप है।
3. मनोवैज्ञानिक असुरक्षा-यदि इनकी उत्तमता को माता-पिता और अध्यापकों की ओर से मान्यता न मिले तो इनके भटक जाने का खतरा रहता है। ये अपने आपको मनोवैज्ञानिक तौर पर असुरक्षित समझते हैं और हीन भावना का शिकार हो जाते हैं। ये अहम् और विरोध की अभिव्यक्ति करते हैं, जिसके कारण इन्हें रद्द किया जाता है और इन्हें व्यर्थ समझा जाता है।
4. सामाजिक विकास में बाधा – बुद्धि में उत्तम होने के कारण प्रतिभाशाली बच्चों को खेलने के लिए साथी नहीं मिलते। इस प्रकार उनका सामाजिक विकास रुक जाता है
5. अभिमान का विकास-कक्षा में अध्यापक द्वारा प्रतिभाशाली बच्चों की तरफ अधिक ध्यान देने से ये बालक स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लग जाते हैं। उनमें अहम् का भाव आ जाता है। इससे बच्चों में एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या की भावना विकसित हो जाती है तथा प्रतिभाशाली व सामान्य बच्चों में सम्बन्ध मधुर नहीं हो पाते।
प्रश्न g (iv) राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 और प्रतिभाशाली बच्चों की शिक्षा ।
उत्तर- नई शिक्षा नीति द्वारा प्रतिभाशाली बच्चों के लिए नवोदय विद्यालयों की स्थापना करने का सुझाव दिया गया। ये विद्यालय आवासीय और निःशुल्क हैं। नई शिक्षा नीति द्वारा छात्रों के लिए निम्न कार्यक्रम बताये हैं-
–
(i) अनुपात और भागीदारी – भरपूर सुविधाएँ, अध्यापक छात्र का उच्चतर अनुपात और शिक्षण कार्यक्रमों में व्यावसायिकों द्वारा नियमित भागीदारी आदि इन व्यवस्थाओं की विशेषता होगी।
(ii) विशेष व्यवस्थाएँ — इन छात्रों के शिक्षण के लिए विशेष व्यवस्थाएँ की जानी चाहिए। इसके लिए छात्रों के प्रत्येक छोटे समूह के लिए उनकी रुचि के कुछ विषयों में इकाइयों के आधार पर शिक्षण अधिगम प्रदान करना।
(iii) विस्तृत परियोजना-इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए समूह द्वारा विशेष रूप से निर्मित एक विस्तृत परियोजना तैयार की जानी चाहिए।
(iv) कार्यान्वयन – इन छात्रों के लिए वर्तमान पद्धति में कार्यान्वित की जाने वाली व्यवस्थाओं की रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए।
अतः राष्ट्रीय शिक्षा नीति का विस्तृत उद्देश्य बालकों की पूर्ण क्षमता को विकसित करने के लिए श्रेष्ठता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहेगा।
प्रश्न g (v) मानसिक मंदित बच्चों की मानसिक विशेषताएँ ।
उत्तर- मानसिक मंदित बच्चों की सीखने की गति सामान्य बच्चों से कम होती है। अनुसंधानकर्त्ताओं ने यह प्रमाणित किया है कि मंदित बच्चों को बौद्धिक विकास से सम्बन्धित चार क्षेत्रों-अवधान, स्मृति, भाषा और शैक्षणिक स्तर आदि में विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
(i) अवधान की कमियाँ-एक बच्चा किसी भी कार्य को तभी कर सकता है जब वह उसे स्मरण कर सकता हो या सीख सकता हो। अनुसंधानकर्त्ताओं का यह मत है कि मानसिक मंदित बच्चों की बौद्धिक समस्याओं में सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या अवधान की समस्या होती है। इनमें स्मरण व पूर्व अनुभवों से लाभ उठाने की क्षमता न के बराबर होती है।
(ii) निम्न स्मृति स्तर -मानसिक मंदित बच्चों की सीखने की गति धीमी होने के कारण ये क्रिया को बार-बार दोहराने के बाद ही कुछ सीख पाते हैं। इतना ही नहीं ये सीखकर पुनः भूल भी जाते हैं। इनकी प्रतिक्रिया गति भी धीमी होती है।
(iii) भाषा विकास – इनका भाषा विकास निम्न होता है। भाषा विकास सीमित होने के कारण इस श्रेणी के बच्चों की शब्दावली अपूर्ण और दोषपूर्ण होती है। अतः इन बच्चों का भाषा व वाणी विकास सामान्य बच्चों से निम्न होता है।
(iv) निम्न शैक्षणिक उपलब्धि-शैक्षणिक बुद्धि व शैक्षणिक उपलब्धि सम्बन्धी सभी क्षेत्रों में ये बालक सामान्य बच्चों से पीछे रहते हैं क्योंकि बुद्धि और उपलब्धि में गहरा सम्बन्ध है। इनकी अधिगम क्षमता सीखने या समझने की बजाय रटने पर आधारित होती है। ये कोई भी क्रिया या वस्तु रटकर ही सीखते हैं। अपनी रटने की इसी प्रवृत्ति के कारण ये बार-बार गलतियाँ करते हैं।
प्रश्न g (vi) मानसिक मंदित बच्चों की समस्याएँ ।
उत्तर- 1. समायोजन सम्बन्धी समस्याएँ-मानसिक मंदित बच्चों को समाज, घर तथा विद्यालय में समायोजन सम्बन्धी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, जिनका वर्णन इस प्रकार है-
(i) परिवार में समायोजन – मन्दबुद्धि बच्चे के माता-पिता को यह विश्वास दिलाना अति आवश्यक होता है कि उनका बच्चा मानसिक मंदित है। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो माता-पिता अपने बच्चे से उच्च आकांक्षाएँ रखने लगते हैं, लेकिन कुछ ही समय में बालक की असफलताएँ उन्हें निराश कर देती हैं। इस कारण माता-पिता का व्यवहार बच्चे के प्रति बदल जाता है जो माता-पिता व बच्चे में एक द्वन्द्व की स्थिति पैदा करता है। ऐसी स्थिति में बच्चा स्वयं को परिवार में कुसमायोजित महसूस करने लगता है।
(ii) विद्यालय में समायोजन – मन्दबुद्धि बच्चों को साधारण बच्चों की तरह कक्षा में अध्यापकों की सामान्य विधियों द्वारा नहीं पढ़ाया जा सकता, क्योंकि ऐसे बालक अध्यापकों की सामान्य विधियों से कुछ भी सीखने में असमर्थ होते हैं, जिसके कारण मन्दबुद्धि बच्चों को विद्यालयों तथा कक्षाओं में अध्यापकों के असहानुभूतिपूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ता है। कई बार तो उन्हें दण्ड भी दिया जाता है। विद्यालय की विभिन्न गतिविधियों में भाग लेने के लिए उन्हें कोई प्रोत्साहित नहीं करता। इस प्रकार बच्चा हीन भावना से भर जाता है तथा पढ़ाई एवं विद्यालय के प्रति उसका दृष्टिकोण बिल्कुल बदल जाता है।
(iii) समाज में समायोजन-बच्चे को परिवार के बाद समाज में अपने आपको समायोजित करना पड़ता है। मानसिक मंदित बच्चों के लिए तो यह और भी मुश्किल हो जाता है। समाज के दूसरे बच्चे उनके साथ खेलना पसन्द नहीं करते तथा बात-बात पर उनको चिढ़ाते हैं। परिणामस्वरूप इन बालकों में हीन भावना पैदा होनी शुरू हो जाती है। इसी प्रकार से इन बच्चों में सामाजिक गुणों का विकास नहीं हो पाता।
2. संवेगात्मक समस्याएँ-मानसिक मंदित बच्चों को घर, विद्यालय व समाज में उचित वातावरण न मिलने के कारण कुसमायोजित बालक संवेगात्मक रूप से परिपक्व नहीं हो सकते। संवेगों को नियंत्रित करने का प्रशिक्षण उन्हें नहीं मिल पाता। अतः ये बच्चे संवेगात्मक रूप से अपरिपक्व रह जाते हैं, जिसके कारण ये अपने आपको समायोजित नहीं कर पाते।
3. शारीरिक व मानसिक विकास की समस्याएँ-मानसिक मंदित बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास सामान्य बच्चों की तरह नहीं हो पाता जिसके कारण इनको समायोजन की कठिनाइयाँ होती हैं। इनका बौद्धिक विकास कम होने के कारण ये कुछ सीख नहीं पाते। इनके अमूर्त चिन्तन का अभाव होता है। ये किसी एक विषय पर अधिक समय तक ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकते। इनकी रुचियाँ सीमित होती हैं तथा ये केवल साधारण तथा सरल निर्देश ही समझ सकते हैं।
प्रश्न g (vii) मानसिक मंदिता की रोकथाम के उपाय।
उत्तर- 1. मानसिक मंदित बच्चों की मंदिता को कम करने का उपाय सबसे पहले उनकी पहचान तथा खोज होता है। उदाहरणस्वरूप, Apgar Scale के द्वारा नये जन्मे बच्चों की मंदिता की पहचान की जा सकती है तथा उसकी रोकथाम के उपाय किये जा सकते हैं।
2. मानसिक मंदिता को कम करने के लिए गर्भवती माताओं को जननिकी निर्देशन प्रदान करना चाहिए।
3. जर्मन खसरा तथा टेटनस जैसी भयंकर बीमारियों के लिए प्रतिरक्षित टीके आवश्यकतानुसार लगवाने चाहिए।
4. शीशे जहर की रोकथाम के लिए फर्नीचर तथा खिलौने पर प्रयोग होने वाले शीशे जहर की रोकथाम सम्बन्धी कानून बनाये तथा लागू किये जाने चाहिए।
5. उच्च रक्तचाप वाली गर्भवती महिलाओं को उचित देखभाल प्रदान की जानी चाहिए। 6. बच्चों को पर्याप्त पोषण तथा सन्तुलित आहार प्रदान किया जाना चाहिए।
7. गर्भवती महिला को शुरुआती महीनों में एक्स-रे किरणों के प्रभाव से दूर रहना चाहिए। 8. गर्भवती महिला के लिए शराब, तम्बाकू, कोकीन व अन्य नशीली दवाइयों का प्रयोग वर्जित होना चाहिए।
प्रश्न g (ix) संवेगात्मक रूप से अशान्त बच्चों की विशेषताएँ ।
उत्तर- इन बच्चों की विशेषताओं को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है-
1. व्यावहारिक विशेषताएँ-संवेगात्मक विक्षिप्त बालक विभिन्न व्यावहारिक विशेषताएँ प्रदर्शित करते हैं, जैसे-शिक्षक के प्रश्न का उत्तर निरर्थक शब्दों में देते हैं, गृहकार्य पूरा करके नहीं लाते हैं, विद्यालय में अनुपस्थित रहते हैं, परीक्षा में अच्छे अंक नहीं प्राप्त करते तथा प्रतियोगिता की भावना अधिक होने के कारण ये सामान्य बच्चों से जलन करते हैं। इनके व्यवहार का कोई पूर्व अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
2. बुद्धि शैक्षिक निष्पत्ति – संवेगात्मक रूप से विक्षिप्त (अशान्त) बच्चों की शैक्षिक निष्पत्ति सामान्य से कम होती है। इनका बुद्धिलब्धि स्तर 90 के लगभग होता है। ये बालक विद्यालय की प्रतिदिन की क्रियाओं से बचना चाहते हैं। गणित विषय से बहुत डरते हैं। उनका आकांक्षा का स्तर भी ऊँचा नहीं होता तथा अधिकतर कक्षा में जाकर ये समस्या उत्पन्न करते हैं।
3. सामाजिक व संवेगात्मक विशेषताएँ-संवेगात्मक रूप से अशान्त बच्चों में पलायन की प्रवृत्ति अधिक होती है इसलिए ये समाज से पृथक् होते हैं। सामान्य बालक इन्हें पसन्द नहीं करते। . इन्हें विद्यालय में अक्सर दण्ड दिया जाता है। इन बच्चों की सामाजिक और संवेगात्मक समस्याएँ सामान्य होती हैं, जैसे-लड़ना, झगड़ना आदि।
इकाई-III
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न h (i) अक्षम बालकों के प्रति परिवार का दायित्व बताइए।
उत्तर-अक्षम बालक के प्रति परिवार के निम्नलिखित उत्तरदायित्व होते हैं-
(1) शिक्षा की व्यवस्था-अक्षम बालकों हेतु शिक्षा की व्यवस्था करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह बालकों की मनोस्थिति के अनुसार हो। जैसे—नेत्रविहीन बालकों के लिए ब्रेल लिपि की पुस्तकों व अध्यापकों की व्यवस्था करना।
(2) विशेषज्ञों का परामर्श-अक्षम बालकों की शिक्षा व शिक्षण व्यवस्था करते समय विशेषज्ञों का परामर्श लेते रहना चाहिए। उनसे इस बात की जानकारी व परामर्श लेना चाहिए कि बालकों की आवश्यकताओं तथा उनकी शिक्षण सम्बन्धी समस्याओं को कैसे दूर किया जाए।
(3 ) उपकरण की उपलब्धता- छात्रों को शिक्षण प्राप्ति के दौरान परिवार के सदस्यों को उनकी शिक्षण सम्बन्धी समस्त उपकरणों, जैसे-लेखन, पठन व चित्रकला सम्बन्धी इसके साथ-साथ प्रयोगात्मक विधियों से सम्बन्धित उपकरणों की व्यवस्था भी करानी चाहिए।”
( 4 ) आत्मनिर्भरता – परिवार के सदस्यों को बालकों में आत्मनिर्भरता का गुण विकसित करना चाहिए। उन्हें पठन के लिए प्रोत्साहित करते हुए जीविकोपार्जन हेतु सक्षम बनाने के लिए उनके आत्मविश्वास को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।
(5) अवसर की उपलब्धता – परिवार के सदस्यों को बालक की रुचियों, अभिरुचियों को समझते हुए उन्हें उनके क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए अवसर उपलब्ध करवाने चाहिए। उनकी छोटी छोटी कमियों व त्रुटियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
प्रश्न h (ii) एक समावेशी विद्यालय के निर्माण हेतु पाठ्यचर्या बताइए।
उत्तर- विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों के लिए शिक्षा तथा संज्ञानात्मक की एक विस्तृत श्रृंखला को प्रदर्शित करना, जैसे—संचार, शारीरिक, संवेदी और सामाजिक/भावात्मक मतभेद को आवश्यकता के अनुसार बदलकर सामान्य शिक्षा कार्यक्रमों में रूपान्तरण। पाठ्यचर्या रूपान्तरण संशोधन से तात्पर्य यह है कि “आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा या किसी एक सामग्री के लिए विशेष रूप से सम्बन्धित पाठ्यक्रम।” ये समायोजन या संशोधन निम्न कार्यों के लिए हो सकता है-
(1) शिक्षण और सीखने के लिए माहौल।
(2) शिक्षण और सीखने की तकनीक।
(3) शिक्षण और सीखने के लिए जरूरत की समर्थन सामग्री को सीखने की गतिविधि में एक शिक्षार्थी के प्रदर्शन को बढ़ाता है या कम से कम आंशिक भागीदारी की अनुमति देता है।
(4) शिक्षण कार्यक्रम और उनका मूल्यांकन।
मूल्यांकन प्रक्रिया, व्यवहार सामग्री अधिगम विकलांगता के प्रति संवेदनशीलता को सम्बोधित करना। स्कूल में दूसरे बच्चों की आवश्यकताओं को इस तरह के हस्तक्षेप के सभी बच्चों को लाभ सुनिश्चित करने के लिए।
प्रश्न h (iii) दृष्टिबाधित बालकों हेतु पाठ्यचर्या बताइए।
उत्तर- दृष्टि असमर्थी बालकों की शैक्षिक आवश्यकताएँ उनकी बाधिता की मात्रा तथा प्रकार दोनों पर निर्भर करती है। दृष्टि बाधिक बालकों के लिए पाठ्यक्रम का अनुकूलन निम्नलिखित बिन्दुओं पर होता है-
(1) बड़े आकार के 3D मॉडल को दिखाना।
(2) ब्रेल लिपि-ब्रेल लिपि संक्षिप्त लिपि की एक प्रणाली है, जिसका प्रयोग नेत्रहीन बालकों की शिक्षा के लिए किया जाता है।
(3 ) गणना यंत्र का प्रयोग-गणना यंत्र की सहायता से अंकों को ऊँचा बोलकर आंशिक रूप से बाधित तथा नेत्रहीन बालकों को सुनाया जाता है।
(4) सहगामी पाठ्यक्रम – इस पाठ्यक्रम के अंतर्गत दृष्टि बाधित बालकों में सम्प्रेषण, श्रव्य कौशल, सामाजिक कौशल तथा प्रत्ययों के निर्माण करने में सहायता दी जाती है।
(5) पाठ्य सहगामी क्रियाओं का प्रयोग—इन बालकों की शिक्षा में पाठ्यक्रम साथ-साथ गाना, संगीत, नाट्य, कला, वाद-विवाद, खेल क्रीड़ाओं आदि से इन बच्चों की शिक्षा में भागीदारी को बढ़ाया जा सकता है।
प्रश्न (iv) समावेशी शिक्षा के पाठ्यचर्या के विकास तथा सुधार लिखिए।
उत्तर—समावेशी शिक्षा को विभिन्न प्रकार की अनुदेशात्मक युक्तियों की आवश्यकता होती है जो सभी विद्यार्थियों को उनकी बुद्धिमत्ता, अधिगम शैली, क्षमताओं और कमियों की विभिन्नता के साथ अधिगम करने में सहायता करती है।
समावेशी शिक्षा परम्परागत पाठ्यक्रम की सहायता से प्रदान नहीं की जा सकती है क्योंकि यह विशिष्ट बच्चों की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करती इसलिए यह आवश्यक है कि पाठ्यक्रम में सुधार किया जाए।
पाठ्यक्रम में विकास और सुधार निम्नलिखित तरीकों से किया जा सकता है-
(1) बहुस्तरीय तथा लचीला पाठ्यक्रम-स्कूलों में समावेशी शिक्षा प्रदान करना। एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। विभिन्न योग्यताओं के विद्यार्थियों को एक ही कक्षा में पढ़ाया जाता है इसलिए यह आवश्यक है कि पाठ्यक्रम लचीला हो जो विद्यार्थियों की विभिन्न क्षमताओं और आवश्यकताओं को पूरा कर सके।
(2) सहकारी पाठ्यक्रम–पाठ्यक्रम इस प्रकार निर्मित होना चाहिए कि वह सरकारी गतिविधियों को अधिक बढ़ावा दे। यदि छात्र किसी काम को मिलकर करेंगे तो वह उसे सरलता से सीख सकेंगे।
(3) पर्याप्त सुविधाएँ – पाठ्यक्रम में पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान करने और इन सुविधाओं का प्रयोग करने को सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
(4) पठन-सामग्री प्रदान करना-विद्यार्थियों की आवश्यकताओं और रुचियों के अनुसार पठन-सामग्री उपलब्ध होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, नेत्रहीन विद्यार्थियों के लिए पठन सामग्री के रूप में ब्रेल लिपि प्रदान की जानी चाहिए।
(5) साधारण पाठ्यक्रम – मानसिक रूप में विकलांग बच्चों के लिए साधारण पाठ्यक्रम होना चाहिए। ऐसे विद्यार्थियों को पाठ याद करने की अपेक्षा व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए। उन्हें हस्तकौशल सिखाए जाने चाहिए ताकि वह जीवन में आत्मनिर्भर बन सकें।
(6) खेलों में भाग लेना-बच्चों की शारीरिक-मानसिक योग्यताओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें खेलों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
(7) सहगामी क्रियाओं में भाग लेना- छात्रों को सहगामी क्रियाओं में भाग लेने के लिए. प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उन्हें यात्राओं व भ्रमणों पर भी ले जाया जाना चाहिए।
प्रश्न h (v) एक समावेशी विद्यालय निर्माण हेतु शिक्षण रणनीतियाँ लिखिए।
उत्तर-कुछ अच्छी कक्षा-कक्ष पद्धतियाँ समावेशन की एक उत्तम विशेषता बन जाती हैं, जहाँ प्रत्येक बच्चा अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपनी योग्यता एवं रुचि के अनुसार कार्य करता है। विशिष्ट बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना किसी भी तरह से कम महत्वपूर्ण नहीं है। विशिष्ट बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना समावेशी विद्यालयों का पहला कर्तव्य है। जब विद्यालयों में ऐसा समावेश होता है, विशिष्ट बालकों को हीन भावना का शिकार नहीं होना पड़ता है।
समावेश का अर्थ है सभी विद्यार्थी, जहाँ तक सम्भव हो सके विद्यालय में सुरक्षित एवं स्वीकृत महसूस करें। समावेशी कक्षा में यह आवश्यक होता है कि एक अध्यापक सभी बच्चों की अधिगम, सामाजिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं को अच्छी प्रकार से समझें। बच्चों की अधिगम योग्यताओं को बढ़ाना एक अध्यापक का विशिष्ट कर्तव्य है।
समावेश को सफल बनाने के लिए विशिष्ट पद्धतियों एवं प्रभावशाली कक्षा-कक्ष प्रबन्धन की आवश्यकता है। अध्यापक कक्षाकक्ष में विभिन्न नीतियों का प्रयोग भी कर सकता है।
कक्षा-कक्ष पद्धतियों का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया है-
(1) सहभागी शिक्षण/सह शिक्षण -जॉन मेयर के अनुसार, सहभागिता शब्द लैटिन भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘साथ कार्य करने की प्रक्रिया’ सह शिक्षण विधि एक ऐसी प्रणाली है जो कि बच्चों के सभी स्तरों एवं योग्यताओं को ध्यान में रखकर बनाई गई है। समावेशी शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु यह विधि लाभदायक सिद्ध होती है।
(2) सम्पूर्ण कक्षा शिक्षण – यद्यपि विशिष्ट शिक्षा के क्षेत्र में विशिष्ट सेवाओं पर बहुत समय से जोर दिया जा रहा है फिर भी सेवा प्रदान करने वालों ने यह माना है कि यदि कक्षा में सम्पूर्ण रूप से शिक्षा प्रदान की जाए तो अधिगम को बेहतर उपलब्धि के लिए प्रभावित किया जा सकता है
प्रश्न – h(vi) श्रवण दोष वाले बालकों की शिक्षा-व्यवस्था आप कैसे करेंगे?
उत्तर- सभी श्रवणबाधितों को एकसमान शिक्षा नहीं दी जा सकती। यदि बच्चा श्रवण यंत्र की सहायता से सुन सकता हो तो उसे सामान्य विद्यालय में सामान्य बालकों के साथ पढ़ाना चाहिए। अगर श्रवणबाधिता गम्भीर हो तो उसे श्रवणबाधितों के लिए बने विशेष विद्यालय में डालना चाहिए।
श्रवणबाधितों को शिक्षा निम्न प्रकार से दी जा सकती है-
1. पढ़ाने का साधारण ढंग-अध्यापक को चाहिए कि ऐसे बालकों को पढ़ाते समय चार्ट, ब्लैक-बोर्ड, रंगीन चॉक आदि का अधिकाधिक प्रयोग करें। कक्षा में भाषा से सम्बन्धित चार्ट लगे होने चाहिए। पढ़ाते समय छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग करना चाहिए।
2. पढ़ाने का मौखिक ढंग – श्रवणबाधित बच्चे को सामान्य बच्चे की तरह इस प्रकार का प्रशिक्षण देना चाहिए कि वह भाषण के द्वारा अपने विचारों को प्रकट कर सके तथा भाषण पठन के द्वारा उनको ग्रहण कर सके। इस विधि की सफलता बच्चे की योग्यता पर निर्भर करती है कि वह इसे कितनी जल्दी ग्रहण करता है। शैक्षिक विधि में यह प्रारम्भिक सीढ़ी का कार्य करती है।
इस विधि में बच्चा बोलने वाले के चेहरे की हलचल, गला तथा होठों की बनावट को देखकर समझने की कोशिश करता है,
3. घरेलू पाठ्यक्रम-जन्म के पश्चात् जब बच्चे की श्रवणबाधिता का आभास हो तो माता- पिता को किसी योग्य कान-विशेषज्ञ से जाँच करवाकर उसकी श्रवणबाधिता के स्तर के अनुसार ही उसके लिए वातावरण तैयार करना चाहिए।
4. कक्षा व्यवस्था – कक्षा में ऐसे बालकों को आगे बैठाना चाहिए। कमरे में अध्यापक की आवाज गूँजनी नहीं चाहिए। अध्यापक को अपने चेहरे के भाव इस प्रकार रखने चाहिए ताकि बच्चा उन भावों को पढ़ सके। कक्षा में चार्ट, मॉडल आदि सहायक-सामग्री का प्रबन्ध होना चाहिए। प्रश्न h (vii)
प्रश्न h (vii) दृष्टिबाधित बच्चों के प्रति अध्यापक की क्या भूमिका होनी चाहिए?
