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MGKVP B.Ed 3rd SEMESTER NOTES

MGKVP B.ED NOTES

MGKVP B.Ed 3rd SEMESTER NOTES

TOPIC  महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ  विश्वविद्यालय  बी.एड  तृतीय सेमेस्टर  के नोट्स
विषय (1) विषय शिक्षण प्रथम नोट्स

(2) विषय शिक्षण द्वितीय नोट्स

(3)  ज्ञान एवं पाठ्यक्रम नोट्स

(4) समावेशी शिक्षा नोट्स 

सेमेस्टर तृतीय सेमेस्टर
कोर्स बी.एड
lnfo इस पेज में महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ  विश्वविद्यालय  बी.एड  तृतीय सेमेस्टर  के नोट्स  के सभी (चार  पेपर) के  नोट्स दिया गया है |

 




 

MGKVP B.Ed 3rd SEMESTER ALL SUBJENT NAME

    • विषय शिक्षण प्रथम
    • विषय शिक्षण द्वितीय
    • ज्ञान एवं पाठ्यक्रम
    • समावेशी शिक्षा

 

विषय शिक्षण प्रथम नोट्स   

विषय विषय शिक्षण प्रथम नोट्स
पेपर  301 
विश्वविद्यालय महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ  विश्वविद्यालय  बी.एड  तृतीय सेमेस्टर  के नोट्स 
सेमेस्टर तृतीय सेमेस्टर
lnfo यहा  महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ  विश्वविद्यालय  बी.एड  तृतीय सेमेस्टर  के नोट्स  के पेपर – 301 विषय शिक्षण प्रथम नोट्स दिया गया है | यह  विषय बीए के विषय पे निर्भर है , सभी स्टूडेंट्स का यह विषय समान नही होता है |  

 

विषय शिक्षण द्वितीय नोट्स  

विषय विषय शिक्षण द्वितीय नोट्स
पेपर  302
विश्वविद्यालय महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ  विश्वविद्यालय  बी.एड  तृतीय सेमेस्टर  के नोट्स 
सेमेस्टर तृतीय सेमेस्टर
lnfo यहा  महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ  विश्वविद्यालय  बी.एड  तृतीय सेमेस्टर  के नोट्स  के पेपर -302 विषय शिक्षण द्वितीय नोट्स
दिया गया है | यह  विषय बीए के विषय पे निर्भर है , सभी स्टूडेंट्स का यह विषय समान नही होता है | 

 




 

ज्ञान एवं पाठ्यक्रम नोट्स   

विषय ज्ञान एवं पाठ्यक्रम  नोट्स

Knowledge and Curriculum

पेपर  303 
विश्वविद्यालय महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ  विश्वविद्यालय  बी.एड  तृतीय सेमेस्टर  के नोट्स 
सेमेस्टर तृतीय सेमेस्टर
lnfo यहा  महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ  विश्वविद्यालय  बी.एड  तृतीय सेमेस्टर  के नोट्स  के पेपर -303 विषय शिक्षण प्रथम नोट्स दिया गया है | यह  विषय सभी स्टूडेंट्स का समान होता है |  

लघु उत्तरीय प्रश्न
(Short Answer Type Questions)

नोट : प्रश्न संख्या 1 (a से j) लघु उत्तरीय प्रश्न है। परीक्षार्थियों को सभी दस प्रश्नों का उत्तर देना अनिवार्य है। प्रत्येक प्रश्न के लिए 2 अंक निर्धारित हैं।

निम्नलिखित प्रश्नों के लघु उत्तर दीजिए- 10 x 2 = 20 अंक)

प्रश्न ‘a (i) ज्ञान का अर्थ बताइए।
उत्तर – शिक्षा का आधार ज्ञान ही होता है परन्तु ज्ञान का स्वरूप व्यवस्थित नहीं होता है बल्कि यह अनुभवों एवं प्रत्यक्षीकरण पर आधारित होता है। हमारे जीवन में हमें विभिन्न प्रकार के अच्छे तथा बुरे अनुभव होते हैं जो हमारे मन-मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं। ज्ञान इन्हीं अनुभवों से सम्बन्धित होता है। अनुभव हमें यह भी बताते हैं कि कौन-सी चीज जीवन तथा समाज के लिए उपयोगी है और कौन-सी नहीं। यह अनुभव जब हम दूसरों को बाँटने का प्रयास करते हैं तो यह दूसरों के लिए ज्ञान बन जाता है। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि ज्ञान केवल एक व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण समाज के लिए उपयोगी होता है।

ज्ञान का अर्थ स्पष्ट तौर पर उन सूचनाओं का संग्रह माना जाता है जो किसी वस्तु, परिस्थिति और अनुभवों की समझ को विकसित करने में सहायक होते हैं। ज्ञान समस्त शिक्षा का आधार है। शिक्षा किसी भी प्रकार की हो, चाहे विद्यालयीय औपचारिक या अनौपचारिक ज्ञान एक साधन एवं साध्य दोनों ही रूपों में पाया जाता है। ज्ञान किसी परिस्थिति एवं प्रक्रिया से सम्बन्धित तथ्य और सत्य है। यह हमारे समाज में विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों तथा वातावरण से सम्बन्धित कई तरह के लक्ष्य होते हैं जो सत्य पर आधारित होते हैं। इन परिस्थितियों और वातावरण की लक्ष्यपूर्ण जानकारी ज्ञान कहलाती है जो वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ियों के लिए हमेशा परिमार्जित तथा परिशोधित रूप में हस्तान्तरित होता रहता है। ज्ञान अनुभवों की समझ पर आधारित सूचनाएँ हैं सभी व्यक्तियों को जीवन में अनुभव होते रहते हैं और इन अनुभवों का जब हम सामान्यीकरण कर लेते हैं और इन्हें एक सिद्धान्त तथा नियम के रूप में विकसित कर लेते हैं तो यह ज्ञान बन जाता है। यही ज्ञान सम्पूर्ण समाज के लिए उपयोगी सिद्ध हो जाता है।

प्रश्न a (ii) विश्वास और सत्य के बीच अन्तर लिखिए।
उत्तर-विश्वास और सत्य संबंधित अवधारणाएँ हैं, लेकिन वे अलग-अलग चीजों को संदर्भित करते हैं। विश्वास और सत्य में अंतर है। विश्वास एक मानसिक दृष्टिकोण या दृढ़ विश्वास है कि कोई चीज सत्य या वास्तविक है, बिना इसके समर्थन में सबूत या प्रमाण के। विश्वास व्यक्तिगत अनुभव, अंतर्ज्ञान, अधिकार या सांस्कृतिक और धार्मिक शिक्षाओं पर आधारित हो सकते हैं।

दूसरी ओर, सत्य, मामलों की वास्तविक स्थिति या जिस तरह से चीजें हैं, उसे संदर्भित करता है। यह व्यक्तिगत विश्वासों या राय से स्वतंत्र है और इसे साक्ष्य या अवलोकन के माध्यम से सत्यापित किया जा सकता है। सत्य वस्तुनिष्ठ और सार्वभौमिक है, जिसका अर्थ है कि यह सभी पर लागू होता है, चाहे उनकी मान्यताएँ या दृष्टिकोण कुछ भी हों।

संक्षेप में, विश्वास एक व्यक्तिपरक दृढ़ विश्वास या किसी चीज को सत्य के रूप में स्वीकार करना है, जबकि सत्य एक वस्तुनिष्ठ तथ्य या वास्तविकता है जो व्यक्तिगत विश्वासों या विचारों से स्वतंत्र रूप में मौजूद है।

प्रश्न a (iii) ज्ञान बनाम विश्वास ।

उत्तर-ज्ञान और विश्वास दो ऐसे शब्द हैं जिनके अर्थ के मामले में अक्सर भ्रम हो जाता है, जबकि कड़ाई से बोलने पर उनके बीच कुछ अंतर होता है। ज्ञान पूरी तरह से जानकारी के बारे में है ज्ञान वह है जो हम अनुभव और प्रयोग के माध्यम से प्राप्त करते हैं। यह हमारे चारों ओर की दुनिया की वास्तविकताओं से उत्पन्न होता है। जैसे-जैसे दुनिया आगे बढ़ी, ज्ञान के विभिन्न स्रोतों का भी विस्तार हुआ है। दूसरी ओर, विश्वास पूरी तरह से दृढ़ विश्वास पर आधारित है। यह अधिकतर धार्मिक परिवेश में दिखाई देता है, जहाँ आदर्शों का परीक्षण नहीं किया जाता बल्कि केवल विश्वास किया जाता है। यह दोनों शब्दों के बीच मुख्य अंतर है। यह लेख अंतरों को उजागर करते हुए दो शब्दों के बीच के अर्थ को स्पष्ट करने का प्रयास करता है।

विश्वास एक दृढ़तापूर्वक रखी गई राय है। इसके लिए किसी जानकारी की आवश्यकता नहीं होती जैसा कि ज्ञान के मामले में होता है। विश्वास कुछ सिद्धांतों के इर्द-गिर्द घूमता है। इसमें विश्वास एक ऐसे कारक के रूप में है जो शासन करता है। आत्म-अनुभव पर निर्भर ज्ञान के विपरीत, विश्वास व्यक्ति के शुद्ध विश्वास से उत्पन्न होता है। व्यक्ति को विश्वास करने के लिए घटना का अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है। यह उसके आंतरिक विश्वास से आता है। अधिकांश धर्मों में विश्वास एक मूल सिद्धांत है। यही विश्वास लोगों को उस धर्म विशेष का सच्चा अनुयायी बनाता है। मानव बुद्धि द्वारा निर्देशित ज्ञान के विपरीत, विश्वास नहीं है। विश्वास धार्मिक विश्वासों पर आधारित है। यह सच है कि आस्था और विश्वास एक साथ चलते हैं। विश्वास की परिणति विश्वास में होती है। हो सकता हैं कि इसका उलटा सच न हो।

प्रश्न a (iv) ज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
ज्ञान निर्माण से आप क्या समझते हैं?

उत्तर- किसी वस्तु के सम्बन्ध में जानकारी को ज्ञान कहते हैं। वह वस्तु कुछ भी हो सकती है जैसे- बैंक द्वारा दिया हुआ कर्ज या गणित की समस्या इत्यादि । ज्ञान का उद्देश्य किसी वस्तु के सम्बन्ध में जैसी वह है वैसी ही उसकी जानकारी होना है। हमारी इस बात की चिन्ता कि हम ठीक से जान जायें, कि यह वस्तु यथार्थ में वैसी ही है जैसा उसका ज्ञान यह जाहिर कर देता है कि इस बात की सम्भावना है कि हम धोखा खा रहे हों और हमारे कुछ निर्णय उस वस्तु के सम्बन्ध में गलत भी हो सकते हैं। एक गलत निर्णय हमें इस बात से अवगत न कराकर कि वस्तु यथार्थ में कैसी है इस बात का ज्ञान हमें करायेगी कि वस्तु हमें ऐसी प्रतीत होती है। अतएव यदि हम उन दशाओं के सम्बन्ध में जानकारी रखें सकते हैं जिनमें हमारे निर्णय सत्य हैं तब हम उसके साथ-साथ ऐसे स्तर निर्धारित कर सकते हैं जिनके द्वारा हम कृत्रिम का यथार्थता से विभेद कर सकते हैं।

किसी वस्तु के सम्बन्ध में जब हम यह कहते हैं कि हमें उसकी जानकारी है तो हम यह मान कर चलते हैं कि यह जानकारी सत्य है। अतएव ज्ञान की धारणा में पहली बात तो यह निहित है कि ज्ञान को अवश्य सत्य होना चाहिए। जैसे जब हम कहते हैं कि सोहन को हम जानते हैं तो सोहन से हमारा परिचय सत्य होना चाहिए। दूसरी बात यह कि ज्ञाता को उस बात की सत्यता में विश्वास होना चाहिए। हम सोहन को जानते हैं तथा तीसरी बात यह कि ज्ञाता के पास इस बात के पर्याप्त प्रमाण होने चाहिए कि यह बात सत्य है। हमारे पास इस बात के प्रमाण होने चाहिए कि हम सोहन को जानते हैं जैसे हम सोहन से कई बार मिल चुके हैं या हम और सोहन साथ-साथ पढ़े हैं इत्यादि। इस प्रकार ज्ञान के अर्थ में तीन बातें आती हैं-सत्यता, सत्यता में विश्वास तथा सत्यता के लिए पर्याप्त प्रमाण ।

प्रश्न a (v) अन्तर्ज्ञान ज्ञान का स्त्रोत ।
उत्तर-हमें अपनी स्वतंत्रता का आभास अन्तर्ज्ञान से होता है। एक दार्शनिक का दिमाग संसार की विभिन्न समस्याओं के बारे में सोचता है और वह एक आधारभूत सिद्धांत विकसित कर लेता है वास्तविकता का ज्ञान वैज्ञानिक विधि से नहीं हो सकता। इसके लिए अन्तर्ज्ञान की आवश्यकता होती हैं प्राकृतिक विज्ञान और कॉमनसेंस वस्तुओं की बाहरी रूप से व्याख्या करते हैं। हमें उनकी वास्तविकता को जानने के लिए उनके अन्दर घुसना पड़ता है। इसके लिए अंतर्ज्ञान की आवश्यकता होती है।

उपरोक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि अन्तर्ज्ञान ज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। पर इसे बुद्धि से अलग नहीं किया जा सकता। अन्तर्ज्ञान तथा बुद्धि दोनों चित्त के व्यापार हैं। चित्त की पहली अवस्था का नाम है बुद्धि तथा दूसरी का अन्तर्ज्ञान। दोनों परस्पर सहयोगी व सहगामी हैं। बुद्धि के अभाव में अन्तर्बोध असहाय है। इस प्रकार अन्तर्ज्ञान व बुद्धि दोनों ही प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं।

इनके अतिरिक्त ज्ञान के स्रोत के रूप में निम्नलिखित को भी शामिल किया जा सकता है-

1. श्रुति-
इस शब्द का अर्थ है-सुनना या प्रकट होना। विभिन्न धर्म ग्रन्थों की प्रामाणिकता के सिद्ध करने के लिए प्रायः यह कहा जाता है कि उस धर्म के प्रर्वतकों ने अपने दिव्य नेत्रों के द्वारा वचने को प्रत्यक्ष किया है। अर्थात् श्रुति का सम्बन्ध ज्ञान से होता है। धार्मिक ज्ञान के लिए यह महत्त्वपूर्ण है भारत सहित दूसरे देशों के धार्मिक ग्रन्थों का आधार श्रुति है। इस प्रकार प्राप्त ज्ञान देश व काल की सीमाओं से परे अतः सार्वभौमिक होता है। हमारे ऋषि-मुनियों तथा गुरुओं को दिव्य व अलौकिक शक्तियों का ज्ञान प्राप्त होता है जो बाहरी कानों से सुना नहीं जा सकता, अपितु अपनी अन्दर की आवाज से सुना जाता है। लेकिन श्रुति को प्रामाणिक मानने में अनेक कठिनाइयाँ सामने आती हैं। क्योंकि विभिन्न श्रुतियाँ एक-दूसरे की विरोधी बातें कहती हैं। ऐसी स्थिति में उनकी सत्यता की जाँच के लिए हमें अनुभव व तर्क की सहायता लेने में संकोच नहीं करना चाहिए।

2. आस्था-
आस्था शब्द का अर्थ-लगाव अथवा विश्वास। हमारी विरासत में ऐसी कई बातें चली आ रही हैं जिनका तार्किक आधार नहीं होता है। परन्तु उन बातों को सिरे से नहीं नकारा जा सकता है
वास्तव में ज्ञान के ये सभी स्रोत एक-दूसरे के पूरक हैं। इस संदर्भ में प्रो० मोण्टेन का यह कथन ध्यान देने योग्य है कि “ज्ञान के स्रोतों का वास्तव में एक संघ है।”

प्रश्न a (vi) प्राधिकार : ज्ञान का स्रोत ।
उत्तर-प्राधिकार भी ज्ञान प्राप्ति का एक स्रोत है। कुछ लोग अपने क्षेत्र में पारंगत होते हैं, जैसे अर्थशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, गणितज्ञ आदि विभिन्न लोग अपने प्रयोगों और ज्ञान के आधार पर कुछ नियमों के ऊपर प्राधिकार रखते हैं। हम उनके ज्ञान को चुनौती नहीं दे सकते और उनकी बातों को बिना संदेह के सच मानते हैं। इसको दूसरे शब्दों में हम आप्तवचन भी कह सकते हैं। इसका अर्थ है- दूसरे के वचन पर विश्वास करके प्राप्त किया गया ज्ञान। हमारे ज्ञान का एक बड़ा भाग वह होता जिसे न तो हम ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त करते हैं और न ही बुद्धि अथवा तर्क से। इसे हम दूसरों के वचनों पर विश्वास करके प्राप्त करते हैं। इस प्रकार आप्तवचन भी ज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

प्रश्न a (vii) ज्ञान व सूचना में समानता बताइए।
उत्तर-यदि हम ज्ञान व सूचना से सम्बन्धित विभिन्न परिभाषाओं का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि दोनों प्रत्ययों में सम्बन्ध है। उदाहरणार्थ-सूचना का निष्कर्षण मूल आँकड़ों में होता है और ज्ञान का उद्भव भी मूल आँकड़ों से होता है। इस प्रकार दोनों ही प्रत्यय हेतु मूल स्रोत आँकड़े ही हैं। नितेकी (Nitecki) ने दोनों प्रत्ययों की व्याख्या निम्न वाक्यों द्वारा की, Information is knowledge affects 3 “Knowledge is information processed with a point of nice through reprentation”, जिससे पता चलता है कि ज्ञान व सूचना एक ही है परन्तु ज्ञान सूचना का अधिक विकसित रूप है। इसका यह तथ्य है कि ज्ञान व सूचना दोनों की पहचान अवलोकन (Observation) में ही होती है, इसके द्वारा भी ज्ञान व सूचना को समान माना जा सकता है।

ओटन (Otten) ने इन दोनों सम्प्रत्ययों का वर्णन इसकी प्रक्रियाओं के आधार पर इस प्रकार किया है “सूचना के अर्जन की प्रक्रिया में इसका हस्तान्तरण ज्ञान में होता है व ज्ञान का सम्मिलित (assimilation) एक सामान्य समझ में व अंतः बुद्धि (Wisdom) में होता है।”
इस समाज में दो प्रकार के बुद्धिजीवी (Intellectuals) होते हैं, लोक बुद्धिजीवी और नीति बुद्धिजीवी । हमें यह समझना होगा कि दोनों के कार्यक्षेत्र पृथक् न होकर एक है। लोकनीति एक सम्पूर्ण विषय-वस्तु है जहाँ नीति बुद्धिजीवी अपने ज्ञान को केवल एक लिखित और सैद्धान्तिक वस्तु मानकर रूपरेखा तैयार कर देते हैं वहीं लोक बुद्धिजीवी किसी तथ्य को गहराई से समझने का प्रयत्न करते हैं ये नीतियों के सूक्ष्म तथ्यों और नैतिकता के सापेक्ष रखते हैं। समस्या यह है कि 90 के दशक के बाद से भारत में लोक बुद्धिजीवियों की अपेक्षा नीति बुद्धिजीवियों का आधिक्य हो गया है जिसके कारण आज भारत ज्ञान का उपभोक्ता मात्र बनकर रह गया है। यह केवल ज्ञान को आत्मसात करने की चेष्टा करता है, स्वयं इसकी व्याख्या या नए खोज में रुचि नहीं रखता और यही कारण है कि भारत अन्य देशों की अपेक्षा काफी पीछे रह गया है।

प्रश्न a (viii) सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक ज्ञान में अन्तर बताइए ।
उत्तर- सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक ज्ञान में निम्न अन्तर है-
सैद्धान्तिक ज्ञान (Theoretical Knowledge) स्वयं प्रत्यक्ष की भाँति समझा जाता है। सिद्धान्त जब समझ लिए जाते हैं, सत्य पहचान लिए जाते हैं फिर उन्हें निरीक्षण, अनुभव या प्रयोग द्वारा प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती है। इस प्रकार से ज्ञान को स्वतः सिद्ध या प्रमाणित मान लिया जाता है। इस प्रकार के ज्ञान में तर्क द्वारा तथ्यों को संगठित कर दिया जाता है तथा बुद्धि इसे बिना अनुभव की सहायता से प्राप्त कर लेती है।

व्यावहारिक ज्ञान (Practical Knowledge) प्रयोग द्वारा प्राप्त होता है। डीवी के अनुसार, ज्ञान की प्रक्रिया एक प्रयास एवं समझ (Trying and Undergoing) की प्रक्रिया है—एक विचार का अभ्यास में प्रयास करना एवं ऐसे प्रयास के परिणामस्वरूप जो फल प्राप्त होते हैं उनसे सीखता है। एक धारणा के अनुसार ज्ञान कोई भी ऐसी चीज नहीं है जिसे अनुभव द्वारा सक्रिय रूप में न लाया जा सके। व्यावहारिक ज्ञान स्वयमेव उद्भासित होता है इसमें किसी पूर्व धारणा की आवश्यकता नहीं पड़ती है। यदि हम शतरंज के खिलाड़ी का उदाहरण लें तो उसके लिए शतरंज का ज्ञान सैद्धान्तिक ज्ञान होगा अर्थात् खेलने के क्या नियम हैं आदि। परन्तु इस खेल में वह कैसे महारत हासिल करे या प्रतिद्वन्द्वी की दी हुई चुनौती का मुकाबला कैसे कर सकता है, यह सब व्यावहारिक ज्ञान है। व्यावहारिक ज्ञान (Practical Knowledge) हेतु नियमों की पाबन्दी नहीं होती है। यह ज्ञान कौशल पर आधारित ज्ञान होता है। अतः व्यावहारिक ज्ञान प्रयोग द्वारा प्राप्त होता है। एक विचार को अभ्यास में परिवर्तित करने का प्रयास करना एवं ऐसे प्रयास के परिणामस्वरूप जो फल प्राप्त होते हैं वह व्यावहारिक ज्ञान है। व्यावहारिक ज्ञान हेतु आगमन विधि (Inductive Method) का प्रयोग किया जाता है।




 

प्रश्न b (i) विद्यालयी ज्ञान व बाह्य विद्यालयी ज्ञान में अन्तर बताइए।
उत्तर- छात्र द्वारा औपचारिक रूप से प्राप्त ज्ञान को विद्यालयी ज्ञान (School Knowledge) कहा जाता है जिसे छात्र एक निश्चित समय सीमा में निश्चित प्रक्रिया द्वारा प्राप्त करता है। परन्तु केवल विद्यालय की परिधि के अन्दर प्राप्त ज्ञान ही वास्तविक नहीं होता। विद्यालय की परिधि के बाहर भी ज्ञान प्राप्ति के अनेकों अवसर उपलब्ध हैं जैसे दूरस्थ शिक्षा व मुक्त विद्यालय या विश्वविद्यालयों द्वारा प्रदत्त ज्ञान, किसी ज्ञानी श्रेष्ठ पुरुष की संगति में प्राप्त ज्ञान, विभिन्न संचार माध्यमों द्वारा प्राप्त ज्ञान आदि। इस सन्दर्भ में एकलव्य का उदाहरण द्रष्टव्य है जिसने औपचारिक रूप में गुरुकुल में ज्ञान प्राप्ति की अनुमति न मिलने पर गुरु की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उससे ही श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त कर लिया था। मूसा को दस महत्त्वपूर्ण ईश्वरीय सूत्रों का ज्ञान एक पर्वत पर बैठकर मिला था। आज गुरु का स्थान दूरस्थ शिक्षा ने लेना शुरू कर दिया है।

इसी सन्दर्भ में ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त प्रत्यक्ष ज्ञान को भी अनौपचारिक विधि से प्राप्त ज्ञान या बहिर्विद्यालयी ज्ञान कहा जा सकता है। ऋषियों के मन में ज्ञान अपने आप उपजा उसे उन्होंने मन्त्र के रूप में बनाया। इसी प्रकार बहुत से महापुरुष सन्त व धर्म प्रवर्तक हुए जिन्होंने पहले शिक्षा नहीं प्राप्त की, परन्तु उनके मन में ज्ञान उत्पन्न हुआ और फिर उन्होंने दूसरों को शिक्षा दी। अतः इसी आधार पर प्राप्त ज्ञान का सन्दर्भ लेते हुए इवान इलिच द्वारा निर्विद्यालयीकरण (Deschooling) की संकल्पना को भी प्रस्तुत किया गया था।

प्रश्न b (ii) ज्ञान-प्राप्ति की विधियाँ बताइए।

उत्तर-ज्ञान-प्राप्ति की विधियाँ-विश्लेषणात्मक दर्शन ज्ञान की वैयक्तिक विधि, ज्ञान की अधिकारिता विधि-ज्ञान की निगमन तर्कविधि एवं ज्ञान की आगमन तर्क विधि आदि ।

(i) ज्ञान की निगमन तर्क विधि-
इस विधि के विकास में प्रसिद्ध ग्रीक दार्शनिक सुकरात व उसके सहयोगियों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। यह विधि तर्क के रूप में ज्ञान से अज्ञान की ओर ले जाकर ज्ञान प्राप्ति में सहायक सिद्ध होती है। इस विधि को निरपेक्ष न्याय वाक्य नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इसमें प्रतिज्ञप्तियों (Preserve) के आधार पर न्याय वाक्यों (Syllogism) को चार वर्गों अर्थात् निरपेक्ष न्याय वाक्य (Categorical Syllogism), वैकल्पिक न्याय वाक्य (Alternative Syllogism), परिकल्पित न्याय वाक्य (Hypothesis Syllogism) एवं नियोजक न्याय वाक्य (Disjunctives Syllogism) में विभक्त किया जा सकता है।

(ii) ज्ञान की आगमन तर्क विधि-

ज्ञानार्जन की इस विधि के प्रणेता फ्रांसिस बेकन (Francis Bacon ) थे। इसलिए इसे बेकोनियन विधि के नाम से भी जाना जाता है। निगमन तर्क के विपरीत आगमन तर्क विशिष्ट से सामान्य की ओर प्रवृत्त होता है। इस विधि के अन्तर्गत व्यक्ति एक विशिष्ट प्रकार के अनेक दृष्टान्तों का संकलन करके उनमें निहित समानता को पहचानने का प्रयास करता है और इस प्रक्रिया में वह नवीन ज्ञान के अर्जन की ओर अग्रसर होता है। जहाँ एक ओर इस विधि को निगमन विधि की विपरीत विधि कहा जाता है तो वहीं दूसरी ओर इसे निगमन विधि की पूरक विधि भी कहा जा सकता है। आगमन तर्क विधि के दो प्रकार पूर्ण आगमन (Perfect Induction) तथा अपूर्ण (Imperfect Induction) भी हो सकते हैं। पूर्ण आगमन विधि में जहाँ अध्ययन क्षेत्र के सभी दृष्टान्तों के अवलोकन के आधार पर सामान्यीकृत निष्कर्ष निकाले जाते हैं वहीं अपूर्ण आगमन में कुछ चुने दृष्टान्तों के आधार पर प्रायिकता निष्कर्ष निकाले जाते हैं। परन्तु दोनों ही प्रकार की विधियों में निःसन्देह विशिष्ट स्थितियों के सामान्यीकरण द्वारा ही निष्कर्ष निकालने का प्रयास किया जाता है।

प्रश्न b (iii) ज्ञान ज्ञान के प्रमुख स्रोत बताइए।

उत्तर-ज्ञान प्राप्ति के मूल रूप से निम्नलिखित स्रोत हैं-

(i) इन्द्रिय अनुभव –

ज्ञान का एक प्रमुख साधन इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव का प्रत्यक्षीकरण है। मनुष्य की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा उसे क्रमशः देखकर, सुनकर, सूँघकर, स्वाद लेकर तथा स्पर्श करके सांसारिक वस्तुओं के बारे में तरह-तरह का ज्ञान प्रदान करती हैं। ऐसे ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा जाता है। इस प्रकार से मनुष्य ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही संसार की वस्तुओं के सम्पर्क में आता है तो एक प्रकार की संवेदना उत्पन्न होती है, यह सब देना ज्ञानेन्द्रियों को प्राप्त उत्तेजना में ही होती है तथा वस्तु का ज्ञान प्रदान करती है। इसे प्रत्यक्षीकरण कहा जाता है। यह प्रत्यक्षीकरण ही हमें उस वस्तु की जानकारी देता है।
प्रत्यक्षीकरण द्वारा चेतन मन में अवधारणायें उत्पन्न होती हैं जिन पर हमारा ज्ञान निर्भर होता है । इन्द्रिय अनुभव दक्ष ज्ञान प्राप्ति की इस क्रिया को सभी दार्शनिकों द्वारा ज्ञान प्राप्ति का मुख्य स्रोत माना गया है। इन्द्रियों द्वारा प्राप्त इस ज्ञान की विश्वसनीयता का आंकलन तो किया जा सकता है परन्तु उस ज्ञान की वैधता ज्ञात करना कठिन होता है अर्थात् सत्यता की दृष्टि में कठिनाई आती है।

(ii) साक्ष्य –
जब हम दूसरों के अनुभव तथा निरीक्षण पर आधारित ज्ञान को मान्यता देते हैं तो इसे साक्ष्य कहा जाता है, साक्ष्य में व्यक्ति स्वयं निरीक्षण नहीं करता। वह दूसरों के निरीक्षण पर ही तथ्य का ज्ञान प्राप्त करता है। इस प्रकार साक्ष्य दूसरों के अनुभव पर आधारित ज्ञान है। हम प्रायः अपने जीवन में साक्ष्य का बहुत उपयोग करते हैं। हमने स्वयं बहुत से स्थानों को नहीं देखा है किन्तु जब दूसरे उनका वर्णन करते हैं तो हम उन स्थानों के अस्तित्व में विश्वास करने लगते हैं।

प्रश्न b (iv) सूचना तथा ज्ञान में अन्तर बताइए।
उत्तर- प्रत्येक ज्ञान के सत्य एक ज्ञाता व एक ज्ञेय जुड़ा होता है और जब ज्ञाता का ज्ञेय के साथ इन्द्रियों के माध्यम से सम्पर्क होता है तो ज्ञेय को पदार्थ के सम्बन्ध में एक चेतना होती है जिसे ज्ञान की संज्ञा दी जा सकती है। इसी प्रकार ज्ञानेन्द्रियों से जो प्रत्यक्षीकरण तथा अनुभव होता है, उसे भी ज्ञान कहते हैं। ज्ञान इन्द्रियों तक ही सीमित नहीं होता अपितु इन्द्रियों से परे भी जो अनुभूतियाँ होती हैं उसे भी ज्ञान कहा जाता है।

ज्ञान को समझने हेतु ‘ज्ञान के स्वरूप’ (Nature of Knowledge) पर प्रकाश डालना आवश्यक है। ज्ञान का स्वरूप किसी वस्तु के सम्बन्ध में जानकारी है जिसे सूचना भी कहा जा सकता है। जब हम किसी वस्तु के सम्बन्ध में यह कहते हैं कि हमें उसकी जानकारी है तो हम यह मानकर चलते हैं कि यह जानकारी सत्य है। अतएव ज्ञान की धारणा में पहले तो यह बात निहित है कि ज्ञान को अवश्य सत्य होना चाहिये। इसी प्रकार ज्ञान के अर्थ में तीन बातें आती हैं-सत्यता, सत्यता में विश्वास तथा सत्यता के लिये पर्याप्त प्रमाण आदि । प्रायः ज्ञान के स्वरूप को मानसिक तथा मनोवैज्ञानिक क्रिया, जैसे—जानना, करना और अनुभूति करना माना जाता है। यही तीन तत्त्व मनुष्य ● के व्यवहार में भी दृष्टिगत होते हैं तथा यह कहा जा सकता है कि अमुक व्यक्ति को इस कार्य का अच्छा ज्ञान है। इसी प्रकार ज्ञान का पक्ष वस्तु के गुणों में भी सम्बन्धित होता है जो इस बात का प्रतीक है कि जब व्यक्ति किसी वस्तु के गुणों को वास्तविक रूप से देख लें तभी उसे उस वस्तु का वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रायः ‘ज्ञान’ जिसका अंग्रेजी रूपान्तर नॉलेज है, को समानार्थी ही प्रयुक्त किया जाता है परन्तु पाश्चात्य मत में मिली ‘नॉलेज’ शब्द की विवेचना तथा ‘भारतीय मतानुसार’ ‘ज्ञान’ शब्द की दार्शनिक विवेचना में अन्तर है। ‘नॉलेज’ सिर्फ सत्य होता है जबकि ‘ज्ञान’ का सत्य व असत्य दोनों ही रूपों में पाया जाना नियत है। पाश्चात्य तर्कनिष्ठ अनुभववादी परम्परा में ‘असत्य ज्ञान’ (False Knowl- edge) एक स्वतोव्याघाती पद और ‘सत्य ज्ञान’ (True Knowledge) एक पुनरुक्ति है जबकि भारतीय परम्परा व पाश्चात्य ज्ञान मीमांसा में आधारभूत भेद हैं। अतः दोनों शब्दों को एक-दूसरे की भाषा में अनूदित या रूपान्तरित नहीं किया जा सकता।

 

प्रश्न b (v) ‘ज्ञान’ और ‘नॉलेज’।
उत्तर-‘ज्ञान’ और ‘नॉलेज’- प्रायः इन दोनों शब्दों को समानार्थी, ही प्रयुक्त किया जाता है परन्तु ‘पाश्चात्य मत’ में मिली ‘नॉलेज’ शब्द की विवेचना तथा ‘भारतीय मतानुसार’ ‘ज्ञान’ शब्द की दार्शनिक विवेचना में अन्तर है। ‘नॉलेज’ सिर्फ सत्य होता है जबकि ‘ज्ञान’ का सत्य व असत्य दोनों ही रूपों में पाया जाना नियत है। पाश्चात्य तर्कनिष्ठ अनुभववादी परम्परा में ‘असत्य ज्ञान’ एक स्वतोव्याघाती पद और ‘सत्य ज्ञान’ एक पुनरुक्ति है जबकि भारतीय परम्परा में न तो ‘असत्य ज्ञान’ स्वतोव्याघातक है व ‘सत्य ज्ञान’ ‘पुनरुक्ति’ है।

साधारण शब्दकोष में ‘ज्ञान’ पद का अनुवाद ‘नॉलेज’ पद से किया जाता है किन्तु दार्शनिक दृष्टि में यह उचित नहीं है। भारतीय और पाश्चात्य ज्ञानमीमांसा में आधारभूत भेद है। अतः दोनों शब्दों को एक-दूसरे की भाषा में अनूदित या रूपान्तरित नहीं किया जा सकता।

भारतीय दर्शन के अनुसार ज्ञान का अर्थ-भारतीय दर्शन के अनुसार ‘ज्ञान का अर्थ ‘ समझने से पूर्व सत्य की वस्तुनिष्ठता, ज्ञान की सार्थकता, ज्ञान की सत्यता तथा तार्किक प्रतिज्ञप्ति सत्यता पर विचार करना आवश्यक है। अर्थात्-

(i) ज्ञान की सत्यता हेतु उसकी वस्तुनिष्ठता का आंकलन किया जाना आवश्यक है।
(ii) ज्ञान के अस्तित्व में कोई संशय नहीं होना चाहिए।
(iii) ज्ञान की सत्यता की पुष्टि भी सन्देहरहित होनी चाहिए।
(iv) तार्किक प्रतिज्ञप्ति भी सत्य होनी चाहिए।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि शिक्षा केवल एक साधन है, लक्ष्य नहीं, ज्ञान शिक्षा से हमें सूचना मिलती है और उस सूचना में व्यावहारिकता अनुभव परिमार्जित आदि का समावेश करने के पश्चात् सूचना का अन्तर ज्ञान से होता है।

 

प्रश्न b (vi) ज्ञान के प्रकार बताइए।

उत्तर- ज्ञान के निम्नलिखित प्रकार हैं-

(i) आगमनात्मक ज्ञान-
इस प्रकार का ज्ञान हमारे अनुभव तथा निरीक्षण पर आधारित है। जॉन लॉक (John Locke) इस प्रकार के ज्ञान के प्रवर्तक हैं। उनके अनुसार बालक का मन जन्म के समय कोरी पटिया के समान (Tabular rasa) होता है। जैसे-जैसे अनुभव मिलते जाते हैं, इस पटिया पर लेखन होने लगता है। इससे तात्पर्य है कि ज्ञान अनुभवों द्वारा वृद्धि करता रहता है। शिक्षा में इस प्रकार के ज्ञान को प्रवर्तक कहते हैं कि सीखने के लिए समग्र अनुभव प्रदान करने चाहिए। इस प्रकार के ज्ञान में अलौकिक का कोई स्थान नहीं है।

(ii) प्रयोगमूलक ज्ञान-
ज्ञान प्रयोग द्वारा प्राप्त होता है, ऐसा प्रयोजनवादियों की धारणा है। ड्यूवी (Dewey) का कहना है कि ज्ञान की प्रक्रिया ‘एक प्रयास एवं सहन’ (Trying and undergoing) की प्रक्रिया है-एक विचार का अभ्यास में प्रयास करना एवं ऐसे प्रयास के परिणाम से जो फल प्राप्त होते हैं उनसे सीखना। इस धारणा के अनुसार ज्ञान कोई भी ऐसी चीज नहीं है जिसे हम समझें कि वह अनुभव या निरीक्षण से अन्तिम रूप से समझी जा सकती है जबकि हम ऐसी विधियों का प्रयोग करते हैं, जैसे आगमन। यह तो कुछ ऐसी वस्तु है जो अनुभव में सक्रिय होती है। एक कृत्य की भाँति जो अनुभव को सन्तोषपूर्ण ढंग से आगे की ओर ले जाती है

(iii) प्रागनुभव ज्ञान-ज्ञान स्वयं-
प्रत्यक्ष की भाँति समझा जाता है (Knowledge is self- evident)। सिद्धान्त जब समझ लिए जाते हैं, सत्य पहचान लिए जाते हैं फिर उन्हें निरीक्षण, या प्रयोग द्वारा प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती।

प्रश्न b (vii) वर्गीकरण (टैक्सोनॉमी) किसे कहते हैं?