उत्तर- दृष्टिबाधित बालकों के लिए शैक्षिक रियायतें व सुविधाएँ
पूर्ण रूप से दृष्टिबाधित बालकों को शिक्षा देना एक चुनौती भरा कार्य है। जिन बालकों की दृष्टि स्पष्टता 20/200 या इससे कम होती है, उन्हें पूर्ण रूप से दृष्टिबाधित बालक कहते हैं। ऐसे बालकों को पूर्णतया अपनी ज्ञानेन्द्रियों पर निर्भर रहना पड़ता है। अतः ज्ञानेन्द्रियों के स्वास्थ्य की देखभाल करनी चाहिए।
सर्वप्रथम यूरोप के देशों में सबसे पहले वैलनटाइन हेनी ने पेरिस में 1784 ई० में अन्धे बालकों को पढ़ाने के लिए पहला छात्रावास स्कूल खोला। यू०एस०ए० में एच०जी० होवे ने 1866. ई० में अन्धे बालकों के लिए स्कूल खोला। लेकिन उनका ऐसा विश्वास था कि जो बच्चे कुछ देख सकते हैं उनको साधारण बच्चों के साथ पढ़ाना चाहिए। दिन के स्कूलों की शुरुआत 1900 में शिकागो में तथा 1933 में Rexbury Mass में हुई।
पूर्ण रूप से दृष्टिबाधित बालकों को उनके लिए बने विशेष विद्यालयों में भेजना चाहिए। ऐसे विद्यालयों में पूरी गतिविधियाँ दृष्टिबाधित बच्चों की आवश्यकतानुसार की जाती हैं और वे सुरक्षित वातावरण में रहते हैं। सामान्य विद्यालयों व दृष्टिबाधित विद्यालयों के वातावरण में काफी अन्तर होता है। माँ-बाप आदि को चाहिए कि वे समय-समय पर अपने बच्चों से मिलते रहें ताकि वे अपने आपको घर से दूर न समझें। अतः ऐसे बालकों को विशेष विद्यालयों में ही पढ़ना चाहिए।
प्रश्न (viii) समावेशी शिक्षा हेतु अध्यापकों के प्रशिक्षण पर प्रकाश डालिये।
उत्तर- बालकों की समावेशी आवश्यकताओं के निर्वाह हेतु सन् 1981 में अध्यापकों के प्रशिक्षण की दिशा में प्रयास प्रारम्भ हुए। इसके लिए अल्प अवधि पाठ्यक्रमों का प्रारूप तैयार करने में भारत सरकार द्वारा केन्द्रीय पोषित कार्यक्रम जो अब बाधितों की समन्वित शिक्षा (Project PIED) के नाम से पहचानी जाती है, की देख-रेख में समन्वित शिक्षा को लागू करने में मुख्य भूमिका राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् ने निभाई। इस परिषद् ने शिक्षण क्षेत्र में अग्रणी बनते हुए तीन स्तरों पर पाठ्यक्रमों को प्रारूप बनाया जो निम्नलिखित हैं-
स्तर 1 – सभी प्राथमिक शिक्षकों के लिए योजना क्षेत्र में एक सप्ताह का प्रशिक्षण देना। स्तर 2 – सेवाकाल में चुने गए शिक्षकों के लिए 6 सप्ताह का प्रशिक्षण।
स्तर 3 – सन् 1987 में भारतीय शिक्षा अनुसंधान प्रशिक्षण परिषद् के क्षेत्रीय शिक्षण संस्थाओं में विभिन्न श्रेणियों में शिक्षकों के लिए एक वर्ष का प्रशिक्षण ।
उपरोक्त प्रशिक्षण कार्यक्रमों के अतिरिक्त भारतीय शिक्षा अनुसंधान परिषद् के मुख्यालयों पर मुख्य व्यक्तियों के लिए भारतीय पुनर्वास परिषद् द्वारा प्रशिक्षण का प्रारूप बनाया। ऐसे विश्वविद्यालयों में जहाँ स्नातक अध्यापक प्रशिक्षण बी.एड. कक्षाओं, स्नातकोत्तर अध्यापक प्रशिक्षण बी.एड. कक्षाओं तथा स्नातकोत्तर अध्यापक प्रशिक्षण एम.एड. कक्षाओं की व्यवस्था है वहाँ पर विशिष्ट शिक्षा से सम्बन्धित पाठ्यक्रमों को प्रारम्भ किया।
प्रश्न h (ix) शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों के लिए अध्यापक को क्या करना चाहिए?
उत्तर- समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण है। यदि शिक्षक बच्चे के नजरिये का सम्मान नहीं करता है, वह बच्चे के परिवेश के प्रति संवेदनशील नहीं है तो बच्चे का अपने समाज. संस्कृति, परिवेश के प्रति नजरिया बदल जाता है और वह बहुधा स्वयं को दीन-हीन समझने लगता है, जिसका परिणाम विद्यालय से पलायन के रूप में नजर आता है। अतः शिक्षक का कर्त्तव्य है कि वह विद्यालय के वातावरण को बोझिल न बनने दे क्योंकि यदि विद्यालय का वातावरण बच्चे के लिए असहज, असुरक्षित, अपमानित करने वाला या हीनता की भावना उत्पन्न करने वाला होगा तो बच्चे शिक्षा से विरत हो सकते हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है जो कि वंचित वर्ग के बच्चों व विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के साथ अक्सर देखने को मिलती है। यद्यपि यह भी सत्य है कि विद्यालय भवन, पाठ्यक्रम, पाठ्य सहगामी क्रियायें, सहायक शिक्षण सामग्री आदि सभी वस्तुयें व क्रियाकलापों का भी शैक्षिक प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, परन्तु शिक्षक ही वह शक्ति है जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सबसे अधिक प्रभावित करता है। यही कारण है कि समावेशी शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षकों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है, क्योंकि समावेशी शिक्षा- व्यवस्था में शिक्षक केवल अपने आपको शिक्षण कार्य तक ही सीमित नहीं रखता है, अपितु विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों का कक्षा में उचित ढंग से समायोजन करना, उनके लिए विशिष्ट प्रकार की शैक्षिक सामग्री का निर्माण करना, विद्यालय के अन्य कर्मचारियों, अध्यापकों तथा विशिष्ट अध्यापकों से बालक की विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सहयोग व सहकारपूर्ण व्यवहार करना, बालक को मिलने वाली आर्थिक सुविधाओं का वितरण करना आदि कार्य भी करने होते हैं। इसलिए शिक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूर्णतः निपुण हो, उसे विशिष्ट सामग्री की जानकारी हो, वह बालकों के प्रति स्वस्थ व सकारात्मक अभिवृत्तियाँ रखता हो, उनके मनोविज्ञान को भी समझता हो। समावेशी शिक्षा में शिक्षक को निरन्तर बच्चों से संवाद करते हुए उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश करनी चाहिए कि उनकी विकलांगता या विशिष्टता उनके मार्ग में बाधक नहीं बन सकती यदि वे अपना इरादा मजबूत रखें। शिक्षक को इन बालकों के अभिभावकों को भी इन बालकों हेतु चलाई जा रही सरकारी योजनाओं की जानकारी देनी चाहिए ताकि वे इसका लाभ उठा सकें।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
निर्देश: प्रश्न संख्या 2 से 9 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न हैं। परीक्षार्थियों को प्रत्येक इकाई से एक प्रश्न का चयन करते हुए कुल चार प्रश्नों का उत्तर देना अनिवार्य है। प्रत्येक प्रश्न के लिए 71⁄2 अंक निर्धारित हैं। (4 x 71⁄2 = 30 अंक)
इकाई-1
प्रश्न 2 (i) समावेशी शिक्षा की अवधारणा, स्पष्ट करें। समावेशी शिक्षा के उद्देश्यों एवं आवश्यकताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर – समावेशी शिक्षा की अवधारणा/सम्प्रत्यय
समावेशीकरण शिक्षा के इतिहास में नया नहीं है, इसकी पहुँच को प्राचीन समय में भिन्न व विशिष्ट मनुष्यों को उन मनुष्यों ने प्रताड़ित, शोषित अमानवता कर दबा दिया था जो अपने आपको सबसे भिन्न व अतिविशिष्ट मानसिकता वाले समझते थे। परन्तु ऐसे अमानवीय कृत्यों को अंजाम देते समय यह मनुष्य भूल गये थे कि अगर ये विशिष्ट भिन्न भी हैं तो क्या इनकी विशिष्टता और भिन्नत मनुष्यों की दमनात्मक, रूढ़िवादी और अपने आपको सर्वश्रेष्ठ एवं अन्य विभिन्नता या विशिष्टता से परिपूर्ण मनुष्यों को हीन मानने व समझने वाली थी। परन्तु समय के परिवर्तन के साथ-साथ जब जनसंख्या में वृद्धि हुई तो विशिष्टता के विभिन्न पक्ष जैसे—सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक, योग्य, निर्योग्य आदि सामने आए। जैसे-जैसे मनुष्य के आपसी व्यवहारों में अंतर होता गया वैसे-वैसे विशिष्टता की मात्रा के आधार पर वर्गीकरण बढ़ता गया। जिसमें जैसी विशिष्टता की मात्रा पायी गई उसे वैसे ही शिक्षा प्रदान की जाने लगी। लेकिन इस बीच ऐसे बालक भी सामने आए जो शिक्षा शब्द के नाम से भी अपरिचित थे और समय के परिवर्तन की माँग को देखते हुए इन बालकों को अपनाने के लिए विद्यालय, समाज या राष्ट्र समावेशन की ओर कदम बढ़ाने लगे। जिसके फलस्वरूप आज इतने प्रयासों के बाद कहीं शिक्षा के अर्थों को समस-समय पर शिक्षाविदों द्वारा बदले जाने के बाद समावेशीकरण का मुद्दा अपना सिर उठा पाया है।
समावेशीकरण वर्तमान समय को देखते हुए एक अतिव्यापक शब्द ही नहीं, बल्कि एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया भी है।
विशिष्टता और भिन्नता को अवसर पूर्ण या सकारात्मक रूप में ही स्वीकार किया जाता है, जो कि इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य सदा से ही सुगम व सरल कार्यों को आसानी से ग्रहण कर लेता है। जबकि कठिन कार्य अन्य मनुष्यों के लिए छोड़ देता है। परन्तु वास्तविकता यह है कि ‘विशिष्टता मात्र पूर्णता एवं सकारात्मकता तक ही सीमित नहीं है। वरन् इसका एक रूप अपरिपूर्ण या विशिष्ट / अतिविशिष्ट आवश्यकताओं वाला होना भी है।’
समावेशी शिक्षा का अर्थ
समावेशी शिक्षा का आन्दोलन सभी नागरिकों की समानता के अधिकार को पहचानने और सभी बालकों को समावेशी आवश्यकताओं के साथ-साथ शिक्षा के समान अवसर के रूप में कहता है। देखा जाता है कि उन्हें कम नियंत्रित तथा अधिक प्रभावशाली वातावरण में शिक्षा देनी चाहिए। कम प्रतिबन्धित वातावरण जो अधिक बालकों को चाहिए केवल सामान्य शिक्षण संस्थाओं में ही दिया जा सकता है। इस प्रकार, समावेशी शिक्षा अपंग बालकों की शिक्षा सामान्य स्कूल तथा सामान्य बालकों के साथ कुछ अधिक सहायता प्रदान करने की ओर इंगित करती है। यह शारीरिक तथा मानसिक रूप से बाधित बालकों को सामान्य बालकों के साथ सामान्य कक्षा में शिक्षा प्राप्त करना विशिष्ट सेवाएँ देकर विशिष्ट आवश्यकताओं के प्राप्त करने के लिए सहायता करती है।
समावेशी शिक्षा की परिभाषाएँ
यूनेस्को (2002) के अनुसार, “समावेशन (EFA) के विकास के लिए यूनेस्को कार्यक्रम के दौरान मौलिक दर्शन और मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में देखा गया था।”
“समावेशी शिक्षा प्रणाली की संरचना तभी की जा सकती है, जब सामान्य विद्यालयों को और भी अधिक समावेशित कर दिया जाए। दूसरे शब्दों में अपने समुदाय के ही अन्दर सभी बच्चों को पढ़ाना और भी बेहतर होगा।””
समावेशी शिक्षा को निम्न परिभाषाओं से भी समझा जा सकता है-
“समावेशी शिक्षा को एक आधुनिक सोच की तरह परिभाषित किया जा सकता है, जो कि शिक्षा को अपने में सिमटे हुए दृष्टिकोण से मुक्त करती है और ऊपर उठने के लिए प्रोत्साहित करती है।”
दूसरे शब्दों में-
“समावेशी शिक्षा अपवर्जन के विरुद्ध एक पहल है।”
शिक्षाशास्त्री के अनुसार, “समावेशीकरण शिक्षकों को छात्रों के रूप में विद्यालय व कक्षागत परिस्थितियों के अंतर्गत उन बालकों के बारे में जानने व प्रशिक्षित होने के लिए तैयार कर देती है। जो सामान्य बालकों से अपने स्वरूप में भिन्न एवं विशिष्ट हैं।”
समावेशी शिक्षा के उद्देश्य
समावेशी शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों को निम्नलिखित पंक्तियों में स्पष्ट किया गया है-
1. समाज में असमर्थ बच्चों में फैली भ्रांतियों को दूर करना ।
2. असमर्थ बच्चों को जीवन की चुनौतियों का सामना करने योग्य बनाना।
3. असमर्थ बच्चों को आत्म-निर्भर बनाकर उनके पुनर्वास का प्रबन्ध करना ।
4. बच्चों की असमर्थताओं का पता लगाकर उनको दूर करने का प्रयास करना।
5. बच्चों में आत्म-निर्भरता की भावना का विकास करना।
6. असमर्थों को शिक्षित करके देश की मुख्यधारा से जोड़ना।
7. असमर्थ बच्चों को सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से समाज से जोड़ना।
8. जागरूकता की भावना का विकास करना।
9. प्रजातांत्रिक मूल्यों के उद्देश्यों को प्राप्त करना।
समावेशी शिक्षा की आवश्यकताएँ
कुछ शिक्षाविद् विशिष्ट शिक्षा के पक्षधर नहीं हैं। उनके अनुसार यह शिक्षा के अवसरों के समान नहीं है तथा बालकों के विचारों में भिन्नता पैदा होती है। सामान्य कक्षायें अपंग बालकों में हीन भावना उत्पन्न करती हैं। कुछ ही समय पहले मनोवैज्ञानिकों ने विचार दिया है कि समावेशी शिक्षा हमारे सामान्य विद्यालयों में दी जाये जिससे सभी बालकों को शिक्षा के समान अवसर मिलें। शिक्षाविद भी इस प्रकार की शिक्षा के पक्षधर हैं तथा इसे निम्न कारणों से उचित बताते हैं-
1. सामान्य मानसिक विकास सम्भव है-विशिष्ट शिक्षा में मानसिक जटिलता मुख्य है। अपंग बालक अपने आपको दूसरे बालकों की अपेक्षा तुच्छ तथा हीन समझते हैं जिसके कारण उनके साथ पृथक्ता से व्यवहार किया जा रहा है। समावेशी शिक्षा-व्यवस्था में, अपंगों को सामान्य बालकों के साथ मानसिक रूप से प्रगति करने का अवसर प्रदान किया जाता है। प्रत्येक बालक सोचता है कि वह किसी भी प्रकार से किसी अन्य बच्चे से तुच्छ रहा है। इस प्रकार समावेशी शिक्षा पद्धति बालकों की सामान्य मानसिक प्रगति को अग्रसर करती है।
2. सामाजिक एकीकरण को सुनिश्चित करती है-अपंग बालकों में कुछ सामाजिक गुण बहुत संगत होते हैं जब वे सामान्य बालकों के साथ शिक्षा पाते हैं। अपंग बालक अधिक संख्या में सामान्य बालकों का संग पाते हैं तथा एकीकरणता के कारण वे सामाजिक गुणों को अन्य बालकों के साथ ग्रहण करते हैं। उनमें सामाजिकता, नैतिक गुण, प्रेम, सहानुभूति, आपसी सहयोग आदि गुणों का विकास होता है। विशिष्ट शिक्षा-व्यवस्था में छात्र में केवल विशिष्ट ध्यान ही नहीं परन्तु विस्तार में शिक्षण तथा सामाजिक स्पर्द्धा की भावना विकसित होती है।
3. समावेशी शिक्षा कम खर्चीली है-निःसन्देह विशिष्ट शिक्षा अधिक महँगी तथा खर्चीली है। इसके अलावा विशिष्ट अध्यापक एवं शिक्षाविदों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम भी अधिक समय लेते हैं। दूसरे दृष्टिकोण से समावेशी शिक्षा कम खर्चीली तथा लाभदायक है। विशिष्ट शिक्षा संस्था को बनाने तथा शिक्षण कार्य प्रारम्भ करने के लिए अन्य कई स्रोतों से भी सहायता लेनी पड़ती है; जैसे-प्रशिक्षित अध्यापक, विशेषज्ञ, चिकित्सक आदि। अपंग बालक की सामान्य कक्षा में शिक्षा पर कम खर्च आता है।
4. समावेशी शिक्षा के माध्यम से एकीकरण सम्भव है-विशिष्ट शिक्षण व्यवस्था की अपेक्षा समावेशी शिक्षण व्यवस्था में सामाजिक विचार-विमर्श अधिक किये जाते हैं, अर्थात् उच्चारण अधिक है। अपंग तथा सामान्य बालक में सामान्य शिक्षा के अन्तर्गत एक प्राकृतिक वातावरण दिया जाता है। इस वातावरण में अपने सहपाठियों से सीखना, स्वीकार करना तथा स्वयं को दूसरों द्वारा स्वीकार कराया जाना समावेशी शिक्षा द्वारा सम्भव है। सामान्य वातावरण में छात्र में उपयुक्तता की भावना तथा भावनात्मक समायोजन का विकास होता है।
5. शैक्षिक एकीकरण सम्भव है-शैक्षिक योग्यता सामान्यतया समावेशी शिक्षा के वातावरण द्वारा सम्भव है। शिक्षाविदों को यह भी मालूम होता है कि विशिष्ट विद्यालयों में छात्र तथा अपंग छात्र शिक्षा के पूर्ण ग्राही (ग्रहण करने वाले) नहीं होते। सामान्य विद्यालयों में बाधित छात्रों को प्रवेश दिलाने कारण, वह ठीक प्रकार से शिक्षण ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं। एक प्रकार से कहा जा सकता है कि लचीले वातावरण तथा आधुनिक पाठ्यक्रम के साथ समावेशी शिक्षा शैक्षिक एकीकरण लाती है।
6. समानता के सिद्धान्त का अनुपालन करना है-भारत में सामान्य शिक्षा व्यापक रूप से विस्तार की संवैधानिक व्यवस्था की गई है और साथ-साथ शारीरिक रूप से बाधित बालकों के लिए शिक्षा को व्यापक रूप से देना भी संविधान के अन्तर्गत दिया गया है। समावेशी शिक्षा के वातावरण के माध्यम से समानता के उद्देश्य की भी प्राप्ति की जानी चाहिए जिससे कोई भी छात्र अपने आपको दूसरों की अपेक्षा हीन न समझे।
प्रश्न 2 (ii) समावेशी शिक्षा के संप्रत्यय को स्पष्ट करें। एकीकृत और समावेशी शिक्षा में प्रमुख अन्तर क्या है?.
अथवा
भारत में समावेशी शिक्षा, विशिष्ट शिक्षा, एकीकृत शिक्षा का विस्तृत वर्णन कीजिए।
उत्तर – समावेशी शिक्षा वह शिक्षा होती है, जिसके द्वारा विशिष्ट क्षमता वाले बालक जैसे मन्दबुद्धि, अन्धे बालक, बहरे बालक तथा प्रतिभाशाली बालकों को ज्ञान प्रदान किया जाता है।
समावेशी शिक्षा के द्वारा सर्वप्रथम छात्रों के बौद्धिक शैक्षिक स्तर की जाँच की जाती है, तत्पश्चात् उन्हें दी जाने वाली शिक्षा का स्तर निर्धारित किया जाता है। अतः यह एक ऐसी शिक्षा प्रणाली है, जो कि विशिष्ट क्षमता वाले बालकों हेतु ही निर्धारित की जाती है। अतः इसे समेकित अथवा समावेशी शिक्षा का नाम दिया गया।
स्टीफन तथा ब्लैकहर्ट के अनुसार- “शिक्षा की मुख्य धारा का अर्थ बाधित (पूर्ण रूप से अपंग नहीं) बालकों की सामान्य कक्षाओं में शिक्षण-व्यवस्था करना है। यह समान अवसर मनोवैज्ञानिक सोच पर आधारित है जो व्यक्तिगत योजना के द्वारा उपयुक्त सामाजिक मानकीकरण और अधिगम को बढ़ावा देती है।”
यरशेल के अनुसार-“समावेशी शिक्षा के कुछ कारण योग्यता, लिंग, प्रजाति, जाति, भाषा, चिन्ता स्तर, सामाजिक-आर्थिक स्तर, विकलांगता, लिंग व्यवहार या धर्म से सम्बन्धित होते हैं।”
शिक्षाशास्त्री के अनुसार- “समावेशी शिक्षा को एक आधुनिक सोच की तरह परिभाषित किया जा सकता है, जो कि शिक्षा को अपने में सिमटे हुए दृष्टिकोण से मुक्त करती है और ऊपर उठने के लिए प्रोत्साहित करती है।
दूसरे शब्दों में, समावेशी शिक्षा अपवर्जन के विरुद्ध एक पहल है।
शिक्षाशास्त्री के अनुसार – ” समावेशी शिक्षा अधिगम के ही नहीं, बल्कि विशिष्ट अधिगम के नये आयाम खोलती है।”
समावेशी शिक्षा एक सतही प्रक्रिया नहीं है, बल्कि मनुष्यों के विकास के लिए मनुष्यों के द्वारा किये गये कुण्ठामुक्त प्रयास है।
समावेशी शिक्षा की विशेषताएँ
समावेशी शिक्षा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. समावेशी शिक्षा ऐसी शिक्षा है जिसके अन्तर्गत शारीरिक रूप से बाधित बालक तथा सामान्य बालक साथ-साथ सामान्य कक्षा में शिक्षा ग्रहण करते हैं। अपंग बालकों को सहायता प्रदान की जाती है। इस प्रकार समावेशी शिक्षा अपंग बालकों के पृथक्कीकरण के विरोधी व्यावहारिक समाधान है।
2. समावेशी शिक्षा विशिष्ट शिक्षा का विकल्प नहीं है। समावेशी शिक्षा तो विशिष्ट शिक्षा पूरक है। कभी-कभी बहुत कम शारीरिक रूप से बाधित बालकों को समावेशी शिक्षा संस्था में प्रवेश कराया जा सकता है। गम्भीर रूप से अपंग बालक को जो विशिष्ट शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं, सम्प्रेषण व अन्य प्रतिभा ग्रहण करने के पश्चात् वे समन्वित विद्यालयों में भी प्रवेश पा सकते हैं।
3. इस शिक्षा का ऐसा प्रारूप दिया गया है जिससे अपंग बालक को समान शिक्षा के अवसर प्राप्त हों तथा वे समाज में अन्य लोगों की भाँति आत्मनिर्भर होकर अपना जीवनयापन कर सकें।
4. यह अपंग बालकों को कम प्रतिबन्धित तथा अधिक प्रभावी वातावरण उपलब्ध कराती है जिससे वे सामान्य बालकों के समान जीवन-यापन कर सकें।
5. यह समाज में अपंग तथा सामान्य बालकों के मध्य स्वस्थ सामाजिक वातावरण तथा सम्बन्ध बनाने में समाज के प्रत्येक स्तर पर सहायक है। समाज में एक-दूसरे के मध्य दूरी कम तथा आपसी सहयोग की भावना को प्रदान करती है।
6. यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत शारीरिक रूप से बाधित बालक भी सामान्य बालकों के समान महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं।
समन्वित, समावेशी एवं विशिष्ट शिक्षा में अन्तर
विशिष्ट शिक्षा
1. विशिष्ट शिक्षा विशिष्ट व सामान्य बालकों को अलग- अलग शिक्षा प्रदान करती है।
2. विशिष्ट शिक्षा भेदभाव के सिद्धान्त पर आधारित है।
3. विशिष्ट शिक्षा, शिक्षा प्रदान करने का एक पुराना विचार है।
4. विशिष्ट शिक्षा अधिक महँगी व खर्चीली शिक्षा है।
5. विशिष्ट शिक्षा कुछ-कुछ चिकित्सा का रूप रखती है।
6. यह व्यवस्था अपंग तथा सामान्य बालकों को अलग- अलग करती है।
समन्वित शिक्षा
(1) समन्वित शिक्षा विशिष्ट व सामान्य बालकों को साथ- साथ व सामान रूप से शिक्षा प्रदान करती है।
(2) समन्वित शिक्षा समानता के सिद्धान्त पर आधारित है।
(3) समन्वित शिक्षा विशिष्ट शिक्षा का नवीन व प्रगतिशील रूप है।
(4) समन्वित शिक्षा कम खर्चीली होती है।
(5) समन्वित शिक्षा का आधार मनोवैज्ञानिक है।
(6) इस व्यवस्था में शिक्षा व अन्य क्षेत्रों में अपंग तथा सामान्य बालकों के साथ-साथ समान रूप से रखा जाता है।
समावेशी शिक्षा
(1) समावेशी शिक्षा प्रतिभाशाली व सामान्य बालकों को एक साथ पूर्ण समय में शिक्षा प्रदान करती है।
(2) समावेशी शिक्षा समानता के आधार पर है।
(3) समावेशी शिक्षा नये एवं पुराने विचारों दोनों के रूप में है।
(4) समावेशी शिक्षा कम खर्चीली होती है।
(5) समावेशी शिक्षा वैज्ञानिक आधार पर है।
प्रश्न 2 (iii) समावेशी शिक्षा को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर – समावेशी शिक्षा को प्रभावित करने वाले कारक
प्रत्येक बालक विद्यालय आने से पहले अलग-अलग परिवेश से आते हैं, जहाँ उनका रहन- सहन, खान-पान व भाषा भी भिन्न होती है। परन्तु विद्यालय में प्रवेश लेने के पश्चात् उसे ऐसे वातावरण की आवश्यकता होती है जिससे सभी बालकों को समान रूप से लाभ मिले।
समस्या यह है कि क्या सामान्य बालक व असामान्य बालक को एक ही परिवेश में रखना सम्भव है?