उत्तर- अंग्रेजी में Taxonomy शब्द का अर्थ होता है-वर्गीकरण अर्थात् स्तरीकरण। जब इसका प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में किया जाता है तो इसका तात्पर्य ‘शैक्षिक उद्देश्यों के एक व्यवस्थित क्रम (Systematic Classification of Educational Objectives) से होता है। इस प्रकार का वर्गीकरण सर्वप्रथम बेंजामिन बी. ब्लूम ने किया था। बाद में, आर.एफ. मेगर (Meger), डी.आर. कैथवाल (Krathwohl ), एन. ई. ग्रीनलैण्ड (N.E. Gronland) तथा मैसिया (B.B. Massia) आदि ने भी इस क्षेत्र में कार्य किया।

इस वर्गीकरण को मानसिक जीवन के तीन पक्षों-ज्ञान, भावना और कर्म के आधार पर विकसित किया गया है जिन्हें क्रमशः ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक क्षेत्रों की संज्ञा प्रदान की गई है। टैक्सोनॉमी शब्द जीवविज्ञान से सम्बन्धित है जिसके अन्तर्गत प्राणियों एवं पौधों को क्रमिक रूप में इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है कि वे सामान्य से विशिष्ट की ओर बढ़ते हुए अधिक-से-अधिक स्पष्ट होते जायें।

ब्लूम तथा उसके सहयोगियों ने शिकागो विश्वविद्यालय में ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक तीनों पक्षों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया। 1956 ई. में ब्लूम ने ज्ञानात्मक पक्ष का, 1964 में ब्लूम, कैथवाल तथा मैसिया ने भावात्मक पक्ष का तथा 1969 में सिम्पसन ने क्रियात्मक पक्ष का वर्गीकरण प्रस्तुत किया। यह टैक्सोनॉमी शैक्षिक, तार्किक तथा मनोवैज्ञानिक वर्गीकरण का एक न्यायोचित एवं सन्तुलित एकीकरण है। इसमें विभिन्न वर्गों का भेद शैक्षिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसमें शब्दावली को इस प्रकार से परिभाषित किया गया है कि उनके अर्थ तार्किक दृष्टि से सही मालूम पड़ते हैं। यह वर्गीकरण आधुनिकतम मनोवैज्ञानिक खोजों पर आधारित है।

प्रश्न b (viii) ज्ञानात्मक क्षेत्र को बताइए।

उत्तर- ज्ञानात्मक क्षेत्र के अन्तर्गत बौद्धिक पक्ष आता है जिसका शैक्षिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व है। पूर्वकाल में तो औपचारिक शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य मस्तिष्क का प्रशिक्षण ही माना जाता रहा है। इस बात से सभी सहमत होंगे कि विद्यालयों में इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि विद्यार्थी अपने वातावरण से कैसे सीखते हैं, अवधारणाएँ कैसे बनती और विकसित होती हैं। इसके साथ ही इस पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है कि बालक की अभिरुचि क्या है, वह दूसरे व्यक्तियों से तथा दूसरे व्यक्ति उससे कैसे व्यवहार करते हैं, वह तर्क को क्या महत्त्व देता है तथा कारण एवं परिणाम में कैसे सम्बन्ध स्थापित करता है, निर्णय किस प्रकार लेता है तथा समस्याओं का समाधान कैसे करता है, तार्किक चिन्तन की योग्यता एवं आदत का विकास कैसे करता है? विद्यालयों में बालकों की भाषा सम्बन्धी, वैज्ञानिक, सौन्दर्यबोधात्मक, ऐतिहासिक, तकनीकी, चिन्तन की मानसिक प्रक्रियाओं, विश्लेषणात्मक एवं संश्लेषणात्मक प्रक्रियाओं, अभिमुखी (Convergent) एवं अपसारी (Divergent) बौद्धिक प्रक्रियाओं के अन्तर को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता होती है।

ज्ञानात्मक क्षेत्र को छः वर्गों में विभाजित किया गया है-ज्ञान, अवबोध, अनुप्रयोग, विश्लेषण, संश्लेषण तथा मूल्यांकन ।




प्रश्न c (i) ज्ञान का संवाद सिद्धान्त क्या है?

उत्तर-संवाद सिद्धान्त-इस सिद्धान्त के अनुसार सत्य विचार तथा उस वस्तु में जिसका वह विचार है उनके आपसी संवाद पर निर्भर है तथ्यों को हम सत्य या असत्य नहीं कहते क्योंकि तथ्य तो जैसे हैं वैसे हैं ही। सत्य या असत्य तो उन तथ्यों के सम्बन्ध में कथन हैं। यदि तथ्य और कथन में भेद नहीं है तो वह सत्य है। यदि कथन तथा तथ्य एक-दूसरे के प्रतिकूल हैं तो वह असत्य है। इस प्रकार तथ्य की अनुकूलता ही उसकी सत्यता का प्रमाण है। जैसे, जब हम कहते हैं कि स्टेशन से कॉलेज चार किलोमीटर है तो इसकी परीक्षा हम स्टेशन से कॉलेज की दूरी माप कर, कर सकते हैं। यदि यह तथ्य ठीक हुआ, दूरी चार किलोमीटर ही हुई तो तथ्य का प्रमाण मिल गया और इसकी सत्यता स्थापित हो गई, किन्तु इस प्रकार के परीक्षण में दो बातें आवश्यक हैं। एक तो यह कि तथ्य वास्तविक हैं तथा स्वतन्त्र रूप से स्थित है और दूसरे यह कि अनुभव द्वारा उसका सत्यापन किया जा सकता है। यह सिद्धान्त यथार्थवादियों द्वारा प्रतिपादित किया जाता है। यथार्थवाद यह मानता है कि ज्ञान तथा ज्ञान की वस्तु का सम्बन्ध बाहरी होता है, तथ्य प्रस्तुत होते हैं। आदर्शवाद इस सम्बन्ध को आन्तरिक मानता है और इस कारण दोनों में एकत्व समझता है। इस सिद्धान्त में तथ्य ही मुख्य आधार है और कथन को सत्य होने के वास्ते तथ्य के साथ संवाद आवश्यक है। इस सिद्धान्त की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि हम कैसे जान सकते हैं कि तथ्य क्या हैं और किस प्रकार तथ्य के ज्ञान की कथन से अनुकूलता परखी जा सकती है।

प्रश्न c (ii) ज्ञान के संसक्तता सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं?

उत्तर-संसक्तता सिद्धान्त-इस सिद्धान्त का आधार यह है कि यदि मनुष्य का ज्ञान उसके प्रत्ययों तक ही सीमित है और हम उनकी तथ्यों के साथ अनुरूपता की परीक्षा नहीं कर सकते तो सत्यता को परखने के लिए हमें यह देखना होगा कि तथ्यों के सम्बन्ध में जो एक कथन है वह दूसरे कथन जिसकों हम सत्य मानते हैं उससे संगति रखता है। जैसे जब हम दो स्थानों के बीच की दूरी 4 किलोमीटर कहते है तो यदि इस कथन में निहित है कि चार किलोमीटर में कितनी दूरी आती है तो चार किलोमीटर उतनी ही दूरी कहने में सत्यता होगी। इस प्रकार हम सत्य उस कथन को कहेंगे जिसमें दूसरे कथनों के साथ परस्पर संगति है और यदि ऐसा नहीं है जैसे कि एक किलोमीटर में जितनी दूरी आती है वह विभिन्न कथनों में विभिन्न है तो हमारा चार किलोमीटर दूरी का कथन भी असत्य होगा।

इस सिद्धान्त में हम यह मानकर चलते हैं कि मानव के समक्ष सत्यता की प्रणाली है जिसमें वह सब विचार विद्यमान हैं जिन्हें हम पहले मान चके हैं और जिनकी सत्यता पहले सिद्ध हो चुकी है। अब जब कोई एक नया निर्णय या कथन प्रस्तुत होता है तो हम उसका परीक्षण इस सत्य की प्रणाली के अनुसार करते हैं। जैसे जब यह कथन सत्यता की प्रणाली में आ चुका है कि एक किलोमीटर में कितनी दूरी आयेगी तो चार किलोमीटर में आने वाली दूरी में उस सत्यता से संगति होगी, किन्तु ऐसा नहीं है कि यदि कोई बात जो नयी हो और पुरानी ज्ञान प्रणाली से विभिन्न हो तो वह सत्य नहीं हो सकती। विज्ञान में पहले अणु को पदार्थ का सबसे छोटा भाग माना जाता था, किन्तु अब ऐसा नहीं है तो क्या यह नवीन मान्यता असत्य है। यदि हम ऐसा कहते हैं तो हम किसी भी नई धारणा को मानने से इन्कार करते हैं। वास्तव में यह गलत बात होगी। हमें नयी बात को सत्य मानना होगा। इसकी व्याख्या इस सिद्धान्त में यह है कि यदि नया सत्य पुरानी प्रणाली में एक नये ढंग के संगठन को बना सकता है और पिछली व्यवस्था से भी बड़ी ज्ञान-व्यवस्था कायम कर सकता है तो इसे सत्य मानना चाहिए। यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि ज्ञान की सत्यता उसकी आत्म संगति, संगठन तथा एकरूपता में होती है।

प्रश्न c (iii) ज्ञान का व्यवहारवादी सिद्धान्त।
उत्तर-व्यवहारवादी सिद्धान्त-व्यवहारवादी तो सत्यता को परिवर्तनशील मानते हैं। सत्य समय तथा स्थान के साथ बदलता रहता है। वह कहते हैं कि सत्य हमारे व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित है और इसके लिए ही उपयोगी है। विलियम जेम्स के अनुसार कथन दो प्रकार के हो सकते हैं-सार्थक कथन तथा निरर्थक कथन । सार्थक कथन का गुण सत्यता होती है। जेम्स के अनुसार एक कथन जिसका परिणाम जीवन में उपयोगी, लाभकारी तथा सुखद आदि है वह कथन सत्य है। जो कथन के परिणाम जीवन को दुःखद बना देते हैं, उसके लिए हानिकारक हैं वह असत्य है। इस प्रकार सत्यता का परीक्षण हम उपयोगिता, कार्यक्षमता, सन्तोष, सुख इत्यादि के आधार पर करते हैं। जेम्स कहता है कि सत्य वह है जो सफल है।

इस सिद्धान्त में यह दोष है कि कथन की सत्यता देखने के लिए परिणाम देखने होते हैं, किन्तु परिणाम मिलने में बहुत समय लग सकता है और जब तक सब परिणाम नहीं मिल जाते हम सत्यता स्थापित नहीं कर सकते। परिणामों की प्रतीक्षा में बहुत देर हो सकती है और प्रतीक्षा करना स्वयं में एक निर्णय है जिसके बुरे परिणाम निकल सकते हैं। फिर यदि हम प्रतीक्षा करने का निर्णय ले भी लें तो पूर्ण परिणाम कभी-कभी प्राप्त नहीं हो सकते। इसका कारण यह है कि परिणामों के भी परिणाम निकलते हैं और इस प्रकार इस क्रिया का कोई अन्त नहीं है। हम सब कोई निर्णय सत्यता का नहीं ले पायेंगे तो अनावस्था के दोष से घिर जायेंगे। हमारे जीवन में कुछ बातों के सम्बन्ध में एक तथ्य अनुकूल हो सकता तो दूसरा प्रतिकूल तो व्यावहारिकतावादी उनमें से किसको सत्य कहेंगे, यदि उपयोगिता और सत्यता में अन्तर हो तो व्यवहारवादी उपयोगिता को ही देखेगा और इस प्रकार वह असत्य को सत्य भी मान सकता है

प्रश्न c (iv) सूचना प्राप्त करने के प्रमुख स्रोत बताइए ।
उत्तर- सूचना प्राप्त करने के निम्नलिखित प्रमुख स्रोत व साधन हैं-

1. मुद्रित संचार साधन – पाठ्य-पुस्तकें, सन्दर्भ ग्रन्थों, पाठ्यक्रम से सम्बन्धित पुस्तकें पत्र- पत्रिकाएँ, वाचनालय तथा अन्य सार्वजनिक वाचनालय ।
2. प्रत्यक्ष जानकारी देने वाले साधन-बाग-बगीचे, नदी, पर्वत, ऐतिहासिक एवं भौगोलिक स्थान, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक अनुभव इत्यादि ।
3. दृश्य-श्रव्य साधन-चित्र, चार्ट, रेडियो, टेलीविजन आदि।

उपर्युक्त के अतिरिक्त शिक्षकों, सहपाठियों, सहकर्मियों, अभिभावकों, परिजनों तथा समाज के सदस्यों द्वारा भी औपचारिक व अनौपचारिक रूप से सूचनाएँ प्राप्त होती हैं।

वर्तमान युग विज्ञान एवं तकनीकी का युग है। वैज्ञानिक आविष्कारों ने मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष एवं क्रिया को प्रभावित किया है। इसके प्रभाव से शिक्षा भी अछूती नहीं रही है। आज शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान की नित नवीन शाखाओं का विकास हो रहा है। इस ज्ञान को आत्मसात् करने, ज्ञान का संचय, प्रसार एवं वृद्धि एवं सम्प्रेषण के लिए विकसित तकनीकी के ज्ञान एवं उपयोग की आवश्यकता है, और इस आवश्यकता की पूर्ति केवल सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी द्वारा ही सम्भव है। सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी से अभिप्राय “यन्त्रों, उपकरणों एवं अनुप्रयोग आधार से युक्त एक ऐसी तकनीकी से है जो सूचना के एकत्रीकरण, भंडारण या संचयीकरण, पुनः प्रस्तुतीकरण, उपयोग, स्थानांतरण, संश्लेषण, विश्लेषण एवं आत्मसातीकरण के विश्वसनीय एवं यथार्थ संपादन में सहायक सिद्ध होते हुए उपयोगकर्ता को अपना ज्ञानवर्द्धन करने तथा उसके सम्प्रेषण को प्रभावी बनाने तथा निर्णय क्षमता एवं समस्या समाधान योग्यता में वृद्धि करने में यथासम्भव सहायक सिद्ध होती है।”

प्रश्न C (v) पाठ्यचर्या की अवधारणा बताइए ।

उत्तर- पाठ्यक्रम को अंग्रेजी में ‘Curriculum’ कहते हैं, जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Curricere/Currere’ से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘दौड़ का मैदान’ (A Race Cource)। सीधे शब्दों में कहा जाये तो पाठ्यक्रम वह क्रम है जिसे व्यक्ति को अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के लिए पार करना होता है अर्थात् पाठ्यक्रम दौड़ के मैदान की तरह ही होता है जिसमें बालक को तब तक दौड़ना पड़ता है जब तक कि वह अपने लक्ष्य को न प्राप्त कर ले। विद्यालयों में शिक्षक और शिथार्थी द्वारा किए गए प्रयासों से किसी उद्देश्य की प्राप्ति होना है, पाठ्यक्रम कहलाता है। अतः पाठ्यचर्या वह. साधन है जिसके द्वारा शिक्षा व जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति होती है। यह अध्ययन का निश्चित व तर्कपूर्ण क्रम है जिसके माध्यम से शिक्षार्थी के व्यक्तित्व का विकास होता है तथा वह नवीन ज्ञान तथा अनुभव ग्रहण करता है।

शिक्षा के अर्थ के बारे में दो धारणाएँ हैं – पहला प्रचलित अर्थ या संकुचित अर्थ व दूसरा वास्तविक या व्यापक अर्थ। संकुचित अर्थ में शिक्षा केवल स्कूली शिक्षा या पुस्तकीय ज्ञान तक ही सीमित माना जाता है परन्तु विस्तृत अर्थ में पाठ्यक्रम के अन्तर्गत वे सभी अनुभव आ जाते हैं जिसे एक नई पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ियों से प्राप्त करती है। साथ ही विद्यालय में रहते हुए शिक्षक के संरक्षण में विद्यार्थी जो भी संक्रियाएँ करता है वह सभी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत आती हैं तथा इसके अतिरिक्त विभिन्न पाठ्यक्रम सहभागी क्रियाएँ भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत आती हैं तथा इसके अतिरिक्त विभिन्न पाठ्यक्रम सहभागी क्रियाएँ भी पाठ्यक्रम का अंग होती हैं। अतः वर्तमान समय में ‘पाठ्यक्रम’ से तात्पर्य उसके विस्तृत रूप से है।

प्रश्न c (vi) पाठ्यचर्या की प्रकृति बताइए।
उत्तर-शिक्षा जीवन-पर्यन्तं चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में निरन्तर परिवर्तन एवं परिमार्जन होता है। व्यक्ति के व्यवहार में यह परिवर्तन अनेक माध्यमों से होता है, किन्तु मुख्य रूप से इन माध्यमों को दो रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है- औपचारिक एवं अनौपचारिक । औपचारिक रूप के अन्तर्गत वे माध्यम आते हैं जिनका नियोजन कुछ निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए व्यवस्थित ढंग से संस्थापित संस्थाओं में किया जाता है। इस प्रकार की संस्थाओं को विद्यालय कहा जाता है, किन्तु व्यक्ति के परिवर्तन की प्रक्रिया विद्यालय एवं विद्यालयी जीवन में ही पूर्ण नहीं हो पाती है, बल्कि वह विद्यालय से बाहर तथा जीवन भर चलती रहती है। अतः व्यक्ति के व्यवहार में होने वाले अनेक परिवर्तन विद्यालय की सीमा से बाहर की परिस्थितियों के परिणामस्वरूप होते हैं। चूँकि ऐसी परिस्थितियाँ सुनियोजित ढंग से प्रस्तुत नहीं की जाती हैं, अतः वे अनौपचारिक माध्यम के अन्तर्गत आती हैं। विद्यालय में विद्यार्थियों को जो कुछ भी कक्षा एवं कक्षा के बाहर प्रदान किया जाता है, उसका एक निश्चित उद्देश्य होता है एवं उसे किसी विशेष माध्यम से ही पूरा किया जाता है। हमारी कुछ संकल्पनायें होती हैं कि एक विशेष कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद विद्यार्थी के व्यवहार में अमुक परिवर्तन आ जायेगा, परन्तु यह परिवर्तन किस प्रकार लाया जायेगा? किसके द्वारा लाया जायेगा? और कितना लाया जायेगा? आदि ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिनका समाधान पाठ्यक्रम जैसे साधन से प्राप्त होता है। अतः पाठ्यक्रम का सम्बन्ध शिक्षा के औपचारिक माध्यम से है।

प्रश्न c (vii) पाठ्यचर्या के क्षेत्र बताइए ।
उत्तर-यदि हम पाठ्यक्रम के इतिहास पर एक दृष्टि डालें तो स्पष्ट रूप से पता चलता है कि पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सम्मिलित किये जाने वाले ज्ञान का स्वरूप एवं विस्तार अनिवार्य रूप से सम्बन्धित समाज द्वारा मान्य शैक्षिक उद्देश्यों पर निर्भर करता है। इसीलिए देश और काल की भिन्नता के अनुसार वहाँ के पाठ्यक्रमों में भिन्नता भी पायी जाती है। भारतीय सन्दर्भ में यदि हम वैदिक काल की शिक्षा पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि वैदिक काल में भारतीय शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य ईश्वर भक्ति एवं धार्मिक भावना को दृढ़ करना, बालकों का चरित्र निर्माण एवं उनके व्यक्तित्व का विकास करना तथा सामाजिक कुशलता में वृद्धि करना था। इस दृष्टि से उस समय का पाठ्यक्रम भी अत्यन्त विस्तृत था। उसमें परा विद्या अर्थात् धार्मिक साहित्य का अध्ययन तथा अपरा विद्या अर्थात् लौकिक एवं सांसारिक ज्ञान दोनों का ही समावेश था। उस समय शिक्षा कार्य गुरुकुलों में होता था तथा शिक्षार्थी पूरे शिक्षाकाल में गुरुकुल या गुरु-परिवार के सदस्य के रूप में रहता था। वह गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ गुरु एवं गुरु-पत्नी की सेवा, आश्रम की सफाई, पशुओं की देखभाल तथा भिक्षाटन के माध्यम से कर्त्तव्यपालन, सेवाभाव, विनयशीलता तथा अन्य चारित्रिक गुणों की शिक्षा भी प्राप्त करता था। कभी-कभी शिक्षा प्राप्त करने हेतु शिष्यों को देशाटन पर भी जाना पड़ता था। इस प्रकार वैदिककालीन पाठ्यक्रम में पठन-पाठन के साथ-साथ विद्यार्थियों को व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करने के समुचित अवसर भी प्राप्त होते थे तथा उसका सम्पादन भी अध्ययन कक्षों और समय के घण्टों में सीमित नहीं था।
इसी प्रकार यदि हम यूरोप के इतिहास का अध्ययन करें तो वहाँ के पाठ्यक्रम के सीमा क्षेत्र का आभास मिलता है। प्राचीन यूनान के नगर राज्य स्पार्टा को प्रायः युद्धरत रहना पड़ता था, अतः वहाँ पर बालकों के शारीरिक विकास एवं शस्त्र विद्या पर अधिक ध्यान दिया जाता रहा, जबकि एथेन्स नगर राज्य में शान्ति एवं स्थायित्व होने से वहाँ पर साहित्य, दर्शन एवं ललित कलाओं को अधिक महत्त्व दिया जाता था। प्रारम्भ में यूरोप और अमेरिका में भी शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को पढ़ने, लिखने एवं सामान्य गणना कर सकने के योग्य बना देना मात्र था। अतः उस समय पाठ्यक्रम भी 3R’s तक सीमित था। यह स्थिति एक लम्बी अवधि तक बनी भी रही, क्योंकि पाश्चात्य देशों में भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत उन्हीं प्रवृत्तियों का समावेश किया जाता रहा जो कक्षा के अन्दर पाठ पढ़ाते समय आयोजित की जाती थीं। कालान्तर में भारत में भी अनेक राजनीतिक कारणों से पाठ्यक्रम का रूप, पश्चिमी देशों जैसा ही हो गया तथा गुरुकुलों एवं आश्रमों के स्थान पर पाठशालाओं का उदय हुआ, जिनका कार्य केवल पाठ पढ़ने-पढ़ाने तक ही सीमित रह गया। इस प्रकार पठन-पाठन से इतर प्रवृत्तियों को पाठशाला के क्षेत्र से बाहर की चीज माना जाने लगा।




प्रश्न d (i) पाठ्यचर्या की परिभाषा बताइए ।

उत्तर- पाठ्यक्रम को विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्न प्रकार से परिभाषित किया गया है-

पॉल हिरस्ट के अनुसार, “पाठ्यक्रम ऐसी गतिविधियों का समायोजन है जिनके द्वारा छात्र जहाँ तक सम्भव हो, निश्चित परिणामों व उद्देश्यों को प्राप्त करते हैं।”

कनिंघम के अनुसार, “पाठ्यक्रम कलाकार (शिक्षक) के हाथ में एक साधन है जिससे वह अपनी सामग्री (शिक्षार्थी) को अपने आदर्श, उद्देश्य के अनुसार अपनी चित्रशाला (विद्यालय) में ढाल सकता है।”

मुनरो के अनुसार, “पाठ्यक्रम सारे अनुभवों को अपने में सम्मिलित करता है जिसका प्रयोग विद्यालय द्वारा बालक को शिक्षित करने के उद्देश्य से होता है।”

माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) “पाठ्यक्रम का अर्थ केवल उन सैद्धान्तिक विषयों से नहीं है जो विद्यालयों में परम्परागत रूप से पढ़ाए जाते हैं बल्कि इसमें अनुभवों की वह सम्पूर्णता भी सम्मिलित होती है, जिनको विद्यार्थी विद्यालय, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कार्यशाला, खेल के मैदान तथा शिक्षक एवं छात्रों के अनेक अनौपचारिक सम्पर्कों से प्राप्त करता है। इस प्रकार विद्यालय का सम्पूर्ण जीवन पाठ्यक्रम हो जाता है जो छात्रों के जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है और उनके सन्तुलित व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है।”

होर्नी के शब्दों में, “पाठ्यक्रम वह है जो शिक्षार्थी को पढ़ाया जाता है। वह शक्तिपूर्ण पढ़ने या सीखने से अधिक है। इसमें उद्योग, व्यवसाय, ज्ञानोपार्जन, अभ्यास और क्रियाएँ शामिल हैं। ”

प्रश्न d (ii) शिक्षकों के अनुभव व चिन्त्य विषय के बारे में बताइए ।
उत्तर-शिक्षकों के अनुभव एवं पाठ्यचर्या बालकों के लिए आवश्यक होते हैं। पाठ्यचर्या के विकास हेतु शिक्षकों के अनुभव व चिन्त्य विषय भी सकारात्मक योगदान देते हैं। यद्यपि पाठ्यचर्यां रचना में सक्रिय रूप से भाग लेने वाले शिक्षकों की संख्या बहुत थोड़ी है जबकि पाठ्यचर्या को लागू करने वालों में शिक्षकों का योगदान शिक्षा प्रक्रिया में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। शायद यही वजह है कि शिक्षकों को ‘पाठ्यचर्या रचनाकार’ की बजाए ‘पाठ्यचर्या का वाहक’ माना जाता है। विद्यालय आधारित पाठ्यचर्या विकास का विचार लोकप्रिय हो रहा है और जैसे-जैसे विकेन्द्रीकरण का विचार विद्यालयों में व्याप्त होगा वैसे-वैसे भविष्य में इस प्रक्रिया में शिक्षकों की भागीदारी बड़े पैमाने पर अपेक्षित होगी। यह तब तक सम्भव नहीं होगा जब तक शिक्षक इस परिवर्तित भूमिका के लिए वास्तव में सक्षम नहीं बनाए जाते। राष्ट्र को शिक्षकों के अनुभवों पर पाठ्यचर्या निर्माण के समय पूर्ण विश्वास करना चाहिए। सक्षम शिक्षक समुदाय की परिकल्पना ने शिक्षण को पुनर्व्याख्या की और प्रवृत्त किया है। इसके अनुसार शिक्षण कार्य अधिक चिन्तनशील और विचारशील व्यवसाय के रूप में उभरेगा।

पाठ्यचर्या निर्माण की प्रक्रिया में चूँकि शिक्षक प्रभावशाली कार्यकर्त्ता है इसलिए उपयुक्त और पर्याप्त शिक्षक प्रशिक्षण जरूरी है, जो पूर्व-सेवाकालीन और सेवाकालीन दोनों ही कार्यक्रमों पर लागू होगा। सेवाकालीन प्रशिक्षण को तो पाठ्यचर्या विकास प्रक्रिया का आन्तरिक अंग बनना होगा और प्रशिक्षण में अनिवार्य रूप से दोनों तत्त्वों, शिक्षण प्रविधि और मूल्यांकन प्रक्रिया को शामिल करना होगा।

प्रश्न d (iii) आधुनिक समाज की बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा एवं पाठ्यक्रम बताइए।

उत्तर-आधुनिक समाज की बदलती हुई आवश्यकतायें, उसमें तीव्र गति से होने वाले परिवर्तनों की ही देन होती है। कोई भी समाज इन तीव्रगामी परिवर्तनों से तभी सही ढंग से
अनुकूलन
कर सकता है जब वह उन परिवर्तनों से उपजी वैयक्तिक सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, तकनीकी एवं पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था करे। इसके लिए शिक्षा के उद्देश्य निम्न प्रकार के होने चाहिए-

(i) व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक एवं सांस्कृतिक विकास करना ।
(ii) व्यक्ति में समुचित अभिरुचियों एवं आदतों का निर्माण करना।
(iii) समुचित अभिवृत्तियों एवं मूल्यों का प्रतिपादन करना तथा परम्परागत एवं नवीन मूल्यों में सामंजस्य स्थापित करना।
(iv) व्यक्ति तथा समाज के प्रति व्यक्तियों के दृष्टिकोण में परिवर्तन करना।
(v) नागरिक कर्त्तव्यों एवं अधिकारों के प्रति उचित दृष्टिकोण विकसित करना ।
(vi) विज्ञान एवं तकनीकी का विकास करना तथा व्यक्तियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना।

प्रश्न d (iv) पाठ्यक्रम में लैंगिक भेदभाव को बताइए।
अथवा
पाठ्यक्रम निर्धारण के रूप में वातावरण एवं लिंग कैसे प्रभाव डालता है?

उत्तर- शैक्षिक क्षेत्र में लैंगिक भेदभाव देखने को मिलता है। विद्यालय, जिसमें कई संस्कृति के विद्यार्थी होते हैं, ये भी लिंग आधारित भेद-भाव संस्थान की पाठ्य-पुस्तकों द्वारा, निष्पत्ति परीक्षणों द्वारा, खेलकूद के कार्यक्रमों द्वारा, व्यावसायिक प्रशिक्षण द्वारा व लैंगिक विभेदीकृत पाठ्यक्रम द्वारा स्पष्ट दिखाई देता है। शिक्षक व्यक्तिगत तौर पर तो समाज में व्यक्ति लैंगिक भूमिकाओं के सापेक्ष सांस्कृतिक आकांक्षाओं के बोझ तले शिक्षित होते ही हैं, साथ ही जिन शैक्षिक संस्थाओं में उन्होंने प्रशिक्षण प्राप्त किया होता है, वहाँ भी लैंगिक पक्षपात का सामना करके आते हैं। ये दोनों ही स्थितियाँ उनकी सांस्कृतिक अपेक्षाओं को अनजाने ही लैंगिक भेद-भाव की ओर मोड़ देती हैं। और वे भी व्यक्तिगत तौर पर शैक्षिक प्रक्रियाओं में लिंग भूमिकाओं की तरफ पक्षपात का दृष्टिकोण अपना लेते हैं तथा छात्र व छात्राओं से विभिन्न शैक्षिक निष्पत्ति के स्तरों व क्षमताओं की उम्मीद करते हैं और पाठ्यक्रम विभिन्न क्षेत्रों के सन्दर्भ में भी लिंग आधारित विचारों के सापेक्ष ही इसे तैयार करते हैं।

यही कारण है कि एक समान कक्षा में बैठकर एक समान पाठ्य पुस्तक को पढ़ते हुए, एक ही अध्यापक के व्याख्यान को सुनते हुए भी लड़के व लड़कियाँ शिक्षा प्राप्त करते हैं। जहाँ तक हमारे विद्यालयों में छात्रों की संख्या का प्रश्न है, लड़के व लड़कियों की समान भागीदारी है। यहाँ तक कि कुछ विद्यालयों में लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक है फिर भी इन विद्यालयों में हमें पुरुष सापेक्ष वातावरण दिखाई देता है जहाँ बालिकाओं को बालकों की तरह स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं मिलता है, न ही उनके बराबर शैक्षिक अवसर प्राप्त हो पाते हैं। सम्भवतः यह पुराने चले आ रहे रूढ़िवादी विश्वास का ही परिणाम है।

लिंग आधारित भेद-भाव युक्त विचार इन विद्यार्थियों का बहुत अहित करते हैं उदाहरणार्थ- कक्षा 9 के विद्यार्थी चूँकि इस समय किशोरावस्था की जटिल परिस्थिति से गुजर रहे होते हैं। इस समय यदि वे भेद-भावपूर्ण व पक्षपातपूर्ण रवैये का सामना करते हैं तो उनके जीवन पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। पाठ्य-पुस्तकों में दी गई लिंग आधारित पक्षपातपूर्ण अभिवृत्तियाँ भी बालक व बालिकाओं की अभिवृत्ति पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं तथा वे उसी के आधार पर अपने भविष्य की योजना बनाने लगते हैं तथा अपने प्रत्ययों को भी उसी तरफ मोड़ लेते हैं। जैसा दृष्टिकोण वे इन लिंग आधारित पाठ्य-पुस्तकों के आधार पर बना लेते हैं इसलिए वर्तमान पीढ़ी आज भी सदियों पुरानी इन परम्पराओं व लिंग आधारित धारणाओं से बाहर नहीं निकल पाई है। यह भेद-भाव विद्यालय की प्रत्येक गतिविधि के साथ-साथ समाज में भी दिखाई देता है।

प्रश्न d (v) अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम।

उत्तर-अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम-अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम का अभिप्रायः उस पाठ्यक्रम से है जिसमें मानव जाति के अनुभव सम्मिलित किये जाते हैं। दूसरे शब्दों में अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम विषयों की अपेक्षा अनुभवों पर आधारित होता है। इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य बालकों को प्रेरणा प्रदान करना है ताकि वे अपने जीवन को उपयोगी बना सकें। यह भौतिक तथा सामाजिक वातावरण का अधिक-से-अधिक प्रयोग करता है क्योंकि इसमें बालक को स्वाभाविक ढंग से ‘अनुभव’ प्राप्त करने को मिलते हैं। यही कारण है कि यह पूर्णतया मनोविज्ञान पर आधारित होता है अर्थात् इसका सम्बन्ध छात्रों की रुचियों, आवश्यकताओं तथा योग्यताओं से होता है।

प्रश्न d (vi) पाठ्यक्रम में लैंगिक भेदभाव मिटाने के उपाय बताइए।

उत्तर – पाठ्यक्रम में लैंगिक भेदभाव को मिटाने में शिक्षकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो सकती है। अक्सर यह सुना जाता है कि लड़कियाँ, विज्ञान, गणित, व्यावसायिक व गैर-पारम्परिक विषय चयनित नहीं करना चाहतीं, परन्तु इसके लिए भी विद्यालय स्तर पर Intervention Programmes किए जा सकते हैं जिससे संग्रहालय के पैर, विज्ञान मेले व विज्ञान केन्द्रों तक बालिकाओं को ले जाना व भौतिकी में पानी, हवा व ऊर्जा के प्रयोग कराना, इन बालिकाओं में भी आत्मविश्वास पैदा कर देते हैं। इस तरह के कार्यक्रमों का उद्देश्य बालिकाओं के विज्ञान, इंजीनियरिंग व तकनीकी सहभागिता में संकोच को दूर करना है जिससे एक सशक्त समाज का निर्माण हो सके व बालिकाओं को हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिले। उनके लिए शिक्षण व्यवसाय जैसे पारम्परिक पाठ्यक्रम के अतिरिक्त भी रोजगार की नवीन सृजनाएँ सम्भव हैं।

प्रश्न d (vii) पाठ्यक्रम आधारित लिंग असमानता को दूर करने के उपाय बताइए।

उत्तर- पाठ्यक्रमों के माध्यमों से छात्रों में लिंग समानता लाने के लिए निम्नलिखित प्रयास किये जा सकते हैं-

(i) पाठ्यक्रम बनाते समय लैंगिक नीति-निर्माताओं को बालक या बालिका वर्ग समूह को अलग से प्रदर्शित नहीं करना चाहिए बल्कि उन्हें अपनी पाठ्यक्रम नीति में समजातीय समूह का समावेश करना चाहिए व एक दिशीय व समान कार्य-प्रणाली उपयोग में लानी चाहिए।
(ii) गणितीय, वैज्ञानिक तथा टेक्नोलॉजी जैसे विषयों पर बालक (नर) समूह का आधिपत्य है। बालिकाओं को पाठ्यक्रम के इन विषयों का अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
(iii) पाठ्यक्रम के अन्तर्गत शैक्षिक तथा सह-शैक्षिक सभी प्रकार की गतिविधियों में (बालिका वर्ग) के योगदान को बढ़ावा देने के लिए ज्ञान हस्तान्तरण कार्यक्रम जो कि मुख्य रूप से बालिकाओं- को इन गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करे, उनका आयोजन।
(iv) विषय चयन में परिवार, अध्यापक, सहयोगी समूह द्वारा बालिकाओं में प्रेरणा उत्पन्न करना ।
(v) सभी प्रशिक्षण तथा व्यावसायिक कोर्सों को अनिवार्य स्तर पर लागू किया जाना चाहिए।
(vi) नृत्य, गायन, अभिनय व कला जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए बालिकाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
उपर्युक्त बिन्दुओं से स्पष्ट है कि पाठ्यक्रम में विस्तार तथा विषय-प्रणाली में परिवर्तन करके लिंग-असमानता को कम किया जा सकता है।

प्रश्न e (i) पाठ्यक्रम में समावेशन को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
पाठ्यक्रम निर्धारकों में समावेशी शिक्षा की भूमिका की विवेचना कीजिए।

उत्तर- 1989 में संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) में बच्चों के अधिकार विषय पर सम्मेलन हुआ और उसमें निर्णय लिया गया कि किसी भी क्षेत्र में बच्चों के साथ किसी भी आधार पर चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र ही क्यों न हो, कोई भेदभाव नहीं होगा। सन् 2001 में विशिष्ट आवश्यकताओं की शिक्षा पर श्वेत-पत्र 61 समावेशी शिक्षा एवं प्रशिक्षण व्यवस्था का निर्माण, 2001 प्रसारित हुआ |इसमें समावेशी शिक्षा के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि समावेशी शिक्षा यह स्वीकार करती है कि सभी सीखने वाले किसी-न-किसी दृष्टि से भिन्न होते हैं तथा उनके सीखने से सम्बन्धित आवश्यकताएँ भी भिन्न होती हैं और ये भिन्नता हमारे लिए मूल्यवान हैं तथा मानवीय अनुभवों का एक सामान्य भाग है। अतः सीखने वालों के बीच अन्तर को स्वीकार करते हुए हम उसका आदर करते हैं, चाहे वह अन्तर आयु, लिंग, नास्तिकता, भाषा, वर्ग एवं अपंगता किसी भी कारण क्यों न हो। इससे समावेशी शिक्षा की आवश्यकता एवं उसका स्वरूप निश्चित हुआ और यूनेस्को द्वारा सभी राज्यों से सभी स्तर पर समावेशी शिक्षा की व्यवस्था करने का आह्वान किया गया। यूनेस्को द्वारा समावेशी शिक्षा को बड़े व्यापक रूप से लिया गया है। उसके शब्दों में-
“व्यापक रूप से समावेशन को एक ऐसे सुधार के रूप में लिया जाता है जिसमें सीखने वालों की भिन्नता का आदर किया जाता है।”

प्रश्न e (ii) समावेशी स्कूलों की कार्य-प्रणाली का वर्णन कीजिए।

उत्तर- समावेशी स्कूलों की कार्य-प्रणाली निम्नलिखित दो रूपों में देखी जाती है—

(1) सम्पूर्ण समावेशन-
अर्थात् विद्यालय में सभी प्रकार के बच्चों का प्रवेश, सभी के लिए समान पाठ्यक्रम, सभी को एक ही विधि से एक साथ पढ़ना, लिखना, सभी की एक समान रूप से परीक्षा लेना और सभी का एक ही पैमाने पर मूल्यांकन करना और सभी को एक ही प्रकार के प्रमाण- पत्र देना आदि ।

(2) अल्प समावेशन- जो प्रायः दो रूपों में चलता है-

(i) कुछ विषयों, जैसे—संगीत, कला, स्वास्थ्य शिक्षा एक साथ और कुछ विषयों जैसे-भाषा, विज्ञान, गणित की शिक्षा अलग-अलग और सभी क्रियाओं-खेलकूद एवं समाज सेवा आदि एक साथ ।

(ii) सैद्धान्तिक कार्य अलग-अलग और क्रियात्मक कार्य एक साथ जहाँ तक समावेशन की नीति को पाठ्यचर्या के निर्धारक के रूप में अपनाने की बात है तो समावेशन की इस नीति को हर स्कूल और सारी शिक्षा व्यवस्था में व्यापक रूप से लागू किए जाने की जरूरत है। बच्चे के जीवन के हर क्षेत्र से वह चाहे स्कूल में हो या बाहर, सभी बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है। स्कूलों को ऐसे केन्द्र बनाए जाने की जरूरत है जहाँ बच्चों को जीवन की तैयारी कराई जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी बच्चों खासकर शारीरिक या मानसिक रूप से असमर्थ बच्चों, समाज के हाशिए पर जीने वाले बच्चों और कठिन परिस्थितियों में जीने वाले बच्चों को शिक्षा के इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र के सबसे ज्यादा फायदे मिले। अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने के मौके और सहपाठियों के साथ बाँटने के मौके देना बच्चों में प्रोत्साहन और जुड़ाव को पोषण देने के शक्तिशाली तरीके हों, स्कूलों में अक्सर हम कुछ गिने-चुने बच्चों को ही बार-बार चुनते रहते हैं।

प्रश्न e (iii) पाठ्यक्रम के निर्धारक के रूप में मूल्य के महत्त्व की व्याख्या कीजिए।

उत्तर – शिक्षक खुद सुविचारित प्रयास कर सकते हैं कि पाठ्य सामग्री और बच्चों के विकास के स्तर के अनुरूप शान्ति से सम्बन्धित मूल्यों को पठन-पाठन में शामिल कर लें और उन पर लगातार बल दें। उदाहरण के लिए, शिक्षा का किसी पाठ में छिपे घटकों का उपयोग सकारात्मक भावों को जगाने के लिए अनुभवों आदि के आधार पर शान्ति के मूल्यों को स्थापित करने के लिए कर सकते हैं। प्रश्न किस्सा, कहानी, खेलकूद, व्यावहारिक चर्चा, उदाहरणों, रूपकों, मूल्य स्पष्टीकरण के माध्यम से शान्ति की शिक्षा दी जा सकती है। नैतिक शिक्षा और आचरण व्यक्तिगत, सामाजिक, सामुदायिक और वैश्विक आयामों से जोड़कर सिखाये जा सकते हैं। शिक्षक शिक्षा के कार्यक्रमों में भी शान्ति की शिक्षा को वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल किया जा सकता है।

इस सन्दर्भ में विद्यालयी शिक्षा के बहुत प्रारम्भिक चरण में ही मूल्य शिक्षा के प्रसार सम्बन्धी एक समग्र कार्यक्रम को विद्यालयी दिनचर्या के नियमित अंग के रूप में शुरू करना अनिवार्य है। सम्पूर्ण शिक्षा प्रक्रिया ऐसी हो कि बालक-बालिकाएँ इस योग्य बन जाएँ कि ये ‘उत्तम’ को जानें, ‘उत्तम’ से प्रेम करें और ‘उत्तम’ कार्य करने तथा एक-दूसरे के प्रति सहनशील नागरिकों के रूप में विकसित हों। इसके लिए प्रत्येक शिक्षक को मूल्य- शिक्षक बनाना होगा। प्रत्येक क्रिया-कलाप, इकाई और अन्तर्क्रिया का परीक्षण, मूल्य-पहचान, मूल्य-प्रसार, मूल्य-प्रबलन और इसके पश्चात् मूल्यों को अमलीजामा पहनाने के लिए सन्तुलित और समुचित कार्यनीति सम्बन्धी निर्णयों के आधार पर निर्णय लेने चाहिए। मूल्य निष्पादन के लिए दो पक्षीय संवाद, कल्याण सेवाएँ, जरूरतमन्द छात्रों की मदद, उपचारात्मक शिक्षण, पुनर्मूल्यांकन और कमतर उपलब्धियों वाले छात्रों को निरस्त न करने का भाव आवश्यक है। इसके लिए ऐसे नियमों का निर्माण करना आवश्यक होगा जिनमें प्रत्येक छात्र का खेलकूदों, विद्यालयी क्रियाकलापों और उनकी रुचियों से जुड़े कार्यक्रमों में सहभागिता सुनिश्चित की जा सकेगी।

प्रश्न e (iv) मूल्यों के पाठ्यक्रम में किन क्रियाओं को समावेशित किया जा सकता है?
उत्तर-मूल्यों के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित क्रियाएँ समावेशित की जा सकती हैं-

(i) विद्यालयी सभा और समूह गायन और मौन एवं ध्यान साधना का अभ्यास ।
(ii) पैगम्बरों, संतों और पंक्ति धर्मग्रन्थों से जुड़ी रुचिकर कथाओं और जीवनियों का वर्णन ।
(iii) खेल के मैदानों की गतिविधियाँ अर्थात् खेलकूद, ऐसे सामाजिक कार्य जो मनुष्य जाति के साथ-साथ अन्य प्राणियों यहाँ तक कि पद्धति की सेवा का दृष्टिकोण भी पैदा करें और ‘कार्य ही पूजा है’ की भावना उत्पन्न करें।
(iv) उपयुक्त विषयों, कथानकों पर आधारित कार्यक्रम और नाटकों का आयोजन ।
(v) माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर ।
(vi) शिक्षक या अतिथि वक्ता द्वारा प्रातःकालीन सभा में ज्ञानयुक्त पुस्तकों एवं महान साहित्य के अंशों का वाचन एवं उपयुक्त सम्बोधन ।
(vii) विश्व के मुख्य धर्मों की आवश्यक शिक्षाएँ और धर्म दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन। (viii) अवकाश एवं विद्यालय से छूटने के बाद के समय में समाज सेवा ।
(ix) सामुदायिक गायन, कार्यक्रम, राष्ट्रीय एकता शिविर, राष्ट्रीय समाज सेवा एन.सी.सी. शिविर, स्काउट एवं गाइडिंग कार्यक्रम ।

प्रश्न e (v) राष्ट्रीय पाठ्यक्रम कार्य-योजना का वर्णन कीजिए।

उत्तर-
(1) पाठ्यक्रम के बोझ को कम करने पर बल दिया जायेगा।

(2) पाठ्यक्रम में संशोधन करने तथा स्कूल प्रणाली में चरणाबद्ध ढंग से पाठ्य-पुस्तक विकसित करने के लिए कदम उठाये जायेंगे।

(3) न्यूनतम शिक्षण स्तर स्थापित करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाये जायेंगे-
(i) न्यूनतम शिक्षण स्तर कार्य नीति में मुख्य ध्यान समग्र आधारित अध्यापन और शिक्षण के विकास पर दिया जायेगा।
(ii) मौजूदा स्तरों को जानने के लिए शिक्षण उपलब्धियों का प्रारम्भिक मूल्यांकन किया जायेगा। (iii) यदि अनिवार्य हुआ, तो स्थानीय उपलब्धियों के अनुकूल बनाने के लिए न्यूनतम शिक्षण स्तरों में संशोधन किया जायेगा।
(iv) क्षमता आधारित शिक्षण के लिए शिक्षकों का प्रारम्भिक तथा पुनर्विवेक अनुस्थापन किया जायेगा।
(v) न्यूनतम शिक्षण स्तरों पर आधारित शिक्षण के लिए शिक्षक प्रशिक्षण पुस्तिकाएँ तैयार की जायेंगी।
I

प्रश्न e (vi) पाठ्यक्रम तथा पाठ्य विवरण में अन्तर स्पष्ट कीजिए ।
अथवा
पाठ्यक्रम एवं पाठ्यचर्या में क्या अन्तर है?