शिक्षा में समावेशन का प्रयोग इसलिए किया गया जिससे कि प्रत्येक बालक को उसकी आवश्यकता के अनुसार ही परिवेश मिले व विद्यालय में आकर सामाजिकता का पाठ सीखे।
ऐनीजॉन ने भी समावेशी पर अनेक लेख लिखे, जिसमें उन्होंने बताया कि- “समावेशन की प्रक्रिया को जो सबसे अधिक प्रभावित करते हैं, वह हैं-बालक, माता-पिता (उस बालक के माता- पिता तथा अन्य बालकों के माता-पिता), स्कूल प्रशासन, स्कूल के सहयोगी कर्मचारी व शिक्षक।’
यही वह समुदाय है, जिसके लिए समावेश की प्रक्रिया जितनी सम्भव हो, उतनी सुगमता से और ढंग से सम्पन्न हो सके।
परन्तु कुछ ऐसे भी कारक होते हैं, जो समावेशी शिक्षा’ के फलीभूत होने में बाधा उत्पन्न करते हैं। UNESCO ने समावेशी शिक्षा पर अध्ययन करने के पश्चात् कुछ कारकों की सूची तैयार की, जो समावेशन में बाधा उत्पन्न करते हैं, वे अग्र प्रकार हैं-
1. दृष्टिकोण सम्बन्धी कारक-समावेशन की प्रक्रिया में स्वस्थ मानसिकता का होना आवश्यक है। विशिष्ट बालक को हेय दृष्टि से न देखकर उसकी विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उसकी पूर्ति हेतु प्रतिबद्ध होना आवश्यक है।
2. शिक्षकों का दृष्टिकोण व क्षमताएँ-शिक्षकों का दृष्टिकोण एक ऐसा कारक है जो मनोमस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ता है। कुछ शिक्षकों का मानना है कि सामान्य कक्षा में इस प्रकार के बालकों को शिक्षित करना सामान्य छात्रों का नुकसान व समय की बर्बादी करना है।
समावेशीकरण का प्रत्यय इतना व्यापक है कि इसे मूर्त रूप में परिवर्तित करने के लिए समाज के दृष्टिकोण में परिवर्तन आवश्यक है। यदि समाज समावेशीकरण चाहता है तो उसे सामान्य व विशिष्ट बालकों के मध्य भेदभाव को समाप्त करना होगा। जब तक भेदभाव समाप्त नहीं होगा, तब तक समावेशीकरण सम्भव नहीं है।
समाज के सभी नागरिकों को समावेशीकरण के लिए अग्र पंक्ति में खड़ा होना आवश्कयक है, तथा वे स्वयं कर्तव्य समझकर समावेशीकरण में सहयोग प्रदान करें व इसी कड़ी में शिक्षक जोकि समाज का एक ऐसा सदस्य होता है जो स्वयं समाज का व भविष्य का निर्माणकर्ता होता है, शिक्षकों
● को स्वयं में अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार होना चाहिए। उसे स्वयं में महसूस करना होगा कि सामान्य व विशिष्ट बालक एक ही समाज के सदस्य हैं, उनमें भेदभाव सम्भव नहीं है। अतः वह स्वयं भेदभाव कैसे कर सकता है, इसके लिए उसमें आत्मीयता होना अत्यन्त आवश्यक है। जब कोई विशिष्ट बालक, हमारा अपना भाई, बहिन अथवा परिवार का अन्य सदस्य होता है तब हम उसके प्रति सहानुभूति रखते हैं। उसकी सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। परन्तु यही परिस्थिति समाज के किसी अन्य सदस्य के साथ घटित होती है तब हम उसे विशिष्ट कहकर समाज से पृथक् करा देते हैं। ऐसा क्यों? क्या वह हमारे समाज का सदस्य नहीं है? क्या वह किसी माता-पिता का पुत्र तथा पुत्री नहीं है? इन सब प्रश्नों का उत्तर हमारे स्वयं के पास है, और वह है, सामान्य व विशिष्ट बालक के अन्तर को समाप्त कर सामान्य विद्यालयों में उसे शिक्षित करना। उसकी आवश्यकताओं को ध्यान रखते
हुए, उसके विकास में सहयोग प्रदान करना व क्षमताओं को विकसित करना।
में
इस कार्य के लिए प्रत्येक विशिष्ट बालक के प्रति अपनत्व की भावना रखना तथा समाज का योग्य नागरिक बनाने में उसे सहयोग, सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षक को समाज का प्रतिनिधित्व के तौर पर जाना जाता है। यदि शिक्षक विशिष्ट बालक के प्रति सहानुभूति रखता है तो अन्य बालक भी उसके प्रति सहानुभूति रखना सीख जाते हैं।
विशिष्ट बालकों को पढ़ने के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षण देना अत्यन्त आवश्यक है। इन बालकों को मुख्य धारा में तभी शामिल किया जा सकता है, जब शिक्षक स्वयं सहानुभूतिपूर्ण वातावरण का निर्माण कर उसे शिक्षित करें व इस प्रकार के बालकों को शिक्षित करना अपना उत्तरदायित्व समझें।
3. पाठ्यक्रम – मुख्य धारा शिक्षा में विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों को साथ लेकर चलना हो तो पाठ्यक्रम में लचीलापन होना आवश्यक है। नीति नियंताओं व शिक्षाविदों को ऐसे पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए जिसमें उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके।
4. भाषा व सम्प्रेषण-भाषा व सम्प्रेषण ऐसा कारक है, जो उसके (बालक) व्यवहार द्वारा प्रदर्शित होता है। बालक जिस परिवेश से निकलकर विद्यालय में आता है। वह उसी भाषा को बोलता व समझता है। धनी परिवारों से आने वाले (उच्च सामाजिक आर्थिक स्तर) बालकों का शब्दकोश कम होता है। वर्तमान समय में अधिकतर विद्यालयों का माध्यम अंग्रेजी होता है जो कि उन बालकों के लिए समस्या का रूप धारण करता है जो निम्न सामाजिक आर्थिक परिवारों से है। ऐसी समस्या आने पर वह अपने समूह में स्वयं को कम पाते हैं जिससे वे कुण्ठाग्रस्त होने लगते हैं।
5. सामाजिक आर्थिक स्तर—यह एक ऐसा कारक है जो बालक के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। क्योंकि यही वह कारक है जो बालकों को अपने पंखों को फैलाकर खुले आसमान में जीने की अनुमति प्रदान करता है। जो बालक अच्छे परिवार से आते हैं उन्हें सुख- सुविधाएँ व संसाधन अधिक होने के कारण उनका विकास भी अच्छा हो जाता है। परन्तु निम्न सामाजिक आर्थिक स्तर के बालक स्वयं को अयोग्य समझते हैं व इनको अपनी मित्रमण्डली में भी उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। यह परिस्थिति समावेशीकरण की प्रक्रिया को नकारात्मक छवि प्रदान करती है।
6. भौतिक रुकावटें-जब हम किसी बालक को शिक्षित करना चाहते हैं, तब सबसे पहले हम उसे प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश दिलाते हैं, इसके पश्चात् अभिभावकों का सोचना यह होता है कि उनके प्रवेश दिलाने से बालक निश्चित रूप से शिक्षा ग्रहण कर सकेगा। वरन् सत्य कुछ और ही होता है।
विद्यालय के वातावरण, शैक्षिक उपकरणों, संसाधनों आदि का समुचित ढंग का होना या न होना बालकों की शिक्षा को प्रभावित करता है। यदि हम किसी बालक में सकारात्मक रूप से परिवर्तन चाहते हैं तो विद्यालय में इन उपकरणों, संसाधनों एवं वहाँ का परिवेश सुखद होना आवश्यक है। अन्यथा विद्यालय समावेशन का माहौल उत्पन्न करना सम्भव नहीं है, क्योंकि विद्यालय में सभी प्रकार के बालक आते हैं, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति होना आवश्यक है।
7. वित्तीय संसाधन-समावेशीकरण के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि समय-समय पर बालकों की आवश्यकता पूर्ति, आवश्यक संसाधनों की पूर्ति की जाती रहे तथा इन संसाधनों की पूर्ति के लिए वित्त की व्यवस्था होना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि सारे उपकरणों, संसाधनों को वित्त से ही पूर्ण करना सम्भव है, इसके अभाव में समावेशन शून्य की स्थिति में आ जाता है।
जैसे-यदि कोई बालक दृष्टिकोण, श्रवण दोष, अस्थि विकलांगता से पीड़ित है तो उसे क्रमशः नजर का चश्मा, श्रवण यंत्र, बैसाखी अथवा ट्राई-साइकिल की आवश्यकता पड़ेगी। इन | उपकरणों की खरीद तभी सम्भव हो पाती है, जब हमारे पास वित्तीय संसाधन हों। इन संसाधनों की पूर्ति केन्द्र/राज्य सरकार एवं अन्य समाजसेवी संगठनों द्वारा अंशदान के रूप में दी गई राशि से की जा सकती है।
इकाई-II
प्रश्न 3 (i) सामाजिक भेदभाव से आप क्या समझते हैं? इससे प्रभावित बालकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर – किसी भी व्यक्ति अथवा समूह को किसी भी समाज से उसके धर्म, जाति, प्रजाति, रंग आदि के नाम पर उसके अधिकरों से अलग करना भेदभाव माना जाएगा। भेदभाव मनुष्य होने की गुणवत्ता पर प्रश्न-चिह्न लगाता है क्योंकि रंग, जाति, प्रजाति यह सब समाज में रहने वाले व्यक्तियों के बनाये गये अपने दायरे हैं। इन दायरों से उठकर सिर्फ सोचा ही नहीं जाएगा बल्कि ठोस कदम भी उठाया जायेगा, तब ही समावेशन सम्भव है।
केवल शारीरिक या मानसिक रूप से कमी होने पर या जाति, धर्म आदि के नाम पर किसी व्यक्ति या वर्ग को अलग कर देना उचित नहीं है। केवल सामाजिक भेदभाव-सामाजिक पृथक्कीकरण के लिए ही जिम्मेदार नहीं हैं। बल्कि सामाजिक अस्थिरता भी इससे प्रभावित होती है। जिन समूहों अथवा व्यक्तियों का अलग-अलग आधार पर शोषण किया गया, तो वह सबके सामने आ जाता है। उदाहरण के लिए, किन्नर या किन्नरों का समूह भी ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो कि दीर्घकाल से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। क्योंकि समाज ने उन्हें उनकी शारीरिक कमियों की वजह से उन व्यक्तियों के योग्य नहीं समझा जो कि बुद्धिजीवी कहला सके और आज सद्वियों से शोषण के सहने व शिक्षा के अधिकार से वंचित रहने के बाद कहीं जाकर अब वह अपनी पहचान बना पाए हैं।
ऐसे समाज व समाज की सोच पर आसानी से प्रश्न चिह्न लगाया जा सकता है कि क्यों किन्नर समाज के लोगों का समावेशीकरण आज तक नहीं हो पाया या समाज ने उन्हें इसलिए नहीं स्वीकारा कि वह यदि शिक्षा व अधिकार प्राप्त कर लेते हैं तो वे बुद्धिजीवी बन जायेंगे तो समाज के निवास करने वाले उन व्यक्तियों का क्या होगा, जो उनसे घृणा करते हैं।
भेदभाव मनुष्य की समझ का एक नया पक्ष नहीं है, यह उतना ही पुराना है जितना कि मनुष्य के संवेग, जो कि भेदभाव को मनुष्यों की क्रियाओं व व्यवहार में परिलक्षित होते हैं। सामान्य तौर पर सामाजिक भेदभाव का अर्थ है कि किसी-न-किसी कारण (धर्म, जाति, रंग, प्रजाति आदि) सामाजिक संस्थाओं में किसी व्यक्ति अथवा समूह का जाना या वहाँ कार्य करना या उस सामाजिक संस्था से कोई भी सुविधा प्राप्त करना आदि सामाजिक भेदभाव हो सकता है।
सामाजिक संस्थाओं का निर्माण समाज द्वारा समाज के व्यक्तियों के हित एवं विकास हेतु किया जाता है। अतः इनसे किसी भी व्यक्ति या समूह को दूर रखना सामाजिक भेदभाव व सामाजिक पृथक्कीकरण के कारण बालक जो कि उन सामाजिक परिवारों से है वह कहीं-न-कहीं अपने विकास और शिक्षा से दूर रह जाते हैं, अर्थात् नुकसान व अज्ञान में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। जब इस प्रकार के बालकों को शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थानों में प्रवेश नहीं लेने दिया जाता है तो यह शिक्षा की मुख्य धारा से अलग हो जाते हैं।
वैसे तो सरकार ने बहुत सारे ऐसे विद्यालय खोले हैं जो कि इन बालकों की शिक्षा आवश्यकता को पूरा करते हैं। परन्तु विशिष्ट विद्यालय समावेशीकरण को पूरा नहीं होने देते, क्योंकि यहाँ प्रश्न यह उठता है कि अगर इन बालकों की शिक्षा अलग या विशिष्ट विद्यालयों में कराई जायेग तो अलग करने, मुख्य धारा से निकाल देने जैसी बातें उठने लगेंगी। लेकिन अलग पढ़ाने या विशिष्ट कक्षाओं या विद्यालयों में पढ़ाना अलग कर देना होगा तो उसे पूर्णतः स्वीकार नही किया जा सकता क्योंकि विशिष्ट विद्यालयों की रचना विशिष्टता के आधार पर-विशिष्टता की पूर्ति के लिए की गई है। विशिष्ट विद्यालयों में शिक्षा की आवश्यकता को पूरा कर बालकों को वापिस मुख्य धारा वाली शिक्षा में सम्मिलित किया जा सकता है। इस तरह विशिष्ट विद्यालयों का भी सकारात्मक रूप से प्रयोग किया जा
सकता है।
सामाजिक भेदभाव से प्रभावित बालकों की समावेशी शिक्षा
• समावेशीकरण केवल शारीरिक निर्योग्यता या मानसिक निर्योग्यता से पीड़ित या प्रभावित बालकों की समावेशी शिक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें सामाजिक भेदभाव के कारण शिक्षा के अधिकार से दूर रह जाने वाले बालक भी आते हैं।
• सामाजिक भेदभाव के शिकार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़ा वर्ग के व्यक्ति भी हो जाते हैं।
• इन सभी का समावेशन सामाजिक भेदभाव को खत्म कर देने में सहायक सिद्ध होगा। समावेशीकरण के लिए इन्हें सामाजिक स्थलों, शैक्षिक संस्थानों पर स्वतंत्रता से आने-जाने की अनुमति दे देनी चाहिए इसके अलावा सामाजिक सुविधाओं का लाभ उठाने का अवसर देना होगा।
• समावेशी शिक्षा के लिए इन्हें उन सभी बालकों के साथ अध्ययन करने की अनुमति देनी होगी जिन्हें समाज समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने की अनुमति देता है।
• समाज से भेदभाव के कारण अलग हुए तबकों को मुफ्त किताबें, कपड़े और आवश्यकता पड़ने पर खाना की व्यवस्था सरकार की सहमति से सरकारी या गैर-सरकारी विद्यालयों में कराई जा सकती है।
• इनके विकास के लिए समाज के दृष्टिकोण को इनकी शिक्षा के लिए सकारात्मक करना अति आवश्यक है। जिसके लिए समावेशी सम्बन्धी कार्यक्रम, औपचारिक शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा, दूरस्थ शिक्षा आदि को शिक्षित करने के लिए अधिक महत्व देना चाहिए।
• इनके लिये शिक्षा योजना पर Block-Grant (SC/ST) के लिए राज्य सरकारों को देती है। इसके अतिरिक्त Special Scholarships भी प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च माध्यमिक स्तर आदि के बालकों के लिए मुहैया कराई जाती है।
• आवासीय विद्यालयों की सुविधा या विद्यालयों के अन्तर्गत सुविधा भी इन बालकों के दी जाने की योजना है।
• विद्यालयों को ऐसे स्थान पर खोले जाने की घोषणा है जहाँ शिक्षा के प्रचार व प्रसार का अभी तक कोई माध्यम नहीं है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ने इन बालकों की शिक्षा के लिए निम्न प्रावधानों को बताया गया है- 1. अनुसूचित जाति अथवा जनजाति के लिए कस्बों, ग्रामों, पहाड़ी इलाकों व जनजातीय क्षेत्रों
में विद्यालय खोले जायेंगे।
2. इस हद तक प्रयास किये जायेंगे कि इन्हीं की जाति व क्षेत्रों के शिक्षकों को नियुक्त किया
जाएगा।
3. दूर-दराज के स्थानों से आने वाले छात्रों को हॉस्टल की सुविधा दी जाएगी।
4. इस वर्ग के छात्रों के लिए आर्थिक सहायता बढ़ा दी जायेगी।
5. जनजातीय क्षेत्रों में क्षेत्रीय भाषा या अंग्रेजी भाषा को पहली भाषा के रूप में अपनाना।
6. वर्तमान में SSA के तहत् प्राथमिक, उच्च प्राथमिक विद्यालय, आँगनबाड़ी और इन क्षेत्रों में शैक्षिक केन्द्रों को खोलने पर जोर देगा।
7. इन क्षेत्रों के बच्चों को मुफ्त में किताबें, कपड़े व मिड-डे मील देने का प्रयोजन है जो प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्तर पर दिये जाने पर जोर दिया जा रहा है।
8. कोठारी समीशन और SSA ने भी इनकी शिक्षा हेतु प्रयास की बात कही है।
प्रश्न 3 (ii) शिक्षा में आर्थिक भेदभाव से आप क्या समझते हैं?
आर्थिक भेदभाव
शिक्षा में आर्थिक भेदभाव का अर्थ है कि आर्थिक कारणों के कारण ऐसे बालक जो शिक्षा लेने से वंचित रह गए हैं। आर्थिक भेदभाव किसी भी तरह की आर्थिक कमी के कारण हो सकता है। इस तरह का आर्थिक भेदभाव नौकरी में नियुक्ति पर, कार्यस्थल पर, विद्यालयों में प्रवेश लेने पर देखा जा सकता है। आर्थिक कमी के कारण बालक अपनी शिक्षा में निवेश नहीं कर पाते जिसके कारण वे पढ़ नहीं पाते व गुण को विकसित नहीं कर पाते हैं
अतः वे शिक्षा की मुख्यधारा से भी दूर हो जाते हैं और भविष्य में जीविकोपार्जन के लिए अपनी जगह नहीं बना पाते हैं। इनमें किसी भी धर्म, जाति, प्रजाति आदि वर्ग के बालक आते हैं।
इन आर्थिक रूप से वंचित बालकों को या आर्थिक रूप से भेदभाव झेल रहे बालकों की समावेशी शिक्षा की सुविधा प्रदान कर उन्हें मुख्य धारा वाली शिक्षा से जोड़ा जा सकता है।
• समावेशी शिक्षा के लिए इनको सामान्य बालकों के साथ ही कक्षा में ही अध्ययन करवाया
जाए।
• इन्हें अन्य आर्थिक रूप से सम्बद्ध बालकों की तरह ही शिक्षा के अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।
• इन्हें शिक्षा हेतु आर्थिक रूप से सहायता प्रदान की जानी चाहिए।
• इन बालकों की शिक्षा की व्यवस्था हेतु NCERT, UGC एवं अन्य विभिन्न संगठनों के द्वारा छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है जो कि सराहनीय कार्य है।
• आर्थिक रूप से कमजोर बालकों की शिक्षा पर आने वाला व्यय भी निश्चित कक्षा तक माफ कर देना चाहिए एवं इनका भार सरकार एवं अन्य संगठनों द्वारा वहन किया जाना चाहिए।
• गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों से सम्बन्धित बालकों की शिक्षा- व्यवस्था प्रशासन द्वारा की जानी चाहिए।
• प्रतिभाशाली एवं आर्थिक रूप से कमजोर बालकों को समय-समय पर प्रोत्साहन के रूप उनके अच्छे कार्य के लिए पुरस्कृत किया जाना चाहिए।
में
• कोई बालक यदि आर्थिक रूप से कमजोर है तो उसे हेय दृष्टि से नहीं देखना चाहिए।
• इस वर्ग में आने वाले बालकों की शिक्षा-व्यवस्था आवासीय विद्यालयों में की जाये तो अति उत्तम होगा।
• इनके स्वास्थ्य की देखभाल हेतु समय-समय पर विद्यालयों में स्वास्थ्य शिविर में ही स्वास्थ्य परीक्षण करवाना चाहिए।
की
• इसके फलस्वरूप यदि शारीरिक रूप से कोई कमी पायी जाती है तब उसके उपचार
व्यवस्था की जानी चाहिए।
• विद्यालय स्तर पर आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों में सभी को अवसर प्रदान किया।
जाना चाहिए।
• समय-समय पर उनके कार्य के लिए उन्हें अभिप्रेरित करते रहना चाहिए।
• इनके बालकों को उनकी व्यक्तिगत समस्याओं, शैक्षिक समय व व्यावसायिक समस्याओं के समाधान के लिये निर्देशन की व्यवस्था की जानी चाहिए।
प्रश्न 3 (iii) शिक्षा में लैंगिक भेदभाव से आप क्या समझते हैं? लैंगिक भेदभाव को दूर करने के उपाय बताइए
उत्तर – लैंगिक भेदभाव
लैंगिक भेदभाव उसे कहा जाएगा, जहाँ पर किसी व्यक्ति को उसके लिंग के आधार पर प्रताड़ित किया जाय, शिक्षा के समान अवसर प्रदान न करना। लैंगिक भेदभाव एक संवेगात्मक मुद्दा, अस्तित्व का मुद्दा और स्वयं आत्म-सम्मान के साथ दूसरे के सम्मान का मुद्दा, जो कि संवेगों के आक्रामक गुबार के साथ एक-दूसरे के अस्तित्व को बिना भेदभाव के साथ अपनाने का मुद्दा। कौन किससे ज्यादा है इस बात पर ध्यान केन्द्रित न करके समावेश को बढ़ावा देना लैंगिक भेदभाव को कम करने का प्रयत्न है जो कि पुरुष को अपनी परिधि और महिला को अपनी परिधि में रहकर स्वीकारना ही होगा। क्योंकि दोनों ही अपने उत्पत्ति में मनुष्य ही हैं, लैंगिक भेदभाव केवल महिलाओं तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसका प्रभाव पुरुष पर भी है। दोनों ग्रसित भी हैं और प्रभावित भी। जो जिस क्षेत्र में जिससे ज्यादा है वह दूसरे पर उतना ही भारी है। लैंगिक भेदभाव में महिलायें व पुरुष दोनों ही शामिल हैं। अर्थात् दोनों ही प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से इसके अंग हैं
हमारे देश में लम्बे समय से महिलाओं की बड़ी संख्या के लिए शिक्षा थी ही नहीं। शिक्षा को ग्रहण करने की अधिकारी केवल वही महिलायें थीं जो कि धनाढ्य परिवार या राजघराने से सम्बन्धित थीं। सबसे ज्यादा महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबन्ध मुस्लिम काल में लगाये गये। इस काल में कुछ ही विदुषी महिलाओं ने शिक्षा ग्रहण की जिसके यदा-कदा परिणाम मिलते हैं। शिक्षा के अभाव में न तो महिला का विकास हो पाया और न ही उसकी शिक्षा का। शारीरिक और मानसिक रूप से शोषण और लैंगिक रूप से भेदभाव के कारण बहुत समय तक यह तबका विकसित नहीं हो पाया।
धीरे-धीरे समय बदला और वैदिक, बौद्ध, मुस्लिम, अंग्रेजों के काल से होते हुए वर्तमान समय • में स्त्री शिक्षा का स्वरूप बहुत हद तक परिवर्तित हो चुका है। स्त्री शिक्षा के स्वरूप को बदलने के लिए उसे कई परिवर्तनों से गुजरना पड़ा व महिला या स्त्री शिक्षा के लिए कई संगठनों ने बीणा उठाया जिसके फलस्वरूप महिलाओं का घर पर शोषण, शारीरिक शोषण, मानसिक शोषण, संवेगात्मक शोषण, कार्य करने की जगह पर शोषण को रोकने में मदद की है।
वुड का घोषणा-पत्र 1854 में यह महसूस किया गया कि स्त्री शिक्षा के लिए कार्य किया जाना अत्यन्त आवश्यक है एवं स्त्री शिक्षा के लिए कुछ घोषणाएँ की गई थीं जो निम्न प्रकार हैं-
1. बालिका विद्यालयों को विशेष अनुदान।
2. स्त्री शिक्षा हेतु सहयोग प्रदान करने वाले व्यक्तियों को प्रोत्साहन ।
उस समय यही एक ऐसा घोषणा-पत्र था जिसमें स्त्री शिक्षा के विकास की बात कही गई। हण्टर आयोग 1882 में स्त्री शिक्षा के विकास के लिये अनेक सुझाव दिये जो निम्न प्रकार हैं-
1. महिला शिक्षा की निःशुल्क व्यवस्था।
2. निर्धन बालिकाओं को छात्रवृत्ति।
3. छात्रावास की व्यवस्था ।
4. बालिका विद्यालयों को अनुदान ।
5. इनके विद्यालयों में महिला शिक्षक की व्यवस्था व महिला शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय की व्यवस्था ।
6. इन विद्यालयों के निरीक्षण हेतु महिला निरीक्षकों की व्यवस्था।
7. स्थानीय निकायों को बालिकाओं की प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था के लिए निश्चित धनराशि (प्रतिशत) तय करना व इनके लिये अलग से बालिका विद्यालय की व्यवस्था आदि।
राधाकृष्णन् आयोग (1948-49 ) ने स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में जो भी कहा वह देश की आधी आबादी के लिए उचित न था। उसमें स्त्री शिक्षा को सिर्फ गृहकार्यों में दक्ष होने तक ही सीमित रखने को कहा गया कि वर्तमान में उचित नहीं है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) के 12वें भाग में स्त्री शिक्षा में सकारात्मक परिवर्तन लाने हेतु योजना बनाई जिसमें बताया गया कि बालिकाओं के लिये अलग विद्यालय छात्रवृत्ति व महिला शिक्षकों की नियुक्ति आदि की व्यवस्था की जायेगी। इन चरणों से गुजरती हुई स्त्री शिक्षा की जो स्थिति है वह स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है। यह स्थिति समाज के गणमान्य व्यक्तियों द्वारा की गयी थी जिन्हें समाज में स्थानीय दृष्टि से देखा जाता था। परन्तु यह किसे पता था कि जो समाज में गणमान्य व्यक्ति हैं वही समाज पर कुठाराघात किये जा रहे हैं।
मेरा आप से प्रश्न है क्या महिला समाज का अंग नहीं है?
यदि हाँ, तो फिर यह लैंगिक भेदभाव क्यों?
पुत्र के लिए पुत्री को गर्भ में ही समाप्त कर दिया जाता है। समाज में व्यक्तियों को सोचना चाहिए कि स्त्री ही न होती तो संसार का क्या अस्तित्व होता। भारत में पुरुष, महिला में जो भेदभाव किया जाता है। उसके दुष्परिणाम को हम जनसंख्या के उस अनुपात को जान सकते हैं। अर्थात् (1000- 940) जो स्वयं इसकी व्याख्या कर देता है। महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, शैक्षिक, संवेगात्मक, सामाजिक, आर्थिक रूप से सुदृढ़ करना वर्तमान परिस्थिति में अत्यन्त आवश्यक है। भारत जैसे विकासशील देश में महिलाओं की शिक्षा व उनके चहुँमुखी विकास के लिये अनेक कार्यक्रम व नीतियाँ बनाई गयीं। इन नीतियों का क्रियान्वयन सही ढंग से तभी किया जा सकता है जब उसमें संलग्न व्यक्तियों में महिलाओं के प्रति भेदभाव न हो तथा वह महिला को समाज का ही एक अंग समझे।
हमारा संविधान 1950 में लागू किया गया तथा उसके अनुच्छेद 15 (3) में कहा गया कि राज्य को स्त्रियों व बालकों के लिए उपबन्ध बनाने में कोई बाधा नहीं होगी। लैंगिक भेदभाव को
दूर करने के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखकर कार्य किया जाता है-
1. पूर्ण रूप से सभी बालिकाओं को निःशुल्क शिक्षा, इसके अन्तर्गत सरकारी व गैर-सरकारी विद्यालयों को भी रखा जाए एवं गैर सरकारी विद्यालय में प्रवेश के लिए एक निश्चित प्रतिशत तय किया जाए जिन पर सिर्फ महिलाओं को प्रवेश दिया जाए।
2. बालिकाओं की शिक्षा के लिए उचित साधन व्यवस्था, शौचालयों की व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है
3. बालिकाओं के साथ विद्यालयों में किसी भी प्रकार का भेदभाव (लैंगिक, सामाजिक, जाति, धर्म आदि) न किया जाए।
4. समय-समय पर विद्यालय स्तर पर आयोजित प्रतियोगिताओं में भाग लेने हेतु उन्हें प्रोत्साहित करना। 5. परिवारों में बालक, बालिकाओं में किसी भी प्रकार का भेदभाव न करना।
6. परिवारों के सदस्यों को चाहिए कि बालिकाओं की शिक्षा-व्यवस्था उनकी रुचि, व क्षमताओं के अनुरूप करने का प्रयास करें।
7. निर्धन परिवारों से आने वाली बालिकाओं को सहानुभूति पूर्ण वातावरण प्रदान करना चाहिए।
वैसे तो महिलाओं की शिक्षा पर बहुत सारे आयोगों ने कुछ-न-कुछ अवश्य ही बताया है। परन्तु सबसे प्रभावी सुझाव कोठारी कमीशन ने दिये जो निम्न प्रकार हैं-
• पुरुषों व महिलाओं की शिक्षा में कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा।
• स्त्री शिक्षा के लिये विशिष्ट प्रयास किये जायेंगे।
• महिलाओं को विज्ञान व तकनीकी शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।
• महिलाओं को व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा के लिए विशेष सुविधायें प्रदान की जायेंगी।
• राधाकृष्णन् आयोग, राष्ट्रीय महिला शिक्षा, देशमुख आयोग, हंसा मेहता कमेटी ने भी महिलाओं की शिक्षा के प्रचार-प्रसार, महिला शिक्षा हेतु विभागों की स्थापना की गई, जिनका कार्य महिलाओं की शिक्षा के लिए धन की व्यवस्था करना व महिला व पुरुष की शिक्षा में किसी प्रकार की कोई असमानता न होना, पर जोर दिया गया।
प्रश्न 4 (i) समावेशी शिक्षा में योग्यता व निर्योग्यता के कार्यक्षेत्र पर आधारित शैक्षिक प्रथाएँ एवं भेदभाव का वर्णन कीजिए।
अथवा
योग्यता व निर्योग्यता से संबंधित शैक्षिक प्रथाएँ किस प्रकार से शिक्षा को प्रभावित करती हैं। इस कथन को समझाइए ।
उत्तर –
1. आमतौर पर सामान्य योग्यता रखने वाले बालकों को सामान्य विद्यालयों में प्रवेश दे दिया जाता है और उनका अध्ययन कार्य सामान्य तरह से चलता रहता है, पर यहाँ प्रश्न इस बात पर भी उठता है कि क्या जो शिक्षण प्रथाएँ, परम्परागत तरीके से सामान्य बालकों के अध्ययन के लिए अपनायी जाती हैं, वही प्रथाएँ औसत से अधिक या औसत से कम बालकों के लिए अपनायी जायेगी तो यह अपने आप में भेदभाव का कारण होगा।
2. कक्षा या विद्यालय एक शोध स्थल के समान है, जहाँ शिक्षक शोधकर्ता के रूप में होता है और छात्र न्यायदर्श के रूप में। अतः शिक्षक को अपने अनुभव व सूझ-बूझ के आधार पर छात्रों के हित में उन विधियों का प्रयोग करना चाहिए जो छात्र की शैक्षिक आवश्यकता की पूर्ति करती हो, न कि किसी एक विशेष वर्ग वाले छात्रों को ।
3. वास्तविकता तो यह कि जिस तरह किसी व्यक्ति के बीमार होने पर उसे चिकित्सक या वैद्य उसकी आवश्यकतानुसार दवा देते हैं या इलाज करते हैं और समस्या या बीमारी की पहचान हेतु विशिष्ट विधि अपनाते हैं उसी तरह शिक्षक भी विशिष्टता या आवश्यकतानुसार छात्र को अपने कौशलों द्वारा लाभान्वित कर सकते हैं।
4. शिक्षण विधियाँ, पाठ्यक्रम, कक्षागत शिक्षण, कक्षागत परिस्थितियाँ शिक्षण कौशल आदि शिक्षा प्रक्रिया एक ऐसे अंग हैं। जिन्हें शिक्षक, शैक्षिक संगठन, शैक्षिक प्रशासन में कार्यरत व्यक्ति भेदभाव को पैदा करने के लिए या मिटाने के लिए दोनों ही तरह से प्रयोग कर सकते हैं।
5. छात्रों की शैक्षिक आवश्यकतानुसार शिक्षक उन्हें भिन्न-भिन्न तरीकों से विषय-वस्तु को समझा सकते हैं। लेकिन, क्योंकि छात्र अधिगमकर्ता के रूप में एक ही अधिगम दर से सीखें यह बात आवश्यक नहीं। इसीलिए यह आवश्यक है कि पहले उनकी विशिष्टता को समझा जाये फिर उन्हें मुख्य धारा वाली शिक्षा से जोड़ दिया जाये।
6. यदि यह कहा जाये कि समावेशी शिक्षा या समावेशी विद्यालयों के उद्भव के साथ विशिष्ट शिक्षा या विशिष्ट विद्यालयों का अस्तित्व धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है तो यह पूर्णतः गलत होगा क्योंकि इस प्रकार का प्रयोजन भी किया जा सकता है कि सामान्य विद्यालयों में विशिष्ट विद्यालयों के प्रारूप के आधार पर विशिष्ट कक्षाओं की व्यवस्था की जाये जो कि वर्तमान समय में बड़ी संख्या में सामान्य विद्यालयों द्वारा किया जा रहा है। इससे बालकों की विशिष्ट आवश्यकता की भी पूर्ति हो जायेगी और साथ में समावेशीकरण का उद्देश्य भी पूरा हो जायेगा।
7. कोई भी छात्र या बालक अपनी विशिष्टता के कारण अन्य छात्रों या बालकों से अलग होता हैं। विशिष्टता विकास के क्रम में बालक को आगे ले जाने वाली हो सकती है या ऐसी भी जो उसे विकास के क्रम में पीछे ले जाये। इसीलिए यह कहना गलत होगा कि शिक्षा का समावेशीकरण मात्र उन बालकों के लिए हो जो शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक रूप से पिछड़े हैं या निर्योग्य हैं, क्योंकि समावेशीकरण की आवश्यकता उन बालकों के लिए भी है जो अपनी कक्षा में अध्ययन करने वाले सामान्य या औसत छात्रों से शैक्षिक प्रदर्शन में कहीं ऊपर हैं। क्योंकि कक्षागत परिस्थितियों का सच यह है कि अगर सामान्य बालकों के साथ बैठकर यह वर्ग अध्ययन नहीं कर सकता जो विशिष्टता में कमी को प्रदर्शित करता है तो यह भी एक सच है कि जो बालकों का वर्ग विशिष्टता में अधिक होने के कारण सामान्य बालकों के साथ नहीं अध्ययन कर सकता है। अतः इस परिस्थिति में समावेशीकरण का सबसे सरल उपाय यह है कि एक ही सामान्य विद्यालय में बालकों की विशिष्टता को पूरा करना ही उचित होगा जो कि एक ही कक्षा में अध्ययन कराकर सम्भव हो जायेगा। इससे समायोजन के नये आयाम भी प्राप्त किये जा सकते हैं।
8. पहले आवश्यक यह है कि बालक को प्रवेश देते समय उसकी विशिष्टता में अधिकता या कमी होने के कारणों को शिक्षक व विद्यालय प्रशासन द्वारा जाँच लेना चाहिए। इसके बाद विद्यालय परिसर के अन्दर ऐसे प्रयोजन कराये जायें तो छात्र की विशिष्टता की आवश्यकता को पूरा कर सके व उसे सामान्य छात्रों के साथ ही बैठकर अध्ययन कराया जाये जिससे कि समावेशन की प्रक्रिया आसान हो जाये ।
9. समावेशी शिक्षा और समावेशीकरण का स्वरूप बाह्य न होकर आन्तरिक है। इसे और भी जटिल न बनाकर सरलता की ओर ले जाना चाहिए। पाठ्यक्रम की रचना, शिक्षण विधियाँ, शिक्षण कौशल आदि का प्रयोग छात्रों की आवश्यकता को पूरा करते हुये अगर उन्हें समावेशीकरण की ओर अग्रसर कर रहे हैं तो यह भेदभाव को कदापि उत्पन्न नहीं होने देगा।
10. समावेशीकरण को बढ़ावा देने के लिए और भेदभाव को रोकने के लिए सरकार व प्रशासन द्वारा एक ही विद्यालय में नियमित शिक्षक, साधन-सम्पन्न शिक्षक, मनोवैज्ञानिक आदि की भी विद्यालय परिसर में व्यवस्था की जा सकती है ताकि भिन्न प्रकार की विशिष्टताओं की पूर्ति हो
सके।
11. समावेशीकरण को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम विद्यालयी वातावरण में सभी छात्रों के बीच, अभिभावकों व शिक्षकों की उपस्थिति में कराने चाहिए जो कि सकारात्मक दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करें।
12. समावेशीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने के लिए बालकों के अधिगम को उनके प्रदर्शन द्वारा समझा जाना चाहिए। प्रतिपुष्टि में सुधार होना सम्भव है। शिक्षकों को समय-समय पर एकीकरण और समावेशीकरण की नयी विधियों के बारे में अध्ययन करते रहना चाहिए और इन विधियों को सामान्य बालकों की कक्षाओं में विशिष्ट बालकों के साथ या उनके ऊपर समय-समय पर प्रयोग किया जाना चाहिए।
प्रश्न 4 (ii) शारीरिक रूप से अक्षम बालकों से आप क्या समझते हैं? इन्हें विद्यालय में कैसी सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए?
उत्तर -“स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण होता है।” चानलाके की यह परिभाषा सिद्ध करती है कि जब तक शरीर स्वस्थ नहीं होगा तब तक मनुष्य सामान्य रूप से कार्य नहीं कर सकता। शारीरिक स्वास्थ्य उसके कार्य व विकास को प्रभावित करता है। विकलांगिक अक्षम अथवा अपंग बालक शारीरिक रूप से विकलांग कहलाते हैं। अपंग तथा बीमार बालकों की संख्या ध्यान आकर्षित करने वाली है। अपंग बालक चिरकालिक बीमार बालकों से संख्या में कहीं अधिक होते हैं। ऐसे बालक निरन्तर असफल होते हैं और अन्त में विद्यालय आना छोड़ देते हैं। अपंग और बीमार दोनों ही प्रकार के बालक विशिष्ट बालकों की श्रेणी में आते हैं और विशेष शिक्षा के अधिकारी हैं।
विकलांगिक अक्षम (अपंग) बालक का वर्गीकरण
अपंगता का मेडिकल साइंस में विकलांगिक अक्षमता नाम है। अपंग बालकों को हम अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में यदा-कदा देख लेते हैं। अपंगता के प्रकार निम्नलिखित हैं-
1. लूले लंगड़े, हथकटे,
2. एक या इससे अधिक अंगों का लकवा,
3. पाँवफिरा,
4. मेरुदण्ड का वक्र,
5. प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात,
6. विकृत नितम्ब,
7. मेरुदण्डीय द्विशाखी,
8. मांसपेशीय डायसट्रोफी ।
इन समस्त प्रकारों में प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात अधिकतर अपंग बालकों में पाया जाता है। इसका कारण मस्तिष्क में किसी प्रकार की चोट लगना है। इस प्रकार की मस्तिष्कीय चोट प्रायः गर्भावस्था में लगती है। इस प्रकार की अपंगता में ऐच्छिक गामक क्रिया-प्रणाली गड़बड़ा जाती है। यह गड़बड़ मात्रा में बालक से बालक में भिन्न होती है। मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि मस्तिष्क का कौन-सा भाग तथा कितना भाग प्रभावित हुआ। प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात के तीन प्रकार हैं- (अ) मस्तिष्क-संस्तम्भ (ब) एथिटोसिस (स) एटाक्सिया। मस्तिष्क-संस्तम्भ में अकस्मात् व झटकेदार गति होती है। एथिटोसिस में धीमी तथा बार-बार होने वाली गति होती है। इसमें प्रायः गले और मुँह की मांसपेशियों में नियन्त्रण नहीं रहता है। इस कारण निम्नलिखित लक्षण देखने को मिलते हैं-
(i) मुँह से लार टपकती रहती है, (ii) चेहरे की मांसपेशियों का लटंक जाना, (iii) बोलने में कठिनाई ।
एटासिया में अंगों में सामन्जस्य व सन्तुलन नहीं रहता है।
प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात के निम्नलिखित प्रभाव देखने में आते हैं-
(i) मानसिक रूप से पिछड़ापन अथवा प्रतिभायुक्तता, (ii) अधिगम अक्षमता, (iii) दृष्टिदोष (iv) श्रवण दोष, (v) वाक् दोष, (vi) भाषा दोष।
इन दोषों का कारण मस्तिष्क का प्रभावित होना है। मस्तिष्क का कौन-सा भाग प्रभावित हुआ है, यह बात निश्चित करती है कि वर्णित दोषों में से कौन-सा दोष बालक में होगा और मस्तिष्क का कितना भाग प्रभावित हुआ है। यह बात निश्चित करती है कि दोष की मात्रा कितनी होगी। एक य
इससे अधिक अंगों का लकवा भी मस्तिष्कीय चोट अथवा बीमारी के कारण हो जाता है। पाँव फिरा, पाँव टेढ़ा उल्टा आदि होता है। मेरुदण्ड का वक्र मेरुदण्ड के किन्हीं कारण से झुक जाने के कारण होता है। विकृत नितम्ब जन्म से ही होता है और इसका कारण गर्भाशय में विकास में किसी प्रकार की
• रुकावट या बीमारी का होना है। मेरुदण्डीय द्विशाखी में मेरुदण्ड कशेरुका से पूर्णतया ढकी नहीं रहती। यह एक जन्म दोष है। मांसपेशीय डायसट्रोफी एक निरन्तर उत्तरोत्तर विकृत बीमारी होती है। जिसमें मस्तिष्कीय मांसपेशियाँ क्षीण होती जाती हैं। लूलापन या लँगड़ापन या हाथ का कटा होना प्राय:
किसी दुर्घटना के शिकार बन जाने के कारण होता है।
अपंग बालकों के विभिन्न प्रकारों में लूले-लँगड़े, हथकटे, पाँव फिरा, विकृत नितम्ब, मेरुदण्डीय ‘ द्विशाखी तथा मेरुदण्ड का वक्र को छोड़कर अन्य प्रकार मस्तिष्कीय चोटों अथवा बीमारियों अथवा कमियों से सम्बन्धित हैं। अतः निम्नलिखित प्रकारों से ग्रसित बालक मानसिक रूप से विकलांग भी कहलाते हैं-
1. लकवा,
2. प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात,
3. मांसपेशीय डायस्ट्रोफी ।
वास्तव में, उपरोक्त प्रकारों में बालक मानसिक विकलांगता के कारण शारीरिक रूप से विकलांग हो जाता है।
इस प्रकार के बालक खेलों में, मनोरंजन के साधनों में अथवा सामाजिक कार्यक्रमों में भाग नहीं ले पाते। अतएव इन बालकों की शारीरिक क्षमता के अनुरूप ही खेलों तथा मनोरंजन के साधनों की व्यवस्था करनी चाहिए। इन बालकों को अकेला छोड़ देना या इनकी उपेक्षा करना ठीक नहीं।
इन बालकों की बौद्धिक क्षमता अच्छी होती है। इसलिए इनकी रुचि के अनुसार इन्हें कोई न कोई कौशल सिखलाना चाहिए, ताकि ये आत्म-निर्भर बन सकें। इनकी कभी हँसी नहीं उड़ानी चाहिए और न ही इनकी खिल्ली उड़ाई जाए। इनके साथ स्नेहपूर्ण तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। इस प्रकार के व्यवहार से उनमें किसी भी प्रकार का सांवेगिक तनाव नहीं उत्पन्न होगा।
विरूपित या अपाहिज बालकों की शिक्षा
अपाहिज बालकों की शिक्षा की व्यवस्था करते समय इनकी विशेष शारीरिक अक्षमता या अपंगता की हमेशा दृष्टि में रखना चाहिए और इसके अनुसार उन्हें शिक्षण प्रदान करना चाहिए तथा पथ-प्रदर्शन करना चाहिए। उनके लिए बनाया जाने वाला पाठ्यक्रम सभी दृष्टियों से व्यापक होना चाहिए ताकि इनका सब दिशाओं में विकास हो सके। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों पर विशेष ध्यान दिया जाए-
1. दैहिक दक्षता विकसित करना-उनके लिए ऐसी व्यवस्था की जाए कि वे अपनी अपंगता पर जीत हासिल कर सकें। वे जिन अंगों के अभाव से ग्रस्त हैं, उनके स्थान पर कृत्रिम अंग लगाए जा सकते हैं। इससे वे सामान्य बालकों के समान कार्य कर सकेंगे।
2. शारीरिक अपंगता को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम का निर्माण- ऐसे बालकों के। लिए पाठ्यक्रम तथा कार्यक्रम की रचना करते समय उनकी अपंग स्थिति को सामने रखना चाहिए। । लूले लंगड़े बालक सामान्य पाठ्चर्याओं और कार्यक्रमों से लाभ नहीं उठा पाएँगे।
3. चिकित्सा सुविधा प्रदान करना – बालक-बालिकाओं को शारीरिक अपंगता का निदान । कर उसके अनुरूप ही उन्हें चिकित्सा सुविधा प्राप्त करानी चाहिए इससे उनके स्वास्थ्य में सुधार आएगा। अच्छी सेहत होने पर ये दिये जाने वाले प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षण से पूरा-पूरा लाभ
उठा पाएंगे।
4. सांवेगिक समायोजन तथा सुरक्षा प्रदान करना-इन बालकों की शारीरिक अपंगता के कारण उनका सामाजिक तथा सांवेगिक संतुलन बिगड़ जाता है। अतः उनको दिए जाने वाले शिक्षण में सांवेगिक संतुलन को प्राथमिकता देनी चाहिए। इस बात का पूरा-पूरा प्रयास होना चाहिए कि
आत्म-विश्वास से भरे हों और उनमें किसी भी प्रकार की हीन भावना नहीं होनी चाहिए।
5. प्रोत्साहन और प्रेरणा प्रदान करना-इस बात का प्रयास करना चाहिए कि कहीं वे अपंगता के कारण अपने जीवन को सारहीन ही न समझने लगें। उन्हें यह लगना चाहिए कि वे सारे काम सुचारु रूप से कर सकते हैं। कुछ कामों में तो वे सामान्य बालक-बालिकाओं से भी बाजी मार सकते हैं। इन बातों के लिए अध्यापक-अध्यापिकाओं को उन्हें सदा ही प्रोत्साहित और अभिप्रेरित करते रहना चाहिए।
यदि इन बातों को ध्यान में रखकर शिक्षा प्रदान की जाएगी तो ये निश्चय ही सामान्य बालकों के समान प्रगति कर सकेंगे।
इकाई – III
प्रश्न 5 (i) स्कूल स्तर पर समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए परिवार के दायित्वों पर प्रकाश डालिए।
अथवा
अक्षम बालकों के प्रति परिवार के उत्तरदायित्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर – परिवार/परिवार तन्त्र
बच्चे के सामाजीकरण की प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है और इसे अस्वीकार करने का कोई ठोस सबूत भी नहीं है। विशेष आवश्यकता वाले बच्चों का समावेशन द्वारा परिवार तंत्र में उसके समुचित समावेशन से होकर गुजरता है। विशेष आवश्यकता वाले बच्चों पर परिवार का मुख्य ध्यान होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो इस प्रकार के बच्चे या तो हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं या वे सभी से पिछड़ते जाते हैं। विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों को आगे बढ़ने के लिए परिवार के सदस्यों को हमेशा प्रोत्साहित करना चाहिए।
अक्षम बालकों के प्रति परिवार के दायित्व
अक्षम बालक के प्रति परिवार के निम्नलिखित उत्तरदायित्व होते हैं—
(1 ) शिक्षा की व्यवस्था-अक्षम बालकों हेतु शिक्षा की व्यवस्था करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह बालकों की मनोस्थिति के अनुसार हो। जैसे—नेत्र विहीन बालकों के लिए ल लिपि की पुस्तकों व अध्यापकों की व्यवस्था करना।
( 2 ) विशेषज्ञों का परामर्श-अक्षम बालकों की शिक्षा व शिक्षण व्यवस्था करते समय विशेषज्ञों का परामर्श लेते रहना चाहिए। उनसे इस बात की जानकारी व परामर्श लेना चाहिए कि बालकों की आवश्यकताओं तथा उनकी शिक्षण सम्बन्धी समस्याओं को कैसे दूर किया जाए।
(3 ) उपकरण की उपलब्धता – छात्रों को शिक्षण प्राप्ति के दौरान परिवार के सदस्यों को नकी शिक्षण सम्बन्धी समस्त उपकरणों, जैसे-लेखन, पठन व चित्रकला सम्बन्धी इसके साथ-साथ योगात्मक विषयों से सम्बन्धित उपकरणों की व्यवस्था भी करानी चाहिए।
( 4 ) आत्मनिर्भरता-परिवार के सदस्यों को बालकों में आत्मनिर्भरता का गुण विकसित करना चाहिए। उन्हें पठन के लिए प्रोत्साहित करते हुए जीविकोपार्जन हेतु सक्षम बनाने के लिए उनके
आत्मविश्वास को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।
( 5 ) अवसर की उपलब्धता-परिवार के सदस्यों को बालक की रुचियों, अभिरुचियों को समझते हुए उन्हें उनके क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए अवसर उपलब्ध करवाने चाहिए। उनकी छोटी- छोटी कमियों व त्रुटियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
(6) सरकारी सहयोग उपलब्ध कराना-परिवार के सदस्यों को चाहिए कि अक्षम बालकों को सरकार से मिलने वाले सहयोग, जैसे-स्कॉलरशिप, व्हीलचेयर (पैरालाइज्ड/विकलांग) इत्यादि जैसी सुविधाओं को उपलब्ध कराना चाहिए।
सुलभ व
(7) योग्य की सलाह लेना-अक्षम बालकों की शिक्षा हेतु व उनके जीवन को सक्षम बनाने हेतु योग्य व्यक्तियों की सलाह व सहयोग लेना चाहिए। कुशलतानुसार छात्रों को उनके रुचि में आगे बढ़ने हेतु योग्य व्यक्तियों का परामर्श लेना चाहिए।
( 8 ) प्रोत्साहन – छात्रों को प्रोत्साहन से ऊर्जा व कार्य को और अच्छे से करने की शक्ति मिलती है उनमें उत्साहपूर्वक कार्य करने की ललक उत्पन्न हो जाती है। अतः अच्छे कार्य करने के उपरान्त परिवार के सदस्यों को उनका प्रोत्साहन करना चाहिए।
( 9 ) मूल्यांकन – अक्षम बालकों के परिवार के सदस्यों द्वारा समय-समय पर उनका मूल्यांकन करते रहना चाहिए जिससे यह ज्ञात होता रहे कि वे अपने क्षेत्र में कितने सफल हैं और किन- किन क्षेत्रों में उन्हें कठिनाई का अनुभव हो रहा है।
(10) शिक्षा के महत्व को समझना – अक्षम बालकों को परिवार के सदस्यों द्वारा शिक्षा के महत्व व शिक्षित होने के उपरान्त होने वाले परिवर्तन व लाभों को समझाना चाहिए। शिक्षित मनुष्य समाज में यश व सम्मान को प्राप्त करता है।
प्रश्न 5 (ii) अक्षम बालकों के प्रति विद्यालय का दायित्व बताइए।
विद्यालय
बच्चा परिवार के बाद जिस समाज से परिचित होता है वह उसका विद्यालयी समाज है। विशि प्रकार के बच्चों के लिए विद्यालय एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अगर उस विद्यालय क वातावरण उस बच्चे के अनुकूल होता है या उसे पढ़ाया जाने वाला पाठ्यक्रम उसके अनुकूल होता है त वह बच्चा तरक्की व प्रगति के मार्ग पर बढ़ जाएगा नहीं तो वह बच्चा हीन भावना का शिकार हो जाएगा।
N.C.F. (2005) के अनुसार, “समावेशन की नीति को प्रत्येक विद्यालय एवं सम्पूर्ण शिक्षा- व्यवस्था में लागू किए जाने की आवश्यकता है। बच्चे के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह स्कूल में हो या बाहर, सभी बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है। स्कूलों को ऐसे केन्द्र बनाए जाने की आवश्यकता है जहाँ विशिष्ट प्रकार के बच्चों की जीवन की तैयारी कराई जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी बच्चे विशेष रूप से शारीरिक एवं मानसिक रूप से असमर्थ बच्चों और कठिन परिस्थितियों में जीने वाले बच्चों को इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा लाभ मिल सके।”
सभी बालकों को शिक्षा के समान अवसर देना तथा उनकी विभिन्नताओं, गुणों एवं कमियों के बावजूद भी उन्हें अपने गुणों के प्रकाशन एवं विकास के समान अवसर प्रदान करना समावेशी शिक्षा के मौलिक सिद्धान्तों के अन्तर्गत आता है।