उत्तर-
पाठ्यचर्या
पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम में अन्तर
1. पाठ्यचर्या में अनेक विषयों, क्रियाओं तथा
अनुभवों को रखा जाता है जो शिक्षा के. उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक होते हैं।
2. पाठ्यचर्या व्यापक और विस्तृत होती है। इसमें
औपचारिक तथा अनौपचारिक सभी प्रकार की क्रियाओं को शामिल किया जाता है।
3. पाठ्यचर्या का उद्देश्य छात्र व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास है। I
4. पाठ्यचर्या सम्पूर्ण जीवन की तैयारी करवाता है। छात्रों को जीवन के सामान्य अनुभव प्रदान करता है।
5. पाठ्यचर्या जीवन-केन्द्रित होती है।

पाठ्यक्रम
1. पाठ्यक्रम के अन्तर्गत केवल विभिन्न विषयों तथा कौशलों का समावेश होता है।
2. पाठ्यक्रम में केवल औपचारिक विषयों तथा क्रियाओं का समावेश होता है।
3. पाठ्यक्रम से व्यक्तित्व के एक विशिष्ट अंग (ज्ञान व कौशल) का विकास कतिपय विशिष्ट विषयों के अध्ययन से होता है।
4. पाठ्यक्रम छात्र को विशिष्ट अनुभव प्रदान करके जीवन के एक सीमित पक्ष के लिए तैयार करता है।
5. पाठ्यक्रम केवल परीक्षा केन्द्रित होता है \

प्रश्न e (vii) वर्तमान पाठ्यक्रम के दोष बताइए ।

उत्तर- माध्यमिक शिक्षा आयोग ने प्रचलित पाठ्यक्रम के अधोलिखित दोषों की ओर संकेत किया है-
1. वर्तमान पाठ्यक्रम संकुचित दृष्टिकोण रखता है। इसको मुख्यतः शिक्षा-संस्थाओं में प्रवेश पाने की आवश्यकता की पूर्ति के रूप में ही अनुभूत किया गया है। यही स्थिति अभी तक लागू है, जबकि इसके दोषों को दूर करने के लिए समय-समय पर विभिन्न प्रयास किये गये हैं।
2. यह पुस्तकीय ज्ञान पर बल देता है, क्योंकि शिक्षा के सभी स्तरों पर पाठ्य-विषय बहुत-कुछ शास्त्रीय एवं सैद्धान्तिक हैं और मुख्यतः सूक्ष्म विचारों एवं सामान्यीकरण से ही सम्बन्धित हैं।
3. प्रत्येक विषय की पाठ्य-वस्तु को बहुत अधिक तथ्यों एवं सूक्ष्म विचारों से लादने की प्रवृत्ति प्रचलित है। प्रायः ये तथ्य बहुत ही कम महत्त्व के हैं जो स्मरण-शक्ति पर अवांछनीय भार डालते हैं।
4. हमारे पाठ्यक्रम बनाने वालों ने ‘विशेषज्ञ’ के दृष्टिकोण को ग्रहण करके सामान्यतः क्षति उठायी है। इस दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप उन्होंने पाठ्यक्रम एवं पाठ्य-पुस्तकों में अपनी विषय- वस्तु को अधिकाधिक रखने का प्रयास किया और सीखने वालों की आवश्यकताओं, मनोविज्ञान एवं रुचियों की अपेक्षा विषयों के तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक तथ्यों पर अधिक ध्यान दिया है।
5. यह वैयक्तिक विभिन्नताओं से मेल नहीं खाता है। किशोरावस्था में छात्रों में विभिन्न वैयक्तिक अभिरुचियाँ, अभिवृत्तियाँ तथा विशेष दृष्टिकोण विकसित होते हैं, परन्तु वर्तमान पाठ्यक्रम शायद ही इन वैयक्तिक विभिन्नताओं की ओर ध्यान देता है।

प्रश्न e (viii) संरचनावादी उपागम क्या है? –
उत्तर-अच्छी व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए केवल पाठ्यक्रम में कुछ नवाचारों का समावेश करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि आज के सूचना प्रधान युग में ज्ञान को भली प्रकार किस प्रकार प्रदान किया जाये यह सोचना भी है, जिसका प्रत्युत्तर हमें ज्ञान के संरचनावादी उपागम में मिलता है। इसका तात्पर्य है कि पाठ्यचर्या के सभी सन्दर्भों को बच्चों की सक्रियता व रचनात्मक सामर्थ्य को पोषित व सम्वर्द्धित करने वाली होना चाहिए। उसका दुनिया में वास्तविक तरीकों से सम्बन्ध बैठाने, दूसरों से जुड़ने की उनकी मूल अभिरुचि को प्रेषित करना चाहिए। संरचनावादी उपागम के अनुसार, सीखना अपने आप में एक सक्रिय व सामाजिक गतिविधि है, अतः इसे संरचनावादी परिप्रेक्ष्य में पूर्ण करना चाहिए।

संरचनावादी परिप्रेक्ष्य में सीखना ज्ञान के निर्माण की एक प्रक्रिया है। विद्यार्थी सक्रिय रूप से पूर्व प्रचलित विचारों में उपलब्ध सामग्री, गतिविधियों के आधार पर अपने लिए ज्ञान की रचना करते हैं (अनुभव)। उदाहरण के लिए, यातायात व्यवस्था को पाठ या चित्र सा दृश्य सामग्री का उपयोग करते पढ़ाने तथा उस पर विद्यार्थियों में चर्चा कराने से उनमें यातायात व्यवस्था सम्बन्धी ज्ञान के निर्माण में मदद की जा सकती है। बच्चों के संज्ञान में अध्यापकों की भूमिका को भी रचनावादी परिप्रेक्ष्य में बढ़ाया जा सकता है। यदि वे ज्ञान निर्माण की उस प्रक्रिया में ज्यादा सक्रिय रूप से शामिल हो जाएँ जिसमें बच्चे व्यस्त हैं।

प्रश्न f (i) मूल्यांकन उपागम के अन्तर्गत कोर पाठ्यक्रम बताइए।
अथवा
कोर पाठ्यक्रम का वर्णन कीजिए।

उत्तर- कोर- केन्द्रित पाठ्यक्रम-कोर पाठ्यक्रम उस पाठ्यक्रम को कहते हैं जिसमें कुछ विषय तो अनिवार्य होते हैं तथा अधिक विषय ऐच्छिक । अनिवार्य विषयों का अध्ययन करना प्रत्येक बालक के लिए अनिवार्य होता है तथा ऐच्छिक विषयों को व्यक्तिगत रुचियों तथा क्षमताओं के अनुसार चुना जा सकता है। यह पाठ्यक्रम अमरीका की देन है जिसके अन्तर्गत प्रत्येक बालक को व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों प्रकार की समस्याओं के सम्बन्ध में ऐसे अनुभव प्रदान किए जाते हैं जिनके द्वारा वह अपने भावी जीवन में आने वाली प्रत्येक समस्या को सरलतापूर्वक सुलझाते हुए कुशल तथा समाजोपयोगी एवं उत्तम नागरिक बन जाये। संक्षेप में, कोर पाठ्यक्रम का लक्ष्य व्यक्ति तथा समाज दोनों का अधिक से अधिक विकास करना है। इस पाठ्यक्रम की कई विशेषताएँ भी हैं, जैसे- इसके ‘ अन्तर्गत कई विषयों को एक साथ पढ़ाया जाता है, विभिन्न विषयों को पढ़ाने का समय भी निश्चित होता है तथा साथ ही यह बालक की आवश्यकताओं व अभिरुचियों के मूल्यांकन पर भी केन्द्रित है। जेम्स ली कोर पाठ्यक्रम को परिभाषित करते हुए लिखते हैं- “कोर पाठ्यक्रम वह है जो व्यक्तिगत- तथा शाश्वत दोनों ही प्रकार के हितों से सम्बन्धित अन्तःक्षेत्रीय समस्याओं में केन्द्रित होता है। इसमें विषयवस्तु को विचाराधीन समस्या के समाधान के लिए आवश्यक होने के नाते सीखने के लिए स्थान प्रदान किया जाता है।”

अलबर्टी ने कोर पाठ्यक्रम को परिभाषित करते हुए लिखा है, “कोर पाठ्यक्रम उस समग्र पाठ्यक्रम का एक अंग माना जा सकता है जो सभी छात्रों के लिए आधारभूत है तथा जिसमें सीखने की उन क्रियाओं का समावेश रहता है, जिनका संगठन परम्परागत विषयों से पृथक् रखकर किया जाता है।”




प्रश्न f (ii) पाठ्यक्रम अभिकल्प क्या है? इसके घटक बताइए ।
उत्तर- पाठ्यक्रम योजना के विभिन्न अंशों की व्यवस्था पाठ्यचर्या अभिकल्प कहलाती है। इसे पाठ्यचर्या संगठन एवं पाठ्यक्रम संरचना भी कहते हैं। इन अंशों को निर्माणक घटक अथवा तत्त्व कहते हैं। ये तत्त्व हैं – (1) अभिप्राय, लक्ष्य, उद्देश्य; (2) विषय सामग्री; (3) अधिगम अनुभव और (4) मूल्यांकन उपागम ।

अभिकल्प के घटक
पाठ्यक्रम अभिकल्प का सम्बन्ध पाठ्यचर्या के चार बुनियादी अंशों, यथा- उद्देश्य, विधि एवं संगठन, विषय सामग्री, मूल्यांकन की प्रकृति एवं व्यवस्था से होता है। गाइल्स (1942) ने घटक शब्द का उपयोग इनके सम्बन्ध को बताने के लिए किया है। उसने अधिगम अनुभवों की विधि एवं संगठन के अन्तर्गत सम्मिलित किया है।

प्रस्तुत अभिकल्प के चार घटक अनेक प्रश्नों के उत्तर देते हैं जैसे—क्या किया जाना है? क्या विषय-वस्तु शामिल करना है? अनुदेशन की कौन-सी व्यूह रचना, स्रोत एवं गतिविधियाँ उपयोग में लायी जाएँगी? पाठ्यचर्या के परिणामों के मूल्यांकन के लिए कौन-सी विधि एवं उपकरण उपयोग में लाए जाएँगे? गाइल्स के अनुसार ये चारों घटकों के बारे में लिए गए निर्णयों पर आश्रित होते हैं।

प्रश्न f (iii) पाठ्यक्रम विकास से आप क्या समझते हैं?
अथवा
पाठ्यक्रम के विकास की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।

उत्तर- इस प्रत्यय में ‘पाठ्यक्रम विकास’ का प्रयोग साधारण रूप में तथा अधिक किया जाता है। पाठ्यक्रम विकास का अर्थ निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया जो कभी समाप्त नहीं होती है और यह कहाँ से आरम्भ हुई इसका भी बोध नहीं होता है। शिक्षण की आवश्यकता की जानकारी छात्रों की उपलब्धियों से हो जाती है जिनको शिक्षक प्राप्त करने का प्रयास करता है। परीक्षण के द्वारा यह भी जानकारी हो जाती है कि किस सीमा तक उद्देश्य प्राप्त हुए हैं।

इसको दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि, “अधिगम-अवसरों के नियोजन द्वारा छात्रों के व्यवहारों में विशिष्ट परिवर्तन लाना तथा परीक्षण द्वारा यह जानना कि किस सीमा तक अपेक्षित परिवर्तन हुआ है। इस प्रत्यय को पाठ्यक्रम-विकास की संज्ञा दी जाती है।

पाठ्यक्रम का मुख्य लक्ष्य छात्रों का विकास करना है इसलिए पाठ्यक्रम का प्रारूप ऐसा हो, जिससे छात्रों के व्यवहारों में अपेक्षित परिवर्तन किया जा सके। यह प्रक्रिया चक्रीय तथा निरन्तर चलने वाली मानी जाती है-
इसके प्रमुख चार तत्त्व माने जाते हैं-

1. शिक्षण उद्देश्य – सभी साधनों का प्रयोग उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है, पाठ्यवस्तु का साधन है उद्देश्यों को प्राप्त करने की दृष्टि ।
2. शिक्षण विधि तथा पाठ्यवस्तु- छात्रों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन के लिए अधिगम- परिस्थितियाँ तथा अवसर शिक्षण विधियों एवं पाठ्यवस्तु की सहायता से उत्पन्न किए जाते हैं। जिससे उद्देश्य प्राप्त किए जा सकें।
3. परीक्षण प्रक्रिया – इसके द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि शिक्षण विधियों तथा पाठ्यवस्तु से किसी सीमा तक उद्देश्यों को प्राप्त किया गया है
4. पृष्ठपोषण – परीक्षण का अर्थापन शिक्षकों तथा छात्रों को पृष्ठपोषण प्रदान करता है तथा पाठ्यक्रम के प्रारूप को सुधार के लिए दिशा मिलती है। पृष्ठपोषण मूल्यांकन का प्रभाव पाठ्यक्रम में होता है।




प्रश्न f(iv) टोली शिक्षण क्या है?

उत्तर-टोली शिक्षण का अर्थ-
टोली शिक्षण का विकास सर्वप्रथम 1955 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय में हुआ। इसके बाद यह प्रत्यय 1960 में ब्रिटेन में पहुँचा। ब्रिटेन में इसका विकास जे. फ्रीमैन ने किया। धीरे-धीरे इसका प्रयोग स्कूलों व कॉलेजों में किया जाने लगा। शिकागो विश्वविद्यालय के फ्रांसिस चेज ने टोली शिक्षण (Team-Teaching) का प्रयोग प्रभावशाली शिक्षण के लिये किया। कॉलेजों में सफल प्रयोग के बाद इस उपागम का प्रयोग द्वितीय विश्वयुद्ध के समय सेना के प्रशिक्षण के लिये किया जाने लगा और भारत में भी इस उपागम का प्रयोग किया आरम्भ हो गया है, लेकिन अभी इसकी सफलता पर सन्देह बना हुआ है।
1
समूह (टोली) शिक्षण भारतीय परिस्थितियों में शिक्षा का एक नया दृष्टिकोण है। समूह शिक्षण या टोली शिक्षण, शिक्षण की एक सुव्यवस्थित प्रणाली है जिसमें कई शिक्षक मिलकर विद्यार्थियों के एक समूह को अनुदेशन (Instruction) प्रदान करते हैं और एक साथ मिलकर किसी विशिष्ट प्रकरण के लिये शिक्षण का संयुक्त उत्तरदायित्व लेते हैं। इसमें सामान्यतः दो या दो से अधिक शिक्षक भाग लेते हैं। ये शिक्षक, शिक्षण की योजना और उसका कार्यान्वयन छात्रों के समूह के लिये मिलकर करते हैं। इस प्रकार की शिक्षण विधियों की योजना, समय तथा प्रक्रिया लचीली रखी जाती है ताकि शिक्षण- उद्देश्यों के अनुसार तथा शिक्षकों की योग्यता के अनुसार समूह शिक्षक के कार्यक्रम में आवश्यक व इच्छित परिवर्तन लाये जा सकें। इस उपागम के अन्तर्गत शिक्षकों का समूह पारस्परिक सहयोग के आधार पर शिक्षण एवं मूल्यांकन सम्बन्धी उत्तरदायित्वों को मिल-जुलकर निभाते हैं। यह उपागम इस दृष्टि से और भी महत्वपूर्ण तथा अद्भुत है क्योंकि इसके माध्यम से प्रत्येक शिक्षक अपने प्रभावशाली गुणों व क्षमताओं का अधिकतम उपयोग कर सकता है। कुछ अध्यापक कक्षा-शिक्षण अधिक प्रभावशाली ढंग से कर लेते हैं, तो कुछ प्रयोगशाला कार्य में अधिक दक्ष होते हैं, और अन्य सहायक सामग्री के निर्माण में। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक शिक्षक का अपना अनूठा योगदान रहता है। समूह शिक्षण की सफलता शिक्षकों के उचित चयन पर निर्भर करती है। कार्य विभाजन से शिक्षकों का कार्यभार हल्का हो जाता है और उन्हें अपने हिस्से के कार्य को तैयार करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। छात्रों को इस उपागम में परिश्रम तो अधिक करना पड़ता है लेकिन अधिगम की मात्रा कई गुना बढ़ जाती है।

प्रश्न f (v) पाठ्यचर्या विकास क्या है?

उत्तर- किसी भी प्रभावशाली शिक्षण हेतु पाठ्यचर्या की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और उससे भी महत्त्वपूर्ण है कि पाठ्यचर्या का विकास कैसे किया जाये क्योंकि यह एक विशेष क्षेत्र होता है। इसमें शिक्षकों से यह अपेक्षा की जाती है कि उन्हें पाठ्यचर्या की अवधारणा व अधिगम अनुभवों के विषय में उचित जानकारी हो जिससे इस पाठ्यचर्या द्वारा समाज के अभीष्ट उद्देश्य को प्राप्त किया जा सके। ‘पाठ्यचर्या विकास’ का अर्थ निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया से है जो कभी समाप्त नहीं होती है। शिक्षक, शिक्षण की आवश्यकता के अनुसार पाठ्यचर्या द्वारा अधिगम समूह या लक्ष्य समूह की आवश्यकताओं को संज्ञान में रखते हुए विभिन्न आधारिक तत्त्वों को ध्यान में लेकर पाठ्यचर्या का विकास करता है। इसे हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि, शिक्षक यह जानने का प्रयास करता है कि अधिगम अवसरों के नियोजन द्वारा छात्रों के व्यवहारों में विशिष्ट परिवर्तन किस प्रकार लाया जा सकता है व यह किस सीमा तक जाना जा सकता है कि उनमें कितना अपेक्षित परिवर्तन हुआ है। इसी प्रत्यय को पाठ्यक्रम विकास की संज्ञा दी जाती है।

प्रश्न f (vi) पाठ्यचर्या के विकास के प्रमुख तत्त्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- पाठ्यचर्या विकास के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं- (i) आवश्यकताओं का विश्लेषण। (ii) उद्देश्यों का स्पष्टीकरण, (iii) आगत तत्त्वों का विश्लेषण, (iv) प्रक्रिया अभिकल्प तैयार करना, (v) प्रारम्भिक जाँच ।

प्रश्न f(vii) विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम की व्याख्या कीजिए।
अथवा
विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम का वर्णन कीजिए।

उत्तर-परम्परागत उपागम के अन्तर्गत विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम आता है जिससे पाठ्यक्रम के स्वरूप में विषय-वस्तु को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में बालक तथा इसकी रुचियों एवं योग्यताओं को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है। इसमें शिक्षक ही सर्वेसर्वा होता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में विषय को ही आधार मानकर पाठ्यक्रम को नियोजित एवं संगठित किया जाता है

है जिसका उद्देश्य विषयों के ज्ञान को पृथक्-पृथक् रूप से प्रदान करना होता है। इस पाठ्यक्रम का सूत्रपात प्राचीन ग्रीक तथा रोम के विद्यालयों में हुआ। इसमें सभी विषयों के ज्ञान को अलग-अलग निश्चित कर लिया जाता है तथा उसी के अनुसार पुस्तकें तैयार कर ली जाती हैं। इन्हीं पुस्तकों से बालक विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस पाठ्यक्रम में पुस्तकों पर अधिक बल दिये जाने के कारण इसे ‘पुस्तक केन्द्रित’ पाठ्यक्रम भी कहा जाता है। इसमें बालकों की अपेक्षा विषय-ज्ञान को महत्त्व दिया जाता है। परन्तु इस प्रकार के पाठ्यक्रम में पाठ्य-वस्तु पहले से निश्चित होने के कारण शिक्षक को यह मालूम होता है कि उसे क्या-क्या पढ़ाना है तथा विद्यार्थी भी यह जानते हैं या जान सकते हैं कि उन्हें क्या-क्या पढ़ना है। इसमें निश्चित पाठ्य-वस्तु से ही छात्रों की परीक्षा ली जाती है तथा इस मूल्यांकन से यह ज्ञात किया जाता है कि बालक ने कितना सीखा है अर्थात् उसकी उपलब्धि क्या रही है।

विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम में अध्यापक का शिक्षण पाठ्यक्रम तक ही सीमित रहता है। वह पाठ्यक्रम के अलावा छात्रों को कोई और ज्ञान देना उचित नहीं समझता है। वह छात्र के केवल ज्ञान भण्डार को बढ़ाने पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करता है, भले ही उस ज्ञान की छात्र के जीवन में कोई उपयोगिता हो या न हो ।




प्रश्न g (i) पर्यावरण पर आधारित उपागम की व्याख्या कीजिए।
अथवा
पाठ्यक्रम निर्धारकों के लिए पर्यावरणीय सरोकारों का आलोचनात्मक परिणामों के रूप में वर्णन कीजिए।

उत्तर—प्रत्येक व्यक्ति भौतिक, प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक वातावरण में रहता है। वह भौतिक जगत् का एक भाग है। प्रकृति से वह वनस्पति, पानी, हवा इत्यादि के मध्य रहता है। वह एक सामाजिक प्राणी है और उसे विरासत में मिली एक संस्कृति होती है। अतः ऐसा पाठ्यक्रम जिसमें उसके वातावरण से सम्बन्धित उपागम के पाठ्य-वस्तु निर्माण वातावरण से सम्बन्धित विभिन्न इकाइयों का चयन करते हैं। वातावरण आधारित उपागम में मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और शैक्षिक महत्ता तो है ही साथ ही इसमें क्रिया आधारित उपागम भी शामिल है। इस उपागम के क्रियान्वयन में जो * कठिनाइयाँ हैं, वे निम्न हैं-

विषय-वस्तु को वातावरण पर आधारित संगठित करने से पाठ्यक्रम पूरा नहीं होता है। कुछ विषय-वस्तु तो ऐसी होती है कि उसमें ज्ञानात्मक पक्ष होता है जिसको पर्यावरण से सम्बन्धित नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न g (ii) व्यवहारिक उपागम का वर्णन कीजिए।

उत्तर- छात्रों के अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन के रूप में उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है। व्यवहार परिवर्तन का ज्ञान मूल्यांकन से होता है इसीलिए इसे मूल्यांकन प्रतिमान भी कहा जाता है।
बी. एस. ब्लूम ने शिक्षा में सुधार के लिए शिक्षण एवं परीक्षण की क्रियाओं को उद्देश्य केन्द्रित बनाने पर बल दिया तथा कहा कि शिक्षण में जिन उद्देश्यों को महत्त्व दिया जाए उन्हीं उद्देश्यों के लिए परीक्षण भी किया जाना चाहिए। इस प्रतिमान के अन्तर्गत निम्नलिखित सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

(a) शिक्षण उद्देश्यों का प्रतिपादन ।
(b) उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सीखने के अनुभवों का सृजन ।
(c) बालकों में होने वाले व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन।

इस उपागम पर विकसित दो प्रतिमान निम्नलिखित हैं–

(i) हिल्दा टाबा का व्यापक मूल्यांकन पाठ्यक्रम प्रतिमान ।
(ii) मुखोपाध्याय निर्मित पाठ्य मूल्यांकन का प्रतिमान ।

प्रश्न g (iii) विषय आधारित उपागम की व्याख्या कीजिए।
अथवा
पाठ्यक्रम विकास में विषय केन्द्रित उपागम की विवेचना कीजिए।

उत्तर- मानव के ज्ञान का भण्डार तथ्यों, प्रत्ययों, तथा सामान्यीकरणों, सिद्धान्तों से भरा हुआ है। ये ज्ञान के तत्त्व एक समान लगते हैं। ये एक-दूसरे से सह-सम्बन्धित हैं। यह सहसम्बन्धिता इनको संगठित होने का अवसर प्रदान करती है जिससे कि इनको पूर्णता मिल सके। इसलिए पाठ्यक्रम निर्माताओं ने आरम्भ में ज्ञान के विभिन्न तत्त्वों को पहचाना और एक तर्कयुक्त तरीके में संगठित किया। ज्ञान के तत्त्वों में जो सम्पन्न पाया गया उसको बी. एम. ब्लूम के अन्तर अनुशासन सूत्र से परिभाषित किया, जबकि गुडलैण्ड महोदय ने इनको संगठन केन्द्र बताया। संगठित ज्ञान को ही विषय का अनुशासन कहते हैं।

व्यापक स्तर पर पाठ्यक्रम निर्माता किसी भी विषय का व्यापक क्षेत्र लेकर निर्माण करते हैं। जैसे-गणित, प्राकृतिक विज्ञान, व्यवहार का विज्ञान आदि ।

मध्यम स्तर पर पाठ्यक्रम संगठनकर्त्ता, पाठ्यक्रम को विषय की इकाई में संगठित कर लेते हैं। जैसे—प्रकाशिकी, अम्ल, क्षार व लवण, मस्तिष्क आदि।

संकीर्ण स्तर पर इकाई की उप-इकाई बनाकर पाठ का संगठन करते हैं

इस उपागम से निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाता है-

* विशेषज्ञों के विचार ।
• अनुभवी विषय अध्यापक के निष्कर्ष ।
* कक्षा में उपयोग में लाई गई निर्देशन सामग्री।
* विद्यार्थी की रुचि, शैक्षिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अनुभव आदि।

किसी भी विषय के पाठ्यक्रम में कई इकाइयाँ होती हैं। प्रत्येक इकाई की उप इकाइयाँ होती हैं। विषय आधारित उपागम विषय का संगठन तर्क पर आधारित होता है। यह दो प्रकार का होता है-
(1) विषय-वस्तु केन्द्रित, (2) संरचना केन्द्रित ।

प्रश्न g (iv) परम्परागत पाठ्यक्रम।
उत्तर—यह पाठ्यक्रम शिक्षा के प्रति परम्परागत दृष्टिकोण रखता है। इसमें आध्यात्मिक एवं नैतिक जीवन के विकास पर बल दिया जाता है। प्राचीन यूनान के स्कूलों तथा भारतीय गुरुकुलों ने* शास्त्रीय पाठ्यक्रम का सूत्रपात किया है। इसके अन्तर्गत शास्त्रीय भाषाओं, दर्शन, ज्योतिष, गणित, व्याकरण, अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि विषयों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। यह पाठ्यक्रम विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम का ही एक रूप है। वर्तमान समय में सामान्य विद्यालयों में इस पाठ्यक्रम की कोई उपयोगिता नहीं मानी जा रही है।

प्रश्न g (v) दक्षता आधारित उपागम को बताइए।
उत्तर- दक्षता आधारित उपागम अधिगम की न्यूनतम दक्षता में तथा नैपुण्य अधिगम पर आधारित है। छात्रों में शैक्षिक उपलब्धि का स्तर सुधारने के लिए अधिगम के न्यूनतम स्तरों के निर्धारण की आवश्यकता अनुभूत की गई। इसका प्रमुख उद्देश्य था कि सभी बच्चों को बिना किसी जाति, धर्म, वंश, सम्प्रदाय, स्थान व लिंग भेद के अच्छी शिक्षा मिले। दूसरे शब्दों में छात्रों में शैक्षिक उपलब्धि के स्तर को सुधारने के लिए अधिगम के न्यूनतम स्तरों को निर्धारित करने की आवश्यकता, महसूस की गई। न्यूनतम अधिगम स्तर कार्यक्रम के मूल में शिक्षा की मौजूद विषमताओं को दूर करने व गुणवत्ता
को समता से जोड़ने की भावना निहित है।

अतः अधिगम के न्यूनतम स्तरों के क्षेत्र में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् ने यूनिसेफ की सहायता से 1978 में दो परियोजनाओं – ( 1 ) Primary Education Renewal तथा (2) Developmental Activities in Community Education and Particupation पर कार्य किया और ‘न्यूनतम अधिगम सातत्यक’ रेखांकित किये। इसमें उन अधिगम परिणामों का उल्लेख किया गया जिनकी प्राप्ति कक्षा 2, 3, 4 तथा 5 का अध्ययन पूरा करने वाले छात्रों से अपेक्षा की जा सकती थी। इस सातत्यक में वर्णित दक्षताओं के आधार पर प्राथमिक शिक्षा पाठ्यक्रम तकनीकीकरण परियोजना में निष्पत्ति परीक्षणों का विकास किया गया। 1986 में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् ने प्राथमिक स्तर पर अधिगम के न्यूनतम स्तर विषयक दस्तावेज तैयार किया।

शिक्षा के विकास के लिए दबे समिति ने अपना विचार दिया-

दबे समिति ने प्राथमिक कक्षाओं के लिए भाषा में निम्न दक्षताओं के रूप में न्यूनतम अधिगम स्तर निर्धारित किये हैं— 1. सुनना, 2. बोलना, 3. पढ़ना, 4. लिखना, 5. समझना व अवबोध, 6. कार्यात्मक व्याकरण, 7. स्व-अधिगम, 8. भाषा-प्रयोग, तथा 9. शब्दावली नियन्त्रण।

दबे समिति के अनुसार ही अधिगम दक्षता मानव शक्ति के विकास में क्रमिक होती है। बच्चा पहले बैठना सीखता है फिर खड़ा होना सीखता है, फिर चलना सीखता है। बालक में शिक्षा द्वारा तीन शक्तियों का विकास किया जाता है—बौद्धिक शक्ति, कौशल शक्ति व नैतिक शक्ति ।

प्रश्न g (vi) बाल-केन्द्रित पाठ्यक्रम की व्याख्या कीजिए।

उत्तर- बाल-केन्द्रित पाठ्यक्रम-इस प्रकार के पाठ्यक्रम का विकास शिक्षा में बढ़ती हुई मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप हुआ जिसके अन्तर्गत विषयों की अपेक्षा बालकों को मुख्य स्थान दिया जाता है। अतः इस प्रकार के पाठ्यक्रम का आयोजन भी प्रयोगवादी विचारधारा के अनुरूप बालक को केन्द्र मानकर किया जाता है। ऐसे पाठ्यक्रम का निर्माण बालक की विभिन्न अवस्थाओं की रुचियों, आवश्यकताओं, क्षमताओं तथा योग्यताओं के अनुसार किया जाता है जिससे उसके व्यक्तित्व का समुचित विकास हो सके। इस प्रकार के पाठ्यक्रम का सूत्रपात जॉन डीवी के लेबोरेटरी स्कूल से हुआ है। जेम्स एम. ली. ने बालकेन्द्रित पाठ्यक्रम को इस प्रकार परिभाषित किया है—“छात्र केन्द्रित पाठ्यक्रम वह है जो पूर्णतः और समग्र रूप में सीखने वाले में निहित है।”

प्रश्न g (vii) बाल-केन्द्रित पाठ्यक्रम की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर- बाल-केन्द्रित पाठ्यक्रम की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) इस पाठ्क्रम में बालकों की परिवर्तित आवश्यकताओं, रुचियों, अभिप्रायों, संवेगों आदि को आधार बनाया जाता है।

(ii) यह पाठ्यक्रम क्रियात्मक होने के कारण शिक्षार्थियों को उद्देश्यपूर्ण अनुभव भी प्रदान करता है।
(iii) यह बालकों पर सीखने का उत्तरदायित्व डालता है।
(iv) यह पाठ्यक्रम मनोविज्ञान की इस विचारधारा का भी समर्थन करता है कि यदि बालक की रुचियों एवं आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दिया जायेगा तो उसका समुचित विकास नहीं हो सकेगा।
(v) आधुनिक शिक्षण पद्धतियाँ जैसे-मॉण्टेसरी पद्धति, किण्डरगार्टन पद्धति आदि बाल- केन्द्रित पाठ्यक्रम की ही देन है।
(vi) यह पाठ्यक्रम प्रयोगवादी विचारधारा पर आधारित है।

(नवीन) बी.एड. द्वितीय वर्ष (तृतीय सेमेस्टर) : तृतीय प्रश्न-पत्र : ज्ञान व पाठ्यक्रम (303)

प्रश्न g (viii) क्रिया-केंद्रित पाठ्यक्रम।

उत्तर- क्रियाकेन्द्रित पाठ्यक्रम के अन्तर्गत विभिन्न कार्यों को विशेष स्थान दिया जाता तथा आज के मनोवैज्ञानिक तथा शिक्षाविद् भी इसकी प्रशंसा करते हैं। उनके अनुसार इस प्रकार का पाठ्यक्रम बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुरूप होता है क्योंकि क्रिया करना बालक का स्वाभाविक गुण है। बालक कोई न कोई क्रिया करता ही रहता है। वह शान्त तथा निष्क्रिय रूप में कठिनाई से ही बैठता है। बालक की इसी विशेषता के कारण जॉन डीवी किलपैट्रिक, मारिया मान्टेसरी तथा फ्रोबेल जैसे व्यावहारिक शिक्षाशास्त्रियों ने क्रिया-केन्द्रित पाठ्यक्रम को अपनी-अपनी शिक्षण प्रणालियों में अपनाया।

क्रिया केन्द्रित पाठ्यक्रम की परिभाषा देते हुए जॉन डीवी लिखते हैं, “क्रिया – केन्द्रित पाठ्यक्रम 1. बालक की क्रियाओं की सतत् प्रवाहित होने वाली धारा है जिससे व्यवस्थित विषयों में कोई व्यवधान
नहीं आता तथा जो बालकों की रुचियों तथा अनुभूत व्यक्तित्व आवश्यकताओं से उदित होती हैं।”

प्रश्न h (i) क्रिया-केंद्रित पाठ्यक्रम की विशेषताएँ बताइए ।

उत्तर- क्रिया-केंद्रित पाठ्यक्रम की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(i) इसमें सभी विषयों का समस्त ज्ञान केवल क्रियाओं के आधार पर अथवा अधिगम क्रियाओं के आधार पर प्राप्त किया जाता है।
(ii) यह बालकों की मानसिक प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर बनाया जाता है। अतः यह मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित होता है।
(iii) इसमें बालक स्वयं क्रिया करके सीखता है जिससे उसकी कल्पनाशक्ति एवं सृजनात्मकता में वृद्धि होती है।
(iv) यह छात्रों को आत्मानुभूति के अवसर देता है क्योंकि छात्र स्वयं करके वस्तु का निर्माण करते हैं। उनमें यह आत्म-गौरव भी विकसित होता है कि यह मैंने किया है।
(v) छात्रों से मिलकर क्रिया करने की प्रवृत्ति विकसित होती है जो अन्ततः सामाजिक विकास में सहायक होती है।
(vi) छात्रों में शारीरिक श्रम के प्रति सकारात्मकता की भावना विकसित होती है।
(vii) छात्रों में इस पाठ्यक्रम के द्वारा आत्मविश्वास की भावना आती है तथा अनुशासनहीनता की समस्या समाप्त हो जाती है।

महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ बी.एड नोट्स




प्रश्न h (ii) पाठ्यक्रम नियोजकों के लिए उपयोगी अधिगम सम्बन्धी सामान्य तथ्य।

उत्तर—विभिन्न मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर अधिगम सम्बन्धी जिन तथ्यों की पुष्टि हो चुकी है, उनमें से प्रमुख निम्न प्रकार हैं-