में
बूथ एवं एन्सको (1998) ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “समावेशी शिक्षा स्कूल बालकों की भागीदारी में वृद्धि करती है तथा स्थानीय विद्यालयों के समुदायों, पाठ्यर्चा तथा संस्कृति से उनके बहिष्कार को कम करती है।”
यूनीसेफ (2003) ने भी विशिष्ट आवश्यकताओं के बालकों की मुख्यधारा विद्यालयों में को शिक्षा संग्रहण के प्रावधान को उचित ठहराते हुए इस बात पर बल दिया है कि, “यह स्पष्ट हो चुका 7-8 कि सभी असमर्थी बालकों में से 70 प्रतिशत बालक जिनमें मन्द मानसिक दुर्बलता के बालक भी सम्मिलित हैं। सामान्य विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, बशर्ते कि विद्यालय शिक्षा प्राप्ति के वातावरण तक उनकी पहुँच बनाए तथा उन बालकों को उचित समायोजित करने के लिए संस्था में T) सुविधाओं का उचित प्रावधान रखे।”
यूनेस्को (2008) ने समावेश की राह में रुकावटों की सूची बनाई है-दृष्टिकोण सम्बन्धी कारक, भौतिक रुकावटें, पाठ्यक्रम, शिक्षकों के दृष्टिकोण तथा क्षमताएँ, भाषा तथा सम्प्रेषण, सामाजिक, आर्थिक कारक, वित्तीय संसाधन एवं शैक्षिक व्यवस्था का संगठन और नीतियाँ। हालाँकि इनमें से प्रत्येक महत्वपूर्ण हैं परन्तु इनमें दृष्टिकोण सम्बन्धी कारकों जिनका सम्बन्ध स्कूल के दृष्टिकोण तथा माता-पिता के दृष्टिकोणों से होता है। भाषा तथा सम्प्रेषण सामाजिक एवं आर्थिक कारकों तक सीमित रहता है। ये किस प्रकार भारत में रुकावटों को निरूपित करते हैं इन सभी कारकों को हम ही लोगों को देखना व दूर करना पड़ेगा।
समावेशी शिक्षा की सफलता इस बात से तय होती है कि समावेश की प्रक्रिया के प्रति तथा उस बच्चे के प्रति जिसका समावेश किया जाना है उसके प्रति शिक्षक का दृष्टिकोण क्या है? अगर शिक्षक विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों को हीन भावना से देखता है तो उस जगह समावेशी शिक्षा के कोई अर्थ नहीं है और विशिष्ट आवश्यकता के बालक आगे की ओर प्रगति नहीं कर पाते हैं।
इसके अतिरिक्त जो बच्चे शिक्षा की माध्यम वाली भाषा में निपुण नहीं होते हैं और कक्षा के कामकाज में भाग नहीं लेते हैं। उनके साथ उनके सहपाठियों द्वारा भी भेदभाव किया जाता है।
समावेशी शिक्षा को स्कूल स्तर पर बढ़ावा देने के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकारें निरन्तर कार्यरत हैं। इसके लिए वह नए-नए कानून तथा नियमों का निर्माण करती हैं। समावेशी शिक्षा को सुदृढ़ बनाने के लिए हमें और हमारे समाज को भी आगे आना चाहिए। विद्यालय स्तर पर विशिष्ट बालकों तथा समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए शिक्षकों तथा विद्यालय परिवेश की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर शिक्षक चाहे तो किसी बच्चे का भविष्य बना सकता है और बिगाड़ भी सकता है इसलिए समावेशी शिक्षा के विकास के लिए शिक्षक अति महत्वपूर्ण है। विशिष्ट बालकों की पाठ्यचर्या एवं मूल्यांकन विधि सरल बनानी चाहिए।
विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों के लिए उनके अनुसार उपकरण व टी.एल.एम. का प्रयोग करना चाहिए जिससे वह आसानी से और जल्दी सीखें। केन्द्र व राज्य सरकार की नीतियों को बढ़ावा देना चाहिए।
समावेशी शिक्षा को विद्यालय स्तर पर बढ़ावा देने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारें बहुत से नियम कानून बना रही हैं और समय-समय पर उनमें बदलाव व परिवर्तन कर रही हैं जिससे विशिष्ट नावश्यकता वाले बच्चों को आगे लाया जा सके व उनको शिक्षित किया जा सके। विशेष आवश्यकता ले बच्चों को कैसे पढ़ाया जाए क्योंकि उनमें कुछ बच्चे विकलांग, दृष्टिबाधित, बहरे व अन्धे होते । उनको कैसे पढ़ाना चाहिए? और उन बच्चों के लिए प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति करना चाहिए।
समावेशी शिक्षा में अध्यापक की भूमिका का वर्णन कीजिए।
प्रश्न 6 (i) समावेशी शिक्षा में अध्यापक की भूमिका
समावेशी परिवेश में शिक्षण एक जटिल कार्य है इसलिए प्रत्येक अध्यापक को अतिरिक्त समय,
प्रशिक्षण, संसाधन, समुदाय एवं अभिभावक का सहयोग मिलना चाहिए। समावेशी शिक्षा में अध्यापक की भूमिका बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण होती है। समावेशी शिक्षण प्रणाली में सामान्य विशिष्ट एवं संसाधन अध्यापकों के मध्य सहयोग एवं आपसी समझ होना आवश्यक है। समावेशी कक्षा के अध्यापक को 3R (Right, Roles and Responsibilities) अधिकार, भूमिका एवं उत्तरदायित्व की जानकारी होना अति आवश्यक है। समावेशी प्रणाली में एक अध्यापक की भूमिका एवं उत्तरदायित्वों को निम्न रूप से लिखा जा सकता है-
(1) बच्चों की मानवीय विभिन्नताओं को समझना एवं स्वीकार करना सिखाना।
(2) कक्षा-कक्ष गतिविधियों में प्रत्येक बच्चे को प्रतिभागिता के अवसर प्रदान करना।
(3) बाधित बच्चों के प्रभावशाली अधिगम हेतु पाठ्यक्रम का निर्माण करना।
(4) विशिष्ट उपलब्धि के लिए बाधित बच्चों को अभिप्रेरित करना।
(5) निरन्तर मूल्यांकन द्वारा बाधित बच्चों की प्रगति सुनिश्चित करना।
(6) सामान्य एवं बाधित दोनों प्रकार के बच्चों के लिए समान पाठ्यक्रम उपभोग करने के लिए प्रेरित करना।
(7) सामान्य एवं बाधित बच्चों के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित करना।
(8) अभिभावकों से गृह अधिगम को बढ़ावा देने की तकनीकें बताना।
(१) प्रत्येक बच्चे के लिए आवश्यकतानुसार एवं योग्यतानुसार पाठ्यक्रम में गृहकार्य आदि का निर्माण करना।
(10) बच्चों में आत्मविश्वास जाग्रत करना एवं उन्हें जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार करना।
(11) बच्चों को आधुनिक उपकरणों के प्रयोग हेतु प्रशिक्षित करना ।
(12) शारीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं व्यवहारात्मक रूप से असमर्थ बच्चों की शैक्षिक आवश्यकताओं व अपेक्षाओं को समझना ।
(13) विशिष्ट बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उन्हें अन्य व्यवसाय द्वारा सहयोग -प्रदान करना।
(14) बच्चों द्वारा उपयोग में लाई जा रही विशिष्ट सेवाओं की जाँच करना ।
(15) शून्य अस्वीकृति के सिद्धान्त (Zero Rejection Policy) के सिद्धान्त के तहत, प्रत्येक बच्चे का कक्षा-कक्ष में स्वागत करना।
(16) बच्चों में सकारात्मक सोच का विकास करना।
(17) बाधित बच्चों की समस्याओं को समझने के लिए अभिभावकों, शिक्षा कर्मियों की सहायता करना ।
(18) इष्टतम उपलब्धि के लिए बाधित बच्चों को अभिप्रेरित करना।
(19) बाधित बच्चों के लिए निरन्तर मूल्यांकन द्वारा उनकी प्रगति को सुनिश्चित करना ।
(20) समुदाय द्वारा आयोजित किए गए कार्यक्रमों में भाग लेना
(21) बाधित बच्चों के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान देना ।
(22) वैकल्पिक शिक्षण तकनीकी का निर्माण करना।
दृष्टिबाधित बालकों के प्रति अध्यापक का उत्तरदायित्व
दृष्टिबाधित बालक कई प्रकार को हेते हैं, जैसे-दृष्टिहीन, कुछ को कम दिखाई देता है या फिर कई बच्चों की एक ही आँख काम कर रही होती है। इन बच्चों की देखभाल के लिए प्रशिक्षण एवं शिक्षा सामान्य एवं संसाधन अध्यापक दोनों का उत्तरदायित्व होता है-
(1) अभ्यास द्वारा अधिगम में बच्चों के लिए सहायता।
(2) कक्षा में सुलभ संचालन हेतु व्यवस्था।
(3) अल्पदृष्टि बालकों हेतु बड़े अक्षरों वाली किताब की व्यवस्था ।
(4) यह सुनिश्चित करना कि बच्चों को चिकित्सीय सेवा समय पर मिलें।
(5) सामान्य बच्चों को दृष्टिबाधित बच्चों की समस्याओं से अवगत कराना।
(6) दृष्टिबाधित बच्चों को संगीत, नाच, गाना आदि सह-पाठ्यक्रम गतिविधियों में सहभागिता के लिए प्रेरित करना।
(7) दृष्टिबाधित बच्चों के लिए अध्यापक का सकारात्मक दृष्टिकोण।
(8) अल्पदृष्टि वाले बच्चों को आगे बैठाना।
(१) बच्चों को श्रवण प्रशिक्षण देना।
(10) श्यामपट्ट पर लिखते समय ऊँची आवाज में बोलते हुए पढ़ना।
(11) विशिष्ट उपकरणों, जैसे-ब्रेल, श्रवण यंत्र आदि का उपयोग करना।
श्रवणबाधित बालकों के प्रति अध्यापक का उत्तरदायित्व
सामान्य अध्यापक के लिए श्रवण बाधित बालकों को प्रशिक्षण देना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। इस प्रकार के बच्चों को सकारात्मक पुनर्बलन की आवश्यकता होती है। अध्यापक को इस क्षेत्र में निम्नांकित कार्य करना चाहिए-
(1) श्रवण बाधित बालकों की समस्याओं को समझना ।
(2) संसाधन अध्यापक, अभिभावक एवं समुदाय के सम्पर्क में रहना।
(3) बच्चों को शब्दकोश की जानकारी देना।
(4) बोलते समय बच्चों की ओर देखना। (5) छोटे वाक्यों का प्रयोग।
(6) धीमी गति से बोलना।
(7) उन्हें श्यामपट्ट अथवा लेखन सामग्री की सहायता से पढ़ाना।
(8) श्रवण उपकरणों की पूर्ण जानकारी रखना ।
शारीरिक रूप से बाधित बालकों के प्रति अध्यापक का उत्तरदायित्व
ये विद्यार्थी सामान्य विद्यार्थियों से अधिक भिन्न नहीं होते इन्हें समावेशी परिवेश में सामान्य अध्यापकों द्वारा पढ़ाया जा सकता है क्योंकि इन बच्चों का बौद्धिक विकास सामान्य होता है। इनके प्रति शिक्षक के निम्न उत्तरदायित्व हैं-
(1) शारीरिक रूप से बाधित बच्चों की चिकित्सीय सीमाओं को समझना ।
(2) उनमें सकारात्मक आत्मसंप्रत्यय का विकास करना।
(3) बच्चे को उसकी बाधिता को स्वीकार करना सिखाना ।
(4) इन बच्चों की इच्छा शक्ति में वृद्धि करना।
(5) उन्हें अपने शरीर के विभिन्न अंगों का प्रयोग करना सिखाना ।
(6) उनके लिए कक्षा में बैठने की उपयुक्त व्यवस्था करवाना।
(7) उनके सहपाठियों में मधुर सम्बन्ध स्थापित करने में सहायता देना
(8) उन्हें जहाँ तक हो स्वावलम्बी बनाना।
अधिगम असमर्थी बालकों के प्रति अध्यापक के उत्तरदायित्व
समावेशी परिवेश में, इन बालकों की शिक्षा के लिए अध्यापक का प्रभावशाली होना आवश्यक है क्योंकि अध्यापक जितना प्रभावशाली रहेगा बच्चे उतनी अच्छी तरह से पढ़ाई एवं कक्षा की अन्य क्रियाओं में भाग लेंगे। इस प्रकार के बच्चों के लिए अध्यापक की भूमिका निम्नलिखित हैं-
(1) इस प्रकार के बच्चों की व्यावहारिक विशेषताओं का ठीक ढंग से निरीक्षण करना।
(2) बच्चों को तस्वीरों की सहायता से पढ़ाना।
(3) शिक्षा सम्बन्धी समस्यात्मक क्षेत्रों में बार-बार अभ्यास करवाना।
(4) समान अर्थों वाले वाक्यों को अलग-अलग पढ़ाना।
(5) अधिगम असमर्थी बालकों की आवश्यकतानुसार सामग्री की व्यवस्था करना।
प्रमस्तिष्कीय स्तम्भन के लिए बालकों के
प्रति अध्यापक के उत्तरदायित्व
इस प्रकार के बच्चों के लिए पाठ्यक्रम को बदलने की आवश्यकता नहीं होती परन्तु इन बच्चों को पढ़ाने की विधि अलग होनी चाहिए। अध्यापक का इन छात्रों के प्रति निम्नलिखित उत्तरदायित्व हैं—
(1) कक्षा में समायोजन के लिए भावनात्मक सहयोग देना ।
(2) सूचना एवं संचार तकनीकी का प्रयोग ।
प्रश्न 6 (ii) समावेशी शिक्षा सम्बन्धी पाठ्यक्रम तथा इसकी विशेषताएँ बताइए ।
उत्तर – प्रायः हर तरह का शिक्षण-अधिगम पाठ्यक्रम पर आधारित होता है तथा दूसरे उद्देश्य की सफलता अथवा असफलता भी इसी से सुनिश्चित होती है। यह बालकों की शिक्षण-अधिगम से सम्बन्धित मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला होना चाहिए। यह उस ज्ञान एवं कौशल का वर्णन करता है जिन्हें बालक प्राप्त कर सके। पाठ्यक्रम बालक के इन्हीं विभिन्न कौशलों को निखार कर सामने लाने में मददगार होता है। ऐसे में यह भी जरूरी हो जाता है कि पाठ्यक्रम सभी प्रकार के बालकों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाला हो ।
समावेशी शिक्षा सम्बन्धी पाठ्यक्रम भी यह सुनिश्चित करता है कि जिन मानकों के तहत पाठ्यक्रम तैयार किया गया है, वे मानक इतने विस्तृत तथा व्यापक हों कि बालकों की अधिगम- शिक्षण से सम्बन्धित समस्त जरूरतें पूर्ण हो सकें। यह सभी मानकों पर आधारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के ढाँचे को प्रोत्साहित करें। इसमें समावेशीय अनुदेशनात्मक उपागम एवं सामग्री सम्मिलित होनी चाहिए जो विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं वाले बालकों हेतु उपलब्ध हो। यह मूल रूप से शारीरिक तौर पर अशक्त बच्चों के स्तर को ऊँचा उठाने में उपयोगी होता है। इसमें उनके विभिन्न प्रकार के कौशलों का विकास होता है।
पाठ्यक्रम की विशेषताएँ
1. संरचनात्मक मूल्यांकन को नियमित शैक्षिक प्रक्रिया में निहित करना चाहिए ताकि छात्र व शिक्षक दोनों ही अधिगम प्रक्रिया के अभिन्न अंग बनें एवं शिक्षक, छात्रों की कठिनाइयों को पहचान कर इन्हें समाप्त करने में सहायता करें।
2. विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों को नियमित रूप से सहायता देने की
आवश्यकता है जो कि नियमित कक्षाओं में न्यूनतम सहायता से लेकर विद्यालय के अन्दर अधिगम सहायता कार्यक्रमों तक दी जाएगी व आवश्यकता पड़ने पर सहायता के प्रावधान से विशिष्ट शिक्षकों
व बाह्य व्यक्तियों द्वारा बढ़ा दी जायेगी।
3. उपयुक्त तकनीकी का प्रयोग विद्यालय पाठ्यक्रम को सफल बनाने में सहायक होना चाहिए तथा सम्प्रेषण, गतिशील और अधिगम को सहायता देने में तकनीकी सहायता और भी अधिक अल्पव्यय व प्रभावात्मक तरीके से दी जा सकती है। यदि यह किसी स्थान के केन्द्रीय लाभ कोष से दी जा रही है या जहाँ व्यक्ति विशेष की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए तकनीकी का प्रयोग किया जा रहा हो।
4. क्षमताओं के विकास हेतु क्षेत्रीय, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शोधकार्य किये जाने चाहिए, जिससे विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों के लिए उचित तकनीक को विकसित किया जा सके।
5. पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सैद्धान्तिक रूप व व्यावहारिक रूप एवं अन्य पाठ्य सहगामी क्रियाओं के क्रियान्वयन को जोड़ा जाना चाहिए।
6. पाठ्यक्रम की रचना का आधार समावेशन होना चाहिए।
7. पाठ्यक्रम केवल सामान्य बालकों को ध्यान में रखकर ही नहीं विशिष्ट बालकों की आवश्यकताओं को पूरा करने वाला होना चाहिए।
8. पाठ्यक्रम व्यावहारिक व कक्षागत परिस्थितियों में सामान्य व विशिष्ट बालकों को एक साथ लेकर चलने वाला होना चाहिए।
9. पाठ्यक्रम के अन्तर्गत Syllabus को पूरा करते ऐसे अध्याय होने चाहिए जो कि अध्ययन के दौरान बालकों के साथ समायोजन को बढ़ावा दें।
10. पाठ्यक्रम की रचना इस प्रकार की होनी चाहिए कि प्रतिदिन के शिक्षण के दौरान कुछ समय शिक्षकों को सामान्य व विशिष्ट बालकों के मध्य अन्तः क्रिया पर जोर दें जिससे वे एक-दूसरे को समझें ।
11. Curriculum Design पृथकीकरण को एकीकरण में बदल देने वाला होना चाहिए।
12. सालामैन का स्टेटमैण्ट के अनुसार, पाठ्यक्रम में लचीलापन हेतु कुछ तत्त्वों का होना आवश्यक है जो कि बिन्दुवार हैं-
13. पाठ्यक्रम बच्चों के अनुसार होना चाहिए न कि बच्चों को पाठ्यक्रम के अनुसार ।
14. विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बच्चों को नियमित पाठ्यक्रम के अनुसार, अतिरिक्त निर्देश देना चाहिए न कि किसी अन्य पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में दिशा देने वाले सिद्धान्त ऐसे हों जो कि सभी बच्चों को समान शिक्षा, अतिरिक्त सहायता, व मदद उपलब्ध करा सकें।
15. ज्ञान की प्राप्ति केवल औपचारिक या सैद्धान्तिक निर्देश का विषय नहीं है, शिक्षा की वेषय-वस्तु एवं व्यक्ति विशेष की आवश्यकताओं को उच्च मानकों तक इस विचार से ले जाना चाहिए जो कि उन्हें विकास में भागीदार बनाने के लिए प्रोत्साहित करे। शिक्षण बच्चों के अपने अनुभव और व्यावहारिकता से सम्बन्धित होना चाहिए जो कि उन्हें और अधिक अभिप्रेरित कर सके।
16. प्रत्येक बालक की प्रगति का अनुगमन करने के लिए, ऑकलन के तरीकों पर पुनर्विचार करना चाहिए।
17. पाठ्यक्रम शिक्षक द्वारा समय अवधि में दोनों ही प्रकार के सामान्य व विशिष्ट बालकों पर क्रयान्वित करने के लिए उपयोग होना चाहिए।
18. पाठ्यक्रम इस सीमा तक विस्तृत हो जिससे समावेशी शिक्षा को विद्यालय व कक्षागत परिस्थितियों में आसानी से प्रोत्साहित किया जा सके।
19. पाठ्यक्रम शिक्षकों के अन्दर सामान्य व विशिष्ट बालकों की समावेशी शिक्षा को प्रदान करने के लिए लचीला होना चाहिए।
प्रश्न 7 (i) अपवर्जन की अवधारणा, अर्थ, परिभाषा तथा विकास का वर्णन कीजिए।
अपवर्जन की अवधारणा
विशिष्टता प्रकृति के द्वारा दिया हुआ एक वरदान है। जिस प्रकार मानव जीवन में और प्रकृति के द्वारा की गई रचनाओं में विशिष्टता का कोई अन्त नहीं है, उसी प्रकार समावेशीकरण की भी कोई सीमा नहीं है। विशिष्टता और समावेशीकरण का अटूट सम्बन्ध है। यह दोनों एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं, शिक्षा अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। उसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि समावेशीकरण भी अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। यदि हम मनुष्य होकर मनुष्य की विशिष्टताओं को न समझने की भूल करें और शिक्षा को केवल स्वयं को परिपूर्ण मानकर या अपने जैसों तक पहुँचाने का प्रयास करें तो शिक्षा का प्रत्यय व उद्देश्य अपने आपमें ही सिमट कर रह जायेगा। शिक्षित गुणों से परिपूर्ण और आधुनिकीकरण को महत्व देने वाले मनुष्यों से इस भावना की अपेक्षा की जा सकती है कि वह अपनी अनोखी विशिष्टता के साथ-साथ अपने जैसे या उससे भिन्न विशिष्टता वाले मनुष्यों को उनकी भिन्न शारीरिक व मानसिक अवस्थाओं के साथ सामान्य वातावरण में अन्तःक्रिया का अवसर देंगे। इसी श्रेणी में पहला व ठोस कदम शिक्षा को सभी के लिये (Education for All) खास और जीवनोपयोगी बनाने के लिए, समावेशीकरण के लिए आवश्यक है जो कि कागजों पर स्याही से लिखे शब्दों में दबकर रह गई है। अतः समावेशीकरण वर्तमान समय की अति आवश्यक माँग है, जिसका रूप समय के चक्र के साथ अति व्यापक होता जा रहा है। समावेशीकरण अपवर्जन की जड़ों को जड़ से काटने के लिए एक रामबाण की तरह है क्योंकि अगर अपवर्जन को नियंत्रित नहीं किया गया तो यह विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बालकों को ही नहीं बल्कि विशिष्टता के विकास की जड़ों को ही काट देगा।
अपवर्जन का अर्थ एवं परिभाषा
अपवर्जन का शाब्दिक अर्थ है कि “विशिष्ट बालकों की विशिष्टताओं को अनदेखा कर उन्हें सामान्य बालकों की शिक्षा प्रक्रिया व शैक्षिक अवसरों को दूर रखना।”
या
अपवर्जन का अर्थ, “शैक्षिक अवसरों का सभी बच्चों के मध्य असमान वितरण होगा।’ अपवर्जन को एक ऐसी नैतिक क्रिया का दर्जा दिया जा सकता है जो कि विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बालकों को केवल शारीरिक या मानसिक रूप से ही नहीं वरन् मनोवैज्ञानिक रूप से क्षीण कर देना है।
शिक्षा के संकुचित, कुण्ठित और दमनात्मक अर्थ को अपवर्जन कहा जा सकता है।
अपवर्जन, वास्तविकता में प्राचीन काल में मनुष्यों के द्वारा मनुष्यता को समाप्त करने के लिए किये अति निकृष्ट कृत्यों में से एक जिन्हें मनुष्यों ने शारीरिक मानसिक रूप से विकृत अन्य मनुष्यों को नष्ट करने के लिए अपनाया था।
से
• परन्तु अगर हम वर्तमान समय की बात करें तो अपवर्जन अपने प्राचीन अर्थों में अभी उसी स्थान पर रहकर विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बालकों को शिक्षा, समाज व जीवन की दूर किये हुए है।
मुख्यधारा
अपवर्जन को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
• अपवर्जन अपने आप में मुख्य धारा शिक्षा की एक बहुत बड़ी कमी है। अपवर्जन प्रदर्शित करता है कि मुख्य धारा शिक्षा के दायरे बेहद सीमित हैं जो कि सत्य नहीं है।
• अपवर्जन का अर्थ है कि विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों को मुख्य धारा से विरत कर विशिष्ट विद्यालयों में रखकर दूर कर देना है।
• अपवर्जन शिक्षा के एकीकरण के प्रत्यय को पूरा नहीं करता है।
अपवर्जन समावेशन से विशिष्ट बालकों को सामान्य व सभी के लिए शिक्षा हेतु वातावरण से दूर करके एक नियंत्रित वातावरण में बाँध देता है।
समावेशीकरण से सम्बन्धित नीतियों का इतिहास व
कालानुक्रमिक परिवर्तन व विकास
1990 तक भारत में लगभग 40 मिलियन ऐसे बच्चे थे जो कि 4 से 16 वर्ष की आयु में आते थे और जिन्हें शारीरिक एवं मानसिक निर्योग्यताओं से पीड़ित श्रेणी में रखा गया था एवं मुख्य धारा वाली शिक्षा से हमेशा दूर रखा गया, इनमें से अमूमन बच्चे घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे।
परन्तु इस प्रवृत्ति के वे स्वयं की इच्छाशक्ति से ना होकर बल्कि संवेदनाहीन और कठोर विद्यालयी प्रशासन व मानवीय मजाक के घटिया रूप को प्रदर्शित करने वाले योग्य बालकों के अति उत्सुक अभिभावकों एवं उनसे बाह्य होकर ही वह इस प्रवृत्ति के बन गए हैं। संकुचित एवं दमनात्मक सोच वाले मनुष्यों ने कभी भी निर्योग्यता से जूझ रहे बालकों को राष्ट्र में सभी के लिए शिक्षा के उद्देश्य को पूरा करने वाली कक्षाओं में प्रवेश लेने ही नहीं दिया, जबकि संकुचित और दमनात्मक सोच अपने आप में मानसिक-हीनता का प्रदर्शन करती है।
परन्तु वर्तमान समय में यह माँग है कि बड़े अनुपात वाले निर्योग्य व पीड़ित बालकों को मुख्य धारा वाली शिक्षा में जोड़ते हुए उनकी क्षमताओं के विकास पर बल दिया जाए। भारत में मुख्य धारा शिक्षा प्रणाली की शुरुआत 1880 में हुई थी। श्रवणबाधितों के लिए पहला विद्यालय मुंबई में 1833 में खोला गया एवं दृष्टिबाधितों के लिए पहला विद्यालय अमृतसर में सन् 1887 में स्थापित हुआ।, 1947 तक दृष्टिबाधितों के विद्यालयों की संख्या 32 हो चुकी थी एवं श्रवणबाधितों व मानसिक रूप से पिछड़े बालकों के लिए 3 विद्यालय स्थापित किये जा चुके थे।
सन् 2002 तक विशिष्ट विद्यालयों की संख्या बढ़कर 3000 हो गई थी। भारत में 1960 में दृष्टिबाधितों को पढ़ाने के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षित करने की योजना पर बल दिया व समय के साथ कार्यान्वित भी किया।
परन्तु प्रश्न यह था कि शिक्षकों को प्रशिक्षित कैसे किया जाए? शिक्षकों की कम से कम शैक्षिक योग्यता क्या होनी चाहिए जो प्रशिक्षण के लिए आवश्यक है? इसका पाठ्यक्रम कैसा हो?
ऐसे ही कई और प्रश्नों को ध्यान में रखते हुए 1980 में Ministry of Welfare Govt. of India ने इस आवश्यकता को अनुभव किया कि एक ऐसा संस्थान अवश्य होना चाहिए जो विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों के लिए कार्य करे तथा उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें सहायता प्रदान करे।
लेकिन इन संस्थानों के द्वारा जो लाभ हुए उससे कहीं अधिक दुष्परिणाम सामने आए। उन्होंने इन बालकों का एक अलग वर्ग खड़ा कर दिया जो कि मुख्य धारा शिक्षा से पृथक् था। वर्तमान समय मुख्य धारा शिक्षा को ध्यान में रखते ही समावेशीकरण पर बल दिया गया तथा इसका उद्देश्य सामान्य व विशिष्ट दोनों प्रकार के बालकों को एक साथ एक ही शिक्षण कक्ष में उनकी आवश्यकतानुसार परिस्थितियों का निर्माण कर सहानुभूतिपूर्ण वातावरण में शिक्षित करता है।
प्रश्न 7 (ii) समावेशीकरण को बढ़ावा देने व अपवर्जन को रोकने के लिए कार्यक्रमों का वर्णन कीजिए।
समावेशीकरण को बढ़ावा देने व अपवर्जन को रोकने के लिए कार्यक्रम
1. जिला प्राथमिक शिक्षा योजना – DPEP की शुरुआत 1994 में हुई थी, इसमें शिक्षकों को बड़े पैमाने पर प्रशिक्षित किया जाता है। इसमें गुणवत्ता को बढ़ावा दिया जाता है। इसमें गुणवत्ता DPEP में शिक्षण सामग्री, अधिगम सामग्री को और परिष्कृत करने का प्रयास, संगठनों में विशिष्टता से पूर्ण बालकों के समायोजन की क्षमता को बढ़ाना, विभिन्न संगठनों में कार्यरत शिक्षकों व कार्यकर्ताओं को विशिष्ट बालकों की आवश्यकता को पूर्ण करने हेतु समर्थ बनाना, साधन एवं उपकरणों में नवीनीकरण पर जोर देना आदि शामिल है। DPEP में विशिष्टता पूर्ण बालकों के लिए एकीकृत शिक्षा को 1997 में जोड़ा गया।
2. एकीकृत शिक्षा विकास योजना (PIED) — एकीकृत शिक्षा विभाग योजना सरकार द्वारा एकीकृत शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए है। इस योजना में बहु – विशिष्टता से प्रभावित व्यक्तियों को भी शामिल किया गया है।
इस योजना के फलस्वरूप शिक्षकों की अभिवृत्तियों में सकारात्मक परिवर्तन आया है। PIED के फलस्वरूप IEDC Schem सामने आई। I.E.D.C. में शिक्षण से सम्बन्धित प्रणालियों को विकसित `किया। IEDC से आगे चलकर यह लाभ हुआ कि विशिष्टता पूर्ण बालकों की केवल उपस्थिति ही नहीं
बल्कि कक्षाओं में स्थायित्व भी बढ़ा।
3. NCERT के अनुसार, भारत में समावेशीकरण के प्रत्यय व समावेशी शिक्षा को लेकर लोगों में जागरूकता की कमी है। इसे बढ़ाने के लिए अत्यधिक प्रयासों की आवश्यकता होगी, समावेशीकरण को स्थान देने व स्वीकारने के लिए अब तक केवल चलाए जा रहे, विभिन्न कार्यक्रमों में साधन व
• उपकरणों पर ही जोर दिया गया।
4. जिला पुनर्वास केन्द्र और विकलांग व्यक्तियों के पुनर्वास के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम (NPRPD)— भारत में जिला पुनर्वास केन्द्र की स्थापना Ministory of Social Justice & Empowerment द्वारा की गई थी। यह कम से कम 11 राज्यों (ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, हरियाणा, केरल, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश और कर्नाटक) में शुरू किया गया था।
इसके अतिरिक्त 1999 में (NPRPD) को स्थापित किया गया। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत राज्यों की सरकारों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है ताकि यह कार्यक्रम जिला स्तर पर अच्छी तरह से चल सके। इसके लिए केन्द्र सरकार समुदाय पर आधारित पुनर्वास सुविधाओं को बढ़ावा देने के लिए कार्य करती है। इसमें भारत सरकार का मुख्य उद्देश्य विशिष्ट बालकों को परिपक्व बनाने एवं उनके परिवारों व समुदायों को सहायता प्रदान कर सशक्त बनाने का प्रयास करती है। इसमें पुनर्वास कर्मचारी ब्लाक स्तर, व ग्राम पंचायत में भी नियुक्त किये जाते हैं। Direct Referal & Training Centre, State Resources Centre भी स्थापित किये जाते हैं।
District Referral & Training Centre लोगों को विस्तृत पुनर्वास सुविधायें देने का कार्य
करता है जबकि ‘राज्य संसाधन केन्द्र’ राज्य का सबसे श्रेष्ठ संस्थान के रूप में कार्य करता है, जो कि प्रशिक्षण व मानव संसाधन विकास एवं पुनर्वास सुविधाओं को निचले स्तर से प्रदान कराता है
5. जॉयफुल इनक्लूजन पैक, बैंगलोर, कर्नाटक-यह पहल इस धारणा पर आधारित है, कि अधिगम को सभी के लिए सुगम बनाया जा सकता है। इसे कर्नाटक में ग्रामीण क्षेत्र के सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को प्रशिक्षित करने हेतु शुरू किया गया था। Checklist की सहायता से अधिगम में हुई उपलब्धि का माप किया गया। अधिगम को प्राप्त करने वाली क्रियाओं को प्रदर्शित करने के लिए सरलीकृत कार्ड का सहारा लिया जाता है।
यह पहल मूल्यांकन की सीमाओं पर प्रतिबन्ध नहीं लगाती एवं सभी शैक्षिक स्तर के अभिभावकों के लिए भी मूल्यांकन को समझना बेहद आसान है। अतः यह सारी सामग्री Joyful, Inclusion Pack को बनाती है।
6. ओडिशा पोर्टेज प्रोजेक्ट बैंगलोर कर्नाटक-यह प्रोजेक्ट कर्नाटक के स्कूलों में नामांकन की घटती दरों को रोकने के लिए है। इसमें किसी भी बालक को उसके विकास के आरम्भिक दौर में ही किसी विशिष्टता के नकारात्मक प्रभाव को पहचानकर स्कूल में प्रवेश दिया जाता है। इस प्रोजेक्ट की पहुँच घर-घर तक है। इस प्रोजेक्ट की शुरुआत USA (UNESCO, 1955) में हुई थी।
7. श्री रामकृष्ण मिशन विद्यालय व IHRD कार्यक्रम – यह प्रोग्राम साधन सम्पन्न व सामान्य शिक्षकों द्वारा लागू किया जाता है। इसे विशिष्टतापूर्ण बालकों की शिक्षा के लिए IHRD (International Human Resource Development) द्वारा समावेशीकरण को बढ़ावा देने हेतु शुरू किया गया था।
8. सर सापुरजी बिलीमोरिया फाउन्डेशन मुम्बई, महाराष्ट्र – यह संस्था शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए 1998 में शुरू की गई थी। इसके अंतर्गत समावेशी शिक्षा को बढ़ावा दिया गया। इसके साथ-साथ व्यक्तिगत अधिगम, नई तकनीक, सामूहिक कार्य कौशल विकास के लिए कार्यक्रम विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं, विशिष्टताओं आदि का ज्ञान भी सम्मिलित है।
9. शिक्षित युवा सेवा समिति, बस्ती उत्तर प्रदेश – इस समिति का क्रियान्वयन 1994, में शुरू किया गया था जिसके अन्तर्गत दृष्टिबाधित रूप से लाइलाज व्यक्तियों के पुनर्वास के लिए चुना जाता था। इस प्रोजेक्ट में कर्मचारियों को समुदाय आधारित पुनर्वास के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। यह प्रोजेक्ट एक पायलट प्रोजेक्ट था जिसके अन्तर्गत डेनिस दूतावास ने बस्ती जिले को चुना था।
इस प्रोजेक्ट की सफलता सभी प्रकार की विशिष्टता वाले बालकों को सम्मिलित करने से और हो गई।
भी मजबूत
इसके अतिरिक्त वहाँ के शिक्षकों, अभिभावकों में जागरूकता बढ़ी जिसके फलस्वरूप वे वर्तमान समय में जिले के अन्दर ही जागरूकता कार्यक्रम चला रहे हैं।
उपर्युक्त कार्यक्रमों को UNICEF ने अपनी Report में भी प्रमाणित किया है व नीतियों एवं कार्यक्रमों को इसी नीति या कार्यक्रम के रूप में इंगित किया गया है।
इन कार्यक्रमों व नीतियों को कार्यरूप में परिणित करने के लिए आवश्यक है कि इन नीतियों व कार्यक्रमों के प्रति लोगों को जागरूक किया जाए तथा समावेशन का वातावरण तैयार किया जाए। समावेशन एक ऐसी परिस्थिति है जो इंगित करती है कि सभी को उनकी क्षमतानुसार वातावरण उपलब्ध करवाया जाय, और यह तभी सम्भव है जब शिक्षा के क्षेत्र में लगे, प्रशासक, शिक्षक व अन्य कर्मचारी इसमें सहयोग व जागरूकता के साथ कार्य करें।
इकाई-IV
प्रश्न 8 (i) मूल्यांकन के अर्थ एवं उसके महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। समावेशी शैक्षिक
प्रक्रिया में मूल्यांकन की क्या उपादेयता है?
मूल्यांकन का अर्थ
शिक्षा में मापन एवं मूल्यांकन वह स्थिति है जहाँ पर बालकों की निष्पत्ति उनके द्वारा अर्जित ज्ञान तथा कौशल की मात्रा का पता लगाया जाता है तथा उनको एक स्थिति प्रदान की जाती है। मनोवैज्ञानिकों ने परीक्षण द्वारा मापन तथा मूल्यांकन की विधियाँ विकसित की हैं। मौखिक प्रश्नोत्तर, विद्यालय कार्य, गृहकार्य, छात्रों के व्यवहार परिवर्तन का निरीक्षण, साक्षात्कार, लिखित परीक्षण, प्रयोगात्मक परीक्षण आदि के द्वारा छात्रों की योग्यताओं एवं क्षमताओं का मापन किया जाता है तथा बालकों में हो रहे समग्र व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन किया जाता है।
वाण्ट एवं ब्राउन के शब्दों में, “मूल्यांकन किसी वस्तु के मूल्य को निर्धारित करने के कार्य या प्रकिया की ओर संकेत करता है। मूल्यांकन मापन पर निर्भर करता है, मापन का समानार्थी नहीं है। मूल्यांकन इस प्रश्न के उत्तर में मापन से आगे रहता है कि क्या प्राप्त मात्रा वांछनीय है ? मूल्यांकन में मूल्य निर्णय निहित है इसी कारण मूल्यांकन को अर्थ मिलता है।”
मूल्यांकन की परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-
1. रैमर्स एवं गेज – “मूल्यांकन में व्यक्ति या समाज या दोनों की दृष्टि से जो अच्छा है अथवा वांछनीय है, उसको मानकर चला जाता है।”
2. टोरगरसन एवं एडम्स – “किसी वस्तु या प्रक्रिया का मूल्य निश्चित करना। इस प्रकार शैक्षिक मूल्यांकन से तात्पर्य है – शिक्षण प्रक्रिया तथा सीखने की क्रियाओं से उत्पन्न अनुभवों की उपयोगिता के बारे में निर्णय देना ।’
मूल्यांकन प्रक्रिया
मूल्यांकन प्रक्रिया में तीन मुख्य चरण सन्निहित हैं- उद्देश्य, अधिगम अनुभव तथा मूल्यांकन के उपकरण। कुछ लोग व्यवहार परिवर्तन को ही मूल्यांकन का तृतीय चरण मानते हैं। ये तीनों चरण एक-दूसरे पर पास्परिक रूप से निर्भर करते हैं।
मूल्यांकन प्रक्रिया के चरण
उपर्युक्त तीनों बिन्दु मूल्यांकन के अलग-अलग चरणों को इंगित करते हैं-
(i) उद्देश्यों का निर्धारण एवं परिभाषीकरण-बालक की सामाजिक स्थिति, विषय-वस्तु की प्रकृति तथा शैक्षिक स्तर को ध्यान में रखकर उद्देश्य को निर्धारित करना चाहिए। व्यवहार परिवर्तन के रूप में उद्देश्य को सफल रूप से तभी निर्धारित किया जा सकता है जब उपर्युक्त तथ्यों को भली प्रकार समझ लिया जाए। मूल्यांकनकर्ता को यह स्पष्ट रूप में ज्ञात होना चाहिए कि व्यवहार परिवर्तन किस रूप में और किस सीमा तक लाना है। इससे यह जानने में सफलता होगी कि व्यवहार में वांछित परिवर्तन आया है या नहीं। अतः उद्देश्यों के भली प्रकार पहचान लेने और निर्धारित कर लेने पर ही मूल्यांकन की ओर अग्रसर होना चाहिए। उद्देश्यों को परिभाषित करने में विषय-वस्तु और व्यवहार- परिवर्तन दोनों को ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण मानना आवश्यक है।
से
(ii) अधिगम अनुभव की योजना बनाना- एक बार उद्देश्यों को पहचान लेने और उनका निर्धारण कर लेने के पश्चात् अधिगम अनुभव की ओर ध्यान देना चाहिए। अधिगम अनुभव तात्पर्य एक ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना है जिसमें बालक वांछित क्रिया कर सके अर्थात् वह उद्देश्यों के अनुरूप प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कर सके।
एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेक अनुभवों की योजना तैयार करनी पड़ती है। योजना निर्माण के समय बालक की आयु, लिंग, परिवेश, सामाजिक पृष्ठभूमि आदि प्रासंगिक चरों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। इन्हीं के आधार पर शिक्षण सामग्री, शिक्षण विधि, साधन व माध्यम की व्यवस्था की जानी चाहिए।
(iii) विभिन्न उपकरणों के माध्यम से साक्षियाँ प्रदान करना- उद्देश्य एवं अधिगम- अनुभव की योजना तैयार हो जाने पर मूल्यांकनकर्ता को उपयुक्त उपकरण के चयन अथवा विकास की ओर प्रयत्न करना चाहिए। इन उपकरणों को प्रयोग कर साक्षियाँ एकत्रित करें। इन साक्षियों के आधार पर व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन करना चाहिए।
(iv) व्यवहार परिवर्तन के क्षेत्र-बालक के जीवन में आने वाले व्यवहार परिवर्तन, मूल्यांकन के फलस्वरूप ही होते हैं। मूल्यांकन इन व्यवहार परिवर्तनों के लिए एक माध्यम का कार्य करता है। व्यवहार परिवर्तन को मुख्यतः तीन पक्षों में विभाजित किया जाता है-
(a) ज्ञानात्मक पक्ष – यह पक्ष ज्ञान के उद्देश्य पर महत्त्व देता है। ब्लूम ने ज्ञानात्मक पक्ष की विवेचना करते हुए निम्न प्रकार के ज्ञान को इस पक्ष में सन्निहित किया है- 1. विशेष तथ्यों का ज्ञान, 2. विशिष्ट तथ्यों को प्राप्त करने की विधियों का ज्ञान, 3. मान्यताओं का ज्ञान, 4. मापदण्डों का ज्ञान, 5. सिद्धान्तों और सामान्यीकरण का ज्ञान, 6. घटनाओं का ज्ञान, 7. विधियों और प्रणालियों
का ज्ञान ।
इस पक्ष के छह स्तर होते हैं-प्रत्यावाहन तथा अभिज्ञान, बोध, प्रयोग-विश्लेषण, संश्लेषण तथा मूल्यांकन ।
(b) भावात्मक पक्ष – 1. ग्रहण करना, 2. प्रतिक्रिया करना, 3. अनुमूल्यन, 4. विचारण, 5. व्यवस्थापन, 6. चरित्रीकरण ।
(c) क्रियात्मक पक्ष-यह पक्ष मुख्यतः मांसपेशियों एवं आंगिक गतियों की आवश्यकता से सम्बन्धित होता है। इसे शिक्षण प्रक्रिया की दृष्टि से छह स्तरों में बाँटा जा सकता है- 1. उत्तेजना, 2. – क्रियान्वयन, 3. नियंत्रण, 4. समायोजन, 5. स्वभावीकरण, 6. कौशल ।
व्यवहार के इन तीनों पक्षों में परस्पर समन्वय रहता है। बालक के व्यवहार का मूल्यांकन इन तीनों पक्षों के समन्वित रूप में या अलग-अलग किया जाता है।
मूल्यांकन की उपयोगिता
मूल्यांकन के द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में बहुत से लाभ होते हैं। कोई बालक कितना जानता है? शिक्षक को अपनी कक्षा में कितनी सफलता मिली है? शिक्षण विधि क्या हो ? शिक्षण को छात्रों के हित में किस प्रकार समायोजित करना है? आदि प्रश्नों का उत्तर मूल्यांकन द्वारा ही प्राप्त होता है।
छात्रों को यदि अपनी सीमाओं का ज्ञान और उन्हें दूर करना है तो उन्हें मूल्यांकन प्रक्रिया से गुजरना ही पड़ेगा।
मूल्यांकन के माध्यम से शिक्षक सभी छात्रों की प्रगति के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है। इसके आधार पर वह उनका मार्गदर्शन कर सकता है। इसके द्वारा छात्रों की समस्याओं
का ज्ञान प्राप्त कर
उन्हें
उपयुक्त मार्गदर्शन दिया जा सकता है। इसी प्रकार विद्यालय की गतिविधियों में सुधार लाने के लिए मूल्यांकन आवश्यक है।
प्रश्न 8 (ii) समावेशी शिक्षा में ऑकलन से आप क्या समझते हैं? इसकी विशेषताएँ बताइए |
ऑकलन
किसी के बारे में निर्णय देना ही ऑकलन कहलाता है। ज्यादातर ऑकलन तथा मूल्यांकन का प्रयोग लोग एक-दूसरे के पर्याय के रूप में करते हैं परन्तु वास्तविकता में इन दोनों के बीच में अन्तर
है।
ऑकलन लोगों से सूचना एकत्रित करने की प्रक्रिया है जिन्हें विभिन्न माध्यमों जैसे प्रदत्तकार्य निष्पादन परीक्षा तथा नित्यप्रति परीक्षण द्वारा किया जा सकता है तथा छात्रों को बिना कोई ग्रेड या अंक दिए पृष्ठ-पोषण देने की सुविधा भी प्रदान की जाती है। यह सब छात्रों या उनके समूह द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जब इस पृष्ठ पोषण को छात्रों के अधिगम उद्देश्यों से जोड़ा जाता है तो छात्रों में अंतिम मूल्यांकन से पहले सुधार सम्भव है। एक प्रकार से ऑकलन मूल्यांकन का छोटा रूप है जो प्रक्रिया के पूर्व में पूर्वाभ्यास के रूप में अभिव्यक्त होता है। यह पूछताछ की प्रक्रिया में पहला पद है।
इरविन (1991) के अनुसार, “ऑकलन छात्रों के व्यवस्थित विकास के आधार पर अनुमान है। यह किसी भी वस्तु को परिभाषित कर, चयन, रचना, संग्रहण, विश्लेषण व्याख्या और सूचनाओं का उपयुक्त प्रयोग कर छात्र विकास तथा अधिगम को बढ़ाने की प्रक्रिया है । ”
हुबा एवं फ्रीड के अनुसार, “ऑकलन सूचना संग्रहण तथा उस पर विचार-विमर्श की प्रक्रिया है जिन्हें हम विभिन्न माध्यमों से प्राप्त कर ये जानते हैं कि विद्यार्थी क्या जानता है, समझता है तथा अपने शैक्षिक अनुभवों द्वारा प्राप्त ज्ञान को परिणाम के रूप में व्यक्त कर सकता है। जिसके द्वारा छात्र अधिगम में वृद्धि होती है।
उपरोक्त परिभाषाओं के विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है-
(1) ऑकलन लोगों से सूचना एकत्रित करने की प्रक्रिया है ।
(2) इसके द्वारा पृष्ठ-पोषण को भी दिया जा सकता है।
(3) यह पूछताछ प्रक्रिया का पहला पद है।
(4) इसके द्वारा छात्र अधिगम में सुधार तथा विकास किया जा सकता है।
(5) ऑकलन विचार-विमर्शी प्रक्रिया है।
ऑकलन की विशेषताएँ
ऑकलन द्वारा यह ज्ञात किया जाता है कि बालक ने शिक्षण के अन्त में सही मायने में क्या-क्या सीखा है। एक अच्छे ऑकलन में पाँच गुणों का होना आवश्यक है और शिक्षक को छात्रों का ऑकलन करने से पूर्व यह ज्ञात कर लेना चाहिए कि ऑकलन इन गुणों को पूरा कर रहे हों। आँकलन की ये विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
(1) विश्वसनीयता – किसी भी ऑकलन का यह सबसे पहला एवं महत्वपूर्ण गुण ऑकलन किसी भी समय या परिस्थिति में किया जाए किन्तु उसका परिणाम सदैव समान होना चाहिए है। तभी वह विश्वसनीय कहलाएगा। विश्वसनीय सामग्री वही है जिसमें एक स्तर के विद्यार्थी पुनः पुनः परीक्षा में लगभग एक समान उत्तर देते हैं। शिक्षक किसी भी योग्यता का हो ऑकलन प्रायः एक समान
होना चाहिए। अगर शिक्षक द्वारा एक ही ऑकलन हेतु अलग-अलग अंक प्रदान किया जा रहा है तो ऐसा ऑकलन विश्वसनीय नहीं कहलाता है ?