1. अधिगम निरन्तर रूप से जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है।
2. अधिगम शिक्षार्थी की परिपक्वता से सम्बन्धित होता है।
3.अधिगम बालक के शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास की दशाओं से प्रभावित होता है।
4. अधिगम समूह गुण वाली प्रक्रिया है। बालक एक साथ बहुत-सी बातें सीखता है। हम भले ही एक समय में किसी विशेष लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित रखें, किन्तु उसी समय वातावरण से हम अनेक दूसरी बातों को भी सीखते चलते हैं।
5. अधिगम में शिक्षकों की सक्रिय सहभागिता आवश्यक होती है
6. अधिगम अधिक प्रभावी तब होता है, जब बालकों को उसके लक्ष्य स्पष्ट हो ।
7. प्रभावशाली अधिगम के लिए अभिप्रेरणा का होना आवश्यक है।
8. अधिगम के परिणामों से शिक्षार्थी की किसी आवश्यकता की पूर्ति होती है तथा उसे सन्तोष मिलता है तब अधिगम की गति तेज हो जाती है।
9. अधिगम के लिए मुक्त वातावरण सहायक होता है।
10. अधिगम तत्परता शिक्षार्थी के पूर्व अनुभव, अभिरुचियों एवं अभिवृत्तियों पर निर्भर करता है, परन्तु यह पूर्ण रूप से शिक्षार्थी पर ही नहीं, बल्कि कुछ सीमा तक उस स्थिति पर भी निर्भर करती है जिसके प्रति उसे प्रतिक्रिया व्यक्त करनी होती है अर्थात् पाठ्यक्रम का अपना महत्त्व होता है।




प्रश्न h (iii) मस्तिष्क की विप्लव नीति तथा उसकी विशेषताएँ ।
अथवा
मानसिक उद्वेलन के लाभ बताइए।

उत्तर-मस्तिष्क की विप्लव नीति एक ऐसी नीति है जिसमें ऐसे साधन प्रयोग किए जाते हैं जो छात्रों के मस्तिष्क में ज्ञान प्राप्ति तथा चिन्तन के प्रति हलचल मचा देते हैं। इसमें छात्रों के समक्ष एक समस्या प्रस्तुत की जाती है जिस पर सभी छात्र स्वतन्त्रतापूर्वक विचार करते हैं, वार्तालाप तथा वाद- विवाद करते हैं। शिक्षक सभी विचारों को श्यामपट पर लिखता चला जाता है। वाद-विवाद और चिन्तन तथा वार्तालाप करते-करते एक ऐसा बिन्दु या अवस्था आ जाती है जब छात्र एकदम समस्या को हल कर देते हैं। मस्तिष्क विप्लव नीति छात्रों में चिन्तन विकसित करती है और उन्हें समस्या के विश्लेषण, संश्लेषण तथा मूल्यांकन में प्रशिक्षण प्रदान करती है |

विशेषताएँ

1. यह शैक्षिक और मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है।
2. यह भावात्मक तथा ज्ञानात्मक पक्षों के उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होती है। 3. छात्रों को चिन्तन तथा समस्या समाधान करने के क्षेत्र में उत्साहित करती है।
4. छात्रों की सृजनात्मक क्षमताओं का प्रयोग करती है।
5. सामूहिक चिन्तन तथा वार्तालाप इस विधि में अधिक मूल्यवान विचार प्रदान करते हैं।
6 यह छात्रों को स्वतंत्रतापूर्वक सोचने के लिए प्रेरित करती है।
7 यह शिक्षण की सृजनात्मक शिक्षण नीति है तथा मौलिक विचारों को बढ़ावा देने वाली है।

प्रश्न h (iv) वार्तालाप नीति को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-ली के अनुसार वार्तालाप “शैक्षिक समूह क्रिया है। इसमें छात्र सहयोगपूर्वक एक-दूसरे से किसी समस्या पर विचार करते हैं।” इस नीति में कोई एक विषय ले लिया जाता है और शिक्षक उस विषय पर छात्रों को वार्तालाप या वाद-विवाद करने के लिए प्रेरित करता है। यह नीति शिक्षण एवं छात्र में अन्तःप्रक्रिया के अवसर बढ़ाती है। इस विधि की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि छात्रों को अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिये। वार्तालाप नीति में सभी छात्रों को बोलने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिये किन्तु शिक्षक एक निरीक्षक तथा निर्देशक के रूप में काम करता रहता है। वार्तालाप नीतियाँ तीन प्रकार की होती हैं-

औपचारिक वार्तालाप

पूर्व निर्धारित कार्यक्रम तथा उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु औपचारिक वार्तालाप का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार के वार्तालाप के अपने निर्धारित नियम तथा सिद्धान्त होते हैं। यह शिक्षक और छात्रों के मध्य होता है।

अनौपचारिक वार्तालाप

इसमें निर्धारित नियम तथा सिद्धान्तों का प्रयोग नहीं होता है। दूसरे शब्दों में, अनौपचारिक

वार्तालाप में भाग लेने वाले किसी भी नियम से नहीं बँधे होते हैं। यह शिक्षक तथा छात्रों एवं छात्र-छात्र के मध्य हो सकता है।

शिक्षण बिन्दुओं पर वार्तालाप

वार्तालाप नीति के माध्यम से छात्रों के व्यवहार (उनके सम्प्रेषण, अभिवृत्तियों, मूल्यों, सामाजिक विकास आदि) में वांछित परिवर्तन लाया जाता है।

प्रश्न h (v) वार्तालाप विधि की विशेषताएँ व सीमाएँ।

उत्तर-

वार्तालाप विधि की विशेषताएँ

(1) इसमें गलत उपागमों को अनुत्साहित किया जाता है
(2) छात्रों में आत्मविश्वास जाग्रत होता है।
(3) छात्रों की अभिवृत्ति के विकास में सहायक है।
(4) छात्रों को ध्यानपूर्वक सुनने और उचित उत्तर देने के लिए प्रेरित करती है।
(5) शिक्षक तथा छात्र परस्पर निकट आते हैं और एक-दूसरे को भली-भाँति समझते हैं।
(6) ये छात्रों को सक्रिय बनाती है।
(7) छात्रों की सृजनात्मक विशेषताओं को बढ़ाती है।
(8) यह जनतान्त्रिक नीति है।
(9) इसमें सामाजिक-अधिगम के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं।
(10) इससे ज्ञानात्मक तथा भावात्मक पक्षों के उच्च उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है।

वार्तालाप विधि की सीमाएँ

(1) सभी छात्र समान रूप से बोल नहीं पाते।
(2) छात्रों में कभी-कभी ईर्ष्या तथा स्पर्द्धा जगा देती है
(3) छात्र कभी-कभी विषय से काफी दूर चले जाते हैं।
(4) अनावश्यक आलोचना या बाल की खाल निकालने वाले लोग इसके उद्देश्य को नष्ट कर सकते हैं।

प्रश्न h (vi) वाद-विवाद विधि से आप क्या समझते हैं? इसकी परिभाषा लिखिए।

उत्तर-आधुनिक शैक्षिक विचारधारा के अनुसार, बालक को निष्क्रिय श्रोता नहीं माना जाता है वरन् उसको सीखने की प्रक्रिया में सक्रिय बनाये रखने पर बल दिया जाता है। बालक जिस ज्ञान को क्रिया करके प्राप्त करता है वह स्थायी रहता है। बालक को सक्रिय बनाये रखने के लिए विभिन्न क्रियात्मक शिक्षण-विधियों का प्रयोग किया जाता है। उनमें से एक विचार-विमर्श या वाद-विवाद विधि हैं। यह शिक्षण की वह पद्धति है जिसमें बालक तथा शिक्षक मिल-जुलकर किसी प्रकरण, प्रश्न या समस्या के सम्बन्ध में स्वतन्त्रतापूर्वक सामूहिक वातावरण में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। इस पद्धति के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए नीचे कुछ परिभाषाएँ दी जा रही हैं-

1. रिस्क के अनुसार, “विचार-विमर्श का अर्थ है-अध्ययन की जाने वाली समस्या का प्रकरण में निहित सम्बन्धों का विचारशील विवेचन।”
2. जेम्स एम. ली के अनुसार, “विचार-विमर्श एक शैक्षिक सामूहिक क्रिया है जिसमें शिक्षक तथा छात्र सहयोगी ढंग से किसी समस्या या प्रकरण पर बातचीत करते हैं।””
3. सिम्पसन व योकम के अनुसार, “विचार-विमर्श बातचीत का एक विशिष्ट स्वरूप है। इसमें सामान्य बातचीत की अपेक्षा अधिक विस्तृत एवं विवेकयुक्त विचारों का आदान-प्रदान होता है। सामान्यतः विचार-विमर्श में महत्त्वपूर्ण विचारों तथा समस्याओं को सम्मिलित किया जाता है।”

महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ बी.एड नोट्स

प्रश्न h (vii) वाद-विवाद विधि के प्रकार बताइए।

उत्तर- वाद-विवाद विधि के प्रकार निम्नलिखित हैं-

1. सार्वजनिक वाद-
विवाद- इसमें जन-साधारण को प्रभावित करने वाली समस्याओं पर विचार-विमर्श किया जाता है। इनका आयोजन निम्नलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है-

(i) जन-साधारण के मनोरंजन हेतु ।
(ii) सूचनाओं तथा तथ्यों को प्रदान करने के लिए।
(iii) सामाजिक मूल्यों के निर्धारण के लिए।

इस प्रकार के वाद-विवाद दूरदर्शन पर प्रायः आते रहते हैं। इनके प्रमुख विषय होते हैं- बेरोजगारी की समस्या, महँगाई की समस्या आदि।

2. शैक्षिक वाद-विवाद-
इस प्रकार के वाद-विवादों द्वारा छात्रों की सूचनाओं तथा तथ्यों को बोधगम्य कराया जाता है। ये वाद-विवाद निम्नलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आयोजित किये जाते हैं-

(i) समस्या का समाधान खोजने के लिए।
(ii) सिद्धान्तों तथा अवधारणाओं को बोधगम्य बनाने हेतु ।
(iii) सूचनाओं तथा तथ्यों को प्रदान करने के लिए।

सामूहिक वाद-विवाद में निम्नलिखित चार प्रकार की भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं-

1. अनुदेशक-
अनुदेशक वाद-विवाद की सम्पूर्ण व्यवस्था करता है। वह इसका पूर्वाभ्यास भी कराता है।

2. अध्यक्ष –
अध्यक्ष की भूमिका वाद-विवाद के समय होती है। वह वाद-विवाद का संचालन करता है। उसको प्रकरण के सम्बन्ध में विशेषज्ञ होना चाहिए।

3. समूह के सदस्य –
इनकी संख्या 4 से 10 तक होती है। ये सदस्य अर्द्ध-गोलाकार स्थिति में अपना स्थान ग्रहण करते हैं। इनके मध्य में अध्यक्ष का स्थान होता है। ये सदस्य प्रकरण के विभिन्न बिंदुओं पर प्रतिक्रिया करते हैं।

4. श्रोतागण — श्रोतागण वाद-विवाद की समाप्ति पर प्रश्न पूछते हैं और अपना दृष्टिकोण भी प्रस्तुत
करते हैं। सदस्यगण उनके प्रश्नों के उत्तर देते हैं। अन्त में, अध्यक्ष वाद-विवाद के निष्कर्षों को संक्षेप में प्रस्तुत करता है।




प्रश्न h (viii) उदाहरण विधि से आप क्या समझते हैं?

उत्तर-उदाहरण बालक की विचार-शक्ति एवं कल्पना को जाग्रत कर उसके मानसिक विकास के प्रति सहायक होते हैं। उदाहरणों द्वारा अमूर्त विषय को मूर्त बनाया जाता है। इसके द्वारा बालकों के मस्तिष्क पर ज्ञान की अमिट छाप पड़ जाती है। वह विषय के विविध पक्षों का पारस्परिक सम्बन्ध समझने में असमर्थ होता है। पिनसेण्ट के मतानुसार, “अच्छे उदाहरण दुरूह कथन को सजीव एवं सरल बना देते हैं।” तात्पर्य यह है कि उदाहरण विषय की क्लिष्टता को कम करते हैं। इनमें बालक के प्रत्यक्ष अनुभवों से सम्बन्ध होने के कारण विषय सरल तथा बोधगम्य बन जाता है। आमतौर से जब हम कोई गूढ़ बात कहते हैं तो उसे स्पष्ट बनाने के लिए उदाहरणों का प्रयोग करते हैं। शिक्षा में उदाहरणों का प्रयोग करना एक कला है। विद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले विषयों के शिक्षण में इनका प्रयोग आवश्यक होता है। संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि पाठ्य-वस्तु की स्पष्टता, रोचकता, बोधगम्यता एवं मूर्तता की दृष्टि से उदाहरणों का प्रयोग बड़ा महत्त्वपूर्ण है।

नवीन बी. एंड. द्वितीय वर्ष (तृतीय सेमेस्टर) : तृतीय प्रश्न-पत्र : ज्ञान व पाठ्यक्रम (303)




प्रश्न h (ix) समस्या-आधारित पाठ्यक्रम क्या है? इसके गुण-दोष बताइए।
उत्तर- आवश्यकता -आधारित पाठ्यक्रम की बहुत अधिक कमियों के कारण उसे अपनाने में बहुत कम रुचि दिखलाई गई। इन कमियों को दूर करने के उद्देश्य से बालकों की समस्याओं को नियन्त्रित करने की योजना बनाई गई। इस योजना के अन्तर्गत सम्बन्धित छात्रों द्वारा अनुभूत समस्याओं को नियन्त्रित करके, उसके आधार पर पाठ्यक्रम को नियोजित करने के प्रयास किये जाते. हैं। इसीलिए इंसे नियन्त्रित समस्या आधारित पाठ्यक्रम भी कहा जाता है।

विशेषताएँ- इस प्रकार के पाठ्यक्रम की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

(1) इसमें कोई निर्धारित अन्तर्वस्तु न होने के कारण शिक्षक स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सकता है
(2) इस पाठ्यक्रम के द्वारा व्यापक तथा मूलभूत लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकती है
(3) इस पाठ्यक्रम में वास्तविक निर्देशन प्रदान करना सम्भव होता है
(4) इस पाठ्यक्रम में अनावश्यक विषय-वस्तु को हटाया जा सकता है।
(5) इस पाठ्यक्रम में अधिगम स्वाभाविक ढंग से होता है।
(6) इस पाठ्यक्रम में छात्र अधिक सक्रिय रहते हैं
(7) इस पाठ्यक्रम में आधुनिकतम कार्य विधियाँ अपनाई जा सकती हैं।

सीमाएँ—इस पाठ्यक्रम की प्रमुख सीमाएँ निम्न प्रकार हैं-

(1) इस पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित अध्यापकों की आवश्यकता होती है।

(2) अधिकांश विद्वान अपरिपक्व बालकों द्वारा अनुभूत समस्याओं को ठोस आधार मानना उपयुक्त नहीं समझते उनके अनुसार यह योजना गाड़ी को घोड़े के सामने रखने जैसी लगती है।

(3) इस योजना के क्रियान्वयन में प्रायः यह देखने में आता है कि क्रियाएँ तो अवश्य अधिक हो जाती हैं, किन्तु वही परम्परागत व विषयगत शिक्षण चलता रहता है।

प्रश्न i (i) उदाहरण विधि के प्रकार बताइए।

उत्तर- उदाहरण मुख्यतः निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं-

(i) शाब्दिक उदाहरण जैसे-दृष्टान्त, कहानी, लोकोक्ति, नीति-श्लोक आदि।
(ii) प्रदर्शनात्मक उदाहरण जैसे—मानचित्र, रेखाचित्र, ग्लोब, मॉडल, चार्ट तथा ग्राफ आदि। शाब्दिक उदाहरण में भाषा का प्रयोग आवश्यक है; अतः वे ही अध्यापक इसका प्रयोग कुशलतापूर्वक कर सकते हैं जिनका भाषा पर अधिकार हो। प्रदर्शनात्मक उदाहरणों के प्रयोग में चित्रकला तथा स्केचिंग आदि की दक्षता अपेक्षित है। दोनों ही प्रकार के उदाहरण बालकों की महत्त्वपूर्ण ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित हैं। शाब्दिक उदाहरण में सुनने तथा समझने की क्रिया तथा प्रदर्शनात्मक उदाहरण में देखने तथा समझने की क्रिया अधिक आवश्यक है। इन उदाहरणों के प्रयोग से सुनने तथा देखने की क्रियाओं के बारे में उचित प्रशिक्षण प्राप्त होता है।

उदाहरणों को प्रभावोत्पादक ढंग से प्रयोग करने के निमित्त कुछ विशेष बातों पर ध्यान देना आवश्यक है, जो निम्नवत् हैं-

(i) पाठ में उदाहरणों का प्रयोग उचित स्थल पर एवं उचित भाषा में करना चाहिए।
(ii) शाब्दिक उदाहरणों में सरल से कठिन की ओर, ज्ञात से अज्ञात की ओर तथा स्थूल से सूक्ष्म की ओर के शिक्षण सूत्रों का प्रयोग आवश्यक है।
(iii) हमेशा एक ही प्रकार के उदाहरण न दिये जाएँ। उदाहरणों में विविधता लाने का प्रयास करना चाहिए।
(iv) उदाहरणों की सजीवता एवं स्पष्टता पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए।
(v) ऐसे उदाहरण जिनके द्वारा व्यक्तिगत आक्षेप की सम्भावना हो, कभी नहीं प्रयुक्त करने चाहिए।
(vi) उदाहरण की भाषा सरल, शुद्ध तथा स्पष्ट होनी चाहिए।
(vii) विषय की व्याख्या करने की दृष्टि से उदाहरणों का उपयुक्त होना परमावश्यक है।
(viii) उदाहरणों को बालक के पूर्ण ज्ञान से सम्बन्धित होना आवश्यक है
(ix) अमूर्त या क्लिष्ट विचारों को रखने के तुरन्त बाद उदाहरण दिये जाने चाहिए जिससे बोधगम्यता बनी रहे।
(x) शाब्दिक तथा प्रदर्शनात्मक उदाहरणों का प्रयोग हेर-फेर के साथ होना आवश्यक है।

प्रश्न i (ii) पाठ्यचर्या विकास को प्रभावित करने वाले तत्व / कारक बताइए।

उत्तर- पाठ्यक्रम विकास को प्रभावित करने वाले घटक निम्नलिखित हैं-
(1) सामाजिक घटक (2) शैक्षिक घटक ।

पाठ्यक्रम का सम्पादन शैक्षिक तथा सामाजिक परिस्थितियों में किया जाता है। इसलिए शैक्षिक तथा सामाजिक घटक पाठ्यक्रम को प्रभावित करते हैं। यहाँ पर पाठ्यक्रम को प्रभावित करने वाले घटकों का विवेचन निम्न रूप में किया गया है-

(i) शिक्षा व्यवस्था-शिक्षा के इतिहास से यह विदित होता है कि अतीत काल से ही शिक्षा व्यवस्था और पाठ्यक्रम का गहन सम्बन्ध रहा है और एक-दूसरे को प्रभावित करते रहे हैं। पाठ्यक्रम तो प्रायः लचीला तथा परिवर्तनशील रहा है। छोटे बालकों का पाठ्यक्रम अनुभव केन्द्रित रहा है। माध्यमिक स्तर विषय केन्द्रित रहा है। शिक्षा व्यवस्था के बदलने के साथ पाठ्यक्रम का प्रारूप भी बदल जाता है।

(i i) परीक्षा पद्धति-परीक्षा प्रणाली पाठ्यक्रम को प्रभावित करती है। निबन्धात्मक परीक्षा के पाठ्यक्रम का स्वरूप वस्तुनिष्ठ परीक्षा से बिल्कुल भिन्न होता है। वस्तुनिष्ठ परीक्षा में पाठ्यवस्तु के सूक्ष्म पाठ्यवस्तु पर ही प्रश्न पूछे जाते हैं।

छात्रों को अध्ययन हम उनके स्मरण के विकास के लिए करवाते हैं तथा उच्च स्तर के छात्रों को सौंदर्यानुभूति के विकास के लिए करवाते हैं। अतः अधिगम परिस्थितियों को विशिष्ट उद्देश्यों के रूप में समझना आवश्यक होता है।

ब्लूम ने भी अनुदेशनात्मक उद्देश्यों का वर्णन निम्न तीन प्रकार से किया है— (i) ज्ञानात्मक पक्ष, (ii) भावात्मक पक्ष तथा (iii) क्रियात्मक पक्ष ।

विद्यालयों के शिक्षण विषयों की पाठ्यवस्तु में शब्दावली, तथ्य, नियम, उपाय, साधन, विधियाँ प्रत्यय, सिद्धांत तथा सामान्यीकरण ही होते हैं। विज्ञान की पाठ्यवस्तु में नियम, विधियाँ तथा सिद्धान्त होते हैं। भाषा की पाठ्यवस्तु में शब्दावी, साधन, प्रत्यय, नियम होते हैं। इस प्रकार शिक्षण विषयों की सहायता से ज्ञान, उद्देश्य से मूल्यांकन उद्देश्यों तक की प्राप्ति की जाती है और इस प्रकार ज्ञानात्मक पक्ष का विकास होता है। ज्ञानात्मक पक्ष का ज्ञान होने के बाद भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्ष का ज्ञान भी होता है।

प्रश्न : (iii) ‘पाठ्यक्रम एक उत्पाद है’ इस कथन की व्याख्या कीजिए।

उत्तर- पाठ्यक्रम को एक उत्पाद के रूप में लेने का तात्पर्य इसे उद्देश्य या मूल्यांकन पर आधारित प्रतिमान के रूप में विकसित करने से है। यह प्रतिमान इस बात का ज्ञान कराता है कि सम्पूर्ण अधिगम को इस तथ्य पर परिभाषित किया जाना चाहिए कि उस पाठ्यक्रम को पढ़ने के बाद छात्र क्या जानने योग्य बन सकेंगे और इसका आकलन अधिगम उद्देश्यों के रूप में किया जा सकता है। पाठ्यक्रम के इस प्रतिमान का आधार व्यावहारिक मनोविज्ञान है जिसमें शैक्षिक उद्देश्यों पर अधिक बल देते हुए पाठ्यक्रम के प्रारूप को विकसित किया जाता है। उद्देश्यों की प्राप्ति छात्रों के अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन के रूप में की जाती है, व्यवहार परिवर्तन का ज्ञान मूल्यांकन से होता है | अतः इसे मूल्यांकन प्रतिमान भी कह सकते हैं।

पाठ्यक्रम को प्रायः ज्ञान को हस्तान्तरित करने के एक ढाँचे के रूप में स्वीकार किया जाता है। सबसे पहले अरस्तू के प्रभाव में पाठ्यक्रम के सिद्धान्त को व्यवहार में लाया गया। उन्होंने ज्ञान को तीन अनुशासनों में बाँटा था-

सैद्धान्तिक – व्यावहारिक – उत्पादक
पाठ्यवस्तु – प्रक्रिया – उत्पाद

बी0 एस0 ब्लूम (1962) ने पाठ्यक्रम को एक उत्पाद की दृष्टि से देखते हुए व शिक्षा में सुधार हेत शिक्षण व परीक्षण की क्रियाओं को उद्देश्य केन्द्रित बनाने पर बल दिया तथा कहा कि शिक्षण में जिन उद्देश्यों को महत्त्व दिया जाये, उन्हीं उद्देश्यों के लिए परीक्षण भी किया जाए। इस दृष्टि में पाठ्यक्रम निर्माण हेतु निम्नांकित सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

(i) शिक्षण उद्देश्यों का प्रतिपादन, (ii) इन उद्देश्यों के आधार पर पाठ्यक्रम का निर्माण, (iii) उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सीखने के अनुभवों का सृजन, (iv) बालकों में होने वाले व्यवहार परिवर्तनों का मूल्यांकन ।

प्रश्न i (iv) पाठ्यक्रम एक प्रक्रिया है।

उत्तर- पाठ्यक्रम का प्रक्रिया प्रतिमान-

पाठ्यक्रम के प्रक्रिया प्रतिमान में प्रक्रिया को प्राथमिकता दी जाती है। इसमें उद्देश्यों को परिभाषित नहीं किया जाता है बल्कि पाठ्यक्रम के प्रारूप को विकसित करने में पाठ्यवस्तु की सहायता से मानवीय गुणों को विकसित करने का प्रयास किया जाता है। इसीलिए इस प्रकार के पाठ्यक्रम को मानववादी पाठ्यक्रम भी कहा जाता है। चूँकि इसमें प्रक्रिया को महत्त्व दिया जाता है तथा शिक्षा-प्रक्रिया शिक्षक द्वारा ही सम्पादित की जाती है। अतः इस प्रतिमान में शिक्षक की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।

पाठ्यक्रम का उद्देश्य प्रतिमान व्यवहार मनोविज्ञान पर आधारित होता है जबकि ‘प्रक्रिया प्रतिमान’ का प्रारूप ‘मानव व्यवस्था सिद्धान्त’ पर आधारित होता है। ‘मानव व्यवस्था’ में परिवर्तन के साथ-साथ शिक्षा का पाठ्यक्रम भी बदलता रहता है। मानव व्यवस्था का परम्परागत सिद्धान्त कार्य केन्द्रित है तथा सम्बन्ध सिद्धान्त सम्बन्ध केन्द्रित है। मानव व्यवस्था का आधुनिक सिद्धान्त कार्य एवं सम्बन्ध केन्द्रित है।

पाठ्यक्रम का प्रक्रिया प्रतिमान यह प्रकल्पित करता है कि विषय-वस्तु व अधिगम क्रियाओं का एक आन्तरिक मूल्य है और वे केवल अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन नहीं है और कि व्यावहारिक उद्देश्यों को त्रिआयामी संदर्भों में व्यक्त करना चाहिए। स्टेनहाउस के अनुसार शिक्षा की चार आधारभूत प्रक्रियाएँ हैं— (i) प्रशिक्षण (कौशल अर्जन), (ii) अनुदेशन (सूचना अर्जन), (iii) प्रारंभीकरण समाजीकरण व सामाजिक मानकों व मूल्यों के परिचित होने तक, (iv) आगमन (चिन्तन व समस्या समाधान) ।

पाठ्यक्रम के प्रक्रिया आधारित प्रतिमान को निम्न दो प्रतिमानों जिन्हें सेलर व एलैक्जेण्डर ने प्रतिपादित किया है, के अनुसार समझा जा सकता है। इसे निम्नांकित चित्र द्वारा समझाया जा सकता है-

प्रक्रिया प्रतिमान
पाठ्यक्रम विचार
मूल्यांकन —- विषय विधि
परिणाम

प्रश्न i (v) पाठ्यक्रम निर्माण हेतु शैक्षिक उद्देश्यों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर – वर्तमान समय में पाठ्यक्रम की प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से इसके उद्देश्यों को स्पष्ट रूप से निर्धारित करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इसके पश्चात् ही उपयुक्त शैक्षिक कार्यक्रमों का निर्धारण हो पाता है व इसे क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत करके इसकी प्राथमिकताओं को सुनिश्चित करने में सहायता मिलती है। अतः पाठ्यक्रम का निर्माण करने से पूर्व सभी सम्बद्ध व्यक्तियों को उन लक्ष्यों या उद्देश्यों के बारे में निश्चित जानकारी होनी चाहिए जिसकी प्राप्ति वे पाठ्यक्रम के द्वारा करना चाहते हैं।

कुछ विद्वानों का यह मानना है कि लक्ष्यों/उद्देश्यों के निर्धारण का कार्य समाज के शिक्षा नीति- निर्धारकों का है न कि पाठ्यक्रम निर्माताओं का। परन्तु उनके द्वारा बनाये गये लक्ष्यों से शिक्षण कार्य में प्रायः स्पष्टता का अभव होता है। अतः सामान्य लक्ष्यों को कक्षा में व्यावहारिक उद्देश्यों के रूप में परिवर्तित करना पाठ्यक्रम की संरचना का सबसे कठिन पक्ष होता है। अतः शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण का दायित्व भी पाठ्यक्रम निर्माताओं का ही होता है। अतः शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण से पूर्व इनकी कुछ विशेषताओं पर दृष्टि डालनी आवश्यक है-

(a) शैक्षिक उद्देश्य किसी अन्तिम लक्ष्य हेतु की जाने वाली क्रिया को गति प्रदान करते हैं।
(b) इसके अन्तर्गत किसी क्रिया द्वारा नियोजित परिवर्तन लाया जाता है।
(c) इनकी सहायता से क्रियाओं की व्यवस्था की जाती है

अतः शैक्षिक उद्देश्यों से तात्पर्य छात्रों में होने वाले इस परिवर्तन से है जो शैक्षिक क्रियाओं द्वारा नियोजित रूप में लाया जाता है। बी0एस0ब्लूम ने शैक्षिक उद्देश्य को निम्न रूप में परिभाषित करते हुए इसके अर्थ को अधिक स्पष्ट किया है—

“शैक्षिक उद्देश्यों की सहायता से केवल पाठ्यक्रम की ही रचना तथा अनुदेशन के लिए निर्देशन ही नहीं दिया जाता बल्कि ये मूल्यांकन की प्रविधियों के विशिष्टीकरण में भी सहायक होते हैं।”

प्रश्न i (vi) शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण के मापदण्ड का वर्णन कीजिए।

उत्तर-किसी समाज के शिक्षा के उद्देश्य, मुख्य रूप से उसके व्यक्तियों के जीवन दर्शन पर आधारित होते हैं। समाज की विशेष संरचना, उसकी सभ्यता एवं संस्कृति तथा धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति का भी शिक्षा के उद्देश्यों पर प्रभाव पड़ता है। मानव की स्वयं की प्रकृति भी शिक्षा के स्वरूप को प्रभावित करती है। शिक्षा युग के प्रभाव से भी अछूत नहीं रह सकती है। वर्तमान युग विज्ञान का युग है। अतः इसका भी शिक्षा के उद्देश्यों पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। निष्कर्ष यह है कि शिक्षा के उद्देश्यों का मनुष्य के जीवन और समाज के आदर्शों से गहरा सम्बन्ध होता है। इसीलिए शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में इनका सर्वाधिक महत्त्व होना चाहिए।

डी.के. ह्वीलर ने अपनी पुस्तक ‘करीक्युलम प्रोसेस’ में आधुनिकतम स्थिति और दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण के कुछ महत्त्वपूर्ण मानदण्ड प्रस्तावित किये हैं। व्हीलर द्वारा प्रस्तावित मानदण्ड के अनुसार शैक्षिक उद्देश्यों को पाँच दृष्टियों से सार्थक होना चाहिए-

(i) मानवीय अधिकारों से तादात्म्य, (ii) लोकतान्त्रिक दृष्टि से अनुकूलित, (iii) सामाजिक दृष्टि से सार्थक, (iv) वैयक्तिक आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए प्रवृत्त, (v) सन्तुलन ।

प्रश्न ; (vii) शैक्षिक उद्देश्य में सामाजिक सार्थकता का वर्णन कीजिए।

उत्तर- शैक्षिक उद्देश्य, लोकतान्त्रिक दृष्टि से अनुकूलित होने चाहिए किन्तु इससे ही उनकी सामाजिक सार्थकता सिद्ध नहीं होती है। परम्परागत एवं स्थिर समाज में शिक्षा के उद्देश्य वर्तमान मूल्यों को परिलक्षित करने के साथ-साथ भविष्य के लिए भी वैध हो सकते हैं, किन्तु परिवर्तनशील समाज में पूर्व-निर्धारित शैक्षिक लक्ष्यों का वर्तमान समय में सार्थक होना आवश्यक नहीं होता है। हो सकता है। कि शिक्षा व्यवस्था ऐसी आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास कर रही हो जो वास्तव में वर्तमान में विद्यमान ही नहीं है और कुछ अन्य नवीन आवश्यकताएँ उत्पन्न हो गई हों जिनकी पूर्ति शिक्षा के द्वारा नहीं हो पा रही हो। अतः यह आवश्यक है कि शैक्षिक उद्देश्यों की वर्तमान सार्थकता के साथ- साथ उनमें भावी आवश्यकताओं के पूर्वाभास का भी समावेश किया जाता रहना चाहिए।

पाठ्यक्रम के सतत् संशोधन एवं संवर्द्धन के द्वारा बालकों द्वारा प्राप्त किये जा रहे ज्ञान की के बारे में आश्वस्त तो हुआ जा सकता है किन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है। वर्तमान समयानुकूलता समाज में परिवर्तन की गति इतनी अधिक तीव्र है कि दो पीढ़ियों में तो बहुत अधिक अन्तर आ ही जाता है, एक ही पीढ़ी के विभिन्न चरणों में कई नवीन परिवर्तनों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए वह शिक्षा जो वर्तमान शिक्षक को तैयार करने का साधन थी, अब सम्भवतः उसके द्वारा पढ़ाये जाने वाले बालकों के लिए प्रभावी नहीं हो पा रही है।

प्रश्न i (viii) शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में संतुलन की व्याख्या कीजिए।

उत्तर-सन्तुलन से तात्पर्य शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण करते समय पूर्ण-वर्णित चारों बिन्दुओं पर समुचित बल प्रदान करना है अर्थात् किसी एक बिन्दु पर आवश्यकता से अधिक बल नहीं दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, विगत कुछ वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि शिक्षा में सूचनात्मक ज्ञान पर बहुत अधिक तथा एकांगी भाव से बल दिया जा रहा है जो कि त्रुटिपूर्ण है। शैक्षिक उद्देश्यों की किसी भी सूची को तभी सन्तोषप्रद कहा जा सकता है जब वह सभी पक्षों की दृष्टि से सन्तुलित हो । अतः पाठ्यक्रम निर्माताओं को शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में सभी आवश्यक पक्षों को ध्यान में रखते हुए उनमें सन्तुलन बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए।

प्रश्न i (ix) शैक्षिक पाठ्यक्रम निर्धारण में ब्लूम के वर्गीकरण के महत्त्व को बताइए।

उत्तर-यद्यपि पाठ्यक्रम के क्षेत्र में सम्बन्धित सभी व्यक्ति ब्लूम एवं उसके सहयोगियों द्वारा प्रस्तावित शैक्षिक उद्देश्यों के सूक्ष्म वर्गीकरण से पूर्णतः सहमत नहीं हैं, किन्तु वे सभी लोग निश्चित एवं स्पष्ट उद्देश्यों की अनिवार्यता को स्वीकार करते हैं। इसी दृष्टि से इस वर्गीकरण की उपयोगिता असंदिग्ध है। पाठ्यक्रम नियोजन की दृष्टि से इस वर्गीकरण के प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं-

(i) यह वर्गीकरण ‘सरल से जटिल की ओर’ के सिद्धान्त पर आधारित है। इसलिए यह प्रणाली उस स्तर का समुचित ज्ञान प्राप्त करने में बहुत सहायक है जिस पर कोई सीखने वाला कार्य कर रहा होता है।
(ii) सीखने वाले के स्तर का सही ज्ञान होने पर मूल्यांकन की प्रविधियाँ, उपकरणों आदि को निश्चित करने तथा उन्हें तैयार करने में भी सुविधा होती है। इसके साथ ही उनका वर्गीकरण भी सरलता एवं स्पष्टता से किया जा सकता है। इस प्रकार इससे मूल्यांकन को उद्देश्य-केन्द्रित बनाने में सहायता होती है।
(iii) इस वर्गीकरण की सहायता से मूल्यांकन विधियों की वैधता की जाँच भी सरलता से की जा सकती है।
(iv) तर्क-आधारित होने के कारण, इस वर्गीकरण से अध्ययन सामग्री तथा शिक्षण-अधिगम स्थितियों के क्रमिक नियोजन में बहुत सहायता मिलती है।
(v) इस वर्गीकरण से उचित परीक्षा-स्थितियों के चयन में भी सुविधा होती है।
(vi) इस वर्गीकरण में शिक्षण एवं मूल्यांकन दोनों के समस्त पक्षों पर समुचित ध्यान देने के कारण विद्यार्थियों के सर्वांगीण एवं सन्तुलित विकास के सम्बन्ध में निश्चित हुआ जा सकता है।
(vii) इस वर्गीकरण से पाठ्य-पुस्तकों तथा अन्य पाठ्य-सामग्री के निर्माण, विश्लेषण, मूल्यांकन, संशोधन एवं संवर्द्धन आदि में बहुत अधिक सुविधा रहती है।

प्रश्न i (x) पाठ्यचर्या के मूल्यांकन के स्तर बताइए।

उत्तर- पाठ्यचर्या के मूल्यांकन के तीन प्रमुख स्तर निम्नलिखित हैं-
(i) उद्देश्य, (ii) गतिविधियाँ, (iii) मूल्यांकन ।

अर्थात् सबसे पहले उद्देश्य बनायें, फिर उससे सम्बन्धित गतिविधियाँ करवाई जाती हैं तत्पश्चात पाठ्यचर्या का मूल्यांकन किया जायेगा। किसी भी पाठ्यचर्या के मूल्यांकन की कुछ विशेषतायें होती हैं, जो कि निम्नलिखित हैं-

(i) पाठ्यचर्या के उद्देश्य के साथ उचित संगति स्थापित करना, (ii) पर्याप्त निदानात्मक मूल्यांकन, (iii) व्यापकता, (iv) वैधता, (v) निरन्तरता।

पाठ्यचर्या विकास करने व उन्हें लागू करने हेतु विभिन्न स्तरों पर वांछित सभी प्रमाण एकत्र करने हेतु अनेक तकनीकों व साधनों की आवश्यकता होती है। साथ ही हम यह भी जानते हैं कि मूल्यांकन दो प्रकार का होता है- (a) छात्र मूल्यांकन, (b) पाठ्यचर्या मूल्यांकन ।

प्रश्न i (xi) अधिगम केन्द्रित पाठ्यक्रम क्या है? उदाहरण के साथ वर्णन कीजिए।

उत्तर- पाठ्यक्रम नियोजकों के लिए अधिगम प्रक्रिया के सैद्धान्तिक पक्ष की अपेक्षा इसका व्यावहारिक एवं शैक्षिक पक्ष अधिक महत्त्वपूर्ण है, किन्तु मनोविज्ञान के विकास के साथ ही अधिगम मनोविज्ञान भी बहुत अधिक विकसित हो चुका है। अधिगम के क्षेत्र में निरन्तर अनुसन्धान एवं नये प्रयोग किये जा रहे हैं। अतः अधिगम के विभिन्न नये सिद्धान्त प्रकाश में आये हैं। सैद्धान्तिक पक्ष के गहरे ज्ञान की विवशता न होने के कारण यहाँ उनका विस्तृत विवेचन करना अभीष्ट नहीं लगता, परन्तु एक शैक्षिक कार्यक्रम के नियोजनकर्त्ता को उनके सामान्य ज्ञान का अभाव कठिनाई भी पैदा करता है। अतः यहाँ पर उनकी संक्षिप्त चर्चा करना समीचीन प्रतीत होता है।

अधिगम —अधिगम अथवा सीखने का अर्थ है कुछ क्रियाओं को एक साथ सम्पन्न करके “सम्पूर्ण रूप से किसी अनुभव को प्राप्त करना। यह सम्पूर्ण अनुभव अनेक क्रियाओं एवं उपक्रियाओं से प्राप्त अनुभवों से बनता है। अधिगम के सम्पूर्ण रूप का विश्लेषण निम्नलिखित बिन्दुओं के रूप में किया जा सकता है-

(i) उद्देश्य – प्रत्येक अधिगम के पीछे कोई-न-कोई उद्देश्य होता है।
(ii) अभिप्रेरणा- मनुष्य जो भी कार्य करता है, वह किसी-न-किसी अभिप्रेरणा से संचालित होता है। अभिप्रेरणा ही उद्देश्य की ओर ले जाने का कार्य करती है।
(iii) उत्तेजना या उद्दीपन-उत्तेजना क्रिया के सम्पादन में सहायक होती है। बाह्य वातावरण, साधनं तथ्य आदि कार्य करने के प्रति उत्तेजना उत्पन्न करते हैं।
(iv) प्रत्यक्षीकरण- प्रत्यक्षीकरण पूर्व अनुभव के आधार पर संवेदना की व्याख्या करता है। क्रिया की सम्पन्नता के लिए प्रत्यक्ष ज्ञान आवश्यक होता है।
(v) पुनर्बलन- पुनर्बलन के अन्तर्गत वे सभी क्रियाएँ एवं तथ्य आ जाते हैं जिनके वशीभूत होकर छात्र को क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। अध्यापक का आदेश, स्वयं की इच्छा तथा सामाजिक मर्यादा आदि के प्रभाव पुनर्बलन के अन्तर्गत आते हैं।
(vi) संगठन – पूर्व ज्ञान और नवीन ज्ञान में सम्बन्ध स्थापित करने के लिए अधिगम क्रिया के विभिन्न अंगों को संगठित करना होता है।

नहीन) बी.एड. द्वितीय वर्ष (तृतीय सेमेस्टर): तृतीय प्रश्न-पत्र : ज्ञान व पाठ्यक्रम (303)

प्रश्न i (xii) एक अच्छे पाठ्यक्रम की क्या विशेषताएँ होनी चाहिए?