( 2 ) वैधता-वैध ऑकलन वही होता है जो वास्तव में उन्हीं उद्देश्यों का ऑकलन करे जिस उद्देश्य से उसका निर्माण किया गया है। लेकिन प्रायः शिक्षक ऐसे प्रश्नों को बच्चों से पूछने लगते हैं जो प्रामाणिक नहीं होते हैं। उदाहरणार्थ – यदि छात्रों की कुछ बिन्दुओं को याद करने की शक्ति को जाँचने हेतु प्रश्न बनाना है किन्तु ऐसे प्रश्न बना दिए जाएँ जो उनकी तर्क शक्ति को जाँचें ।
(3) मानकीकरण-एक अच्छे ऑकलन की यह भी एक विशेषता होती है कि वह मानकीकृत होना चाहिए। विद्यालयों में प्रायः जो परीक्षण किए जाते हं वे राष्ट्र एवं राज्य के लिए किए जाते हैं लेकिन मानकीकृत ऑकलन वह होता है जो कक्षा स्तर को सम्मिलित करता है। मानकीकरण किस सीमा तक ऑकलन एवं मूल्यांकन प्रशासन प्रक्रियाओं के समान है, को निरूपित करता है और प्रत्येक विद्यार्थियों का ऑकलन का प्राप्तांक समान होना चाहिए। मानकीकृत ऑकलन में कई गुण होते हैं जो उसे अद्वितीय एवं मानक बनाते हैं। एक मानकीकृत ऑकलन वही होता है जिसमें विद्यार्थियों को एक समय सीमा, समान प्रकार के प्रश्न, समान निर्देश दिए जाएँ ताकि छात्र अंक अर्जित करें। मानकीकरण, प्राप्तांक में होने वाली त्रुटियों को समाप्त कर देता है।
( 4 ) व्यावहारिकता-ऑकलन लागत, समय और सरलता की दृष्टि से वास्तविक, व्यावहारिक एवं कुशल होना चाहिए। ऐसा भी हो सकता है कि ऑकलन का कोई तरीका आदर्श हो किन्तु उसे व्यवहार में न लाया जा सके ऐसे तरीकों को भी नहीं अपनाना चाहिए। उदाहरणार्थ- विद्यार्थियों को प्रैक्टिकल की परीक्षा में सभी विद्यार्थियों को एक प्रयोग के स्थान पर अलग-अलग प्रयोग देना अधिक सुविधाजनक एवं व्यावहारिक है क्योंकि सबसे एक प्रयोग करवाने हेतु एक प्रकार के अनेक यंत्र उपलब्ध करवाने होंगे, हो सकता है यह संभव न हो ।
(5) उपयोगिता – ऑकलन विद्यार्थियों के लिए उपयोगी भी होना चाहिए। ऑकलन से प्राप्त परिणामों को छात्रों को बता देना चाहिए जिससे वे उन कमियों को सुधार सकें। ऑकलन द्वारा ही इसका पता लग सकता है कि किस दिशा में सुधार करना है। यह सुधार पठन सामग्री तथा अध्यापन विधि आदि में हो सकता है। इस प्रकार ऑकलन विद्यार्थियों की एवं अध्यापकों की कमियों को जानने एवं उन्हें दूर करने में बहुत लाभकारी होता है।
प्रश्न 9 (i) विशिष्ट बालक से आप क्या समझते हैं? समावेशी शिक्षा रूपरेखा के उद्देश्यों पर प्रकाश डालिये।
उत्तर
विशिष्ट बालक
विशिष्ट बालक का अर्थ अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग प्रकार से व्यक्त करते हैं। कुछ लोग प्रतिभावान को तो कुछ सृजनात्मक बालकों के लिए विशिष्ट शब्द का प्रयोग करते हैं परन्तु ऐसा नहीं है। विशिष्ट का अर्थ सामान्य बालक से भिन्नता रखने वाले बालकों से है।
क्रो और क्रो के अनुसार, “विशिष्ट प्रकार या विशिष्ट शब्द किसी एक ऐसे लक्षण या उस लक्षण को रखने वाले व्यक्ति पर लागू किया जाता है जबकि इस लक्षण को सामान्य रूप से रखने से प्रत्यय की सीमा इतनी अधिक हो जाती है कि उसके कारण व्यक्ति अपने साथियों का विशिष्ट ध्यान प्राप्त करता है और इससे उसकी व्यवहार की अनुक्रियाएँ तथा क्रियाएँ प्रभावित होती हैं।”
व्यक्तिगत भिन्नता को जानने से पूर्व सभी बालकों को सामान्य बालकों की श्रेणी में रखा जाता
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`था अर्थात् सभी बालकों को सामान्य मानकर चला जाता था। कुछ बालकों को जो सामान्य से भिन्न थे। असामान्य माना जाता था लेकिन मनोविज्ञान के विकास के साथ ही उन बालकों की ओर ध्यान गया। जो सामान्य से थोड़ा भी भिन्न थे तथा उन्हें सामान्य बालकों से पृथक् बालक समझा जाने लगा। दो बालक चाहे वे जुड़वाँ ही क्यों न हों एक दूसरे से पृथक् या भिन्न समझा जाता है। अतः यह निष्कर्ष | निकाला कि अधिकांश छात्र समूह औसत से भिन्न होते हैं। ऐसे बालक शारीरिक तथा मानसिक भिन्नता के कारण विशिष्ट कहे जाते हैं। इसमें सीखने की अक्षमता, बाध्यता तथा शारीरिक विकलांगता पाई जाती है। ये बालक दृष्टि, श्रवण, वाणी तथा मन्दबुद्धि, सेरेबल पॉलिसी, ऑटिज्म
तथा अधिगम अक्षमता रखते हैं।
ऐसे समस्त बालक जो मानसिक रूप से पिछड़े हैं, सीखने में अक्षम हैं या शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं प्रतिभावान या सृजनात्मक बालक हैं तथा ये बौद्धिक रूप से भिन्न कहलाते हैं। मानसिक रूप से पिछड़े बालकों का व्यवहार सामान्य बालकों से हमेशा भिन्न होता है। इसी प्रकार यदि एक समरूप के बालकों के लक्षणों का मापन किया जाए तो उसका वितरण सामान्य वक्र के समान होता है जैसा निम्न चित्र में दिखाया गया है—
समूह
नाम्यम्य बन
इस सामान्य वक्र के मध्य में पड़ी लम्बवत् रेखा यह बताती है कि सामान्य बालक वे हैं जो इस बिन्दु पर पड़ते हैं तथा बिन्दु से हटने वाले समस्त बालक सामान्य से भिन्न हो जाएँगे। अतः सामान्य वक्र के दाएँ तथा बाएँ छोर पर पड़ने वाले 10 प्रतिशत बालकों को औसत से भिन्न माना जा सकता है।
इसी प्रकार 90-110 बुद्धिलब्धि वाले बालकों को सामान्य मानकर अन्य बालकों को बौद्धिक रूप से भिन्न अर्थात् विशिष्ट माना जाता है। 110 से अधिक बुद्धिलब्धि वाले बालक प्रतिभावान तथा 90 से कम बुद्धि लब्धि वाले बालक मानसिक रूप से पिछड़े माने जाते हैं। चित्र के अनुसार पिछड़े एवं प्रतिभावान बालक चोटी के दोनों ओर दर्शाए गए हैं।
प्रतिभान
समावेशी शिक्षा रूपरेखा के उद्देश्य
समावेशी शिक्षा फ्रेमवर्क के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(1) सम्पूर्ण स्कूल गतिविधियों को उत्साहित करना, व्यक्तिगत रूप से व्यक्ति का इन गतिविधियों में भाग लेना तथा समावेशन के विकास हेतु विचार विमर्श करना
(2) समावेशी नीतियों का पुनः अध्ययन कर उनकी योजना का कार्यान्वयन आदि के विषय में
सहायता प्रदान करना।
(3) व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों ही तरीके से प्रदर्शन प्रक्रिया को अपनाना।
(4) समावेशी शिक्षा से सम्बन्धित नीतियों का अधिगमकर्ता द्वारा तेजी से अनुगमन करना। संरचना एवं ढाँचे की सामग्री
(1 ) सिद्धान्त – समावेशी शिक्षा के विकास हेतु कुछ सिद्धान्त दिए गए हैं। जिनका अनुमान कर इसके विकास को उन्मुख किया जा सकता है। जो कि निम्न हैं-
(i) सम्पूर्ण स्कूल समुदाय द्वारा स्वामित्व – इस प्रक्रिया के अन्तर्गत पूरा स्कूल एक समुदाय की भाँति परिणामात्मक ऑकलन के लिए तैयारी करता है तथा समावेशन सम्बन्धी प्रक्रियाओं में आपसी विचार-विमर्श करता है। उन छात्रों को जिन्हें विशेष शिक्षा की आवश्यकता है। उनके विकास हेतु कार्यशील रहता है।
(ii) छात्र एवं स्कूल विविधता की चिन्तनशीलता- ऐसे लोग जिन्हें विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता होती है। उनमें अलग-अलग तरह की क्षमताएँ तथा विशेषताएँ पाई जाती हैं। उनकी अधिगम सम्बन्धी आवश्यकताएँ भी अलग-अलग होती हैं। उन्हें प्राथमिक, उच्च प्राथमिक तथा विशेष विद्यालयों में प्रशिक्षित किया जाता है। वे एक-दूसरे से सीखने में भिन्नता रखते हैं। इस फ्रेमवर्क द्वारा ये सुविधा प्रदान की जाती है कि अलग-अलग क्षमताओं वाले बालक भी एक ही जगह संगठित होकर सीख सकते हैं।
(iii) सहायता हेतु प्रयासरत – प्रत्येक स्कूल में कार्यरत कमेटी का ये कर्तव्य है कि वह समावेशी शिक्षा की नीति को अपने यहाँ सम्मिलित करें। प्रत्येक विद्यालय के लोग ये कोशिश करें कि वह समावेशी शिक्षा फ्रेमवर्क को अधिक बेहतर तरीके से प्रदर्शित करे। इसके द्वारा यह पता चलता है कि व्यक्ति की किस आवश्यकता को प्राथमिकता दी जाए। इस प्रकार अलग-अलग स्तर पर स्व-ऑकलन भी करें।
( 2 ) ढाँचा संरचना -इसमें ढाँचे की संरचना 10 (दस) बिन्दुओं के आधार पर की गई है। (i) नेतृत्व एवं प्रबन्धन – इसके अन्तर्गत नेताओं के गुण तथा कार्यों की व्याख्या की गई, जैसे—नेता प्रत्येक छात्र की समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत महसूस होने वाली आवश्यकताओं को जानते हैं। वे समस्या समाधान करते हैं साथ ही छात्रों को सलाह भी देते हैं तथा नेता प्रत्येक बालक को समान नियम व समान आवश्यकताएँ प्रदान करने की कोशिश भी करते हैं।
(ii) सम्पूर्ण विद्यालय की विकास योजना-इसके अंतर्गत ये कोशिश की जाती है कि प्रत्येक विद्यालय अपनी गुणवत्ता बढ़ाए तथा परिवर्तनों को स्वीकारें तथा ऐसे नियम बनाए जिससे भविष्य में विकास निश्चित हो । विद्यालय विकास योजना में सभी नीतियों तथा प्रक्रियाओं को जो विद्यालयीय जीवन से सम्बन्धित हों इसमें शामिल किया जाता है।
(iii) सम्पूर्ण विद्यालय वातावरण-इसके अन्तर्गत विद्यालयी जीवन से सम्बन्धित सभी आवश्यकताएँ शामिल हैं चाहे वे परिवहन से सम्बन्धित हो, बिल्डिंग से, उपकरण से, सुविधाओं से अर्थात् पूरे वातावरण से सम्बन्धित आवश्यकताएँ इसमें शामिल होती हैं।
(iv) सम्प्रेषण – सम्प्रेषण का अर्थ यहाँ उस बातचीत से है जो विद्यालय के स्टाफ, अभिभावक
• तथा विद्यालय के अन्य लोगों के मध्य पाया जाता है। यह सम्प्रेषण मौखिक एवं लिखित संकेतों,
श्रव्य सामग्री आदि किसी के द्वारा किसी भी तरह से हो सकता है।
दृश्य-
(v) छात्र एवं कर्मचारी हित-विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों की सांवेगिक तथा शारीरिक सुरक्षा के साथ ही साथ स्टाफ कर्मचारी की भी आवश्यकताएँ शामिल हैं तथा साथ ही उनमें अपने सहयोगी साथियों को सहयोग देने की भावना भी होनी चाहिए। खुलकर बातचीत करना इस नीति का अंग है साथ ही आपस में होने वाली समस्या का समाधान भी स्टाफ के लोग मिलकर सुलझाएँ ऐसा सुझाव दिया गया।
प्रमुख
(vi) समावेशन हेतु पाठ्यचर्या नियोजन –
इस नीति के अन्तर्गत ऐसा कहा गया कि विद्यालय का अकादमिक वर्ग तथा स्टाफ कर्मचारी समावेशी शिक्षण एवं अधिगम हेतु मिलकर पाठ्यचर्या तैयार करें। पाठ्यचर्या योजना समावेशन के लिए अधिगम अनुभवों को प्राप्त करने का मुख्य उद्देश्य है जिसमें विभिन्न प्रक्रियाओं तथा सहायक सामग्री का प्रयोग किया जाता है। विभिन्न गतिविधियों को शामिल करने का निर्देश दिया जाता है जिसके द्वारा छात्र अपनी विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें।
(vii) व्यक्तिगत शिक्षा योजना – समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत व्यक्तिगत आवश्यकता से सम्बन्धित योजना बनाना महत्वपूर्ण कार्य है। इसमें यह बताया गया कि अलग-अलग आवश्यकता वाले बालकों का शिक्षण तथा अधिगम उनके पाठ्यक्रम के अनुसार किस प्रकार किया जाए। प्रत्येक छात्र की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति की जाए तथा व्यक्तिगत योजना भी बनाई जाए जो प्रत्येक छात्र से व्यक्तिगत रूप से सम्बन्धित हो ।
(viii) शिक्षण एवं अधिगम की रणनीति- इसके अन्तर्गत दो बिन्दु शामिल हैं-अधिगम अनुभव तथा शिक्षण अनुभव । प्रत्येक व्यक्ति में व्यक्तिगत भिन्नता होती है तथा व्यक्तिगत आवश्यकता भी । प्रत्येक व्यक्ति के अधिगम को धनात्मक क्रियाओं तथा वातावरण के सहयोग द्वारा बढ़ाया जा सकता है। इसके अन्तर्गत विद्यालय का वातावरण तथा परिवार का वातावरण दोनों ही सहयोग प्रदान करते हैं। प्रभावपूर्ण शिक्षण हेतु सही शिक्षण एवं अधिनियम विधियाँ/प्रविधियाँ, संगठित क्रियाएँ शामिल होती हैं। ये सब मिलकर सहकारी शिक्षण को अग्रसारित करती अर्थात् बढ़ावा देती हैं।
(ix) कक्षा-कक्ष प्रबन्धन – इस ढाँचे में कहा गया है कि कक्षा का वातावरण विभिन्न संरचनात्मक चार्ट्स, मॉडल तथा अधिगम सम्भावनाओं से परिपूर्ण होना चाहिए जिससे छात्र कक्षा में बैठकर वहाँ के वातावरण से भी ज्ञान प्राप्त कर सकें तथा जो ज्ञान प्राप्त करें वह उनके सहयोग से रुचिपूर्ण तथा आनन्ददायक हो सके।
(x) अधिगम की मान्यता एवं समर्थन-उपलब्धि का ऑकलन तथा प्रत्याभिमान अधिगम महत्वपूर्ण भाग है। समय-समय पर व्यक्ति की उपलब्धि का ऑकलन कर उन्हें चित्र द्वारा प्रदर्शित किया जाना चाहिए तथा अधिगम के अगले स्तर की सूचना प्रदान करनी चाहिए।
प्रश्न 9 (ii) श्रवण बाधित बालकों का वर्गीकरण करें एवं श्रवण बाधिता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर –
श्रवणबाधितों के प्रकार
वे बालक जिन्हें सुनने में कठिनाई आती है, श्रवणबाधिता के अन्तर्गत आते हैं। श्रवणबाधिता इस बात पर निर्भर करती है कि कान की खराबी किस हद तक है। ध्वनि का परिसर 1 से 130 डेसिबल्स तक होता है। 130 db से ऊपर की ध्वनि दर्द की संवेदना होती है। ध्वनि के परिसर के अनुसार श्रवणबाधित बालकों को अग्र चार भागों में बाँटा जा सकता है-
1. कम श्रवणबाधित बालक-
ऐसे बालक 35-54 db तक की श्रवणबाधिता रखते हैं अर्थात् ये बालक 54 db तक की ध्वनि को नहीं सुन पाते। यदि सामान्य स्तर पर बात की जाए तो सुन लेते हैं, परन्तु धीमी आवाज नहीं सुन पाते
2. मन्द श्रवणबाधित बालक-
इन बालकों में 55-96 db तक की श्रवणबाधिता होती है। अतः सामान्य स्तर अर्थात् 65 db पर बोलने पर ये बालक सुन नहीं पाते (थोड़ा ऊँचा बोलने पर ही सुनते हैं) ।
3. गम्भीर रूप से श्रवणबाधित बालक-इन बालकों में 70-89 db तक की श्रवणबाधिता होती है और इन्हें सुनाने के लिए अधिक ऊँचा बोलना पड़ता है। इस प्रकार के बालकों को विशेष प्रकार का शिक्षण दिया जाता है।
4. पूर्ण श्रवणबाधित बालक – ऐसे बालकों का श्रवणबाधित 90 db और इससे भी अधिक स्तर का होता है। ये बहुत ऊँचा बोलने पर भी केवल कुछ ही शब्द सुन पाते हैं। श्रवण यंत्रों के प्रयोग के बावजूद भी कठिनाई का अनुभव होता है ।
श्रवणबाधिता के कारण
श्रवणबाधिता के कारण निम्नलिखित हैं—
1. जन्म से पूर्व – यदि गर्भवती स्त्री जहरीले पदार्थों का सेवन कर लेती है, शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन करती है अथवा धूम्रपान करती है या बीमार रहती है अथवा कुपोषण का शिकार होती. है तो श्रवणबाधित बालक होने के आसार बढ़ जाते हैं। उचित आहार न मिलने पर उसका प्रभाव गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ता है।
2. जन्म के समय – बच्चे के जन्म के समय ऑक्सीजन की कमी, शल्यक्रिया के दौरान चिमटी आदि का गलत प्रयोग, समय से पहले बच्चे का जन्म आदि भी श्रवण शक्ति पर प्रभाव डालता है। कई बार जन्म के साथ ही बच्चे को पोलियो हो जाता है, जिसका इलाज शीघ्र अति शीघ्र कराना चाहिए अथवा यह भी बाधिता का एक कारण बन सकता है।
3. जन्म के पश्चात्-कई बार ऐसा पाया जाता है कि जन्म के समय तो बच्चा ठीक होता है परन्तु बाद में कुछ कारणों से वह श्रवणबाधित हो जाता है; जैसे-कनफड़ा, खसरा, चेचक, मोतीझरा, कुकर खाँसी, कान में मवाद आदि बीमारी श्रवणबाधिता का कारण बनती हैं। इसी प्रकार दुर्घटना हो जाना अथवा जोर का धमाका आदि भी कर्णपटल को बुरी तरह प्रभावित कर देते हैं।
4. दवाइयाँ-गर्भवती महिला अगर दवाइयों का अधिक प्रयोग करती है या किसी तेज दवा का प्रयोग करती है तो वह श्रवणबाधिता का कारण बन सकती है। अतः गर्भवती स्त्री को अधिक दवाइयों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
5. जर्मन खसरा- सन् 1980 में जर्मनी में खसरा महामारी के रूप में फैला था और यह देखा गया था कि जो माताएँ उस समय गर्भवती थीं, वे इस बीमारी से बुरी तरह पीड़ित हुई थीं और उनकी सन्तानें श्रवणबाधित पैदा हुई थीं। इसी से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि खसरा भी श्रवणबाधिता का कारण होता है।
प्रश्न 9 (iii) समावेशी विद्यालयों की संरचनात्मक जरूरतों के बारे में विस्तार से चर्चा कीजिए।
उत्तर – स्कूल भवन की संरचना
समावेशी विद्यालयों की संरचनात्मक जरूरतों के बारे में निम्न की आवश्यकता होती है-
(1) मुख्याध्यापक का कार्यालय – यह कार्यालय किसी महत्त्वपूर्ण जगह पर होना चाहिए जहाँ से उसकी उपस्थिति को सशक्त रूप से अनुभव किया जा सके और प्रत्येक आने-जाने वालों को मुख्याध्यापक आसानी से देख सके। मुख्याध्यापक के कार्यालय के साथ शौचालय, विश्राम कक्ष आदि भी होने चाहिए। मुख्यालय का कार्यालय खुला होना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर स्टाफ की मीटिंग बुलाई जा सके।
(2) आगंतुकों के लिए कमरा – मुख्याध्यापक से मिलने के इच्छुक व्यक्तियों को आराम से बैठने के लिए सुसज्जित कक्ष होना चाहिए।
(3) स्कूल कार्यालय – कार्यालय में काम करने वाले क्लर्क, स्टेनो, मुख्य क्लर्क आदि से मुख्याध्यापक को हर समय काम पड़ता रहता है। इसलिए स्कूल का कार्यालय मुख्याध्यापक के कार्यालय से जितना निकट होगा उतना ही अच्छा है। वास्तव में स्कूल का समूचा संचालन कार्यालय की कुशलता पर ही निर्भर करता है। इस कार्यालय कक्ष में इतनी जगह हो कि सभी कर्मचारी अपना काम स्वतंत्रतापूर्वक कर सकें और आपस में सुगमतापूर्वक संपर्क भी स्थापित कर सकें।
(4) कक्षाएँ – कक्षा कमरों के दरवाजे, खिड़कियाँ, रोशनदान, दोनों ओर खुलने चाहिए ताकि वे पर्याप्त रूप से हवादार हों। इसके अतिरिक्त कमरे इस प्रकार होने चाहिए कि उत्तर दिशा में पर्याप्त प्रकाश आने की व्यवस्था हो । कक्षा कमरों में प्रयुक्त होने वाला फर्नीचर विद्यार्थियों के लिए उपयोगी होना चाहिए। कमरे में दोहरे डेस्क लगवाने चाहिए और डेस्कों के अंदर दराज हों ताकि विद्यार्थी उसमें अपनी किताबें रख सकें। कक्षा कमरों में कप बोर्ड तथा अलमारियाँ होनी चाहिए जिसमें कक्षा की आवश्यक वस्तुएँ उसी में रखी जा सकें। ब्लैक-बोर्ड प्रत्येक कक्षा कमरे के लिए आवश्यक है। यह विद्यार्थियों से इतनी दूर होना चाहिए कि प्रत्येक विद्यार्थी इस पर लिखे लेख को अच्छी तरह से पढ़
सके।
(5) स्टाफ कक्ष-स्टाफ रूम अर्थात् अध्यापकों का कमरा स्कूल में ऐसी जगह होना चाहिए कि इससे किसी भी कक्षा के काम में बाधा न पड़े। इसमें सभी आधुनिक सुविधाएँ भी होनी चाहिए।
(6) विज्ञान प्रयोगशालाएँ – स्कूल में भौतिक विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, जीव विज्ञान आदि की अलग-अलग प्रयोगशालाएँ बनाई जाएँ। रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला एक उचित स्थान पर होनी चाहिए ताकि प्रयोग करते समय उठने वाली दुर्गन्ध से समूचा वातावरण दूषित न हो जाए।
(7) पुस्तकालय-पुस्तकालय को स्कूल का हृदय कहा जाता है अतः यह एक महत्त्वपूर्ण भाग है यह इतना आकर्षक हो कि विद्यार्थी अपने आप ही यहाँ आने में रुचि दिखाएँ तथा किताबें पढ़ें।
(8) ड्राइंग रूम – ड्राइंग अत्यंत उपयोगी विषय है जो बच्चों के विकास में सहायता प्रदान करता है। इसके लिए पृथक् कक्ष होना चाहिए। यह एक प्रकार की प्रयोगशाला है जहाँ विद्यार्थी हाथों से काम करते हैं। यहाँ पर विद्यार्थी पेंसिल, कागज, ब्रश, रंगों के प्रयोग से काम करते हैं।
(१) भूगोल कक्ष-भूगोल के अध्यापक को पढ़ाते समय कभी ग्लोब दिखाना पड़ता है तो कभी नक्शा दिखाना पड़ता है इसलिए भूगोल शिक्षण कमरा अलग होना चाहिए।
(10) स्कूल की कैंटीन -इसमें एक कमरा तो खाने-पीने की वस्तुएँ बनाने के लिए होना चाहिए और दो कमरे ऐसे हों जहाँ विद्यार्थी बैठकर जलपान कर सकें। इसमें से एक कमरा अध्यापक के लिए होना चाहिए। इन कमरों में हाथ धोने के लिए वाश बेसिन भी होना चाहिए।
(11) हॉल – पूरे स्कूल की सभा के लिए एक हॉल भी होना चाहिए। इस हॉल को परीक्षाओं के लिए तथा उत्सवों के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
(12) खेल के मैदान – खेल का मैदान स्कूल-प्रांगण का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। अधिक-से- अधिक विद्यार्थी खेल में भाग ले सकें इसके लिए स्कूल में ज्यादा-से-ज्यादा खेलों की व्यवस्था होनी चाहिए।
(13) पानी पीने का कमरा – इस कमरे में पानी पीने का प्रबंध होना चाहिए। अगर हो सके तो बच्चों के लिए वाटर कूलर भी लगवाया जाए।
(14) साइकिल शेड-साइकिल शेड के बिना साइकिलों को व्यवस्थित ढंग से नहीं रखा जा सकता। यह स्कूल के प्रवेश द्वार के निकट होना चाहिए।
(15) शौचालय – शौचालय स्कूल प्रांगण में एक ओर होने चाहिए। कर्मचारियों तथा विद्यार्थियों के लिए अलग-अलग शौचालय होने चाहिए ।
(16) उद्यान – स्कूल प्रांगण में घास का मैदान, छोटे-छोटे वृक्ष तथा रंग-बिरंगे फूलों से सम्पन्न एक उद्यान होना चाहिए। उन्हें देखकर बच्चों का मन बहुत प्रसन्न होता है। इस प्राकृतिक सुंदरता में बच्चे खाली समय भी अच्छी तरह गुजार सकते हैं।
(17) स्टाफ के आवास-जहाँ तक हो सके स्टाफ के लिए आवास की व्यवस्था भी होनी चाहिए। विशेषकर देहातों में काम करने वाली अध्यापिकाओं के लिए तो व्यवस्था होनी चाहिए।
(18) स्कूल-हॉस्टल-हॉस्टल का जीवन अपने आप में एक शिक्षा है, क्योंकि बच्चा यहाँ पर सारे काम अपने आप ही करता है।
प्रश्न 9 (iv) श्रवण बाधिता के कारणों को स्पष्ट कीजिए।
श्रवण बाधिता आनुवांशिक या वातावरण दोनों के परिणामस्वरूप हो सकती है। ये दोनों तत्त्व बच्चों की श्रवण क्षमता को प्रभावित करते हैं, जिसके कारण श्रवण बाधिता हो सकती है। आनुवांशिक व वातावरण सम्बन्धी प्रभावों का अध्ययन तीन स्तरों पर किया जा सकता है-
1. जन्म से पूर्व प्रभावित करने वाले कारक
(अ) आनुवांशिकी-श्रवण सम्बन्धी दोषों का एक प्रमुख कारण आनुवांशिकता है। यदि माता-पिता में से किसी को भी श्रवण दोष होता है तो बालक में श्रवण दोष होने के अधिक आसार होते हैं। माता-पिता के द्वारा दोषपूर्ण जीन्स व क्रोमोसोम के कारण यह रोग हो सकता है।
(ब) दवाओं का उपयोग-गर्भावस्था के दौरान प्रयोग की जाने वाली दवाइयाँ स्ट्रेप्टोमाइसिन,
L.S.D. आदि विभिन्न प्रकार की दवाइयों के प्रयोग से भ्रूण शिशु को नुकसान होता है तथा ये श्रवण बाधिता के कारण बन सकते हैं। इसलिए गर्भवती महिला को इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए।
(सं) रूबैला – रूबैला एक जर्मन खसरा है जो मुख्यतः गर्भवती महिलाओं में होता है। श्रवण बाधितों में 30% बच्चे जर्मन खसरा से प्रभावित पाये जाते हैं। यह देखा गया है कि जो गर्भवती माताएँ इस बीमारी से पीड़ित हुईं, उनकी सन्तानें श्रवण बाधित हुईं।
(द) संक्रमण या छूत रोग – गर्भवती माँ को होने वाली छूत की बीमारियाँ, जैसे- कनफेड़ और इन्फ्लूएन्जा आदि के कारण बच्चे की श्रवण शक्ति प्रभावित होती है।
(य) कुपोषण व भुखमरी – बालक अपने पोषण हेतु गर्भकाल में भोजन ग्रहण करता है इसलिए माँ के खान-पान, स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखना चाहिए। गर्भवती माँ को विटामिन आदि से भरपूर भोजन करना चाहिए तथा कुपोषण से बचना चाहिए। कुपोषण व भुमखरी भी श्रवण बाधिता का एक कारण बन सकता है। माँ द्वारा जहरीले पदार्थ व शराब का सेवन भी बच्चे को श्रवण बाधित बना देता है।
2. जन्म के समय प्रभावित करने वाले कारक-अध्ययनों से पता चला है कि समय से पहले प्रसव व कम वजन वाले बच्चों में श्रवण बाधिता अधिक पायी जाती है। जन्म के समय बहुत- से कारक ऐसे होते हैं जो बच्चे की श्रवण क्षमता को प्रभावित करते हैं, जैसे-ऑक्सीजन की कमी, प्रसव के दौरान प्रयोग किये जाने वाले औजार, एन्सथेटिक दवाइयों का प्रयोग, प्रसव के समय अधिक रक्त-प्रवाह आदि अनेक कारणों से बच्चों में श्रवण बाधिता हो सकती है।
3. जन्म के बाद प्रभावित करने वाले कारक- शिशुकाल में ही यदि बच्चे को संक्रमण या बीमारियाँ हो जाती हैं तो वे बच्चे के लिए श्रवण सम्बन्धी दोष पैदा कर सकती हैं। कोई दुर्घटना, कान की बीमारी आदि विभिन्न कारण भी बच्चे की श्रवण शक्ति कम कर सकते हैं। जन्म के बाद श्रवण बाधिता के लिए उत्तरदायी कारकों का वर्णन इस प्रकार है-
(अ) मेनिनजाइटिस – यह एक बैक्टीरिया या वायरस से होने वाला संक्रमण है जो केन्द्रीय स्नायु संस्थान में होता है। इस संक्रमण के कारण पूर्ण श्रवण बाधिता हो सकती है।
(ब) कर्णशोथ – यह भी श्रवण बाधिता का अन्य कारण है जो मध्य कर्ण को प्रभावित करता है। यदि इस रोग का पूर्ण इलाज न किया जाये तो कान में पस बनना या श्रवण बाधिता हो सकती है। (स) दुर्घटनाएँ – कोई दुर्घटना भी श्रवण तन्त्र को हानि पहुँचा सकती है। किसी लकड़ी या पिन से कान का मैल निकालते समय भी बालक अनजाने में कर्णपटल को नुकसान पहुँचा देता है। विभिन्न प्रकार की दुर्घटनाओं के परिणामस्वरूप जब कोई गहरा आघात श्रवण अंगों या मस्तिष्क को पहुँचता है तो उसकी परिणति श्रवण दोषों में होती है ।
(द) बीमारियाँ व संक्रमण – बहुत-सी ऐसी बीमारियाँ होती हैं जो श्रवण दोष उत्पन्न करती हैं, जैसे—चेचक, कनफेड़, खसरा, मोतीझरा, कुकुर खाँसी व कान में मवाद आदि अनेक बीमारियाँ हैं जिनके कारण श्रवण दोष पैदा होते हैं। इन दोषों के निवारण के लिए ली गयी दवाइयों के गलत हं प्रभाव से भी श्रवण दोष हो सकता है।
(य) शैशवकाल में बालक यदि कुपोषण, भुखमरी तथा मिलावटी खाद्य एवं पेय पदार्थों है के हानिकारक प्रभावों का शिकार हो जाये तो उसके परिणामस्वरूप उसकी श्रवण शक्ति नष्ट हो
जाती है।
प्रश्न 9 (v) दृष्टि बाधित बच्चों के लिए एकीकृत शिक्षा का वर्णन कीजिए।
अथवा
दृष्टिबाधित बच्चों के शिक्षण के लिए क्या व्यवस्था होनी चाहिए?