उत्तर- एक आदर्श पाठ्यक्रम में निम्न गुण पाये जाते हैं-

1. प्रेरणा-
नागरिकशास्त्र के अच्छे पाठ्यक्रम छात्रों को प्रेरणा करने वाला होना चाहिए। पाठ्यक्रम ऐसा हो जिससे छात्र स्वयं पाठ्यक्रम की क्रियाओं को सीखने हेतु प्रेरित हों।

2. लचीलापन –
एक अच्छे पाठ्यक्रम में लचीलेपन का गुण होना जरूरी है। इसके अभाव में छात्रों की रुचियों, योग्यताओं, क्षमताओं के अनुसार पाठ्यक्रम में परिवर्तन करना सम्भव नहीं होता है। अतः पाठ्यक्रम को इतना लचीला होना चाहिए कि उसमें आवश्यकतानुसार थोड़ा बहुत परिवर्तन किया जा सके।

3. रुचि के अनुकूल –
एक अच्छे पाठ्यक्रम को छात्रों की रुचि के अनुकूल होना चाहिए। उसमें छात्रों की रुचियों को ध्यान में रखना चाहिए और ऐसी क्रियाओं को सम्मिलित करना चाहिए जिनमें छात्रों की रुचि हो क्योंकि छात्रों की रुचि के अनुकूल पाठ्यक्रम न होने पर उसके अध्ययन में छात्रों को कोई रुचि न होगी और वह पाठ्यक्रम उनके लिए निरर्थक साबित होगा ।

4. व्यापकता –
एक अच्छे पाठ्यक्रम को व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। उसमें संकुचित दृष्टिकोण-दलगत राजनीति, विशेष वर्ग हेतु अपमानजनक बातें आदि नहीं होनी चाहिए। पाठ्यक्रम के द्वारा छात्रों में वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना का विकास करते हुए व्यापक दृष्टिकोण का विकास करना चाहिए।

5. क्रियाशीलता –
एक अच्छे पाठ्यक्रम में क्रियाशीलता का गुण होना चाहिए। पाठ्यक्रम छात्रों को केवल निष्क्रिय श्रोता न बनाए वरन् उन्हें क्रियाशील बनाए। छात्र पाठ्यक्रम की सम्पूर्ण क्रियाओं को स्वयं करके सीखें। इससे छात्रों की क्रियाशीलता बनी रहेगी।

6. जनतान्त्रिक आदर्श –
भारत एक जनतान्त्रिक राष्ट्र है। अतः भारत में नागरिकशास्त्र के एक अच्छे पाठ्यक्रम में जनतान्त्रिक आदर्शों को आधार बनाना चाहिए क्योंकि राष्ट्र की सफलता जनतन्त्र की सफलता पर निर्भर है और जनतन्त्र की सफलता उसके नागरिकों में जनतान्त्रिक आदर्शों के गुणों के विकसित होने पर निर्भर है।

7. उपयोगिता-
एक अच्छा पाठ्यक्रम हम उसी पाठ्यक्रम को कह सकते हैं जो छात्रों हेतु उपयोगी हो। छात्रों को जीवन में काम आने वाली बातें, संदर्भित तत्त्वों का ज्ञान करके वाला पाठ्यक्रम ही अच्छा पाठ्यक्रम माना जाता है। जिस पाठ्यक्रम में जीवनोपयोगी बातों का समावेश नहीं होता, ऐसे पाठ्यक्रम को सीखने में छात्र रुचि नहीं लेते हैं।

प्रश्न j (i) पाठ्यक्रम निर्माण की प्रक्रिया में उद्देश्यों का निरूपण क्यों आवश्यक है? पाठ्यक्रम निर्माण की प्रक्रिया करते समय किन लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को सूचीबद्ध करना चाहिए?

उत्तर—पाठ्यक्रम निर्माण की प्रक्रिया में उद्देश्यों का निरूपण इसलिए आवश्यक है क्योंकि इससे पढ़ने के पश्चात् छात्रों को निम्नलिखित तथ्यों का ज्ञान होगा-

* पाठ्यचर्या विकास के विविध उपागमों के विषय में जानकारी प्राप्त होगी।
* पाठ्यचर्या नियोजन के मॉडल की चर्चा कर सकेंगे।
* पाठ्यचर्या विकास की सीमाओं के विषय में जान सकेंगे
* विभिन्न शिक्षण अनुभवों व उद्देश्यों के विषय में ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे।
* पाठ्यचर्या विकास की प्रक्रिया में मूल्यांकन के महत्त्व की चर्चा कर सकेंगे।
* पाठ्यचर्या से सम्बन्धित प्रमुख मुद्दों तथा प्रवृत्तियों के विषय में ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे।

 

प्रश्न j (ii) शैक्षिक कार्यक्रमों में अधिकाधिक सहभागिता हेतु शिक्षक के गुणों का वर्णन कीजिए।

उत्तर-कार्यरत शिक्षकों को पाठ्यक्रम नियोजन एवं अन्य शैक्षिक कार्यक्रमों में समुचित भागीदारी प्रदान करने हेतु उन्हें भी उसके लिए सक्षम बनने का प्रयास करना चाहिए जिससे उनकी पात्रता में कोई सन्देह न रहे। सेलर एवं अलेक्जेन्डर ने शिक्षक में निम्नांकित गुणों की अपेक्षा की है-

(i) पहल, आत्मप्रेरणा एवं साहसिक कार्य करने की भावना ।
(ii) अवसरों के प्रति प्रत्युत्तरात्मक भावना, अध्ययन, तुलना तथा स्व-मूल्यांकन के लिए उद्यतता।
(iii) शैक्षिक विषयों में नवीन प्रवृत्तियों के प्रति सजगता ।
(iv) स्वतन्त्र रूप से तथा साथ मिलकर कार्य करने की क्षमता, धैर्य एवं सहकर्मियों के सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार।
(v) पर्याप्त आत्म-नियन्त्रण, दूसरों के साथ मिलकर गम्भीर कार्य कर सकने का कौशल।
(vi) अपने विषय के अतिरिक्त अन्य विषयों (विशेष रूप से बाल मनोविज्ञान एवं अधिगम मनोविज्ञान) का भी पर्याप्त ज्ञान ।
(vii) स्वस्थ प्रकृति एवं आत्मनिर्देशन के साथ-साथ दूसरों के निर्देशन एवं नियन्त्रण में कार्य कर सकने की क्षमता।
(viii) अच्छा मानसिक स्वास्थ्य एवं भावात्मक स्थिरता ।

 

प्रश्न j (iii) शिक्षक एवं पाठ्यक्रम।

उत्तर- पाठ्यक्रम विकास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अभिकरण शिक्षक है। अतः पाठ्यक्रम नियोजन कार्य में इससे सम्बन्धित अन्य घटकों की भागीदारी एवं उनकी सीमाओं के बारे में विवाद हो सकता है किन्तु पाठ्यक्रम विकास के सभी चरणों एवं सभी स्तरों पर शिक्षक की भागीदारी असंदिग्ध एवं सर्वमान्य है। शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण, अन्तर्वस्तु के चयन एवं संगठन, शिक्षण विधियों एवं प्रविधियों के चयन, सहायक सामग्री के चयन, मूल्यांकन विधियों के निर्धारण आदि सभी सोपानों में शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यक्तिगत रूप से छात्रों एवं उनकी समस्याओं को समझने, उन पर ध्यान देने तथा तदनुकूल निर्णय लेने का कार्य प्रभावी रूप से शिक्षक ही कर सकता है। अतः पाठ्यक्रम विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भागीदारी शिक्षक की ही होनी चाहिए। शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भागीदारी के प्रमुख आधार निम्न प्रकार हैं-

• शिक्षक उस नाविक के समान होता हैं जो यह भली-भाँति जानता है कि उसे कहाँ जाना है तथा वहाँ पहुँचने के लिए वह अपने मानसिक निर्णय के अनुसार पानी, नाव, पतवार आदि के विषय में बात करने के लिए सदैव तैयार रहता है। इसका तात्पर्य यह है कि शिक्षकों में ज्ञान, अनुभव एवं व्यावसायिक उत्तरदायित्व की प्रबल भावना होती है जो पाठ्यक्रम नियोजन में शक्ति का स्रोत सिद्ध होती है।

• शिक्षक का छात्र, विद्यालय तथा उनसे सम्बन्धित सभी पक्षों से भावनात्मक सम्बन्ध होता है। अतः वह विभिन्न शैक्षिक परिस्थितियों के प्रति मात्र बौद्धिक रूप से ही नहीं, बल्कि भावात्मक रूप से भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। पाठ्यक्रम निर्माण की भागीदारी में अपनत्व की वह भावना बहुत महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि यही भावना विद्यालय के पर्यावरण को आवश्यक स्थायित्व एवं व्यवस्था प्रदान करने में सहायक होती है।
पाठ्यक्रम को वास्तविक कार्यात्मक रूप कक्षा में ही प्रदान किया जाता है। अतः निस्सन्देह रूप से इस कार्य में शिक्षक को ही प्रमुख भूमिका निभानी होती है। एक विद्वान के मतानुसार, “पाठ्यक्रम तो उसी समय निर्मित होता है जब शिक्षक और छात्र यह निश्चित करते हैं कि अब हम पढ़ेंगे।” इसी तथ्य को दृष्टिगत करते हुए सेलर एवं अलेक्जेन्डर ने दो प्रकार के पाठ्यक्रम बताये हैं-
(i) नियोजित पाठ्यक्रम, (ii) क्रियान्वित पाठ्यक्रम ।

प्रश्न j (iv) त्रिभाषा सूत्र ।

उत्तर- त्रिभाषा सूत्र में संशोधन-त्रिभाषा सूत्र के सम्बन्ध में आयोग ने लिखा है – यह फार्मूला सन् 1956 ई0 में ‘केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड’ के द्वारा प्रतिपादित किया गया था और सन् 1961 ई0 में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में स्वीकार किया गया था किन्तु व्यावहारिक रूप में इस फार्मूले को सफलता प्राप्त नहीं हुई है और इसका यह कहकर और विरोध किया जा रहा है कि इसने पाठ्यक्रम को भाषाओं की दृष्टि से बहुत बोझिल बना दिया है। अतः इस सूत्र में संशोधन किया जाना अनिवार्य है। यह संशोधन निम्नलिखित सिद्धान्तों के आधार पर किया जाना चाहिए-

1. संघ की राजभाषा के रूप में हिन्दी मातृभाषा के बाद महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करे।
2. छात्रों के लिए अंग्रेजी का ज्ञान उपयोगी है।
3. तीन भाषाओं की शिक्षा प्राप्त करने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त स्तर निम्न स्तर माध्यमिक है।
4. हिन्दी या अंग्रेजी की शिक्षा उस समय आरम्भ की जाय जब इसके लिए प्रेरणा या आवश्यकता का अनुभव किया जाये।
5. किसी भी स्तर पर चार भाषाओं के अध्ययन को अनिवार्य न बनाया जाय।

‘आयोग’ ने उपर्युक्त सिद्धान्तों के आधार पर त्रिभाषा सूत्र का संशोधित रूप इस प्रकार प्रस्तावित किया है-

(i) मातृभाषा या क्षेत्रीय अथवा प्रादेशिक भाषा ।
(ii) संघ की राजभाषा या सह-राजभाषा। (जिस समय तक वह है)

 

 

प्रश्न j (v) राष्ट्रीय मूल्यांकन संगठन एवं विद्यालय शिक्षामण्डल परिषद के कार्य बताइए।

उत्तर-

(i) विद्यालयीय शिक्षा के प्रत्येक स्तर के लिए पाठ्यचर्या क्षेत्र में अपेक्षित उपलब्धि स्तर तय करना ।

(ii) बालकेन्द्रित, गतिविधि उन्मुखी और दक्षता आधारित अध्ययन-अध्यापन सामग्री के लिए
अवधारणात्मक सामग्री और उसके नमूने तैयार करवाना।

(iii) संज्ञानात्मक और सह-संज्ञानात्मक अधिगम प्रतिफलों के पब्लिक आकलन के लिए विभिन्न प्रकार के परीक्षणों का निर्माण करवाना और उन्हें राज्यस्तरीय एजेन्सियों को उपलब्ध करवाना।

(iv) मुख्य संसाधन व्यक्तियों के लिए प्रबोधन कार्यक्रमों का संचालन करना ।

(v) विभिन्न बोर्डों के लिए प्रश्न-पत्र निर्माताओं के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना । (vi) अभिलेख रखने और परिणामों की रिपोर्ट देने के लिए किसी संचार तन्त्र की कल्पना करना तथा उसके विषय में परामर्श देना ।

(vii) अधिगम प्रतिफलों के मूल्यांकन के लिए बेहतर तरीकों और साधनों की खोज हेतु शोध करवाना। (viii) सेन्सस जैसे आँकड़े प्राप्त करने के लिए उपलब्धि सर्वेक्षण करना ।

(ix) सूचना प्रसार करना।

प्रश्न j (vi) अन्तर्वस्तु के मापदण्ड बताइए ।

उत्तर-किसी पाठ्यक्रम के लिए अन्तर्वस्तु के चयन का आधार क्या हो, इसके निर्देशक सिद्धांत क्या हों तथा उसके लिए क्या प्रक्रिया अपनाई जाये, इस सम्बन्ध में सर्वमान्य दृष्टिकोण यद्यपि अभी तक नहीं बन सका है, किन्तु इस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण प्रयास अवश्य किये गये हैं। यहाँ पर दो प्रमुख प्रयासों की चर्चा की जा रही है-

1. स्टेनली निस्बत द्वारा प्रस्तावित मानदण्ड – शैक्षिक उद्देश्यों का वर्गीकरण निस्बत द्वारा किया गया है। इसने दो वर्गों में 12 उद्देश्य निर्धारित किये हैं जिनमें वह सभी पक्षों को समाहित किया हुआ मानता है। निस्बत का सुझाव है कि किसी विषयवस्तु या पाठ्य-सहभागी क्रिया को किसी स्तर के पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने या न करने का निर्णय लेने के लिए उसका इन 12 उद्देश्यों की दृष्टि से परीक्षण कर लेना चाहिए। सुविधा की दृष्टि से निस्बत ने एक तालिका भी तैयार की है। इस तालिका की सहायता से एक दृष्टि में देखा जा सकता है कि कोई विषयवस्तु किसी स्तर विशेष के पाठ्यक्रम में समाविष्ट करने की दृष्टि से उपयुक्त है या नहीं। निस्बत द्वारा निर्धारित उद्देश्य तथा तालिका में उनके लिए संक्षिप्त संकेत इस प्रकार हैं

तालिका
(अ) पर्यावरण समायोजन सम्बन्धी
1. कौशल (कौ.)
2. संस्कृति (सं.)
3. गृह सदस्यता (गृ.स.)
4. व्यवसाय (व्य.)
5. अवकाश (अव.)
6 . सक्रिय नागरिकता (स. ना.)

(ब) व्यक्तिगत विकास

7. शारीरिक विकास (शा.)
8. सौन्दर्य बोधात्मक विकास (सौ.)
9. सामाजिक विकास (सा.)
10. आध्यात्मिक विकास (आध्या.)
11. बौद्धिक विकास (बौ.)
12. नैतिक विकास (नै.)

प्रश्नj (vii) सी. आई.पी.पी. मॉडल की अवधारणा बताइए।

उत्तर- सी.आई.पी.पी. मॉडल 1960 के दशक में डैनियल स्टफलबीम द्वारा बनाया गया था और इसे एक निर्णय-उन्मुख मॉडल माना जाता है जो कार्यक्रम की प्रभावशीलता में सुधार करने या किसी कार्यक्रम के भविष्य की योजना बनाने के लिए सामग्री या वितरण में शक्तियों और सीमाओं की पहचान करने के लिए किसी कार्यक्रम के बारे में व्यवस्थित रूप से जानकारी एकत्र करता है। इस मॉडल के उपयोगकर्ता अक्सर प्रबंधन-उन्मुख मूल्यांकन पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, क्योंकि यह ढाँचा मूल्यांकन के चार चरणों को जोड़ता है। किसी कार्यक्रम के चार क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करके निरंतर सुधार पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। समग्र लक्ष्य या मिशन संदर्भ मूल्यांकन; योजनाएँ और संसाधन (इनपुट मूल्यांकन); गतिविधियाँ या घटक ( प्रक्रिया मूल्यांकन); और परिणाम या उद्देश्य (उत्पाद मूल्यांकन) ।




दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
(Long Answer Type Questions)

निर्देश: प्रश्न संख्या 2 से 9 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न हैं। परीक्षार्थियों को प्रत्येक इकाई से एक प्रश्न का चयन करते हुए कुल चार प्रश्नों का उत्तर देना अनिवार्य है। प्रत्येक प्रश्न के लिए 71⁄2 अंक निर्धारित हैं। -(4 x 71⁄2 = 30 अंक)

इकाई-1
प्रश्न 2 (i) ज्ञान का अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएँ बताइए।
अथवा
(ii) ज्ञान की अन्तर्विषयी अवधारणा में भारतीय एवं पश्चिमी विचारधारा में अन्तर स्पष्ट करें।
अथवा
(iii) ज्ञान से आप क्या समझते हैं? ज्ञान प्राप्ति के विविध स्त्रोतों का वर्णन कीजिए।
अथवा
(iv) ज्ञान के विविध स्वरूप क्या हैं? ज्ञान प्राप्ति के विविध स्त्रोतों का वर्णन कीजिए।

ज्ञानेन्द्रियों से बौद्धिक अनुभव को ज्ञान कहते हैं। ज्ञान प्राप्ति के निमित्त बुद्धि का होना परम आवश्यक है। अतः स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष अनुभव, प्रायोगिक कौशल और जानकारी के द्वारा किसी तथ्य, तत्त्व अथवा वस्तु से परिचित होना की ज्ञान है। पृथ्वी पर मनुष्य ही एक मात्र ऐसा चेतन प्राणी है, जो विचार, चिन्तन, मनन, मंथन और अनुभव प्राप्त करने में समर्थ है जिसके आधार पर वह नये तथ्यों व तत्त्वों से अवगत होता है और ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान उत्पत्ति में दो प्रमुख पक्ष होते हैं-ज्ञाता और ज्ञेय। जब मनुष्य वस्तु एवं विचारों अर्थात ज्ञातव्यों से परिचित हो जाता है तो ज्ञान की उत्पत्ति होती है ज्ञान ज्ञाता के ही इर्द-गिर्द घूमती है, अतः ज्ञाता के अभाव में ज्ञान का अस्तित्व सम्भव नहीं है। जब मनुष्य किसी वस्तु अथवा विचार को अनुभूति बोध विश्वास, तर्क और अनुभव के आधार पर स्वीकार कर लेता है तभी ज्ञान का सृजन होता है, इस क्रम के निरन्तर चलते रहने से ज्ञान की वृद्धि होती है और नित्यप्रति ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में नवीन उपलब्धियाँ होती रहती हैं और उसी के साथ-साथ ज्ञान का विस्तार होता है। ज्ञान का विकास निरन्तर होता रहता है। नवीन विचारों, तथ्यों और सूचनाओं के आधार पर व्यावहारिक शोध का चक्र चलता रहता है, नवीन विषय क्षेत्रों का उदय होता है जो ज्ञान की उत्पत्ति में काफी सहायक होते हैं।

ज्ञान की अवधारणा, क्षेत्र और प्रकृति काफी विस्तृत है। अतः इसे किसी परिभाषा के अन्तर्गत सीमित नहीं किया जा सकता। ज्ञान जगत असीम और इसका विकास बहुघातीय है, अतः इसके परिमाप को बताना असम्भव तो नहीं परन्तु जटिल अवश्य है। कुछ विद्वानों द्वारा दी गयी ज्ञान की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

एस.आर. रंगनाथन के शब्दों में- “ज्ञान सभ्यता संरक्षित सूचना का समग्र योग होता है।” वेबस्टर्स न्यू इंटरनेशनल डिक्शनरी ऑफ इंग्लिश लैंग्वेज के अनुसार-“ज्ञान वास्तविक अनुभव व्यावहारिक अनुभव, कार्यकुशलता आदि के द्वारा प्राप्त जानकारी है।”

जे. एस. शेरा के शब्दों में-“ज्ञान बौद्धिक पद्धति द्वारा निस्पादित प्रक्रिया का परिणाम है।”

प्लेटो के शब्दों में- “ज्ञान चिर सत्य है। सत्य की ओर उन्मुख सम्बन्धी उसकी इस अनिवार्य विशेषता से यह सम्भव हो पाता है कि उसके लिये सक्रिय बुद्धि, इन्द्रियानुभव मूल अनुभूति और उसकी चेतना के संदर्भ में ज्ञान और अज्ञान, सत्य और अनुमान के मध्य भेद कर सकते हैं।”

रसेल के शब्दों में- “मस्तिष्क सच्ची अथवा झूठी धारणा निर्मित नहीं करता। मस्तिष्क विश्वास निर्मित करता है। जब विश्वास से सम्बन्धित तथ्य प्राप्त हो जाते हैं तब विश्वास सत्य में परिणित हो जाता है और यदि सम्बन्धित तथ्य प्राप्त नहीं होते जो विश्वास गलत सिद्ध हो जाता है। अतः यह कह सकते हैं कि ज्ञान सत्यता पर आधारित विश्वास है।”

ज्ञान की उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि “वह निश्चित जानकारी अथवा विचार समूह जिसे मनुष्य अर्जित कर सुरक्षित करता है जिससे कि इसे निरंतर दूसरे अन्य जिज्ञासुओं को प्रदान किया जा सके, ज्ञान कहलाता है।’

ज्ञान की विशेषताएँ

ज्ञान की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

1. ज्ञान बहुआयामी है जिसमें चिन्तन, अध्ययन और अनुसंधान के द्वारा नवीन ज्ञान और नए विषय क्षेत्रों की उत्पत्ति निरंतर होती रहती है

2. ज्ञान जगत निरन्तर गतिशील है। निरंतर नए सकल विचारों और विषयों की उत्पत्ति होती रहती है।
3. ज्ञान जगत सतत रूप से विकसित होता रहता है जिसके फलस्वरूप विषयों की निरन्तरता बनी रहती है।
4. ज्ञान जगत अनन्त है। इसमें ज्ञान और अज्ञात सभी ज्ञान समाहित रहता है।
5. ज्ञान जगत अपरिमित होता है। इसमें सत्वों की संख्या को ज्ञात करना सम्भव नहीं है। विचार की उत्पत्ति एक सतत् प्रक्रिया है जिसके फलस्वरूप ज्ञान का परिसीमन सम्भव नहीं है।

उपर्युक्त वर्णित ज्ञान की समस्त विशेषताओं से स्पष्ट है कि वैश्विक स्तर पर ज्ञान एक समान नहीं पाया जाता है। साथ ही इसके आकार, प्रकार और प्रकृति में निरंतर परिवर्तन घटित होता रहता है।

ज्ञान के स्रोत अथवा ज्ञान-प्राप्ति के तरीके

ज्ञान-प्राप्ति के मूल रूप से पाँच स्रोत हैं-

(1) इन्द्रिय अनुभव –

ज्ञान का एक प्रमुख साधन इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव का प्रत्यक्षीकरण है। मनुष्य की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा उसे क्रमशः देखकर सुनकर, सूंघकर, स्वाद लेकर तथा स्पर्श करके सांसारिक वस्तुओं के बारे में तरह-तरह का ज्ञान प्रदान करती हैं। ऐसे ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा जाता है। इस प्रकार से मनुष्य ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही संसार की वस्तुओं के सम्पर्क में आता है तो एक प्रकार की संवेदना उत्पन्न होती है, यह सब देना ज्ञानेन्द्रियों को प्राप्त उत्तेजना में ही होती है तथा वस्तु का ज्ञान प्रदान करती है। इसे प्रत्यक्षीकरण कहा जाता है। यह प्रत्यक्षीकरण ही हमें उस वस्तु की जानकारी देता है।
प्रत्यक्षीकरण द्वारा चेतन मन में अवधारणायें उत्पन्न होती हैं जिन पर हमारा ज्ञान निर्भर होता है। इन्द्रिय अनुभव दक्ष ज्ञान-प्राप्ति की इस क्रिया को सभी दार्शनिकों द्वारा ज्ञान-प्राप्ति का मुख्य स्रोत माना गया है। इन्द्रियों द्वारा प्राप्त इस ज्ञान की विश्वसनीयता का आकलन तो किया जा सकता है परन्तु उस ज्ञान की वैधता ज्ञात करना कठिन होता है अर्थात् सत्यता की दृष्टि में कठिनाई आती है।

(2) साक्ष्य –
जब हम दूसरों के अनुभव तथा निरीक्षण पर आधारित ज्ञान को मान्यता देते हैं तो इसे साक्ष्य कहा जाता है, साक्ष्य में व्यक्ति स्वयं निरीक्षण नहीं करता। वह दूसरों के निरीक्षण पर ही तथ्य का ज्ञान प्राप्त करता है। इस प्रकार साक्ष्य दूसरों के अनुभव पर आधारित ज्ञान है। हम प्रायः अपने जीवन में साक्ष्य का बहुत उपयोग करते हैं। हमने स्वयं बहुत से स्थानों को नहीं देखा है किन्तु जब दूसरे उनका वर्णन करते हैं तो हम उन स्थानों के अस्तित्व में विश्वास करने लगते हैं।

(3) तार्किक चिन्तन-
तार्किक चिन्तन ऐसी मानसिक प्रक्रिया/योग्यता है जिसके बिना कोई भी ज्ञान सम्भव नहीं है। हमारा अधिकांश ज्ञान तर्क पर ही आधारित होता है। हमें अनुभव द्वारा जो संवेदनायें प्राप्त होती हैं उनको तर्क द्वारा संगठित करके ज्ञान का निर्माण किया जाता है। इस प्रकार यह अनुभव पर काम करता है और हमें ज्ञान में परिवर्तित करता जाता है।
इन्द्रियों से प्राप्त अनुभव के द्वारा हम- रंग, स्वाद तथा गन्ध आदि से सम्बन्धित कुछ संवेदनाएँ प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु जब वस्तुओं में भेद करने का प्रश्न आता है, वहाँ हमें तार्किकता की आवश्यकता होती है जिसमें अमूर्त चिन्तन निहित होता है। अतः ज्ञान का आधार तर्कबुद्धि ही है।

(4) अन्तः प्रज्ञा तथा अन्तः प्रज्ञावाद –
यह भी ज्ञान प्राप्ति का एक मुख्य स्रोत है। यह एक प्रकार का आन्तरिक बोध है जिसमें ज्ञान की स्पष्टता निहित होती है। अन्तः से हमारा तात्पर्य है किसी तथ्य को अपने मन में जानना। इसके लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि इसके अन्तः अचानक ज्ञान के प्रकाश की किरण उत्पन्न होती है जिसे हम ज्ञान की संज्ञा देते हैं। इस प्रकार के ज्ञान का एकमात्र प्रमाण यह है कि उसकी निश्चितता तथा वैधता में सन्देह नहीं होता तथा हम उस ज्ञान पर पूर्ण विश्वास कर लेते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अन्तःप्रज्ञा हमारे अन्दर निहित वह सद्धत क्षमता है जो कभी अचानक ही क्रियाशील होकर हमें आलोकित करती है।
परन्तु इस अन्तःप्रज्ञा के साथ कभी-कभी आत्मनिष्ठता का ऐसा गुढ़ा आबद्ध हो जाता है कि यदि हम इस यथार्थ ज्ञान का साथ मान भी लें तो फिर इस ज्ञान में वस्तुनिष्ठता तथा सार्वजनिकता जैसी चीज नहीं रह जायेगी और हम यह दावा नहीं कर सकेंगे कि कौन-सी प्रतिज्ञप्ति सत्य है और कौन-सी असत्य है।

(5) सत्ता अधिकारिक ज्ञान
उच्च शिक्षित व्यक्तियों द्वारा प्रदत्त ज्ञान को सत्ता अधिकारिक ज्ञान की संज्ञा दी जा सकती है। मनोविज्ञान ने अब यह सिद्ध कर दिया है कि मानव समाज में व्यक्तिगत भिन्नताएँ हैं। कुछ मनुष्य अत्यन्त प्रतिभाशाली हैं, जिनकी संख्या कम होती है, वे ही ज्ञान क्षेत्र में नई बातें जोड़ते हैं। इनके द्वारा दिया गया ज्ञान आर्ष या प्रति ज्ञान कहलाता है। शिक्षा का समस्त पाठ्यक्रम इन महान व्यक्तियों द्वारा जीवन के अनुभवों का भार है। अतः इन महान व्यक्तियों को सत्ता माना जाना
चाहिए। परन्तु इस तथ्य में एक यहीं कमी है कि इनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के प्रति हमें इतना भी अंधविश्वासी नहीं होना चाहिए कि हमारा ज्ञान संकीर्ण हो जाये व उस ज्ञान से हमारे विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाये।

 

प्रश्न 2 (ii) ज्ञान वर्गीकरण की प्रचलित प्राचीन पद्धतियों को स्पष्ट कीजिए।

प्राचीन युग से ही ज्ञान का उद्भव एवं विकास क्रमिक रूप से हुआ है। मनुष्य ने ज्ञान के विकास के साथ-साथ इसके व्यवस्थापन की आवश्यकता भी अनुभव की। फलतः भिन्न-भिन्न विद्वानों और दार्शनिकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से ज्ञान को परखने और जाँचने के साथ-साथ इसके व्यवस्थापन हेतु वर्गीकरण का विचार किया। वर्गीकरण के अंतर्गत वस्तुओं अथवा विचारों को उनके सादृश्य के आधार पर वर्गों या समूहों में व्यवस्थित किया जाता है। वर्गीकरण की प्रक्रिया में कम सामान्य की तरफ से अधिक सामान्य अथवा कम विस्तार से अधिक विस्तार की ओर अग्रसर होते हैं। वस्तुओं और विचारों के गुणों, विशेषताओं अथवा समानताओं के आधार पर वर्गीकरण किया जाता है। इस प्रकार विभिन्न प्रचार धाराओं का वर्गीकरण और श्रेणीबद्धता ही ज्ञान वर्गीकरण है, जिन्हें सुव्यस्थित एवं उपयुक्त शाखाओं में विभक्त करने का प्रयास कुछ प्रमुख पश्चिमी तथा भारतीय दार्शनिकों ने इकाई हजार वर्ष पूर्व किया था। दार्शनिकों ने ज्ञान के वर्गीकरण को अपने विषय क्षेत्र में शामिल किया। ज्ञान से सम्बन्धित समस्याओं को स्पष्ट एवं उनका निदान करने का प्रयास भी दार्शनिकों ने समय-समय पर किया है। प्रत्येक दार्शनिक विचारधारा के दार्शनिकों ने अपने-अपने ढंग से अपने-अपने दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया है। ज्ञान वर्गीकरण का यह विभाजन उस समय की संस्कृति और काल के अनुसार था जो तत्कालीन ज्ञान की स्थिति का व्यवस्थापन करता था ।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञान का वर्गीकरण एक जटिल कार्य है, फिर विश्व के कुछ महान् दार्शनिकों ने ज्ञान को वर्गीकृत करने का यथासंभव प्रयत्न किया है, जिसका विवरण निम्नवत् है-

(1) वैदिककालीन वर्गीकरण-वैदिक, वर्गीकरण पद्धति का वर्णन उपनिषदों में मिलता है। वैदिक काल में सम्पूर्ण ज्ञान का प्रमुख चार वर्गों में वर्गीकरण है जो इस प्रकार हैं-
(अ) धर्म-जिसमें मानव व समाज को एकत्रिकृत करने की क्षमता हो उसे धर्म कहते हैं। मानव समाज में नैतिकता और आध्यात्मिकता के लिये उस ज्ञान को प्रमुख भागों, जैसे-विधि, धर्मशास्त्र, नैतिकशास्त्र / आचारशास्त्र और समाजशास्त्र में विभक्त किया गया।

(ब) अर्थ-समाज के कल्याण तथा भरण-पोषण का ज्ञान अर्थ का क्षेत्र है जिसमें अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, इतिहास तथा व्यावहारिक विज्ञान आदि सम्मिलित किये गये हैं।

(स) काम-काम के अन्तर्गत मानवीय आवश्यकओं, इच्छाओं, वेद-विहित शारीरिक भोगेच्छाओं, आन्तरिक अभिलाषाएँ आदि की पूर्ति से सम्बन्धित विषय आते हैं

(द) मोक्षं-मोक्ष या निर्वाण के अन्तर्गत मानव की सर्वोत्तम अवस्था अर्थात् मोक्ष (सांसारिक आवागमन-जन्म-मरण) के विषय आते हैं, जिसमें दर्शनशास्त्र, आध्यात्मिक विद्या अथवा पराविद्या, अलौकिक अनुभूतियाँ आदि से सम्बन्धित विषय सम्मिलित हैं।

वस्तुतः समस्त वैदिक साहित्य को इन्हीं आधार पर विषयानुसार बाँटा गया है।

(2) ग्रीक वर्गीकरण पद्धति-

ग्रीक दर्शन शास्त्रियों ने ज्ञान का वर्गीकरण को एक नया आयाम दिया है। यद्यपि प्लेटो के ही समय से ज्ञान वर्गीकरण की पद्धति प्रचलित रही है, जिसमें तर्कशास्त्र, भौतिक तथा आचारशास्त्र सम्मिलित थे, किन्तु आरिस्टोटल ने जिस ज्ञान वर्गीकरण की योजना को संस्थापित किया था, उसे ग्रीक वर्गीकरण पद्धति कहा जाता है। आरिस्टोटल ने ज्ञान को निम्नलिखित तीन वर्गों में वर्गीकृत किया है-

(अ) सैद्धान्तिक दर्शनशास्त्र- इसमें तर्कशास्त्र, ज्ञान मीमांसा, गणित तथा भौतिकी प्रमुख विषय रहे हैं।
(ब) व्यावहारिक दर्शनशास्त्र-इसमें आचार संहिता तथा नैतिक व्यवहार से सम्बन्धित विषय थे।
(स) उत्पादनशील कलाएँ-इसके तहत उपयोगी तथा व्यावहारिक विज्ञान समाहित था।

(3) फ्रांसिस बेकन-फ्रांस बेकन का नाम प्रमुख विचारकों में शामिल है। इन्होंने ज्ञान के क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध हासिल की। बेकन ने ज्ञान जगत को निम्नलिखित तीन वर्गों में वर्गीकृत किया है।

(अ ) इतिहास-इतिहास में स्मृति के आधार पर उत्पन्न प्राकृतिक और सामाजिक इतिहास को सम्मिलित किया है।
(ब) काव्यशास्त्र/कविता-ये कल्पनाओं पर आधारित था।
(स) दर्शनशास्त्र- इसमें तर्क के आधार पर उत्पन्न विषय सम्मिलित थे।
बेकन के पश्चात् ज्ञान वर्गीकरण की परम्पराएँ नवीन तर्कपूर्ण पद्धति और प्रचलित परम्पराओं के अनुसार निर्मित की गई।

(4) काण्ट का ज्ञान वर्गीकरण-13वीं सदी का जर्मन दार्शनिक इमैन्युल काण्ट का अर्वाचीन दार्शनिकों में विशिष्ट स्थान है। इन्होंने ज्ञान को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया है- (i) दार्शनिक अवधारणाएँ और (ii) गणितीय अवधारणाएँ।

(5) हीगल की ज्ञान वर्गीकरण पद्धति-

जर्मनी के निवासी हीगल दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर थे। साथ ही इनको एक अच्छा विचारक भी माना जाता है। इन्होंने ज्ञान वर्गीकरण को निम्न तीन समूहों में विभक्त किया था-(i) तर्कशास्त्र, (ii) प्राकृतिक विज्ञान, इसके अंतर्गत मैकेनिक्स, भौतिकी और जीव विज्ञान तथा (iii) मानसिक विज्ञान।

(6) स्पेन्सर की ज्ञान वर्गीकरण योजना-

काम्टे की भाँति हरबर्ट स्पेन्सर भी आधुनिक समाजशास्त्र के विकास में विशेष योगदान दिया । स्पेन्सर ने सामाजिक विज्ञानों का विकास की * वैज्ञानिक परम्परा के अनुसार ही सिद्ध किया है। इस क्रमानुसार तर्कशास्त्र, गणित, रसायनशास्त्र, खगोलशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, जीवविज्ञान मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र के क्रम में विषयों को व्यवस्थित किया गया है। यद्यपि स्पेन्सर की क्रम परम्परा को अधिक उपयुक्त नहीं माना गया है, किन्तु उसने ज्ञान वर्गीकरण के सिद्धान्तों को स्पष्ट किया है जिससे वर्गीकरण योजना को बनाने में एक दिशा मिलती है।

(7) आगस्ट काटे की वर्गीकरण पद्धति-

विश्व प्रसिद्ध समाजशास्त्रीय विचारक एवं आधुनिक समाजशास्त्र के जन्मदाता आगस्ट काम्टे का सामाजिक विज्ञानों को प्राकृतिक विज्ञानों के ‘अनुसार अध्ययन करने के योग्य बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान है। 1830 में काम्टे ने गणित, खगोलशास्त्र, भौतिकी, रसायनशास्त्र, जीव विज्ञान और सामाजिक भौतिकी के अनुसार विषयों का क्रमबद्ध रूप से विकसित किया और यह तर्क प्रस्तुत किया कि पूर्व विषय वर्ग अगले विषय के अनुप्रयोग से विकसित होता है, अतः पूर्व विषय बाद के विषय पर आधारित होता है।

(8) एम्परे की ज्ञान वर्गीकरण पद्धति-

एण्ड्रे मारले एम्परे ने भी वर्गीकरण की पद्धति विकसित की। इन्होंने ज्ञान वर्गीकरण के अन्तर्गत भौतिकी, अभियांत्रिकी, भूगर्भशास्त्र, खदान, वनस्पतिशास्त्र, कृषि, जीव विज्ञान, पशुपालन आयुर्विज्ञान विषयों को क्रमबद्ध किया है। 19वीं सदी के दार्शनिकों द्वारा निर्मित वर्गीकरण व्यवस्था में इसे उत्तम पद्धति कहा जा सकता है

 

 

प्रश्न 2 (iii) उपलब्धता एवं प्रकृति के आधार पर ज्ञान के वर्गीकरण को स्पष्ट कीजिए।
उपलब्धता एवं प्रकृति के आधार पर ज्ञान को निम्न रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है-

1. उपलब्धता के आधार पर-ज्ञान को उपलब्धता के आधार पर निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा जा सकता है, जो इस प्रकार है-

(a) वैयक्तिक ज्ञान-
किसी व्यक्ति विशेष के मस्तिष्क में उपलब्ध ज्ञान को वैयक्तिक ज्ञान कहा जाता है। यह ज्ञान किसी व्यक्ति विशेष का अपनी स्वानुभूति से प्राप्त निजी ज्ञान होता है, अतः इसे उस व्यक्ति विशेष के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है। व्यक्ति विशेष के साथ विचार-विमर्श कर अथवा पत्र-व्यवहार कर व्यक्तिगत अथवा वैयक्तिक ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है।

(b)सामाजिक ज्ञान-
मानव जीवन में सामाजिक ज्ञान का विशेष महत्त्व होता है। यह ज्ञान स्वतंत्र एवं समान रूप से समाज के सभी सदस्यों के लिये उपलब्ध रहता है। विभिन्न प्रकार के पुस्तकालय एवं सूचना केन्द्र इस प्रकार के ज्ञान को उपलब्ध कराने में सहयोग करते हैं। इसे
सार्वजनिक ज्ञान भी कहते हैं।

(c) अर्द्ध-सामाजिक ज्ञान-

यह वह ज्ञान है जो कुछ विशेष व्यक्तियों तक की सीमित रहता है। इसका क्षेत्र भी संकुचित होता है। इस प्रकार के ज्ञान के अन्तर्गत अर्द्ध-प्रकाशित प्रलेख, शासकीय प्रकाशन, आलेख, विभिन्न अभिलेख आदि आते हैं।

उपरोक्त वर्णित तीनों प्रकार के ज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं। तर्क, प्रयोग और विश्लेषण के आधार पर वैयक्तिक ज्ञान सामाजिक ज्ञान में विकसित हो जाता है। वैयक्तिक ज्ञान की वृद्धि में सामाजिक ज्ञान एक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक स्रोत के रूप में कार्य करता है और वैयक्तिक ज्ञान के आधार पर सामाजिक ज्ञान का निर्माण होता है। इस प्रकार दोनों प्रकार के ज्ञान के मध्य कोई स्पष्ट सीमा रेखा नहीं है। दोनों ही एक दूसरे की वृद्धि और विकास में सहायक हैं। ऐसे में यह कहना उचित प्रतीत होता है कि ज्ञान तथ्यपूर्ण विचारों का समूह है। जब यह किसी व्यक्ति के मस्तिष्क तक सीमित होता है तब यह व्यक्तिगत अथवा निजी ज्ञान होता है और जब किसी अभिव्यक्ति तर्क, प्रयोग और विश्लेषण के आधार पर सार्वजनिक रूप से कर दी जाती है, तब यह सामाजिक ज्ञान बन जाता है। अतः स्पष्ट रूप से हम यह कह सकते हैं कि समाज ज्ञान के उद्भव व विकास का एक प्रभावशाली साधन व स्रोत है।

प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री जिमान ने सामाजिक ज्ञान के संगठन के महत्त्व की विवेचना करते हुए इसकी वृद्धि और विकास के तीन कारक या साधन माने हैं-रचनात्मक ज्ञान संगठन, स्वयं संगठित और ग्रन्थात्मक संगठन जिसमें पुस्तकालयों का संगठन शामिल है। रचनात्मक ज्ञान संगठन उन प्रयासों का परिणाम है जिनमें अनुभव प्रयोग और निरीक्षण के आधार पर तथा अनुसंधान की विभिन्न विधियों के द्वारा ज्ञान की रचना या सृष्टि की जाती है और उसे सम्प्रेषित किया जाता है। स्वयं संगठित ज्ञान का निर्माण एक प्रलेख में अन्य प्रलेखों के संदर्भ उद्धरण प्रस्तुत किये जाते हैं। इससे विचारों के द्वारा दोनों प्रलेखों के मध्य स्थापित किया जाता है। इससे ज्ञान में वृद्धि होती है। यह ज्ञान का रुचिकर बौद्धिक संगठन है। इसे पुस्तकालयाध्यक्षों ने ज्ञान के पारस्परिक वर्गीकृत तत्वों में से एक माना है। ग्रन्थात्मक संगठन एवं सूचियों, सारकरण और अनुक्रमणीकरण पत्रिकाओं एवं अन्य सूचना उत्पादों तथा सेवाओं के अंतर्गत मूल या प्राथमिक प्रलेखों के संगठन को बताता है। इन सभी प्रकार के ज्ञान का संग्रह व संकलन पुस्तकालय व सूचनाकेन्द्र करते हैं।

2. प्रकृति के आधार पर-ज्ञान को उसकी प्रकृति के आधार पर निम्नलिखित वर्गों में बाँटा गया है-

(अ) वैज्ञानिक ज्ञान-
वैज्ञानिक ज्ञान भी विशेष महत्त्व रखता है। सहज अथवा अंतर्बोध ज्ञान जब सुस्पष्ट सिद्धांतों, सूत्रों, परिकल्पनाओं, निरीक्षण, परीक्षण और विश्लेषण द्वारा संगठित, परिष्कृत और परिभाषित हो जाता है, तब वह वैज्ञानिक ज्ञान बन जाता है। यह ज्ञान सत्यापित और व्यवस्थित होता है। वैज्ञानिक ज्ञान में कई विशेषतायें पायी जाती हैं जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं-

(i) यह सुस्पष्ट सिद्धान्तों, नियमों, सूत्रों और प्रयोगों पर आधारित होता है।
(ii) यह अविभाजित होता है। इसका विभाजन तभी सम्भव है जब विभाजन कुछ निश्चित तथ्यों पर आधारित हो ।
(iii) यह सत्यापित और सुव्यवस्थित होता है।

(ब) तर्क अथवा बुद्धि संगत ज्ञान-

यह एक प्राकृतिक ज्ञान है जो सभी लोगों में विद्यमान होता है। हम सामान्यतः प्रत्येक वस्तु/पदार्थ के बारे में जानने का प्रयास करते हैं किन्तु उसके सम्बन्ध में सीखने का प्रयास नहीं करते। तर्क संगत ज्ञान को अनुभूति मूलक, प्रयोगाश्रित अथवा सकारात्मक ज्ञान भी कहते हैं। यह प्रामाणिक तर्क संगत विचारों पर आधारित होता है। यह ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र के सैद्धान्तिक ज्ञान के रूप में तथा अन्य सामाजिक विषयों के क्षेत्र में दर्शन-शास्त्र के रूप में विकसित होता है।

(स) सहज अथवा अन्तर्बोध ज्ञान-

यह ज्ञान तर्क अथवा बुद्धि संगत ज्ञान का विकसित रूप है। यह ज्ञान की सर्वोच्च श्रेणी है जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती। इसमें मस्तिष्क, अन्तः प्रेरज्ञता, समझ और बौद्धिकता प्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध रहते हैं। कभी-कभी यह ज्ञान मस्तिष्क की अवचेतन अवस्था में प्राप्त किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति में यह ज्ञान एक समान नहीं होता।
आजकल विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी जगत में संगठित व सतत अनुसंधानों के फलस्वरूप निरंतर वैज्ञानिक ज्ञान के जगत में विकास हो रहा है। नए-नए विषयों का सृजन एक ऐसी श्रृंखला है जिसका कोई अंत नहीं है। वर्तमान दौर में वैज्ञानिक ज्ञान एक शक्ति का रूप ले चुका है जिसे नियन्त्रित करना सम्भव नहीं है

 

प्रश्न 2 (iv) ज्ञान से आप क्या समझते हैं? इसके प्राप्ति के तरीके का संक्षिप्त विवरण दीजिए।

ज्ञान पद का अनुवाद ‘नालेज’ पद से किया जाता है। भारतीय दर्शन के अनुसार ‘ज्ञान’ का अर्थ समझने से पूर्व सत्य की वस्तुनिष्ठता, ज्ञान की सार्थकता, ज्ञान की सत्यता तथा तार्किक प्रतिज्ञप्ति सत्यता से लगाया जाता है। इसकी मुख्य बातें निम्नलिखित हैं-

(i) ज्ञान की सत्यता हेतु उसकी वस्तुनिष्ठता का आकलन किया जाना आवश्यक है।
(ii) ज्ञान के अस्तित्व में कोई संशय नहीं होना चाहिए।
(iii) ज्ञान की सत्यता की पुष्टि भी सन्देहरहित होनी चाहिए।
(iv) तार्किक प्रतिज्ञप्ति भी सत्य होनी चाहिए।

ज्ञान की अवधारणा स्पष्ट करते हुए यह प्रश्न उठाया जाता है कि क्या ज्ञान का स्वरूप परिवर्तनीय है या अपरिवर्तनीय है? यह प्रश्न भी जटिल है ज्ञान के सम्मिलित तथ्य, विचार प्रत्यय, नियम और निष्कर्ष आदि ज्ञान के श्रव्य हैं अर्थात् जब अध्यापक छात्रों को ज्ञान प्रदान करता है तो इन सभी तत्त्वों को बताता और समझाता है। अब जहाँ तक ज्ञान के तत्त्वों के बदलने या न बदलने का प्रश्न है तो इसमें सन्देह नहीं है कि ज्ञान के कुछ तत्त्व नहीं बदलते या इनके परिवर्तन की दर इतनी धीमी होती है कि उनका बदलाव महसूस नहीं होता। वहीं अनेक तथ्य, प्रत्यय व नियम ऐसे भी हैं जो लगभग नहीं बदलते। ज्ञान के यही तत्त्व शिक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। बहुत से जीवन मूल्य ऐसे होते हैं जिनमें परिवर्तन नहीं होता। शिक्षा छात्रों के मन में उनके प्रति आस्था उत्पन्न करती है और यह शिक्षा का दायित्व भी है। इसके विपरीत ज्ञान के कुछ तत्त्व परिवर्तन से प्रभावित होते हैं। वैज्ञानिक खोजों से भी ज्ञान में अभिवृद्धि होती है, उसमें परिवर्तन आता है। उदाहरणार्थ, पहले शिक्षक द्वारा छात्रों को यह ज्ञान दिया जाता था कि सूर्य प्रातःकाल पूर्व दिशा से चलना आरम्भ करता है और शाम को पश्चिम दिशा में अपनी यात्रा समाप्त करता है। परन्तु अब छात्रों को यह बताया जाता है कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसके चारों ओर घूमती है। इस रूप में यदि देखा जाये तो पुरातन ज्ञान अज्ञान था। एक और उदाहरण द्वारा भी इसे समझा जा सकता है कि चलती हुई रेलगाड़ी में बैठने पर हमें पेड़ चलते हुए प्रतीत होते हैं परन्तु वास्तव में चलती स्थिति में तो रेलगाड़ी ही है। पृथ्वी की गति का ज्ञान हो जाने से भूगोल की शिक्षा में परिवर्तन आया। अतः शिक्षा को ज्ञान के तत्त्वों में आने वाले परिवर्तनों पर दृष्टि रखनी होगी। प्रगतिशील शिक्षा के समर्थक ड्यूवी ने ज्ञान को अनुभव की सतत पुनर्रचना कहा है। विद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी समय-समय पर कुछ बदलाव किए जाने चाहिए। सत्य के अन्वेषण से जो नये नियम और सिद्धान्त प्रकाश में आते हैं, वे ज्ञान के स्थूल रूप में परिवर्तन की अपेक्षा करते हैं।

ज्ञान की अवधारणा / संकल्पना

ज्ञान की अवधारणा के सन्दर्भ में एक तथ्य और है कि ज्ञान केवल अनुभूति मात्र नहीं है। अनुभूति मात्र बाह्य स्वरूप की होती है परन्तु जब वस्तु के बाह्य रूप को देखने के बाद हम उसके बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं तो यह स्थिति संभवतः ज्ञान की कही जा सकती है। ऐसा ज्ञान प्राप्त होने की स्थिति को ही ज्ञान चक्षु का खुल जाना कहा जा सकता है। शिक्षा यदि हमारे ज्ञान चक्षु खोल दे तो वह अर्थात् हमारी शिक्षा का इस प्रकार भारतीय दर्शन के अनुसार चेतना को ही ज्ञान की संज्ञा दी जाती है। ज्ञान इन्द्रियों के अनुभव तक ही सीमित नहीं है, अपितु इन्द्रियों से प्राप्त अनुभूतियों द्वारा भी ज्ञान की प्राप्ति होती है जिसके लिए कर्म, ज्ञान व भक्ति में समन्वय आवश्यक है।

ज्ञान के स्रोत या तरीके

ज्ञान प्राप्ति के मूल रूप से निम्नलिखित पाँच प्रकार हैं-

(a) इन्द्रिय अनुभव –
ज्ञान का एक प्रमुख साधन इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव का प्रत्यक्षीकरण है। मनुष्य की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा उसे क्रमशः देखकर सुनकर, सँघकर, स्वाद लेकर तथा स्पर्श करके सांसारिक वस्तुओं के बारे में तरह-तरह का ज्ञान प्रदान करती हैं। ऐसे ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा जाता है। इस प्रकार से मनुष्य ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही संसार की वस्तुओं के सम्पर्क में आता है तो एक प्रकार की संवेदना उत्पन्न होती है, यह सब देना ज्ञानेन्द्रियों को प्राप्त उत्तेजना में ही होती हैं तथा वस्तु का ज्ञान प्रदान करती है। इसे प्रत्यक्षीकरण कहा जाता है। यह प्रत्यक्षीकरण ही हमें उस वस्तु की जानकारी देता है।

(b) साक्ष्य –
जब हम दूसरों के अनुभव तथा निरीक्षण पर आधारित ज्ञान को मान्यता देते हैं तो इसे साक्ष्य कहा जाता है, साक्ष्य में व्यक्ति स्वयं निरीक्षण नहीं करता। वह दूसरों के निरीक्षण पर ही तथ्य का ज्ञान प्राप्त करता है। इस प्रकार साक्ष्य दूसरों के अनुभव पर आधारित ज्ञान है। हम प्रायः अपने जीवन में साक्ष्य का बहुत उपयोग करते हैं। हमने स्वयं बहुत से स्थानों को नहीं देखा है किन्तु जब दूसरे उनका वर्णन करते हैं तो हम उन स्थानों के अस्तित्व में विश्वास करने लगते हैं।

(c) तार्किक चिन्तन-
तार्किक चिन्तन ऐसी मानसिक प्रक्रिया/योग्यता है जिसके बिना कोई भी ज्ञान सम्भव नहीं है। हमारा अधिकांश ज्ञान तर्क पर ही आधारित होता है। हमें अनुभव द्वारा जो संवेदनायें प्राप्त होती हैं उनको तर्क द्वारा संगठित करके ज्ञान का निर्माण किया जाता है। इस प्रकार यह अनुभव पर काम करता है और हमें ज्ञान में परिवर्तन करता जाता है।
इन्द्रियों से प्राप्त अनुभवों के द्वारा हम-रंग, स्वाद तथा गन्ध आदि से सम्बन्धित कुछ संवेदनाएँ प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु जब वस्तुओं में भेद करने का प्रश्न आता है, वहाँ हमें तार्किकता की आवश्यकता होती है जिसमें अमूर्त चिन्तन निहित होता है। अतः ज्ञान का आधार तर्क बुद्धि ही है।

(d) अन्तःप्रज्ञा तथा अन्तःप्रज्ञावाद-
यह भी ज्ञान प्राप्ति का एक मुख्य स्रोत है। यह एक प्रकार का आन्तरिक बोध है जिसमें ज्ञान की स्पष्टता निहित होती है। अन्तः से हमारा तात्पर्य है किसी तथ्य को अपने मन में जानना। इसके लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि इसके अन्तः अचानक ज्ञान के प्रकाश की किरण उत्पन्न होती है जिसे हम ज्ञान की संज्ञा देते हैं। इस प्रकार के ज्ञान का एकमात्र प्रमाण यह है कि उसकी निश्चितता तथा वैधता में सन्देह नहीं होता तथा हम उस ज्ञान पर पूर्ण विश्वास कर लेते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अन्तः प्रज्ञा हमारे अन्दर निहित वह सद्धत क्षमता है जो कभी अचानक ही क्रियाशील होकर हमें आलोकित करती है।
परन्तु इस अन्तःप्रज्ञा के साथ कभी-कभी आत्मनिष्ठता का ऐसा गुढ़ा आबद्ध हो जाता है कि यदि हम इस यथार्थ ज्ञान का साथ मान भी लें तो फिर इस ज्ञान में वस्तुनिष्ठता तथा सार्वजनिकता जैसी चीज नहीं रह जायेगी और हम यह दावा नहीं कर सकेंगे कि कौन-सी प्रतिज्ञप्ति सत्य है और कौन-सी असत्य है।

 

प्रश्न 3 (i) कोर-प्रधान पाठ्यक्रम से आप क्या समझते हैं? इसके गुण एवं दोष बताइए।

कोर प्रधान पाठ्यक्रम से तात्पर्य है-ऐसा पाठ्यक्रम जिसमें कुछ विषय तो अनिवार्य हों और कई विषय ऐसे हों जिनमें से विद्यार्थी कुछ को अपनी रुचियों के अनुसार चुन सकें। इस प्रकार का पाठ्यक्रम अमेरिका के स्कूलों में बहुत प्रचलित हो गया है। हर विद्यार्थी जो माध्यमिक स्तर पर होता है, अपनी वैयक्तिक रुचियों और योग्यताओं में एक-दूसरे से बहुत भिन्न होता है इसलिए सब विद्यार्थियों के लिए एक ही प्रकार का पाठ्यक्रम निर्धारित करना ठीक नहीं होता। फिर भी कुछ विषय ऐसे अवश्य होते हैं जिनका पढ़ना प्रत्येक विद्यार्थी को (जो एक विशेष स्तर पर है) आवश्यक होता है। कोर-प्रधान पाठ्यक्रम द्वारा यह चेष्टा की जाती है कि वे विषय जो प्रत्येक बालक के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं, सब बालकों को अनिवार्य रूप से पढ़ाये जायें। इसके साथ ही साथ बालकों को से विषयों में से कुछ ऐसे विषयों को चुनकर पढ़ने की सुविधाएँ प्रदान की जायें जो उनकी रुचि तथा बहुत- योग्यता के अनुसार हों।

कोर-प्रधान पाठ्यक्रम का मुख्य उद्देश्य “समस्त युवकों को व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्याओं से सम्बन्धित अनुभव प्रदान करना है। बालकों को वास्तविक समस्याओं के सुलझाने का अनुभव देना है और इस प्रकार उन्हें भावी समस्याओं का सामना करने के योग्य बनाना है। इसके द्वारा बालकों को वह अनुभव प्रदान करना है, जो उन्हें समाज का अच्छा नागरिक बनने में सहायता दे।” इस प्रकार कोर-प्रधान पाठ्यक्रम का लक्ष्य – व्यक्ति तथा समाज, दोनों का विकास करना है। इसके द्वारा बालक को ऐसा ज्ञान प्रदान करना है जो उनको वर्तमान तथा भावी समस्याओं को सुलझाने में सहायक हो तथा बालक को एक अच्छा नागरिक बनाये।

जिन विषयों का कोर-प्रधान, पाठ्यक्रम में प्रमुख स्थान होना चाहिए, वे हैं – (1) स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा, (2) कला-कौशल, (3) बागवानी, (4) गणित, (5) इतिहास तथा (6) भूगोल इत्यादि ।

स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा – इस प्रकार की शिक्षा पाठ्यक्रम में प्रधान स्थान रखती है, क्योंकि प्रत्येक बालक के शारीरिक विकास के लिए बिना शिक्षा के किसी भी प्रकार के उद्देश्य की
प्राप्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार की शिक्षा व्यायाम, तैरना, नाचना और टीम के खेलों की क्रियाओं का विद्यालय में आयोजन करके दी जा सकती है।

कला-कौशल-बालकों को कला-कौशल तथा प्रयोगात्मक क्रियाएँ रुचिकर लगती हैं, विशेष तौर पर वे जब किशोरावस्था में होते हैं। अतएव उनके पाठ्यक्रम में कला तथा प्रयोगात्मक कार्यों की प्रधानता दिया जाना भी आवश्यक है। उनको इस प्रकार की क्रियाएँ सिखायी जाती हैं (जैसे-बुनाई, जिल्द बाँधना, लकड़ी का काम, धातु का काम, कुम्हारगीरी इत्यादि) ।

इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र इत्यादि-ये विषय बालक की सामाजिक भावना के विकास में अत्यन्त आवश्यक हैं। इन सब विषयों का सम्बन्ध मानव-जीवन से है, इसके द्वारा समय और स्थान के अनुसार मानव जीवन की व्यवस्था की जाती है। अतएव मानवता सम्बन्धी उचित दृष्टिकोण का विकास करने में इनका स्थान महत्त्वपूर्ण है।

विज्ञान — यह भी एक प्रधान विषय है। वर्तमान युग में किस प्रकार प्राकृतिक शक्तियों पर मानव ने विजय प्राप्त की है, यह हर बालक को सीखना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त उसमें परीक्षण तथा अन्वेषण करने की भावना का विकास करना भी आवश्यक है। बालक में निरीक्षण, समता और तुलना तथा शुद्ध सामान्य सिद्धान्तों के बनाने की आदतों का निर्माण करना भी समाज तथा मानव- कल्याण के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। विज्ञान का अध्ययन इन्हीं कारणों से आवश्यक है।

गणित – पाठ्यक्रम में इस विषय को भी प्रधान विषय की भाँति रखा जाना आवश्यक है, क्योंकि यह विषय तर्क तथा अमूर्त विचारों के विकास में अत्यन्त सहायक होता है। इसके अतिरिक्त
इसकी उपयोगिता दैनिक जीवन में भी बहुत है। बिना गणित के ज्ञान के हम दैनिक जीवन की साधारण से साधारण समस्याओं को हल करने में असफल रहेंगे। वर्तमान युग में गणित का महत्त्व इस कारण
भी अधिक है कि समस्त विज्ञान का विकास इसी विषय पर निर्भर है।

भाषा-भाषा को में प्रधानता दिये बिना किसी भी प्रकार के विषय की शिक्षा सम्भव नहीं है। बिना भाषा – ज्ञान के न तो बालक व्यक्तिगत और न सामाजिक समस्याओं का समाधान करने में सफल होगा। भाषा को भली-भाँति पढ़े बिना बालक अपने विचार व्यक्त नहीं कर पायेगा और इस प्रकार उसका विकास रुक जायेगा।

कोर पाठ्यक्रम की विशेषताएँ /गुण

कोर पाठ्यक्रम की प्रमुख विशेषताएँ/गुण निम्न प्रकार हैं-

1. यह पाठ्यक्रम सभी छात्रों की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करता है।
2. इसमें विषय-वस्तु के परम्परागत शिक्षण को समाप्त कर दिये जाते हैं तथा कई विषयों को एक साथ मिलाकर पढ़ाया जाता है।
3. इसमें समय-विभाग चक्र लचीला होता है तथा कालांश बड़े होते हैं।
4. इसमें छात्रों एवं शिक्षकों के सम्बन्ध अधिक घनिष्ठ होते हैं तथा अध्ययन-अध्यापन के साथ- साथ परामर्श भी चलता है।
5. इसमें शिक्षण समस्या-केन्द्रित होता है तथा छात्रों को कार्यों एवं समस्याओं को हल करने का अनुभव प्राप्त होता है।
6. यह पाठ्यक्रम मनोवैज्ञानिक एवं बाल-केन्द्रित होता है।
7. इसमें विभिन्न प्रकार के अधिगम अनुभव प्रयुक्त किये जाते हैं।
8. इसमें अधिकतर शैक्षिक कार्यक्रम छात्र और शिक्षक मिलकर आयोजित करते हैं।
9. इसके अन्तर्गत व्यापक निर्देशन कार्यक्रम की व्यवस्था रहती है।
10. यह पाठ्यक्रम सबसे अधिक प्रचलित है।

कोर पाठ्यक्रम की सीमाएँ

1. इस पाठ्यक्रम में छात्रों के सभी महत्वपूर्ण अनुभवों को स्थान प्राप्त नहीं होता है।
2. इस पाठ्यक्रम द्वारा प्राप्त किए हुए ज्ञान में कोई क्रमबद्धता नहीं पायी जाती तथा ज्ञान असंगठित रहता है।
3. इस पाठ्यक्रम द्वारा शिक्षण में अधिक समय लगता है।
4. हमारे आज के शिक्षक कोर पाठ्यक्रम द्वारा शिक्षा देने में कुशल नहीं होते।
5. इस पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़े छात्र कॉलेजों में प्रवेश पाने के नियमों को पूरा नहीं कर पाते। अतः उनका प्रवेश कठिन हो जाता है।

 

प्रश्न 3 (ii) ज्ञान की प्रकृति का वर्णन कीजिए।
ज्ञान की प्रकृति पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो इसे दो रूपों में व्यक्त किया जा सकता है-

1. ज्ञान एक साध्य के रूप में
एक साध्य के रूप में ज्ञान को तब माना जाता है जब उसे हम प्राप्त करना चाहते हैं। ज्ञान स्वतंत्र रूप में उपस्थित होता है परन्तु जब तक उसका अर्जन न किया जाए तब तक उसका उपयोग न व्यक्ति के लिए और न ही समाज के लिए किया जा सकता है। परम्परागत रूप में ज्ञान को एक साध्य के रूप में ही देखा जाता है जिसकी प्राप्ति प्राचीन काल में घर के सदस्यों द्वारा की जाती थी। प्राचीन काल में शिक्षा गुरुकुलों में प्रदान की जाती थी और शिक्षण विधि के रूप में मौखिक प्रणाली का प्रयोग किया जाता था परन्तु बाद में ज्ञानार्जन के लिए लिखित प्रणाली का प्रयोग किया जाने लगा।
वर्तमान काल में प्राचीन काल की तुलना में मशीनों का अधिक प्रयोग होने लगा है। ज्ञानार्जन के लिए पाठ्यक्रम में निरन्तर वृद्धि तथा परिवर्तन होता जा रहा है।
वर्तमान समय में स्कूलों में प्रदान किया जाने वाले ज्ञान का क्षेत्र पहले की तुलना में अधिक विस्तृत हो गया है अर्थात् ज्ञान एक साध्य के रूप में अधिक विस्तृत हो गया है। वर्तमान समय में ज्ञान की मात्रा में ही नहीं अपितु उसके स्वरूप में भी परिवर्तन आ गया है। आजकल नये-नये आधुनिक ज्ञान भी दिये जाने लगे हैं। जैसे विदेशी भाषाओं का ज्ञान, कम्प्यूटर का ज्ञान, आदि। स्कूली पाठ्यक्रम में प्राथमिक कक्षाओं से ही कम्प्यूटर पढ़ाया जाने लगा है। इण्टर स्तर तक के छात्रों के लिए आई.टी. औद्योगिक व्यवसायों के रूप में तकनीकी ज्ञान रखने वालों के लिए उपलब्ध है। ज्ञान साध्य के रूप में तब भी बन जाता है जब कोई छात्र ज्ञानार्जन इसलिए करता है ताकि उच्चतर स्तर का ज्ञान प्राप्त कर सके। प्रत्येक स्तर पर दिया जाने वाला ज्ञान अपने से पहले स्तर पर दिये गये ज्ञान से अधिक व्यापक तथा एक-दूसरे से किसी-न-किसी रूप में सम्बन्धित होता है । साध्य के रूप में ज्ञान व्यवस्थित, क्रमिक पाठ्यक्रम का एक भाग बनाकर दिया जाता है।

2. ज्ञान एक साधन के रूप में
ज्ञान एक साधन के रूप में तब बन जाता है जब ज्ञान प्राप्त करके किसी प्रत्यय की समझ विकसित करनी हो, जैसे-अधिगम का सिद्धान्त ज्ञान के रूप में तब साधन बन जाता है जब इसका प्रयोग सीखने की प्रक्रिया को समझने हेतु किया जाए। जब हम कुछ सीखते या समझते हैं तब ज्ञान का प्रयोग एक साधन के रूप में करते हैं। समझने के लिए सैद्धान्तिक ज्ञान का प्रयोग करना पड़ता है। मानव में बोध उत्पन्न करने हेतु वैध ज्ञान का सहारा लेना पड़ता है। क्योंकि वैध ज्ञान की मदद से ही किसी अवधारणा के नियमों को समझा जा सकता है। किसी भी व्यक्ति या वस्तु या प्रकरण का ज्ञान अर्जित करके इसका अनुप्रयोग करने हेतु उसका व्यावहारिक जीवन में प्रयोग किया जाए। इस प्रकार ज्ञान की किसी वास्तविक परिस्थिति में प्रयोग किया जाए।

ज्ञान का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा उत्कृष्ट पहलू यही है कि ज्ञान की मदद से समझ विकसित करने के पश्चात् यह जीवन की वास्तविक परिस्थितियों में उत्पन्न स्थिति में इस ज्ञान का प्रयोग किया जा सकता है। जब हम ज्ञान का वास्तविक जीवन में प्रयोग करके अपने कार्य को आसान एवं उपयोगी बनाते हैं तब ज्ञान एक साधन के रूप में हमारी मदद करता है। विज्ञान के नियमों को जब हम अपने जीवन में प्रयोग करते हैं तब इस ज्ञान को एक साधन के रूप में ही समझा जाता है। भाषा के ज्ञान का अनुप्रयोग हम व्यावहारिक संचार के रूप में करते हैं। इंजीनियरिंग से सम्बन्धित ज्ञान को व्यावहारिक रूप में मशीनों एवं घरों के निर्माण में प्रयोग करना, आदि सिद्ध करता है कि ज्ञान एक साधन है। ज्ञान है का प्रयोग विश्लेषण हेतु भी किया जाता है। विश्लेषण की योग्यता यदि उद्देश्य की प्राप्ति हो तो ज्ञान एक साधन के रूप में इसमें सहायक सिद्ध होता है। ज्ञान का प्रयोग कई बार हम परिस्थितियों के विश्लेषण हेतु भी करते हैं। ऐसा ज्ञान जो विश्लेषण करने के काम आता है, साधन के रूप में ही होता है। ज्ञान का प्रयोग संश्लेषण के लिए भी किया जाता है। संश्लेषण की प्रक्रिया कुछ नवीन सृजन करने से सम्बन्धित होती है। इस प्रक्रिया में ज्ञान एक साधन के रूप में सहायता प्रदान करता है। ज्ञान का प्रयोग मूल्यांकन कार्यों के लिए भी किया जाता है और इसके द्वारा निष्कर्ष भी निकाले जाते हैं।

यह वर्तमान से लेकर भविष्य तक चलता है। भविष्य की पीढ़ियों के लिए सदैव परिमार्जित एवं संशोधित रूप में हस्तांतरित होता है। ज्ञान की यदि प्रकृति पर ध्यान दिया जाए तो इसके विषय में निम्नलिखित बातें कही जा सकती हैं-

1 ज्ञान किसी परिस्थिति और प्रक्रिया से सम्बन्धित तथ्य और सत्य है। इसे सत्य से अलग नहीं किया जा सकता है।
2.यह अनुभवों की समझ पर आधारित सूचनाएँ हैं।
3 ज्ञान आत्मगत होता है इसका हस्तांतरण नहीं होता है।
4. ज्ञान वह सूचना है जो मस्तिष्क में प्रेषित हो जाती है।
5. ज्ञान सम्पूर्ण समाज के लिए उपयोगी साबित होता है। यह केवल व्यक्ति को ही लाभ नहीं.
• पहुँचाता है बल्कि सम्पूर्ण समाज को लाभ पहुँचाता है इसलिए यह सबके लिए उपयोगी माना जाता है।

प्रश्न 3 (iii) ज्ञान के विविध स्वरूप क्या हैं? उदाहरणों की सहायता से स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – ज्ञान किसी वस्तु के सम्बन्ध में जानकारी है। वह वस्तु कुछ भी हो सकती है बन्दर बैंक द्वारा दिया हुआ कर्ज या गणित की समस्या इत्यादि। ज्ञान का उद्देश्य किसी वस्तु के सम्बन्ध में जैसी वह है वैसी ही उसकी जानकारी होना है। हमारी इस बात की चिन्ता कि हम ठीक से जान जायें कि यह वस्तु यथार्थ में वैसी ही है जैसा उसका ज्ञान यह जाहिर कर देता है कि इस बात की सम्भावना है कि हम धोखा खा रहे हों और हमारे कुछ निर्णय उस वस्तु के सम्बन्ध में गलत भी हो सकते हैं। एक गलत निर्णय हमें इस बात से अवगत न कराकर कि वस्तु यथार्थ में कैसी है इस बात का ज्ञान हमें करायेगी कि वस्तु हमें ऐसी प्रतीत होती है। अतएव यदि हम उन दशाओं के सम्बन्ध में जानकारी रख सकते हैं जिनमें हमारे निर्णय सत्य हैं तब हम उसके साथ-साथ ऐसे स्तर निर्धारित कर सकते हैं जिनके द्वारा हम कृत्रिम का यथार्थता से विभेद कर सकते हैं।

किसी वस्तु के सम्बन्ध में जब हम यह कहते हैं कि हमें उसकी जानकारी है तो हम यह मानकर चलते हैं कि यह जानकारी सत्य है। अतएव ज्ञान की धारणा में पहली बात तो यह निहित है कि ज्ञान अवश्य सत्य होना चाहिए। जैसे जब हम कहते हैं कि सोहन को हम जानते हैं तो सोहन से हमारा परिचय सत्य होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि ज्ञाता को उस बात की सत्यता में विश्वास होना चाहिए। हमें विश्वास होना चाहिए कि हम सोहन को जानते हैं तथा तीसरी बात यह कि ज्ञाता के पास इस बात के पर्याप्त प्रमाण होने चाहिए कि यह बात सत्य है। हमारे पास इस बात के प्रमाण होने चाहिए कि हम सोहन को जानते हैं जैसे हम सोहन से कई बार मिल चुके हैं या हम और सोहन साथ-साथ पढ़े हैं इत्यादि। इस प्रकार ज्ञान के अर्थ में तीन बातें आती हैं—सत्यता, सत्यता में विश्वास तथा सत्यता के लिए पर्याप्त प्रमाण

ज्ञान के प्रकार

हम तीन प्रकार के ज्ञान का वर्णन कर सकते हैं-

(i) आगमनात्मक ज्ञान-इस प्रकार का ज्ञान हमारे अनुभव तथा निरीक्षण पर आधारित है। जॉन लॉक इस प्रकार के ज्ञान के प्रवर्तक हैं। उनके अनुसार बालक का मन जन्म के समय कोरी पटिया के समान होता है। जैसे-जैसे अनुभव मिलते जाते हैं इस पटिया पर लेखन होने लगता है। इससे तात्पर्य है कि ज्ञान अनुभवों द्वारा वृद्धि करता रहता है। शिक्षा में इस प्रकार के ज्ञान के प्रवर्तक कहते हैं कि सीखने के लिए समग्र अनुभव प्रदान करने चाहिए। इस प्रकार के ज्ञान में अलौकिक का कोई स्थान नहीं है।

(ii) प्रयोगमूलक ज्ञान-ज्ञान प्रयोग द्वारा प्राप्त होता है, ऐसा प्रयोजनवादियों की धारणा है ड्यूवी का कहना है कि ज्ञान की प्रक्रिया ‘एक प्रयास एवं सहन’ की प्रक्रिया है—एक विचार का अभ्यास में प्रयास करना एवं ऐसे प्रयास के परिणाम से जो फल प्राप्त होते हैं उनसे सीखना। इस धारणा के अनुसार ज्ञान कोई भी ऐसी चीज नहीं है जिसे हम समझें कि वह अनुभव या निरीक्षण से अन्तिम रूप से समझी जा सकती है, जबकि हम ऐसी विधियों का प्रयोग करते हैं जैसे आगमन। यह तो कुछ ऐसी वस्तु है जो अनुभव में सक्रिय होती है। एक कृत्य की भाँति जो अनुभव को सन्तोषपूर्ण ढंग से आगे की ओर ले जाती है।

(iii) प्रागनुभव ज्ञान – ज्ञान स्वयं-प्रत्यक्ष की भाँति समझा जाता है। सिद्धान्त जब समझ लिए जाते हैं, सत्य पहचान लिए जाते हैं फिर उन्हें निरीक्षण, अनुभव या प्रयोग द्वारा प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती। इस विचारधारा के प्रवर्तक काण्ट हैं जो कहते हैं कि सामान्य सत्य अनुभव से स्वतन्त्र होने चाहिए—उन्हें स्वयं में स्पष्ट तथा निश्चित होना चाहिए। गणित का ज्ञान प्रागनुभव ज्ञान समझा जाता है।
उपर्युक्त वर्णन के अनुसार एक प्रकार का ज्ञान वह है जो अनुभव के पश्चात् प्राप्त होता है। दूसरे प्रकार का वह है जो प्रयोग, निरीक्षण तथा अनुभव पर केन्द्रित है तथा तीसरे प्रकार का ज्ञान अनुभव
से परे है। इस प्रकार के ज्ञान के सम्बन्ध में धारणा होती है कि अनुभव केवल तथ्य ही देता है तथ्य किसी बात को सिद्ध नहीं करते। उनसे सत्य का ज्ञान उस समय तक नहीं हो सकता जब तक कि उनको संगठित न किया जाए। तर्क द्वारा वह संगठित किये जाते हैं। इस प्रकार तर्क या बुद्धि अनुभव को ज्ञान में परिवर्तित करता जाता है, किन्तु कुछ सत्य को अनुभव से प्राप्त तथ्यों की कोई आवश्यकता नहीं होती। यह स्वयं स्पष्ट तथा स्वयंसिद्ध है। प्रागनुभविक ज्ञान ऐसा ज्ञान कहलाता है जिसे बुद्धि अनुभव की सहायता के बिना प्राप्त करती है।
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शिक्षण प्रदान करने में हमें इन तीनों प्रकार के ज्ञान को ध्यान में रखना चाहिए। विभिन्न विषयों का ज्ञान हमें अनुभव द्वारा प्राप्त होता है। गणित या तर्कशास्त्र का ज्ञान प्रागनुभविक प्रकार का ज्ञान है। गणित के शिक्षण के समय हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए।

(नवीन) बी. एड. द्वितीय वर्ष (तृतीय सेमेस्टर) : तृतीय प्रश्न-पत्र : ज्ञान व पाठ्यक्रम (303) .