उत्तर –
बहुत से दृष्टि बाधित बच्चों को सामान्य विद्यालय में ही शिक्षा दी जा सकती है। ये बच्चे सुनकर व स्पर्श द्वारा सूचना ग्रहण करते हैं। क्योंकि ये केवल सुनकर व स्पर्श द्वारा ज्ञान ग्रहण करते हैं इसलिए पाठ्यक्रम व शिक्षण विधियाँ ऐसी होनी चाहिए जिनसे वह इन्द्रिय अनुभव दिया जा सके। इसलिए धनात्मक पाठ्यक्रम को विशेष महत्त्व दिया जाना चाहिए। धनात्मक पाठ्यक्रम द्वारा उन्हें सीखने में सहायता मिलती है और उनके लिए सुविधाजनक होता है। कौशलों के विकास से सीखने में सरलता होती है। धनात्मक पाठ्यक्रम में निम्न छः क्षेत्र शामिल हैं—
(अ) ब्रेल लिपि – यह अन्धों के पढ़ने-लिखने की एक मूल प्रणाली है। इस लिपि का प्रतिपादन लुईस ब्रेली ने 1829 में किया जो कि एक फ्रांसीसी संगीतकार थे। पूर्ण रूप से अन्धों व जिनको
बहुत ही कम दिखाई देता है, उनके लिए ब्रेल प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। यह 6 डाट सेल की बनी होती है जो 63 भिन्न-भिन्न चरित्रों को बताती है। 26 बिन्दुओं का प्रयोग 26 अक्षरों के लिए किया जाता है तथा बाकी 33 बिन्दु चिह्नों आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं। ब्रेल प्रणाली में प्रायः लिखने के दो तरीकों का वर्णन किया जाता है-
(i) Perkins Brailler, (ii) The State and Stylus.
Perkins Brailler में 6 चाबियाँ होती हैं पिंजरे की हर एक dot के लिए। इन बिन्दुओं पर 1 से 6 तक नम्बर दिये जाते हैं तथा उन 6 नम्बरों पर ब्रेल अक्षरों का प्रयोग किया जाता है।
Slate और Stylus ब्रेल प्रणाली Perkins Brailler से अधिक कठिन होती है। इस प्रणाली में छात्रों को स्पर्श व महसूस करके ब्रेल लिपि को पढ़ना होता है। इसके बाद इसी तरह ब्रेल लिपि को याद किया जाता है।
आजकल ब्रेल लिपि को विकसित करने के लिए Computer Braille Printers का प्रयोग किया जा रहा है।
(ब) रुचि/रुझान व गतिशीलता – बच्चों की रुचि व योग्यता के अनुसार उन्हें आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध करानी चाहिए। इसका आधार श्रवण क्षमता, स्पर्श, सुगन्ध, स्वाद आदि होना चाहिए। लोगों द्वारा परामर्श और मशीनी उपकरणों का प्रयोग करके दृष्टि बाधित बच्चों को गतिशील बनाया जा सकता है। ऐसे बच्चों की मानसिक मानचित्र बनाने में सहायता करनी चाहिए जिससे उन्हें दूरी व दिशा का ज्ञान प्राप्त हो जाये । उनको इस प्रकार की शिक्षा दी जाये जिससे वे कम व ज्यादा दूरी
में फर्क कर सकें और अपने रास्ते की बाधाओं को पार कर सकें।
(स) सहायक सामग्री का प्रयोग-तकनीकी विकास ने दृष्टि बाधित बच्चों के लिए भी सामान्य बच्चों की तरह नम्रतापूर्ण कार्य करना आसान बना दिया है। आंशिक व पूर्ण अन्धों के लिए बोलने वाले कैलकुलेटर का प्रयोग किया जाता है। इसमें संख्यात्मक प्रविष्टियों को ईयर प्लग द्वारा ऊँचा बोला जाता है। संख्यात्मक घड़ियों व मैगनीफाइंग शीशा का भी प्रयोग बढ़ा है। इस प्रकार के शीशे द्वारा हम मुद्रित सामग्री को बड़े आकार में देख सकते हैं और सुगमता से पढ़ सकते हैं। कुर्जवैल
पढ़ने वाली मशीन छपी हुई सामग्री को मौखिक अंग्रेजी में बदल देती है।
उत्तल दर्पण, चश्मे व अन्य दृष्टि यन्त्रों को भी प्रयोग किया जाता है। दृष्टि कैमरा व चलायमान
टेलिस्कोप का भी उपयोग किया जाता है। ओप्टेकॉन एक छोटी-सी मशीन है, जिससे हम हर एक अक्षर को व्यवहारगत हावभाव में आसानी से बदल सकते हैं। इस मशीन को हाथ में भी रखा जा सकता है। इस प्रकार हम मुद्रित सामग्री को बिना ब्रेल लिपि में बदले आसानी से पढ़ सकते हैं। सोनिक शीशों द्वारा अल्ट्रासोनिक आवाज किरणें निकलती हैं जिनको हर किसी के द्वारा सुना नहीं जा सकता। लेकिन जब ये किरणें किसी माध्यम / बाधा से टकराती हैं तो आवाज उत्पन्न करती हैं और इस प्रकार इन्हें सुनकर अन्धे लोग आसानी से सीख सकते हैं।
(द) सामाजिक कौशल का विकास-दृष्टि बाधित बच्चों के लिए समाजीकरण एक समस्या है। इनमें सामाजिक कौशल का अभाव होता है। इन्हें अपने साथी बच्चों द्वारा हीन दृष्टि से देखा जाता है। वे इन्हें आसानी से अपना नहीं पाते। अतः इनमें सामाजिक कौशल विकसित करने के लिए शाब्दिक अभिप्रेरणा दी जानी चाहिए। सामाजिक अच्छे व्यवहारों के लिए प्रोत्साहित किया जायें। साथी समूह द्वारा अपनाया जाये। कक्षा में बोलने का अवसर दिया जाये, जिससे उनमें आत्मविश्वास का विकास हो सके। उत्तम आचरण का प्रशिक्षण दिया जाये।
(य) दिनचर्या सम्बन्धी कौशल – दृष्टि दोष होने के कारण ये बालक अपनी दिनचर्या सम्बन्धी गतिविधियाँ भी सुचारु रूप से नहीं कर पाते हैं। इन्हें बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार इन बच्चों को उचित मार्गदर्शन व अनुभव द्वारा इनके खाने सम्बन्धी कौशल, कपड़े पहनना, अपने आपको स्वस्थ रखना, नहाना, खरीदारी, मशीनी उपकरण प्रयोग, खाना बनाना व अपना बिस्तर लगाना आदि दिनचर्या सम्बन्धी कौशलों को विकसित किया जा सकता है। इनकी दिनचर्या नियमित करने के लिए माता-पिता व अध्यापक दोनों ही अहम् भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार ये बच्चों को कठिनाइयों का निदान करना सिखाते हैं ताकि वे अपने आपको आत्मविश्वासी बना सकें।
(र) विविध इन्द्रियों का प्रशिक्षण-दृष्टि बाधित बच्चों को बहु इन्द्रिय सहायक सामग्री का उपयोग करने से बहुत लाभ होता है। इनकी इन्द्रियाँ प्रशिक्षित होती हैं व कौशलों का विकास होता है। इस प्रकार के प्रशिक्षणों में भाषा शिक्षक का बहुत योगदान होता है। टेलीविजन भी सूचना का प्राथमिक स्रोत है जिससे इन्द्रियों का विकास होता है। असमर्थी बच्चों को कम्प्यूटर से भी सहायता मिलती है। इस प्रकार दृष्टि बाधितों के लिए बहुत से ऐसे प्रशिक्षण व कार्यक्रम हैं जिनसे उनकी इन्द्रियों का विकास हो।
प्रश्न 9 (vi) प्रतिभाशाली बच्चों की विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
प्रतिभाशाली बालक राष्ट्र की रीढ़ होते हैं। ये समाज के हर कोने में पाये जाते हैं। ये किसी भी जाति, धर्म, लिंग और किसी भी समुदाय से सम्बन्धित हो सकते हैं। बहुत-से विकलांग बच्चों, जैसे- गूँगे-बहरे, अस्थि बाधित, वाणी और भाषा सम्बन्धी दोष वाले बच्चों में भी प्रतिभाशाली बच्चे देखने को मिलते हैं। हमारे सामने इतिहास के पन्नों में छिपे हुए ऐसे बहुत-से उदाहरण आते हैं जो अपने प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के लिए जाने जाते हैं, जैसे- ग्राहम बेल, थॉमस एडीसन, जॉर्ज वाशिंगटन आदि कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं जो अपनी-अपनी अधिगम असमर्थताओं के लिए जाने जाते हैं। सूरदास जो जन्मांध थे, मिल्टन व ब्रीटहोवन आदि भी गम्भीर दृष्टि या श्रवण बाधिता के कारण प्रतिभाशाली लोगों की श्रेणी में आते हैं। हम बहुत-से ऐसे नामों को भी जानते हैं, जिनका शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य ठीक न होते हुए भी उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में नाम व प्रसिद्धि कमायी है। अतः प्रतिभाशाली बच्चे
केवल बुद्धि में उत्तम नहीं होते बल्कि शारीरिक, संवेगात्मक, सामाजिक शिक्षा तथा अपनी आयु कई बच्चों से कई और विशेषताओं में भी उत्तम होते हैं।
सामान्यतः हम प्रतिभाशाली बच्चों की विशेषताओं का वर्णन दो वर्गों में करते हैं-
1. धनात्मक विशेषताएँ
2. ऋणात्मक विशेषताएँ
1. धनात्मक विशेषताएँ
के
(अ) शारीरिक विशेषताएँ – प्रतिभाशाली बच्चे वे होते हैं जो शारीरिक तौर पर विकसित होते हैं। ये सामान्यतः लम्बे होते हैं व इनका वजन ज्यादा होता है।
(i) इनका डील-डौल उचित होता है और वे अच्छे स्वास्थ्य वाले होते हैं।
(ii) इनकी ज्ञानेन्द्रियाँ प्रखर होती हैं।
(iii) इनका व्यवहार बहुत अच्छा होता है।
(iv) ये साधारण बच्चों की अपेक्षा बैठना, खड़े होना, दाँत निकालना तथा बोलना छोटी आयु में ही सीख जाते हैं।
(ब) बौद्धिक विशेषताएँ – इसमें निम्नलिखित विशेषताओं को शामिल किया जाता है—
(i) इनकी रुचियाँ भिन्न-भिन्न तथा विस्तृत होती हैं।
(ii) इनका भाषात्मक विकास उच्च स्तर का होता है।
(iii) इनमें मौलिक विचारों के निर्माण व समस्याओं का समाधान करने की योग्यता होती है।
(iv) ये सीखने व समझने में तेज होते हैं तथा इनकी ग्राह्य शक्ति अच्छी होती है।
(v) इनकी स्मृति बहुत तेज होती है। ये बहुत तेज गति से सीखते हैं।
(vi) इनमें तर्क-वितर्क शक्ति व समस्या समाधान की योग्यता अधिक होती है।
(vii) ये निरन्तर ध्यान दे सकते हैं और जब किसी चीज को दोहराया जाता है तो ऊब अनुभव करते हैं।
(vii) इनका शब्द-भण्डार विशाल होता है। इनका साधारण ज्ञान भी अच्छा होता है।
(viii) (ix) इनकी आत्माभिव्यक्ति अच्छे स्तर की होती है। यह फुर्तीली और स्पष्ट होती है।
(ix) (x) ये किसी एक क्षेत्र, जैसे—कला, संगीत, साहित्य आदि में विशिष्ट योग्यता रखते हैं
(x) (xi) टरमैन के अनुसार इनका I. Q. स्तर 140 से ऊपर होता है।
(xii) ये अपनी आयु के आम बच्चों से संगठन करने, विश्लेषण करने, कल्पना करने, दलील – करने, कंठस्थ करने आदि की उत्तम योग्यता के मालिक होते हैं। इनका सामान्य ज्ञान भी अधिक होता है।
(स) व्यक्तित्व की विशेषताएँ – प्रतिभाशाली बच्चों की व्यक्तित्व की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(i) इनमें समायोजन, प्रबन्धन, विश्लेषण व संश्लेषण योग्यताएँ पायी जाती हैं।
(ii) कई बार ये बच्चें संवेगात्मक अस्थिरता भी दिखाते हैं।
(iii) इनका व्यक्तित्व सामान्यतः विशिष्ट होता है।
(iv) इनमें हास्य-विनोद का स्वभाव अधिक होता है।
(v) ये घर, स्कूल व समाज के कार्यों में रुचि लेते हैं और कार्य का सौंपा जाना पसन्द करते हैं. क्योंकि ये कार्य को उत्तरदायित्व की भावना से पूरा करना चाहते हैं। इनमें उत्तरदायित्व की भावना अधिक होती है।
(vi) ये बालक सामाजिक दृष्टि से भी सुदृढ़ होते हैं।
2. ऋणात्मक विशेषताएँ
प्रतिभाशाली बच्चों में कुछ ऋणात्मक विशेषताएँ भी पायी जाती हैं, जो इस प्रकार हैं-
(i) ये बच्चे सामान्य कक्षाकक्ष में उदासीनता महसूस करते हैं। सामान्यतः तब जब विषय इनकी पसन्द का न हो।
(ii) ये अभिमानी और ईर्ष्यालु व्यवहार की अभिव्यक्ति करते हैं। (iii) ये बेकरार, गाफिल तथा ऊधम मचाने वाले होते हैं। (iv) इनकी लिखाई खराब तथा वर्तनी अशुद्ध होती है ।
(v) प्रतिभाशाली बालक कई बार लापरवाह हो जाते हैं।
(vi) ये सामान्य बच्चों के लिए बनाये गये पाठ्यक्रम को पसन्द नहीं करते हैं ।
(vii) ऐसे बच्चों की रुचि दूसरों की आलोचना करने में अधिक होती है।
प्रश्न 9 (vii) मानसिक मंदता के कारणों को स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर- मानसिक मंदन के लिए कोई ऐसे सामान्य कारण निर्धारित करना सम्भव नहीं है। मानसिक मंदिता एक व्यक्तिगत समस्या है। अतः प्रत्येक मन्दबुद्धि बालक अपनी मन्दबुद्धि के लिए कुछ अपूर्ण कारण रखता है, मन्दबुद्धि बच्चों से सम्बन्धित कारणों को अग्र तीन भागों में बाँटा जा सकता है—
1. जन्म से पूर्व के कारण
(a) आनुवांशिकी व दोषपूर्ण गुणसूत्र –
मानव शरीर में 23 जोड़े गुणसूत्र होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने माता-पिता से आधे गुणसूत्रों को ग्रहण करता है। मानसिक मंदिता माता या पिता अथवा दोनों के गुणसूत्रों में उपस्थित दोषपूर्ण पैतृकों के कारण पैदा हो सकती हैं। कुछ जैविक बीमारियों का * वर्णन इस प्रकार है-
(i) डाउन्स सिण्ड्रोम –
इसे मंगोलिज्म के नाम से भी जाना जाता है। इस बीमारी में गुणसूत्रों का एक जोड़ा गर्भधारण के समय अलग हो जाता है। फ्रांस के वैज्ञानिकों ने यह बता दिया कि व्यक्तियों के क्रोमोसोम्स के 21 वें जोड़े में एक अतिरिक्त क्रोमोसोम होता है, जिससे इन लोगों में 46 की बजाय 47 क्रोमोसोम होते हैं। इन लोगों के चेहरे की बनावट मंगोलियन जाति के लोगों से मिलती-जुलती होती है, इसलिए इन्हें ‘मंगोलिज्म’ कहा जाता है। इनका चेहरा गोल, नाक छोटी व चपटी, आँखें धँसी हुई, हाथ छोटे और मोटे तथा जीभ में एक दरार होती है।
(ii) टर्नर सिण्ड्रोम – इस मानसिक दुर्बलता का कारण यौन क्रोमोसोम में गड़बड़ी होती है। यह मानसिक दुर्बलता केवल बालिकाओं में ही पायी जाती है। इन बालिकाओं की गर्दन छोटी और झुकी हुई होती है। इस प्रकार के बच्चों में अधिगम सम्बन्धी समस्याएँ सामान्यतः पायी जाती हैं, जिसमें श्रवण बाधिता भी शामिल है। आँखों में X क्रोमोसोम की कमी से यह दुर्बलता होती है।
(iii) क्लाईनफैल्टर सिण्ड्रोम – इस प्रकार की दुर्बलता पुरुषों में एक अतिरिक्त क्रोमोसोम (XXY) की उपस्थिति के कारण दिखाई देती है। इसका कारण भी यौन क्रोमोसोम्स में विसंगति का होना है। इस अतिरिक्त क्रोमोसोम को हम 47 गिनते हैं। इस दुर्बलता के कारण पुरुषों में सामान्यतः महिलाओं की विशेषताएँ विकसित होने लगती हैं।
(अ) गर्भवती माता की जटिलताओं के कारण एक्स-रे करवाना पड़ता है तथा इन किरणों का शिशु के मानसिक विकास पर प्रभाव पड़ता है।
(ब) गर्भधारण के शुरुआती तीन महीनों में संक्रमण आदि पैदा होने के कारण भ्रूण के विकास पर प्रभाव पड़ सकता है तथा मानसिक मन्दन का कारण बन सकता है
(स) गर्भवती माता को मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियाँ होने से तथा पर्याप्त पोषण न मिल पाने, माता का मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य ठीक न होने से आदि बातें बालक को मानसिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ बनाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं
(द) गर्भावस्था में थॉयराइड हॉर्मोन्स की कमी या अधिकता भी विकसित भ्रूण में मानसिक मंदिता पैदा कर सकती है।
(य) कुपोषण भी मानसिक मंदिता का मुख्य कारण है। गर्भवती माता या जन्म के बाद बच्चे को यदि पर्याप्त पोषण प्राप्त नहीं होता तो मंदिता उत्पन्न होती है।
(र) गर्भवती माता द्वारा शराब, सिगरेट व नशीली दवाइयों का सेवन भी मानसिक मंदिता का कारण बन सकता है।
(ल) कम आयु में गर्भ धारण भी मानसिक मंदिता का एक कारण है। कम आयु में गर्भवती होने से भ्रूण का विकास पूर्ण रूप से नहीं हो पाता है।
2. जन्म के समय के कारण
(अ) समय से पूर्व (24 हफ्तों और 34 हफ्तों के बीच जन्म) बच्चे का पैदा होना भी मानसिक मंदिता का एक कारण है।
(ब) जन्म के समय शिशु का वजन कम होने के कारण बच्चे का मानसिक विकास कम हो पाता है जो मानसिक मंदिता का कारण बन सकता है।
(स) जन्म के समय ऑक्सीजन की कमी भी बच्चे में मानसिक मंदिता पैदा करती है।
(द) प्रसव के समय माता के बहुत कम या अधिक प्रसव वेदना होने, अप्रशिक्षित हाथों द्वारा प्रसव होने अथवा प्रसव के लिए ऑपरेशन करते समय असावधानी होने आदि कारणों के फलस्वरूप बालक के मस्तिष्क या स्नायु संस्थान पर आघात पहुँचा जाता है तो यह मानसिक मंदिता का कारण बन
सकता है।
(य) ऑपरेशन के समय प्रयुक्त किये जाने वाले औजारों से कई बार शिशु के सिर पर घाव बन जाते हैं। ये घाव प्रायः मानसिक मन्दन का कारण बन जाते हैं।
(र) एनीथिसिया और दर्द निवारकों का प्रयोग प्रसव के समय करने से भी मानसिक मंदिता हो सकती है।
3. जन्म के बाद के कारण
(अ) सीसा जहर मानसिक मंदिता का एक महत्त्वपूर्ण कारण है। सीसा प्रायः धरती, पानी तथा वातावरण में पाया जाता है। यह प्रायः पेण्ट, फर्नीचर, खिलौनों, बैटरी के खेलों आदि पर पाया जाता
है। बच्चे प्रायः इसको चाट लेते हैं या पेन्सिल या सिक्का खा जाते हैं जिसके कारण बच्चे मानसिक मंदिता का शिकार हो जाते हैं।
(ब) किसी दुर्घटना के फलस्वरूप मस्तिष्क के स्नायु संस्थान को आघात पहुँचने के कारण मानसिक मंदिता हो सकती है।
(स) जन्म के बाद बच्चे को सन्तुलित आहार और उचित पोषण न मिलने के कारण भी मानसिक मंदिता हो सकती है।
(द) फेनिलकीटोन्यूरिया – सबसे पहले इसे 1934 में खोजा गया। इस दुर्बलता का सम्बन्ध प्रोटीन मेटाबोलिज्म में गड़बड़ी से है। प्रोटीन मेटाबोलिज्म में गड़बड़ी के कारण Phyenylalanine अधिक मात्रा में शरीर में जमा हो जाती है, जिससे मस्तिष्क की कोशिकाएँ जर्जर हो जाती हैं तथा बच्चों में मानसिक दुर्बलता पैदा हो जाती है।
(य) बाल्यकाल में बच्चों को होने वाली बीमारियों, जैसे—जर्मन खसरा, ऐपीलैप्सी (मिरगी), कोनजिनियल सिफलिस आदि से भी मानसिक मंदिता हो सकती है
(र) मेनिनजाइटिस एक दिमागी संक्रमण भी मानसिक मंदिता का एक मुख्य कारण है।
(ल) संवेगात्मक कुसमायोजन एवं मानसिक चिन्ता, तनाव और संघर्ष का शिकार रहना आदि के कारण भी मानसिक मंदिता हो सकती है।
विषय | समावेशी शिक्षा पिछले साल के प्रश्न
SAMAAVESHEE SHIKSHA Question Paper |
SUBJECT | Inclusive Education Question Paper |
पेपर कोड | 304 |
विश्वविद्यालय | महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय |
कोर्स | बी.एड |
सेमेस्टर | तृतीय सेमेस्टर |
FULL MARKS | 50 |
lnfo | यहाँ महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय बी.एड तृतीय सेमेस्टर के पेपर -304 समावेशी शिक्षा के पिछले साल के क्वेश्चन पेपर दिया गया है | इसे जल्द ही शामील किया जायेगा | |