प्रश्न 3 (iv) ज्ञान के प्राप्ति की विधियों की विवेचना कीजिए।
ज्ञान के स्रोत यदि ज्ञान की उत्पत्ति अथवा उद्गम की चर्चा करते हैं तो ‘ज्ञान प्राप्ति की विधियों’ के अन्तर्गत इस विषय पर विचार किया जा सकता है कि उस ज्ञान को प्राप्त कैसे किया जाए। मानव का स्वभाव प्रकृति से ही जिज्ञासु प्रवृत्ति का रहा है अर्थात् वह अपने आसपास घटने वाली प्रत्येक घटना का ज्ञान प्राप्त करने के प्रयास में सदैव लगा रहता है। ज्ञान कभी भी समाप्त न होने वाली भूख है। इसलिए मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने ज्ञान को समय के साथ निरन्तर समायोजित युग करता रहे। ज्ञान प्राप्त करने की यह जिज्ञासा प्रत्येक आयु के व्यक्ति में पायी जाती है। आज के में बदलती परिस्थितियों के अनुसार व्यक्ति यदि अपने ज्ञान को नहीं बदलेगा तो वह समय व अपने साथियों से पिछड़ जाएगा। विभिन्न दार्शनिक विचारधाराएँ ज्ञान के स्वरूप, प्रकार तथा स्रोतों के विषय में विचार करने के साथ-साथ उसको प्राप्त करने की विधियों के विषय में भी अपने विचार व्यक्त करती *हैं। ये विधियाँ वास्तव में ज्ञान के स्वरूप तथा स्रोतों पर ही आधारित होती हैं। इन्द्रियों, तर्क और विश्वासों के आधार पर शिक्षाविदों और दार्शनिकों ने ज्ञान प्राप्त करने की कुछ विधियों का निर्माण किया है। ये विधियाँ निम्नलिखित हैं-

1. अंतर्बोध-इस विधि में न तो तर्क का इस्तेमाल होता है और न ही ज्ञानेंद्रिय अनुभव का। सम्पूर्ण ज्ञान में अंतर्ज्ञान का तत्त्व मौजूद होता है। यह केवल भूतकाल के अनुभवों और सोच पर आधारित होता है। इस विधि में हमें वस्तुओं की वास्तविकता का ज्ञान होता है। इस विधि से उच्चतम एवं दार्शनिक ज्ञान की प्राप्ति होती है।

2. एकाग्रता एवं ध्यान विधि-परम सत्ता तथा ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह विधि प्रभावशाली है। इस विधि का सम्बन्ध भी ज्ञान के आध्यात्मिक स्तर के साथ है। सभी भारतीय दर्शनों ने इस विधि के महत्त्व को स्वीकार किया है। इस विधि के अन्तर्गत व्यक्ति अपने ध्यान को अन्य विषयों से हटाकर केवल उसी वस्तु या विचार विधि के माध्यम से शांत स्थान पर ध्यान केन्द्रित करके अपना सम्बन्ध अलौकिक शक्ति के साथ जोड़ने का प्रयास करते थे। महात्मा बुद्ध ने इसी विधि द्वारा परम बोध को प्राप्त किया।

3. शब्द – विधि- ज्ञान प्राप्ति की यह काफी महत्त्वपूर्ण विधि है। आज हमारी शिक्षा प्रणाली में इसका सर्वाधिक प्रयोग होता है। इस विधि के अन्तर्गत व्यक्ति लिखित विषय सामग्री को पढ़कर अथवा विश्वसनीय व्यक्तियों के विचारों को सुनकर ज्ञान अर्जित करता है। साधारण भाषा में हम इसे मौखिक अथवा लिखित शब्दों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त कराने वाली विधि कह सकते हैं। मानव जाति ने युगों से जिन ज्ञान को संचित किया है, उसे न प्रत्यक्ष विधि से प्राप्त किया जा सकता है और न ही केवल अन्तःप्रज्ञा, एकाग्रता अथवा प्रयोग द्वारा। इसके लिए सबसे उपयुक्त विधि है— शब्द-विधि।

4. अथॉरिटी को अपील करना-अथॉरिटी ज्ञान का स्रोत न तो बुद्धि है न ही इन्द्रियानुभव। इस विधि की मुख्य विचारधारा किसी प्रकार की अथॉरिटी से अपील करना है। जैसे चर्च, विशेषज्ञों की राय आदि। प्रायः देखा गया है कि बहुत-सा ज्ञान जो हमारे पास है, उसे न तो ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा प्राप्त किया गया है और न ही इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बुद्धि का प्रयोग किया गया है। हमें ऐसे ज्ञान के लिए विशेषज्ञों पर निर्भर रहना पड़ता है। ज्ञान के अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग-अलग विशेषज्ञ होते हैं। विशेषज्ञ वह व्यक्ति होता है जो अपने अनुभव के आधार पर किसी क्षेत्र का इतना ज्ञान रखता है कि उसके ज्ञान को चुनौती नहीं दी जा सकती। इसलिए उसके ज्ञान को सच माना जाता है। कभी यह विश्वास किया जाता था कि धरती गोल नहीं चपटी है। बाद में तर्क को आधार बनाकर खोज की गई। ऐसी संस्था जो काफी समय से अस्तित्व में हो उसे अथॉरिटी समझा जा सकता है। प्रत्येक आदमी इस विधि का प्रयोग ज्ञान प्राप्ति के लिए करता है। उदाहरण के लिए, हमारे माता-पिता द्वारा बताए गए जीवन-मूल्यों, परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यों को हम बिना चुनौती दिए स्वीकार करते हैं।

5. हेतुवाद- हेतुवादियों का मानना है कि ज्ञान विचारों की तुलना के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। तर्क के आधार पर ज्ञान प्राप्त करने की दो विधियाँ हैं-

(क) आगमन विधि-इस विधि में हम विशेष से सामान्य की ओर चलते हैं तथा मूर्त से अमूर्त की ओर चलते हैं। इससे सिद्धान्त का निर्माण होता है। हम उदाहरणों से शुरू करते हैं और सिद्धान्तों पर पहुँचते हैं।
(ख) निगमन विधि-यह विधि आगमन विधि से विपरीत है। हम इस विधि में सामान्य से विशेष की ओर बढ़ते हैं। हम एक सिद्धान्त से शुरू करते हैं और इसकी व्याख्या उदाहरणों के द्वारा करते हैं।

6. प्रयोगात्मक विधि-इस विधि में ज्ञान लेबोरेट्री में प्रयोग के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। यह विधि भौतिक विज्ञान, मनोविज्ञान, भूगोल आदि विषयों में ज्ञान प्राप्त करने के लिए उपयोग में लाई जाती है।

7. समस्या समाधान विधि-प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में समस्याओं का सामना करता है। इन समस्याओं का हल ज्ञान बन जाता है। यह विधि मानसिक और बौद्धिक विकास करने के लिए उत्तम है। यह विधि गणित में सबसे अधिक कारगर है।

8. प्रत्यक्ष विधि- प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो के अनुसार, “ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान के द्वार हैं।” जब हमारी इन्द्रियाँ बाहरी विषयों के सम्पर्क में आती हैं तो हमें उस वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्त करने की इस विधि को प्रत्यक्ष विधि कहा जाता है। इस विधि में ज्ञान प्राप्ति के लिए अन्य माध्यम की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार ज्ञान प्राप्त करने की सबसे आरम्भिक विधि है— ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग। हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं—आँख, कान, नाक, मुख व त्वचा। इनके द्वारा देखकर, सुनकर, सूंघकर, स्वाद लेकर व स्पर्श कर व्यक्ति विभिन्न वस्तुओं के विषय में ज्ञान प्राप्त करता है। न्याय दर्शन के अनुसार, “इस विधि से यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित करना आवश्यक है।”

9. ज्ञानेन्द्रिय अनुभव – ज्ञानेंद्रिय अनुभव ज्ञान प्राप्त करने की एक मुख्य विधि हैं। आधुनिक विज्ञान की प्रकृति अनुभव पर आधारित है। अवधारणाओं का विकास ज्ञानेंद्रिय अनुभवों के परिणामस्वरूप होता है। न्याय दर्शन के अनुसार, “इस विधि से यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्ञानेंद्रियों को प्रशिक्षित करना आवश्यक है।”

(अ) करके सीखना-
हम ज्ञानेंद्रियों का प्रयोग करते हुए कुछ कार्य करते हैं और ज्ञान प्राप्त, करते हैं। जब एक बच्चा बर्फ को छूता है तो उसे पता लगता है कि बर्फ ठंडी है। इस प्रकार प्राप्त किया गया ज्ञान स्थायी होता है।

(ब) निरीक्षण-
समाज में रहते हुए बालक अपने आसपास के वातावरण का प्रेक्षण करता है। इस निरीक्षण के आधार पर वह अनुभवों को वास्तविक जीवन से जोड़कर देखता है। इस प्रक्रिया में तथ्यों का तर्क के आधार पर देखा जाता है। प्राकृतिवाद इस विधि में विश्वास करता है, क्योंकि इसका मानना है कि प्रकृति ज्ञान का सबसे अच्छा स्रोत होता है।

उपर्युक्त समस्त विवेचन से स्पष्ट है कि विभिन्न दर्शनों के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने की सम विधियाँ ज्ञान प्राप्ति में अपने ढंग से सहयोग देती है। ज्ञान प्राप्ति की प्रत्येक विधि का ज्ञान प्राप्त करने में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में खेल विधि, समस्या समाधान विधि, विवाद, ब्रेन स्टॉर्मिंग विधि आदि विधियाँ बालकों को ज्ञान प्राप्त करने में सहायता हेतु प्रयुक्त की जाती है
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इकाई-II

प्रश्न 4 (i) पाठ्यक्रम से आप क्या समझते हैं? इसकी प्रकृति एवं महत्व पर प्रकाश डालिए।

पाठ्यक्रम

पाठ्यक्रम शब्द अंग्रेजी के करीकुलम (Curriculum) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। ‘करीकुलम’ शब्द लैटिन भाषा से अंग्रेजी में लिया गया है। यह शब्द लैटिन शब्द ‘कुर्रेर’ से बना है। कुर्रेर का अर्थ है दौड़ का मैदान । अतः दूसरे शब्दों में, करीकुलम वह क्रम है जिसे किसी व्यक्ति को अपने गन्तव्य स्थान तक पहुँचने के लिए पार करना होता है। अतः पाठ्यक्रम वह साधन है, जिसके द्वारा शिक्षा तथा जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति होती है। यह अध्ययन का निश्चित तथा तर्कपूर्ण क्रम है, जिसके माध्यम से छात्र के व्यक्तित्व का विकास होता है तथा वह नवीन ज्ञान एवं अनुभव अर्जित करता है। शिक्षा के अर्थ के सन्दर्भ में दो धाराएँ प्रचलित हैं- प्रथम प्रचलित अथवा संकुचित अर्थ और द्वितीय वास्तविक एवं व्यापक अर्थ । संकुचित अर्थ में शिक्षा केवल स्कूली शिक्षा या पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित होती है. परन्तु विस्तृत अर्थ पाठ्यक्रम के अन्तर्गत वे सभी अनुभव आ जाते हैं जिसे एक नयी पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ियों से प्राप्त करती है। साथ ही विद्यालय में रहते हुए एक शिक्षक के संरक्षण में छात्र जो भी क्रियाएँ करता है, वे सभी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत आती हैं तथा इसके अतिरिक्त विभिन्न पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ भी पाठ्यक्रम का अंग होती हैं। अतः वर्तमान समय में पाठ्यक्रम से तात्पर्य उसके विस्तृत स्वरूप से ही है।

पाठ्यक्रम की प्रकृति

पाठ्यक्रम के स्वरूप को अच्छी तरह समझने के लिए हमें शिक्षा के विकास पर दृष्टिपात करना होगा। प्राचीनकाल में शिक्षा का स्वरूप पूर्णतया अनौपचारिक होता था। अर्थात् शिक्षा किसी विधि एवं क्रम में बँधी हुई नहीं थी। उस समय बालकों की शिक्षा उनके परिवार एवं समाज की जीवनचर्या के मध्य चलती रहती थी तथा बालक उसमें सहभागी बनकर प्रत्यक्ष अनुभव निरीक्षण के माध्यम से तथा अपने बड़ों एवं पूर्वजों के अनुभव सुनकर शिक्षा प्राप्त करता था । पाठ्यक्रम का अर्थ पाठ्यवस्तु लगाया जाता था। वस्तुतः पाठ्यवस्तु को विद्यालय विषयों तक सीमित कर दिया जाता था। कक्षा-कक्ष के बाहर ग्रहण किये गये अनुभवों को पाठ्यक्रम का अंग नहीं माना जाता था, किन्तु सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव के ज्ञानराशि के संचित कोष में निरंतर वृद्धि होती गई तथा मनुष्य के जीवन में जटिलताएँ एवं विविधताएँ आती गईं। इसके फलस्वरूप व्यक्ति के पास समय एवं साधन का अभाव होने लगा तथा उसकी शिक्षा अपूर्ण रहने लगी। अतः प्रत्येक विकासशील समाज ने अपने बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से इसे विधिवत् एवं क्रमबद्ध बनाने के प्रयास प्रारम्भ किए। विद्यालयों का उद्भव तथा उनकी स्थापना इन्हीं प्रयासों के परिणाम हैं। इस प्रकार समाज जो उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण ज्ञान अपने बालकों को समुचित ढंग से नहीं दे पा रहा था उसने उसकी जिम्मेदारी अनुभवी विद्वानों को सौंप दी। इन विद्यालयों द्वारा बालकों को जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने तथा उन्हें समुचित ढंग से शिक्षा प्रदान करने हेतु जो धनराशि निश्चित एवं निर्धारित की गई तथा की जाती है उसे पाठ्यक्रम कहते हैं। अतः हम यह भी कह सकते हैं कि पाठ्यक्रम अध्ययन का ही एक क्रम जिसके अनुसार चलकर छात्र अपना विकास करता है। अतः यदि शिक्षा की तुलना दौड़ से की जाए तो पाठ्यक्रम उस दौड़ के मैदान के समान है जिसे पार करके दौड़ने वाले अपने निश्चित लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं।

आधुनिक समय में पाठ्यक्रम के स्वरूप में काफी परिवर्तन हो गये हैं। जहाँ प्राचीन अवधारणा के अनुसार पाठ्यक्रम का अर्थ पाठ्यवस्तु की एक सूची के रूप में लगाया जाता था और पाठ्यवस्तु को अध्ययन विषय के नाम से पुकारा और पाठ्यवस्तु को विद्यालयीय विषयों तक सीमित कर दिया जाता था पर आज पाठ्यक्रम की परिभाषाएँ काफी व्यापक हो गयी हैं। इसमें केवल विद्यालयीय विषयों को ही समाहित नहीं किया जाता बल्कि बालक की अन्य सभी क्रियाओं तथा उनके अनुभवों को भी सम्मिलित किया जाता है जिनके लिए विद्यालय मार्गदर्शन करता है। आधुनिक समय में पाठ्यक्रम को बहुत व्यापक रूप में देखा जाने लगा है और इसके अन्तर्गत वे सभी क्रियाएँ आ जाती हैं जो अतिरिक्त पाठ्यक्रम क्रियाओं के नाम से प्रचलित थीं। विद्यालयों का प्रमुख कार्य बालकों को शिक्षा प्रदान करना होता है और इसको पूर्ण करने के लिए वहाँ पर जो कुछ भी किया जाता है उसे पाठ्यक्रम का नाम दिया जाता है। इसीलिए पाठ्यक्रम को परिभाषित करते हुए विद्वानों ने इसे ‘व्हाट ऑफ एजूकेशन’ कहा है। प्रथम दृष्टि में यह परिभाषा बहुत अधिक सरल एवं स्पष्ट प्रतीत होती है, परन्तु इस ‘व्हाट’ की व्याख्या करना तथा कोई निश्चित उत्तर प्राप्त करना बहुत कठिन कार्य है। इस सन्दर्भ में अमेरिका के नेशनल एजूकेशन एसोसिएशन ने अपनी टिप्पणी निम्न प्रकार की है—

“विद्यालयों का कार्य क्या है? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर कई बार अनेक ढंग से दिया जा चुका है फिर भी बार-बार उठाया जाता है। कारण स्पष्ट है यह एक ऐसा शाश्वत प्रश्न है जिसका उत्तर अंतिम रूप से कभी दिया भी नहीं जा सकता है तथा प्रत्येक समाज एवं प्रत्येक पीढ़ी की बदलती हुई प्रकृति एवं आवश्यकताओं के अनुसार बदलता रहता है।”

इसी प्रकार शिक्षा के इतिहास से भी इस बात की पुष्टि होती है कि समय के साथ-साथ पाठ्यक्रम परन्तु में भी परिवर्तन होते रहे हैं तथा इसमें कभी व्यापकता तथा कभी संकीर्णता. आती रही है, शिक्षाविदों को जब इस बात का आभास मिला कि विद्यालयों में शिक्षित युवक सदैव अपने भावी जीवन में सफल नहीं हो पाते हैं तब यह निष्कर्ष निकाला गया कि जीवन की तैयारी के लिये पढ़ना- लिखना ही सब कुछ नहीं है। मनोविज्ञान के विकास ने भी इस धारणा को बल प्रदान किया कि केवल अध्ययन-अध्यापन पर ही पूरा ध्यान रखना बालकों के विकास की दृष्टि से न केवल एकाकी है, बल्कि अन्य प्रवृत्तियों के समुचित विकास के अभाव में हानिप्रद भी हो सकता है। इस दृष्टिकोण का प्रभाव विद्यालयों के कार्यक्रमों पर पड़ा और उनमें व्यापकता आनी प्रारम्भ हुई। अतः विद्यालयों में पाठ्य-विषयों के साथ-साथ ऐसी प्रवृत्तियों का भी समावेश किया जाने लगा, जिनमें बालकों में बौद्धिक ज्ञान के साथ-साथ स्वास्थ्य, सौन्दर्यबोध, सृजनात्मकता तथा अन्य मानवीय एवं सामाजिक गुणों का समुचित विकास हो सके। इस प्रकार उतार-चढ़ाव के पश्चात् वर्तमान शताब्दी में पाठ्यक्रम की व्यापकता की दृष्टि से अनेक विद्वानों ने इसे अपने-अपने ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया। बविट के अनुसार, “उच्चतर जीवन के लिए प्रतिदिन और चौबीस घण्टे की जा रही समस्त क्रियाएँ पाठ्यक्रम के अन्तर्गत आ जाती हैं।”

ले के अनुसार, “पाठ्यक्रम का विस्तार वहाँ तक है जहाँ तक जीवन का।”

परन्तु विद्वानों के उपर्युक्त विचारों को पाठ्यक्रम की समुचित परिभाषा मानना तर्कसंगत नहीं लगता है, क्योंकि पाठ्यक्रम का सम्बन्ध शिक्षा के औपचारिक अभिकरण विद्यालय से है तथा विद्यालय ही पाठ्यक्रम की सीमा भी है। इस दृष्टि से पाठ्यक्रम को विद्यालय के घेरे में ही परिभाषित करना उचित लगता है।

बाल्टर एस. मुनरो के शब्दकोश के अनुसार, “पाठ्यक्रम को किसी विद्यार्थी द्वारा लिये जाने वाले विषयों के रूप में परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम की कार्यात्मक संकल्पना के अनुसार इसके अंतर्गत वह सब अनुभव आ जाते हैं जो विद्यालय में शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं।” इस संकल्पना के अनुसार पाठ्यक्रम विकास के अन्तर्गत प्रयुक्त किये जाने वाले अनुभवों के आयोजन में पाठ्यक्रम को व्यवस्थित करने, उसे क्रियान्वित करने तथा उसका मूल्यांकन करने सम्बन्धी पक्ष सम्मिलित होते हैं।

माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, “पाठ्यक्रम का अर्थ केवल उन सैद्धान्तिक विषयों से नहीं है जो विद्यालयों में परम्परागत रूप से पढ़ाये जाते हैं, बल्कि इसमें अनुभवों की वह सम्पूर्णता भी सम्मिलित होती है, जिनको विद्यार्थी विद्यालय, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कार्यशाला, खेल के मैदान तथा शिक्षक एवं छात्रों को अनेक अनौपचारिक सम्पर्कों से प्राप्त करता है। इस प्रकार विद्यालय का सम्पूर्ण जीवन पाठ्यक्रम हो जाता है जो छात्रों के जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है और उनके सन्तुलित व्यक्तित्व के विकास में सहायता करता है।”

महत्त्व

किसी भी विषय सम्बन्धी शिक्षण लक्ष्य को पाने के लिए एक निश्चित पाठ्यक्रम का होना नितान्त आवश्यक है। शिक्षा सम्बन्धी सभी अनुभव का समावेश इसी पाठ्यक्रम में किया जाता है। पाठ्यक्रम से विद्यार्थियों के व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सकता है। विषय शिक्षण के सन्दर्भ में ही पाठ्यक्रम निर्माण की आवश्यकता निरन्तर बनी रहती है। पाठ्यक्रम के महत्त्व निम्नलिखित हैं-

1. पाठ्यक्रम शिक्षण को नियमित बनाता है-
विद्यालय में शिक्षण कार्य को नियमित बनाने व उसे सुनियोजित करने में पाठ्यक्रम की विशेष आवश्यकता पड़ती है कि विद्यालय में अमुक कक्षा के छात्रों को अमुक विषय का कितना ज्ञान प्रदान किया जाएगा।

2. शिक्षण प्रक्रिया को व्यवस्थित करने में सहायक-
पाठ्यक्रम का निर्धारण हो जाने के बाद ही शिक्षक कक्षा में अपनी शिक्षण प्रक्रिया को सुनिश्चित करता है कि कौन से विषय में से कौन-सा उपविषय किस विधि से कितने समय में पढ़ाया जाए।

3. छात्रों के मानसिक स्तर व विकास का मूल्यांकन करने में सहायक –
पाठ्यक्रम के निर्धारित हो जाने पर शैक्षिक सत्र के समाप्ति के बाद यह मूल्यांकन किया जा सकता है कि छात्रों के मानसिक स्तर में कितना सुधार हुआ, उसका कितना विकास हुआ। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निश्चित अवधि के उपरान्त छात्र के ज्ञान की परीक्षा ली जाती है तथा इस परीक्षा में निर्धारित पाठ्यक्रम में से ही प्रश्न-पत्र बनाए जाते हैं। चूँकि सभी विद्यार्थियों ने एक ही पाठ्यक्रम को समान अवधि में पढ़ा है, अतः उनके मानसिक स्तर की परीक्षा लेने के कार्य को न्याय-संगत कहा जा सकता है ।

प्रश्न 4 (ii) पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन हेतु शिक्षक का योगदान बताइए
अथवा
पाठ्यक्रम को व्यावहारिक स्वरूप देने, विकसित करने में शिक्षक की क्या भूमिका है? व्याख्या कीजिए।
अथवा
पाठ्यक्रम विकास में अध्यापकों की भूमिका का वर्णन कीजिए।

उत्तर
किसी भी शैक्षिक कार्यक्रम की सफलता या असफलता उस कार्यक्रम को क्रियान्वित करने वाले शिक्षकों पर निर्भर करती है। शिक्षकों के आचार-विचार आस्थाएँ, मान्यताएँ, सामाजिक पृष्ठभूमि एवं शैक्षिक योग्यता आदि पाठ्यक्रम को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। शिक्षक, शिक्षा प्रक्रिया की महत्त्व पूर्ण धुरी होता है। अतः शिक्षक से जुड़ा प्रत्येक पक्ष इस प्रक्रिया को प्रभावित करता है। उदाहरणार्थ- अधिकांश शिक्षक समाज के मध्यम एवं उच्च वर्ग से आते हैं, अतः वे केवल ऐसे ही अधिगम अनुभव ही कक्षा में प्रस्तुत करते हैं जो केवल उसी वर्ग के बालकों के लिए उपयुक्त होते हैं। साथ ही शिक्षकों का आयुवर्ग भी पाठ्यक्रम को प्रभावित करता है। युवा एवं प्रौढ़ शिक्षकों की सोच एवं अनुभव में पर्याप्त अन्तर होता है। पाठ्यक्रम पर शिक्षक वर्ग का प्रभाव दो प्रमुख रूपों में कार्य करता है-

(i) वैयक्तिक रूप में, (ii) संगठित शक्ति के रूप में।

प्रत्येक शिक्षक कुछ नैतिक मूल्यों में आस्था रखता है तथा जाने-अनजाने वह उनका शिक्षण भी करता रहता है। इसलिए कहावत भी प्रचलित है कि प्रत्येक शिक्षक अनिवार्य रूप से धर्म का शिक्षक होता है। यहाँ पर धर्म का तात्पर्य सामान्य नैतिक आचरण से है। पाठ्यक्रम शिक्षक के लिए अपने विचारों को बालकों तक पहुँचाने का माध्यम होता है। वह प्रायः पाठ्यक्रम की अन्तर्वस्तु का उपयोग अपने विश्वास, दृष्टिकोण एवं मान्यताओं को विद्यार्थियों के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए करता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष ढंग से शिक्षक व्यक्तिगत रूप में पाठ्यक्रम को प्रभावित करता है।

वर्तमान समय में शिक्षक संगठन शक्ति के रूप में भी उभर रहा है। अन्य व्यावसायिक वर्गों के समान ही शिक्षक वर्ग में संगठन भी कार्य करने लगे हैं जो उनकी आर्थिक एवं सेवा सम्बन्धी माँगों को करवाने के साथ-साथ कुछ सीमा तक पाठ्यक्रम को भी प्रभावित करते हैं। ऐसा भी देखने में आया पूरा है कि शिक्षक संगठनों के अलग-अलग गुटों का सम्बन्ध अलग-अलग विचारधाराओं वाले राजनीतिक दलों के साथ होता है। अतः वे अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार पाठ्यक्रम पर प्रभाव डालते हैं। उदाहरणार्थ, ब्रिटेन की सरकार पाठ्यक्रम के बारे में कोई भी निर्णय लेने से पहले वहाँ के शक्तिशाली शिक्षक संघ एन.यू.टी. (नेशनल यूनियन ऑफ टीचर्स) से अवश्य परामर्श करती है। अपने देश भारत में भी शिक्षक संगठनों का प्रभाव-क्षेत्र उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। अखिल भारतीय स्तर पर ‘ऑल इण्डिया सैकण्डरी टीचर्स एसोसिएशन’, ‘ऑल इण्डिया फेडरेशन ऑफ यूनिवर्सिटी टीचर्स ऑर्गनाइजेशन’ आदि तथा राज्य स्तर पर राज्य स्तरीय शिक्षक संगठन पाठ्यक्रम विकास कार्य को प्रभावित करते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में तो पाठ्यक्रम विकास का अधिकांश कार्य वहाँ का प्रभावशाली एवं सम्पन्न शैक्षिक संगठन ‘नेशनल एजूकेशन एसोसिएशन’ अपने पाठ्यक्रम विभाग के माध्यम से कर रहा है। इस प्रकार संगठित शक्ति के रूप में शिक्षक वर्ग पाठ्यक्रम विकास में एक दबाव समूह के रूप में कार्य करता है।

पाठ्यक्रम एवं शिक्षक

पाठ्यक्रम विकास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अभिकरण शिक्षक है। पाठ्यक्रम नियोजन कार्य में इससे सम्बन्धित अन्य घटकों की भागीदारी एवं उनकी सीमाओं के बारे में विवाद हो सकता है किन्तु पाठ्यक्रम विकास के सभी चरणों एवं सभी स्तरों पर शिक्षक की भागीदारी असंदिग्ध एवं सर्वमान्य है। शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण, अन्तर्वस्तु के चयन एवं संगठन, शिक्षण विधियों एवं प्रविधियों के चयन, सहायक सामग्री के चयन, मूल्यांकन विधियों के निर्धारण आदि सभी सोपानों में शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यक्तिगत रूप से छात्रों एवं उनकी समस्याओं को समझने, उन पर ध्यान देने तथा तद्नुकूल निर्णय लेने का कार्य प्रभावी रूप से शिक्षक ही कर सकता है।

पाठ्यक्रम विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भागीदारी शिक्षक की ही होती है। इस प्रकार शिक्षक के महत्त्वपूर्ण भागीदारी के प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं-

(i) शिक्षक का छात्र, विद्यालय तथा उनसे सम्बन्धित सभी पक्षों से भावनात्मक सम्बन्ध होता है। अतः वह विभिन्न शैक्षिक परिस्थितियों के प्रति मात्र बौद्धिक रूप से ही नहीं, बल्कि भावनात्मक रूप से भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। पाठ्यक्रम निर्माण की भागीदारी में अपनत्व की यह भावना बहुत महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि यही भावना विद्यालय के पर्यावरण को आवश्यक स्थायित्व एवं व्यवस्था प्रदान करने में सहायक होती है।

(ii) शिक्षक उस नाविक के समान होता है जो यह भली-भाँति जानता है कि उसे कहाँ जाना है तथा वहाँ पहुँचने के लिए वह अपने मानसिक निर्णय के अनुसार पानी, नाव, पतवार आदि के विषय में बात करने के लिए सदैव तैयार रहता है। इसका तात्पर्य यह है कि शिक्षकों में ज्ञान, अनुभव एवं व्यावसायिक उत्तरदायित्व की प्रबल भावना होती है जो पाठ्यक्रम नियोजन में शक्ति का स्रोत सिद्ध होती है।

(iii) पाठ्यक्रम को वास्तविक कार्यात्मक रूप कक्षा में ही प्रदान किया जाता है। अतः निस्सन्देह रूप से इस कार्य में शिक्षक को ही प्रमुख भूमिका निभानी होती है। एक विद्वान के मतानुसार ‘पाठ्यक्रम तो उसी समय निर्मित होता है जब शिक्षक और छात्र यह निश्चित करते हैं कि अब हम पढ़ेंगे।” इसी तथ्य को दृष्टिगत करते हुए सेलर एवं अलेक्जेन्डर ने दो प्रकार के पाठ्यक्रम बताये हैं.
(a) नियोजित पाठ्यक्रम, (b) क्रियान्वित पाठ्यक्रम ।

इस वर्गीकरण का तर्क यह है कि कदाचित ही किसी कक्षा में निर्धारित पाठ्यक्रम को पूरी तरह अपनाया जाता होगा। उसमें शिक्षकों द्वारा परिस्थितियों के अनुसार प्रायः संशोधन कर लिये जाते हैं। अतः अनेक बार ‘क्रियान्वित पाठ्यक्रम को ही वास्तविक पाठ्यक्रम मान लिया जाता है। व्यावहारिक दृष्टि से यह तर्कसंगत भी लगता है। इसीलिए ‘क्रियान्वित पाठ्यक्रम’ को ही वास्तविक पाठ्यक्रम मानने वाला वर्ग पाठ्यक्रम निर्माण कार्य में शिक्षक को प्रमुख घटक मानता है। लीज, फ्रेजर एवं जॉनसन अपनी पुस्तक ‘दि टीचर इन करीक्युलम मेकिंग’ में लिखते हैं कि, “छात्रों एवं शिक्षक को कक्षा में प्रविष्ट हो जाने पर जब द्वार बन्द हो जाता है तो छात्र ज्ञान, अन्तर्दृष्टि, प्रेरणा आदि सभी के लिए शिक्षक पर ही निर्भर करते हैं। अतः पाठ्यक्रम उन्नयन का अर्थ वास्तव में कक्षा-कार्य उन्नयन ही है।”

उपर्युक्त कथन के विषय में जॉन डी. वी. लिखते हैं कि “मेरे एवं मेरे सहकर्मियों के समक्ष नवयुवकों की शिक्षा के सम्बन्ध में कोई पूर्व निर्धारित सिद्धान्त नहीं थे। सभी निर्णय सामूहिक रूप से लिए जाते थे। विद्यालय मात्र कुछ विचारों को लेकर प्रारम्भ किया गया था।”

एडवर्ड ए. क्रग शिक्षकों के सम्भागित्व को पाठ्यक्रम विकास प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग मानते हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि पाठ्यक्रम आयोजन में शिक्षकों को भागीदार बनाना उन पर कोई एहसान करना नहीं है। क्रग महोदय के अनुसार, “शिक्षकों के पास वह ज्ञान और अनुभव होता है जो पाठ्यक्रम विकास कार्य में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है।” इसके साथ ही क्रग महोदय एक प्रकार की चेतावनी भी देते हैं तथा कहते हैं कि “कक्षा शिक्षकों को मात्र सम्भागित्व प्रदान करना तब तक व्यर्थ रहेगा जब तक उनकी सहमति, उनकी अपनत्व की भावना, उनकी उद्यतता प्राप्त नहीं होती। यह कैसे प्राप्त हों ? इस प्रश्न का सीधा और स्पष्ट उत्तर यह है कि शिक्षकों का विश्वास प्राप्त किया जाए।” इस सम्बन्ध में विश्व शिक्षक संघ में एक विद्वान द्वारा व्यक्त किये गये विचार निश्चित रूप से उल्लेखनीय हैं—“शिक्षकों के सम्भागित्व में यह अर्थ निहित है कि जिन शिक्षकों से परामर्श किया जाता है वे सक्रिय भूमिका निभा सकें, अन्य घटकों विशेषकर अधिकारी वर्ग द्वारा व्यक्त विचारों एवं प्रतिपादित सिद्धान्तों का विरोध कर सकें, अपनी सहमति एवं असहमति दोनों व्यक्त कर सकें, किसी योजना का विरोध अथवा अनुमोदन दोनों कर सकें।”

पाठ्यक्रम आयोजन का कार्य तो लगभग सभी जगह विशेषज्ञों के हाथ में ही केन्द्रित है। यद्यपि उन विशेषज्ञों में बहुत-से सफल एवं अनुभवी शिक्षक होते किन्तु वे प्रायः वर्तमान में कार्यरत शिक्षक नहीं होते तथा कार्य-क्षेत्र की स्थितियों, समस्याओं एवं कठिनाइयों को कार्यरत शिक्षक की दृष्टि से नहीं देख पाये। इसलिए उनके द्वारा निर्मित योजनाएँ प्रायः आदर्श एवं महत्त्वाकांक्षा की ओर झुक जाती हैं। अनेक अध्ययनों से प्राप्त निष्कर्षों से यह भी पता चलता है कि शिक्षक की अपेक्षा केवल शैक्षिक सामग्री एवं शिक्षण की विधियों पर केन्द्रित योजनाएँ प्रायः सफल नहीं हो सकी हैं। जहाँ कहीं शिक्षकों की भागीदारी के प्रयास भी हुए वे भी प्रायः अपर्याप्त ही रहे हैं तथा वे मात्र वांछनीय दिशा में कदम बढ़ाने के सूचक ही हैं। भारत में भी शिक्षकों की भागीदारी को अपर्याप्त मानते हुए कोठारी आयोग एवं चतुर्थ पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत ‘शैक्षिक आयोजन, प्रशासन एवं मूल्यांकन’ के लिए गणित कार्यकारी दल ने भी इसके लिए सशक्त शब्दों में अनुशंसा की है तथा शिक्षकों के सम्भागित्व को अपरिहार्य माना है।

उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि प्रायः सभी सरकारें शैक्षिक कार्यक्रमों के आयोजन में शिक्षकों की समुचित भागीदारी के प्रति उदासीन रही हैं, किन्तु इस चित्र का दूसरा पक्ष भी उतना ही धूमिल है। ऐसा देखने में आया है कि भागीदारी के प्रति शिक्षक भी प्रायः उदासीन भाव ही रखते रहे हैं। इस बारे में पूर्व सन्दर्भित कार्यकारी दल ने अपने प्रतिवेदन में निराशा व्यक्त करते हुए लिखा है कि “देश की पंचवर्षीय योजनाओं के प्रति देश के शिक्षकों एवं उनके संगठनों ने कोई विशेष प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है जबकि उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे ऐसे मामलों में सुधार के सुझाव तथा आवश्यकता पड़ने पर वैकल्पिक योजनाएँ भी प्रस्तुत करें।”

शिक्षकों की इस उदासीनता के कुछ प्रमुख कारण निम्न प्रकार हैं-

(i) शिक्षण व्यवसाय को अन्य जीविकोपार्जन साधनों की तरह एक साधन मानना ।
(ii) शिक्षकों द्वारा केवल दैनन्दिन कार्यों तक ही अपने को सीमित रखना ।
(iii) ज्वलन्त शैक्षिक प्रश्नों को महत्त्व न देना तथा उन पर चर्चा को समय एवं शक्ति का अपव्यय समझना ।
(iv) शिक्षकों में विषयों के आवश्यक ज्ञान का अभाव।
(v) अधिकांश शिक्षकों में कठोर एवं पुरातनपंथी प्रवृत्ति का होना। (vi) पाठ्यक्रम निर्माण के लिए आवश्यक योग्यता का अभाव। (vii) आत्म-विश्वास एवं उद्यमशीलता का अभाव।
(viii) अच्छे शिक्षकों की उपेक्षा ।
(ix) समाज में शिक्षकों के प्रति अनुचित दृष्टिकोण । (x) आर्थिक तंगी।

 

 

प्रश्न 4 (iii) शैक्षिक एजेंसी के रूप में विद्यालय का पाठ्यचर्या क्रियान्वय हेतु योगदानों का वर्णन कीजिए।
राष्ट्रीय तथा राज्य दोनों स्तरों पर विद्यालयी शिक्षा में गुणात्मक सुधार हेतु व पाठ्यचर्या क्रियान्वयन हेतु विद्यालय की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

विद्यालय

राष्ट्रीय, राज्य, जिला और स्थानीय (गाँव/नगर) स्तरों पर विद्यालयी शिक्षा में गुणात्मक सुधार हेतु जिम्मेदार संस्थाओं और संगठनों के अन्दर और उन सबके बीच आपस में मानव संसाधन विकास के लिए अच्छा सामंजस्य होना चाहिए। इस नेटवर्क के माध्यम से विद्यालयी शिक्षा प्रणाली की पाठ्यचर्या को सरल व प्रभावी ढंग से क्रियान्वित किया जा सकता है। इसके लिए सभी स्तरों पर जिम्मेदारी बाँटने की आवश्यकता है, जिसके लिए राज्य, जिला व स्थानीय स्तर पर टास्क फोर्स भी गठित किये जा सकते हैं जिसमें सरकार के प्रतिनिधि और अपने कार्यों के सम्बन्ध में स्वायत्तता प्राप्त विद्यालय और समुदाय शामिल होंगे। ये टास्क फोर्स अग्रलिखित कार्य के लिए उत्तरदायी होंगे-

(i) अपने क्षेत्रों के विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं की पहचान और समय-समय पर उनके आकलन के लिए।

(ii) समानता और गुणवत्ता दोनों के लिए भौतिक व मानवीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने और ऐसे आवश्यक संसाधनों में वृद्धि करने की दृष्टि से योजना और कार्य-नीतियाँ बनाने के लिए उदाहरणार्थ, समुदाय में उपलब्ध संसाधनों में साझेदारी जैसे स्थानीय पुस्तकालय का उपयोग, उपयोग में लाई गई पाठ्य-पुस्तकों और वाचन सामग्री का संग्रह उन बच्चों को वितरित करके जो स्वयं इन्हें खरीद नहीं सकते।

(iii) क्रियान्वयन प्रणाली का पर्यवेक्षण आदि की मॉनीटरिंग करने के लिए।

(iv) समुदाय और सरकार के बीच सहसम्बन्ध बरकरार रखने के लिए।

पाठ्यचर्या क्रियान्वयन हेतु विद्यालय ही ऐसी एजेन्सियाँ हैं जो पाठ्यचर्या को संचालित करती हैं और छात्रों के विकास से भी सीधे-सीधे जुड़ी होती हैं। इसलिए पहली से बारहवीं कक्षा तक के विद्यालयों को ही मूल्यांकन की योजना व युक्ति विकसित करनी होगी। इससे देशकार्य (असाइनमेंट), परीक्षण और परीक्षाओं की बारम्बारता भी शामिल होगी। विशिष्ट संज्ञानात्मक और सह-संज्ञानात्मक क्षेत्रों की मात्रा या संख्या भी तय करनी होगी।

इसके साथ ही जिस प्रकार के परीक्षण दोनों ही क्षेत्रों के लिए लागू किए जाएंगे उनके अधिगम प्रतिफलों का आकलन किया जायेगा, उनका अभिलेख रखा जायेगा और परिणामों की रिपोर्ट की जायेगी। कक्षा में अध्ययन-अध्यापन का स्तर ऊंचा उठाने और शिक्षकों को मूल्यांकन प्रक्रिया में सुधार करने हेतु क्रियात्मक शोध करने के लिए प्रोत्साहित करने की दृष्टि से विद्यालय उपचारात्मक सामग्री का विकास भी करेंगे। स्कूलों व कक्षाओं के स्थान का अधिकतम उपयोग शिक्षा के संसाधनों के रूप में किया जा सकेगा तथा बच्चों को उन गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए भी प्रोत्साहित किया जा सकता है जो स्कूलों और कक्षा की पढ़ाई को आकर्षक बनायें। विद्यालय सामाजिक स्थान होते हैं अतः यहाँ समानता का मूल्य व सभी कामों के प्रति सम्मान कभी बेहद महत्त्वपूर्ण है।

स्कूल की पाठ्यचर्या में कुछ ऐसे अनुभव भी होते हैं जिनसे बच्चे अपनी एकल व सामाजिक जिम्मेदारियों से भी वाकिफ होते हैं। अतः सार्वजनिक स्थल के रूप में स्कूल में समानता, सामाजिक विविधता व बहुलता के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए, साथ ही बच्चों के अधिकारों और उनकी गरिमा के प्रति सजगता का भाव होना चाहिए। इन मूल्यों को सजगतापूर्वक स्कूल के दृष्टिकोण का हिस्सा बनाया जाना चाहिए और उन्हें स्कूली व्यवहार की नींव बनना चाहिए। इस सन्दर्भ में ‘एक समान स्कूल’ या ‘कॉमन स्कूल प्रणाली’ काफी लाभदायक सिद्ध हो सकती है।

राज्य शिक्षा बोर्डों द्वारा मूल्यांकन सुधारों को लागू करने के पीछे उद्देश्य यह होगा कि ये बोर्ड न केवल स्वयं द्वारा ली जाने वाली परीक्षाओं की विश्वसनीयता, वैधता और प्रबन्धन में सुधार करें बल्कि विद्यालयी मूल्यांकन की गुणवत्ता में भी सामान्य सुधार करें। इसके अतिरिक्त बोर्डों की यह जिम्मेदारी भी होगी कि वे शैक्षिक उद्देश्यों की पुष्टि और शिक्षण के जटिल स्थलों की पहचान का काम परीक्षा परिणामों के विश्लेषण के माध्यम से करें।

विभिन्न बोर्डों के पास जो विशेषता है वह अलग-अलग विद्यालयों को गुणवत्तापूर्वक परीक्षण सामग्री बनाने के लिए उपलब्ध नहीं हो सकती, इसलिए वे ऐसी सामग्री के नमूने बनाकर विद्यालयों को उपलब्ध करायें। बोर्डों को विद्यालयों में शिक्षकों के क्षमता-संवर्द्धन की दृष्टि से शैक्षिक मूल्यांकन में शिक्षक प्रबोधन कार्यक्रम आयोजित करने होंगे। बोर्डों को शैक्षिक मूल्यांकन के क्षेत्र में शोध और उपलब्धि-सर्वेक्षण कराना चाहिए ताकि सेंसस जैसे आँकड़े प्राप्त हो सकें और उनके निष्कर्ष विद्यालयों को उपलब्ध करा दिये जायें ताकि विद्यालय उनके गुण-दोषों को सही ढंग से जान सकें।

प्रश्न 4 (iv) शैक्षिक दृष्टि से राज्यस्तरीय एवं राष्ट्रीय स्तरीय एजेंसियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

पाठ्यक्रम विकास हेतु विभिन्न राज्यस्तरीय एजेन्सियों जैसे—शिक्षा निदेशालय, राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषदें, जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान और स्वैच्छिक संगठनों को भी विद्यालयों को उपयुक्त शिक्षण सामग्री का चयन और निर्माण करने और शैक्षिक उद्देश्यों की सम्प्राप्ति एवं उपयुक्त शिक्षण युक्तियाँ अपनाने के लिए सहयोग एवं मार्गदर्शन देने की जिम्मेदारी लेनी होगी। शिक्षा मुख्य रूप से राज्य का विषय है तथा सभी राज्यों की अपनी कुछ स्थानीय आवश्यकताएँ एवं आकांक्षाएँ होती हैं इसलिए राष्ट्रीय शिक्षा के समान कोर पाठ्यक्रम में भी स्थानीय (राज्य) मुद्दों को समाविष्ट करने का प्रावधान रखा गया है। प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम विकास प्रक्रिया में राज्य शिक्षा विभाग की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है तथा राज्य शिक्षा विभाग के सहयोग के बिना पाठ्यक्रम विकास सम्भव ही नहीं हो पाता है।

भारत में विद्यालय स्तर की शिक्षा के लिए पाठ्यचर्या की रूपरेखा, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) नई दिल्ली द्वारा तैयार की जाती है जिसे विभिन्न राज्यों के शैक्षिक अभिकरणों द्वारा जैसे विद्यालयी शिक्षा के राजकीय बोर्ड और राज्यों के शिक्षा विभाग (प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर के लिए) उन्हें यथावत् या थोड़े बदलाव के साथ स्वीकार कर लेते हैं। फिर भी पाठ्यचर्या निर्माण के कार्य में जुड़ी इन संस्थाओं/अभिकरणों के लिए यह आवश्यक होगा कि वे इस प्रकार की स्थितियाँ और आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करें जिनसे सभी की अनुभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पाठ्यचर्याओं का विकास किया जा सके व वर्तमान पाठ्यचर्याओं की विसंगतियों को दूर किया जा सके। NCERT में इसी उद्देश्य से अलग से ‘पाठ्यक्रम विकास विभाग’ की स्थापना की गई है। यह विभाग अपने दायित्वों की पूर्ति के लिए प्रयासरत भी है तथा इसके अच्छे परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं।

राज्य शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषदों को शैक्षिक क्षेत्रों के अलावा मनोवैज्ञानिक क्षेत्रों में भी योगदान देने की आवश्यकता है। उनमें मौजूद मार्गदर्शन ब्यूरो/ इकाइयों को सन्दर्भ केन्द्र के रूप में बदलकर मजबूत बनाया जा सकता है ताकि ये इकाइयाँ राज्य में शिक्षक-प्रशिक्षण, मनोवैज्ञानिक उपकरण परीक्षण, कैरियर साहित्य इत्यादि के क्षेत्र में योगदान दे सकें तथा जिला/ब्लॉक व विद्यालयी स्तरों पर व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित परामर्शदाताओं की सहायता से परामर्श सेवाओं को उपलब्ध करा सकें।

इसके साथ ही समस्त विद्यालयों व वैकल्पिक शिक्षा केन्द्रों में पाठ्यचर्या के प्रभावी संचालन की जरूरत को देखते हुए केन्द्र और राज्य दोनों ही सरकारों को न्यूनतम आवश्यक सुविधाओं का प्रावधान करना होगा जिसकी पहल हो चुकी है व इसके अन्तर्गत यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि सभी विद्यालयों के पास अध्ययन-अध्यापन हेतु आवश्यक संसाधन उपलब्ध हों। जैसे- कक्षाओं के लिए कमरों सहित शाला भवन, पेयजल, प्रसाधन सुविधाएँ, शिक्षण सामग्री और सहायक शिक्षण सामग्री। इसके लिए समुदाय के सभी सम्बन्धित व्यक्तियों के सहयोग से कार्य सम्बद्ध व समयबद्ध कार्य-नीतियाँ तय की जाती हैं ताकि स्वीकृत पद संख्या की अपर्याप्तता, स्वीकृत पदों को भरने में विलम्ब, शिक्षकों को अन्य सरकारी कामों में लगाकर शिक्षण अवधि के समय की हानि, न्यूनतम स्कूल दिवसों का गम्भीर और शाश्वत समस्याओं का निराकरण किया जा सकें।

अध्यापक शिक्षा संस्थाएँ – जो संस्थाएँ देश में सेवा पूर्व शिक्षकों से शिक्षा के लिए जिम्मेदार हैं वे मूल्यांकन सुधारों के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं। इसके लिए वे अपनी पाठ्यचर्याओं में मूल्यांकन को एककेन्द्रिक घटक बना सकती हैं और प्रचलित प्रणाली की अच्छी तरह समीक्षा कर सकती हैं। ये संस्थाएँ शोधकार्य हाथ में लेने के अतिरिक्त उन शिक्षकों के लिए सेवाकालीन प्रबोधन कार्यक्रम संचालित कर सकती हैं जो इन संस्थाओं के आसपास के विद्यालयों में कार्यरत हैं |

पाठ्यचर्या ढाँचे के विस्तृत लक्ष्यों के प्रति विश्वविद्यालयों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। विद्यार्थियों के विविध सामाजिक, सांस्कृतिक सन्दर्भों और भारत में कक्षा सम्बन्धी जटिलताओं को देखते हुए शिक्षा में ज्ञान के आधार को विस्तृत किया जाना चाहिए। बहु-अनुशासनात्मक व साझे उद्देश्य को प्रोत्साहित करना चाहिए। ऐसा करना पाठ्यचर्या की संरचना को व्यावहारिक रूप देने के लिए शोध आधार तैयार करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होगा। अतः विश्वविद्यालयों, SCERT और DIET जैसी संस्थाओं को आपस में जोड़ने की भी आवश्यकता है। इससे शिक्षक शिक्षा के अकादमिक कार्यक्रम सेवाकालीन प्रशिक्षण तथा अपने अन्दर ही शोध की क्षमता विकसित करने का अवसर मिलेगा

राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न एजेंसियों का दायित्व निम्नलिखित है-

(i) विद्यालयी शिक्षा के प्रत्येक स्तर के लिए प्रत्येक पाठ्यचर्या क्षेत्र में अपेक्षित उपलब्धि स्तर तय करना।
(ii) बालकेन्द्रित, गतिविधि उन्मुखी और दक्षता आधारित अध्ययन-अध्यापन सामग्री के लिए अवधारणात्मक सामग्री और उसके नमूने तैयार करवाना।
(iii) संज्ञानात्मक और सह-संज्ञानात्मक अधिगम प्रतिफलों के पब्लिक आकलन के लिए विभिन्न प्रकार के परीक्षणों का निर्माण करवाना और उन्हें राज्यस्तरीय एजेन्सियों को उपलब्ध करवाना।
(iv) मुख्य संसाधन व्यक्तियों के लिए प्रबोधन कार्यक्रम का संचालन करना
(v) विभिन्न बोर्डों के लिए प्रश्न-पत्र निर्माताओं के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना।
(vi) अभिलेख रखने और परिणामों की रिपोर्ट देने के लिए किसी संचार तन्त्र की कल्पना करना तथा उसके विषय में परामर्श देना।
(vii) अधिगम प्रतिफलों के मूल्यांकन के लिए बेहतर तरीकों और साधनों की खोज हेतु शोध करवाना।
(viii) सेन्सस जैसे आँकड़े प्राप्त करने के लिए उपलब्धि सर्वेक्षण करना ।
(ix) सूचना का प्रसार करना।
(x) उच्चतर माध्यमिक स्तर के छात्रों को लाभ देने के लिए मार्गदर्शन व परामर्श की ऐसी व्यवस्था करना जो इन छात्रों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता, दृष्टिकोण योग्यता व प्रकृति के अनुरूप हो।
अध्यापक शिक्षा संस्थाएँ – जो संस्थाएँ देश में सेवापूर्ण शिक्षकों की शिक्षा के लिए जिम्मेदार हैं वे मूल्यांकन सुधारों के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं। इसके लिए वे अपनी पाठ्यचर्याओं में मूल्यांकन को एक केन्द्रिक घटक बना सकती हैं और प्रचलित प्रणाली की अच्छी तरह से समीक्षा कर सकती हैं। वे संस्थाएँ शोधकार्य हाथ में लेने के अतिरिक्त उन शिक्षकों के लिए सेवाकालीन प्रबोधन कार्यक्रम संचालित कर सकती हैं जो इन संस्थाओं के आसपास के विद्यालयों में कार्यरत हैं।

महिला और बाल विकास विभाग, स्वास्थ्य विभाग, खेल एवं युवा मामलों का विभाग, विज्ञान एवं तकनीकी विभाग, आदिवासी मामलों का विभाग, सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण विभाग, संस्कृति विभाग, पर्यटन विभाग, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, पंचायती राज्य संस्थाएँ आदि ऐसे विभाग हैं जो बच्चों के विकास एवं कल्याण में रुचि रखते हैं। ये सभी विभाग बच्चों और शिक्षकों की शिक्षा को समृद्ध बनाने में सक्षम हैं। पाठ्यचर्या के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित कर सके।

प्रश्न 5 (i) पाठ्यक्रम को स्वरूप प्रदान करने में अनुभवी शिक्षकों को महत्त्व दिया जाना चाहिए, क्यों? अपना मत दीजिए।

अध्यापक का पाठ्यक्रम के दोनों पक्षों अर्थात् निर्माण में तथा क्रियान्वयन में विशेष महत्त्व है। पाठ्यक्रम शिक्षा प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण अंग है। शिक्षा के उद्देश्य तभी सार्थक होते हैं, जबकि पाठ्यक्रम का निर्माण तथा क्रियान्वयन प्रभावपूर्ण ढंग से हो और यह निर्माण तथा क्रियान्वयन प्रभावपूर्ण ढंग से तभी हो सकता है, जबकि अध्यापक सजग तथा जागरूक हो और उत्साह एवं लगन के साथ इस कार्य में भाग ले ।
आदर्श पाठ्यक्रम तो वही है जो प्रत्येक छात्र का सर्वांगीण विकास कर सके, परन्तु ऐसे पाठ्यक्रम का निर्माण तो कोरी कल्पना है। यह कार्य तभी सम्भव है जबकि प्रत्येक अध्यापक, प्रत्येक छात्र के लिए अलग-अलग पाठ्यक्रम का निर्माण करें। वैसे विकसित देशों में इस प्रकार के प्रयास किये जा रहे हैं जिनमें शिक्षा तथा पाठ्यक्रम बाल-केन्द्रित हों। भावार्थ यह है कि बालक की रुचियों, अभिरुचियों तथा शक्तियों के विकास के लिए अधिक से अधिक अवसर प्राप्त हों।

प्रायः अध्यापकों के मन में यह धारणा प्रचलित है कि पाठ्यक्रम निर्माण में उनका कोई योगदान नहीं लिया जाता। शिक्षाविद् पाठ्यक्रम का निर्माण करते हैं और उसके पश्चात् स्कूलों, अध्यापकों तथा छात्रों पर पाठ्यक्रम थोप दिया जाता है। सरसरी तौर पर सोचने से तो इस धारणा में बल दिखायी देता है, परन्तु गम्भीरतापूर्वक सोचने और चिन्तन करने पर यह तथ्य ठीक प्रतीत नहीं होता है। पाठ्यक्रम निर्माण के लिए भिन्न-भिन्न विषयों तथा क्रियाओं के लिए कई समितियों का गठन किया जाता है। इन समितियों में शिक्षाविदों के साथ-साथ विषय अध्यापक भी होते हैं। प्रत्येक शिक्षाविद् तथा प्रत्येक अध्यापक को पाठ्यक्रम प्रक्रिया में सम्मिलित करना असम्भव है। प्रत्येक वर्ग के कुछ प्रतिनिधि ही लिए जा सकते हैं। इस प्रक्रिया का दूसरा चरण होता है अध्यापकों के लिए गोष्ठियाँ, कर्मशाला आदि का आयोजन करना। विषय समितियों द्वारा प्रस्तावित पाठ्यक्रम में इस प्रकार से अध्यापकों की राय भी राय भी ली जाती है। कई बार पाठ्यक्रम को नमने के तौर पर कुछ स्कूलों में लागू किया जाता है तथा अनुभवों के आधार पर पाठ्यक्रम में संशोधन किये जाते हैं। अतः स्पष्ट है कि पाठ्यक्रम के निर्माण में अध्यापकों का भी हाथ होता है।

पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन में तो प्रत्येक अध्यापक का हाथ होता है। अध्यापक पाठ्यक्रम से दिशा-निर्देश प्राप्त करता है, परन्तु यह उस पर निर्भर है कि वह पाठ्यक्रम के प्रभावी क्रियान्वयन में कितना उत्साह दिखाता है, पाठ्यक्रम में दिये गये कार्य को करने की कई विधियाँ हो सकती हैं। अध्यापक को अपनी सूझबूझ से यह निर्णय लेना होता है कि किस विधि से पाठ्यक्रम में दी गई विषय-वस्तु क्रियाओं का प्रभावपूर्ण ढंग से क्रियान्वयन किया जा सकता है। उसे यह सोच-विचार करना होता है कि किस प्रकार के प्रश्न छात्रों जागें पूछे जो जिनसे वे नयी पाठ्य-वस्तु का दैनिक जीवन या पहले पढ़ी गई पाठ्य-वस्तु के साथ तारतम्य स्थापित कर सकें। किस प्रकार के उदाहरण सहायक हो सकते हैं। किस प्रकार की दृश्य सामग्री का प्रयोग किया जा सकता है? इस प्रकार अध्यापक को पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन में पर्याप्त स्वतन्त्रता होती है

राज्य सरकारें विभिन्न स्कूल-विषयों के लिए विषय अध्यापक संस्थाएँ बनाने के कार्य को प्रोत्साहन दें। इससे पहल-शक्ति को और प्रयोग करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा और अधिक अच्छी शिक्षण सामग्रियों और शिक्षण तथा मूल्यांकन की सुधरी तकनीकों के प्रयोग के द्वारा पाठ्यचर्या को संशोधित और उन्नत बनाने में सहायता मिलेगी। राज्य स्कूल शिक्षा बोर्डों के माध्यम से काम करने वाले राज्य शिक्षा विभाग की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वे विषय-अध्यापक संस्था की सहायता करें ताकि विषय अध्यापक संस्थाएँ नियतकालिक सेमिनार और सभाएँ चलाया करें और अपनी ही पत्रिकाएँ निकालें, जिनमें से अधिकतर स्वभावतः प्रान्तीय भाषाओं में होंगी। राष्ट्रीय शिक्षा अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद् को चाहिए कि राज्य स्तर की प्रत्येक संस्था के बीच समन्वय स्थापित करे, अखिल भारतीय विषय अध्यापक संस्थाएँ बनाने में और भारत में सब जगह अध्यापकों के उपयोग के लिए हिन्दी और अंग्रेजी में राष्ट्रीय स्तर पर पत्रिकाएँ निकालने में सहायता दे।

इसके अतिरिक्त शिक्षक को नये पाठ्यक्रम की मुख्य विशेषताएँ समझाना भी आवश्यक है ताकि . शिक्षक की क्षमता विकसित की जा सके, शिक्षण कौशल में उन्नति लायी जा सके और आज की परिवर्तित परिस्थिति से सम्बन्धित पढ़ाने और सिखाने की प्रक्रिया को अधिक सूक्ष्मता से समझा जा सके। इसलिए शिक्षकों को संशोधित पाठ्यचर्या में अनुस्थापित (ओरियन्टेड) करने के लिए अन्तः सेवा शिक्षा का एक विस्तृत कार्यक्रम बनाया जाए, जिनमें सेमिनार और पुनश्चर्या – पाठ्यक्रम का भी आयोजन हो।

पाठ्यचर्या शिक्षा का एक गतिशील साधन है। शीघ्रता से परिवर्तित संसार में यह आवश्यक हो जाता है कि शैक्षिक संस्थाएँ भी पाठ्य-वस्तु को नवीन आवश्यकताओं तथा तकनीकों के सन्दर्भ में बदलें। इस दिशा में निम्नलिखित सुझाव दिये जा रहे हैं-

1. उच्च पाठ्यक्रम चालू करने की शर्तें –
राज्य स्कूल शिक्षा बोर्डों को शिक्षकों की योग्यता और क्षमता तथा आवश्यक सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए किसी विषय में उच्च पाठ्यक्रम लागू करने की शर्तें निर्धारित कर देनी चाहिए। जो स्कूल इन शर्तों को पूरा करें, उन्हें उच्च पाठ्यक्रम चालू करने की अनुमति दी जानी चाहिए। दूसरे स्कूल तो केवल साधारण ही पाठ्यक्रम चलाएँ। उच्च पाठ्यक्रम लागू करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाने पड़ेंगे-

(i) यह जरूरी नहीं है कि स्कूल सभी विषयों में उच्च पाठ्यक्रम अपनाएँ। शुरू-शुरू में एक या दो विषय लिए जा सकते हैं और फिर धीरे-धीरे सुविधा के अनुसार सुनियोजित कार्यक्रम के रूप में और अधिक विषय या सारा पाठ्यक्रम समेटा जा सकता है।

(ii) जिस स्कूल में उच्च पाठ्यक्रम नहीं अपनाया गया हो, वहाँ अगर छात्र चाहें तो उन्हें निजी रूप से उच्च पाठ्यक्रम के लिए तैयार करने की छूट होनी चाहिए।

(iii) स्कूल शिक्षा बोर्ड की बाहरी परीक्षाओं में उच्च और साधारण दोनों ही पाठ्यक्रमों में छात्रों की परीक्षा लेने की व्यवस्था करनी चाहिए।

(iv) प्रारम्भ में जो स्कूल उच्च पाठ्यक्रम अपनाने को तैयार हों (या सहायता देने पर थोड़े ही समय में तैयार हों) उनमें विज्ञान, गणित, भाषा जैसे कम से कम, कुछ विषयों में उच्च पाठ्यक्रम लागू किये जा सकते हैं।

(v) कालान्तर में योग्य शिक्षक उपलब्ध कराकर और आवश्यक सुविधाएँ देकर अधिकाधिक स्कूलों को उच्च पाठ्यक्रम अपनाने में सहायता दी जानी चाहिए। प्रतिवर्ष इस प्रकार के ‘आकांक्षी’ स्कूल खोज निकालने चाहिए और उन्हें ‘उच्च’ पाठ्यचर्या के निर्माण के लिए आवश्यक सहायता दी जानी चाहिए। इस सहायता का एक आवश्यक अंग नये पाठ्यक्रमों के अनुसार शिक्षण देने में समर्थ शिक्षक तैयार करना है।

2. उच्च पाठ्यचर्याओं को क्रमिक रूप से लागू करना-इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि राज्य स्कूल शिक्षा बोर्ड, उच्च पाठ्यक्रम बनाकर क्रमिक कार्यक्रम के रूप में अनेक वर्षों से उन्हें सभी स्कूल और विषयों में लागू करें। इस प्रयोजन के लिए बोर्ड को उच्च और साधारण दो पाठ्यक्रम बनाने चाहिए। सामान्य पाठ्यक्रम सभी स्कूलों के लिए समान होना चाहिए। उच्च पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए, जिसे इस समय केवल अच्छे स्कूल ही अपना सकें, लेकिन वह कुछ समय बाद सम्भवतः साधारण पाठ्यक्रम बन जाये।

3. उपलब्ध सुविधाओं से पाठ्यक्रम का सम्बन्ध बैठाना तथा प्रायोगिक पाठ्यक्रम अपनाने के बारे में स्कूलों को स्वतन्त्रता- पाठ्यक्रम का शिक्षकों की कोटि, स्कूल में उपलब्ध सुविधाओं और छात्रों की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के अनुकूल उनकी आवश्यकताओं से सम्बन्ध बैठाना चाहिए। इन विषयों की दृष्टि से हर संस्था में बड़ा अन्तर होता है। परिणामतः औसत स्कूल की आवश्यकता की पूर्ति के लिए बनाया गया राज्य सरकार का एकमात्र पाठ्यक्रम राष्ट्र की विभिन्न संस्थाओं के लिए बेकार सिद्ध हो जाता है। एक ओर वह कमजोर संस्थाओं की पहुँच के बाहर सिद्ध होता है, तो दूसरी ओर अच्छी संस्थाओं के लिए उसका स्तर बहुत नीचा सिद्ध होता है। समस्या का समाधान इसमें है कि स्कूलों को अपनी ही आवश्यकता के अनुसार पाठ्यक्रम बनाकर प्रयोग में लाने और उन्हें उन्नत बनाने के लिए एक-दूसरे से होड़ करने दिया जाये।

4. पाठ्य-पुस्तकें और शिक्षण साधन तैयार करना – पाठ्यचर्या में सुधार के किसी भी प्रयत्न की सफलता का आधार उचित पाठ्य-पुस्तकें, शिक्षक-गाइडें और पढ़ने और सीखने की अन्य सामग्रियाँ हैं। ये चीजें स्कूल के हित को ध्यान में रखकर नये कार्यक्रमों की विषय-वस्तु और उनके उद्देश्य निर्धारित करती हैं और छात्र के वास्तविक साधन होने के कारण प्रस्तावित परिवर्तनों को सारवान बनाती हैं।

5. पाठ्यचर्या में अनुसंधान-व्यवस्थित रूप से पाठ्यचर्या के सम्बन्ध में अनुसंधान किया जाए, विशेषज्ञों की खोजों के आधार पर समन्वित सुधार कार्यक्रम के रूप में संशोधन किया जाए। ऐसे अनुसंधान की सुविधाएँ विश्वविद्यालयों, माध्यमिक शिक्षण कॉलेजों, राज्य की शिक्षा-संस्थाओं और राज्य के स्कूल शिक्षा बोर्डों में उपलब्ध होनी चाहिए। यदि राज्य शिक्षा-संस्थाओं के निकट सहयोग में काम कर सकें, तो और भी अच्छा हो ।

प्रश्न 5 (ii) पाठ्यक्रम निर्माण में ज्ञान के चयन एवं प्रस्तुतीकरण का मापदण्ड बताइए।
वर्तमान में मानवीय ज्ञान के वृद्धि की दर बहुत अधिक तीव्र हो गई है। ज्ञान का प्रत्येक क्षेत्र संसार को देखने का एक अलग दृष्टिकोण देता है जिससे संसार से जुड़ने और उसमें कर्म करने का नजरिया भी मिलता है। ज्ञान के ये क्षेत्र अतीत में दिए गए लोगों के योगदान से विकसित हुए हैं और आज भी बढ़ रहे हैं। ये क्षेत्र अपनी संरचना और मुद्दों की प्राथमिकता में भी बदले हैं। इनको सीखने में कई प्रकार की बौद्धिक क्षमताएँ और ज्ञान-अर्जन के तरीके भी प्रयुक्त होते हैं। जैसे—सुस्पष्ट तर्क व अभिव्यक्ति प्रमाण की खोज एवं उसका मूल्यांकन अनुभव पर आधारित उपलक्षित ज्ञान, समन्वय, अवलोकन एवं व्यावहारिक सम्बद्धता एवं मुद्दों को सम्बोधित किया जा सके व काम करने की दिशा तय हो सके।

लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध शिक्षाविद् कमेनियस ने एक ऐसा विषय कोष तैयार करने का विचार किया था जिसमें सम्पूर्ण ज्ञान समा जाये। यद्यपि उनकी आकांक्षा पूर्ण नहीं हो सकी, किन्तु उस समय यह कार्य कठिन होते हुए भी असम्भव नहीं माना गया था। इन तीन शताब्दियों में ज्ञान के भण्डार में इतनी अधिक वृद्धि हो गई है कि उसे हजारों पुस्तकों में प्रस्तुत कर सकने का विचार भी तर्कसंगत नहीं हो सकता है। एक सामान्य अनुमान के अनुसार सन् 1901 में जितना ज्ञान था वह सन् 1950 तक तीन गुना हो गया तथा 1950 के बाद प्रत्येक दस वर्ष में पुनः दुगुना होता जा रहा है। वर्तमान में ज्ञान का विस्तार इतना अधिक हो गया है कि कोई व्यक्ति यदि किसी, एक ही विषय को सौ वर्ष तक पढ़ता रहे तो वह उस विषय का सामान्य-ज्ञान रखने वाला व्यक्ति कहलाने का अधिकारी हो सकता है। वर्तमान ज्ञान को ही ग्रहण कर सकने की क्षमता के सन्दर्भ में प्रखर बौद्धिक क्षमता के धनी व्यक्ति लाला हरदयाल जी ने कहा कि “ज्ञान का भण्डार यदि एक विशाल सागर है तो मानव मस्तिष्क एक छोटी बाल्टी के समान हैं जो उसमें से एक सीमित अंश ही भरकर निकाल सकता है।”

भारत में हमने परम्परागत रूप से पाठ्यचर्या निर्धारण में विषय आधारित दृष्टिकोण अपनाया है जो केवल विषयों पर आधारित होता है। यह तरीका ज्ञान को पाठ्य-पुस्तकों में एक ‘पुलिंदे’ की तरह प्रस्तुत करता है जिसके साथ विषय क्षेत्रों से जुड़ी योग्यता को परीक्षण के लिए दी जाने वाली परीक्षाओं की विधि भी दी जाती है तथा उस विषय क्षेत्र में दक्षता को जाँचने हेतु अंक भी दिये जाते हैं। इसी कारण हमारी शिक्षा व्यवस्था में भी कई समस्याएँ आ गई हैं।

प्रथम, ज्ञान के जो स्वरूप पाठ्य- पुस्तकों के अन्तर्गत नहीं आते या जिनका मूल्यांकन अंकों के आधार पर नहीं हो सकता, उनको एक तरफ करके ‘अतिरिक्त’ या ‘पाठ्य-विषयेत्तर’ करार कर दिया जाता है जबकि उन्हें पाठ्यचर्या का समेकित अंग होना चाहिए। ज्ञान के अन्य रूप जैसे शिल्प व खेलकूद, जो कौशल सौन्दर्यबोध, चतुराई, रचनात्मकता, समूह में काम करने की क्षमता आदि की दृष्टि से बेहद समृद्ध होते हैं, पूरे छूट जाते हैं।

दूसरे, विषयों का आपस में कोई तालमेल नहीं होता है बिल्कुल अपरिवर्तनीय उपखण्ड बन जाते हैं इसलिए ज्ञान भी समेकित और जुड़ा हुआ लगने की बजाय खण्डित लगता है। बच्चे की दुनिया को देखने के दृष्टिकोण की बजाय ये विषय ही ज्ञान के आरम्भ बिन्दु बन जाते हैं और स्कूली ज्ञान व बाहरी ज्ञान के बीच एक सीमा रेखा खिंच जाती है।

तीसरा, पहले से मौजूद ज्ञान को ज्यादा तरजीह दी जाती है जिसमें बच्चे की खुद ज्ञान सृजित करने और इस प्रक्रिया के नए तरीके खोजने की क्षमता नष्ट हो जाती है। सूचना, ज्ञान से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है, सूचना को प्राथमिकता मिल जाती है, जिससे भारी-भरकम पाठ्य-पुस्तकों का निर्माण होता है। यान्त्रिक विधि से दोहराने की पद्धति और प्रश्नों के उत्तर देने पर जोर दिया जाता है न कि समझ बढ़ाने या समस्या सुलझाने पर। ज्ञान को सूचना समझने की इस पद्धति के कारण पाठ्यचर्या में याद करने के लिए कितने ही तथ्यों का बोझा बढ़ा दिया जाता है

चौथी समस्या का सम्बन्ध नए विषयों को शामिल करने से है। यह एक महत्त्वपूर्ण जरूरत है कि विषय समाज के समकालीन मुद्दों को सम्बोधित करें लेकिन इससे एक अनुचित पद्धति यह बन गई है कि स्कूली पाठ्यचर्या में इन मुद्दों को सम्बोधित करने के लिए नए विषय बना दिए जाते हैं और साथ ही उसकी पाठ्य-पुस्तकों और मूल्यांकन के तरीके भी बना दिये जाते हैं। अगर पहले से मौजूद विषयों और चल रही गतिविधियों के द्वारा इनको पाठ्यचर्या में शामिल किया जाए तो इन मुद्दों को कहीं ज्यादा अच्छे तरीके से सम्बोधित किया जा सकता है जिसमें ज्ञान के अवांछनीय विखण्डन को बढ़ावा न मिल सके।

पाँचवीं समस्या पाठ्यचर्या में शामिल करने के लिए ज्ञान के चयन के सिद्धान्तों के बारे में है। ये सिद्धान्त ठीक से बने ही नहीं हैं। विकासात्मक पहलुओं के दृष्टिकोण से उपयुक्तता पर, विभिन्न कक्षाओं में जुड़ाव और तार्किक क्रमिकता एवं गति पर सोच-विचार नहीं किया गया है। ऐसी अवधारणाएँ विषयों की सीमाओं को लाँघती हैं। उदाहरणार्थ- माध्यमिक स्कूल में गणित एवं भौतिकी की अवधारणाएँ, उन्हें एक-दूसरे से जोड़ा नहीं जाता है

अतः ज्ञान के चयन के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आज ज्ञान की सीमाओं का काफी विस्तार हुआ है इसलिए यह आवश्यक है कि पाठ्यचर्या में क्या शामिल किया जाए, इसका चुनाव किया जाए। प्रासंगिकता इस सन्दर्भ में काफी व्यावहारिक तथ्य माना जा सकता है। यदि चुनाव व्यावहारिक न हो तो बच्चों के वर्तमान के ज्ञान-निर्माण में यह बिल्कुल सहायक नहीं होता है इसलिए किसी भी तरह यह ज्ञान उसके भविष्य निर्माण के काम नहीं आता। अभिरुचि भी एक उपयोगी तरीका हो सकता है लेकिन यह इस सरलीकरण पर आधारित नहीं होना चाहिए कि बच्चे को किस चीज में आनन्द आता है, मसलन कार्टून और खेलकूद । कोशिश यह होनी चाहिए कि बच्चे की रुचि जाग्रत हो और वह उत्साह से काम कर सके। इसके साथ ही ज्ञान के चयन के सन्दर्भ में सार्थकता भी सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय है। अगर बच्चा उस गतिविधि या ज्ञान को उपयोगी समझता है तो पाठ्यचर्या में उसे शामिल करने को प्रासंगिक ठहराया जा सकता है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि ज्ञान के विशाल भण्डार की अन्तर्वस्तु के स्रोत के रूप में उपलब्धता होने पर जब हम इसके चयन की आवश्यकता का अनुभव करते हैं तो कई तरह की समस्याएँ भी हमारे सम्मुख उपस्थित हो जाती हैं। जब इस बात पर विचार किया जाता है कि पाठ्यक्रम में क्या-क्या सम्मिलित किया जाए तथा उनका आधार क्या हो, तो इस समय जो प्रमुख प्रश्न उभर कर आते हैं, वे प्रश्न इस प्रकार के होते हैं-

(i) क्या किसी ज्ञान के चयन का आधार प्रमुख रूप से उसकी सांस्कृतिक उपयोगिता होनी चाहिए?
(ii) क्या किन्हीं तत्त्वों का कालजयी होना ही उन्हें पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने के लिए पर्याप्त है?
(iii) क्या किसी सामग्री को केवल इसलिए प्रदान की जाए, क्योंकि वह विद्यार्थियों की रुचियों के अनुकूल है ?
(iv) क्या वर्तमान समाज की समस्याओं से सम्बन्धित अन्तर्वस्तु को ही चुना जाये ?

परम्परागत समाजों में तो इन प्रश्नों के सर्वसम्मत अथवा अधिकतम सहमत वाले उत्तर मिल सकते हैं, किन्तु परिवर्तनशील तथा तीव्र गतिमान वर्तमान समाजों में इन प्रश्नों के भिन्न- भिन्न उत्तर होंगे। क्योंकि वर्तमान समाजों में शिक्षा-दर्शन से लेकर अधिगम सिद्धान्तों तक में भिन्नताएँ तो होती ही हैं साथ ही अन्तर्विरोध भी पाये जाते हैं। विभिन्न समाजों में तथा कहीं-कहीं एक ही समाज में ही अन्तर्वस्तु के चयन एवं उनके संगठन को लेकर अलग-अलग उपागम अपनाये जाते हैं। अतः इन प्रश्नों पर विचार करते समय हमें चयन की कुछ सामान्य समस्याओं का भी ध्यान रखना होगा।

प्रश्न 5 (iii) अधिगम के संज्ञानात्मक सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – क्षेत्र का सामान्य अभिप्राय उस परिवेश से है जिसमें सभी घटनाएँ घटित होती हैं। क्षेत्र सिद्धान्तों के अन्तर्गत आने वाले प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

1. पूर्णाकारवाद का सिद्धान्त, 2. तलरूप सिद्धान्त, 3. प्रतीक पूर्णाकार सिद्धान्त ।

गेस्टाल्ट का अर्थ समग्र रूप है। पूर्णाकारवाद के अनुसार व्यक्ति किसी क्रिया को आंशिक रूप से नहीं, बल्कि पूर्ण रूप से सीखता है। पूर्णाकारवाद के जन्मदाता जर्मनी के मनोवैज्ञानिक मैक्स वर्दीमर हैं। इस सिद्धान्त का मूल यह है कि जब मानवीय आँख एक के बाद दूसरे दृश्य उद्दीपन को देखती है तो उसकी प्रतिक्रिया ऐसी होती है कि उन उद्दीपनों का रूप युगपत् बनता है। इसी के आधार पर बाद में कोहलर ने सूझ या अन्तर्दृष्टि के सिद्धान्त का विकास किया है। इसके अनुसार व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण परिस्थिति को अपनी मानसिक शक्ति से अच्छी तरह समझ लेता है और सहसा उसे ठीक से करना सीख जाता है। वह ऐसा अपनी सूझ के कारण करता है |

तलरूप सिद्धान्त के जन्मजाता कुर्टलेविन ने जीवन के वातावरण को अधिगम का आधार माना है। उसने इन आधारों में आकांक्षा स्तर, उद्देश्य आकर्षण, स्मृति की गति तथा पुरस्कार एवं दण्ड को अधिक महत्त्व दिया है।

प्रतीक पूर्णाकार सिद्धान्त के प्रतिपादक टालमैन की मान्यता है कि मानव का व्यवहार उद्देश्यपूर्ण होता है। अतः यह अधिगम के चिन्हों एवं आशाओं को अधिक महत्त्व देता है। इसके अनुसार उद्दीपन में अर्थ उसी समय उत्पन्न होता है, जबकि वह व्यक्ति की आवश्यकता और उद्देश्य पूर्ति में सहायक होते हैं।

अधिगम के उपर्युक्त संज्ञानात्मक सिद्धान्तों के संक्षिप्त विवेचन से यह प्रतीत होता है कि क्षेत्र सिद्धान्त, साहचर्य सिद्धान्त का ही विस्तार है, क्योंकि ये सिद्धान्त भी अधिगम को उद्दीपक अनुक्रिया के सम्बन्धों का ही परिणाम मानते हैं, परन्तु साहचर्य एवं क्षेत्र सिद्धान्तों में प्रक्रिया सम्बन्धी अन्तर है। साहचर्य सिद्धान्त के अन्तर्गत सम्बन्ध स्थापित होने की प्रक्रिया को प्रायः यान्त्रिक माना जाता है, जबकि क्षेत्र सिद्धान्त में इसे जीवन्त तथा क्रियाशील माना जाता है। क्षेत्र सिद्धान्त के मनोवैज्ञानिकों के अनुसार उत्तेजक या उद्दीपन को अनुक्रिया तक पहुँचने से पूर्व मध्यवर्ती क्षेत्र की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं में से होकर गुजरना पड़ता है तथा जो सम्बन्ध स्थापित स्थापित होता है वह मुख्य रूप से इन्हीं मध्यवर्ती क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के प्रभाव का ही परिणाम होता है। जिस प्रकार पूर्व में हमने उद्दीपन-अनुक्रिया सिद्धान्त को टेलीफोन व्यवस्था के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया था जिसमें मध्यवर्ती मशीन का कार्य मात्र यान्त्रिक सम्बन्ध स्थापित करने का होता है, उसी प्रकार क्षेत्र सिद्धान्त को ट्रान्जिस्टर रेडियो व्यवस्था के उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत ध्वनि की तरंगें यन्त्र के एक विशिष्ट भाग से टकराती हैं और ध्वनि हमारे कानों तक लाउडस्पीकर के माध्यम से पहुँचती हैं। ऐसे रेडियो में यद्यपि विद्युतीय सम्बन्ध व्यवस्था होती है, किन्तु इसके महत्त्वपूर्ण अंग ट्रान्जिस्टर ही होते हैं जिनसे गुजरकर ऊर्जा पुनर्गठित होकर भिन्न रूप धारण कर लेती है। इस प्रकार के यन्त्र ध्वनि के संचरण में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।

इस प्रकार अधिगम का क्षेत्र सिद्धान्त उद्दीपन एवं अनुक्रिया के बीच में होने वाली प्रक्रियाओं की संकल्पना पर आधारित है। इसके अनुसार विद्यार्थी को ऐसी सक्रिय ऊर्जा व्यवस्था माना जाता है जो किसी पर्यावरण में स्थित होती है तथा यह पर्यावरण भी अनेक दूसरी सक्रिय ऊर्जा व्यवस्थाओं का संगम होता है। अतः पाठ्यक्रम नियोजकों एवं शिक्षकों को S-R सम्बन्ध स्थापित करते समय उनकी मध्यवर्ती क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के प्रति भी सजग रहने की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 5 (iv) प्रभावशाली पाठ्यक्रम सम्प्रेषण के कारकों की विवेचना कीजिए।
अथवा
प्रभावशाली पाठ्यक्रम सम्प्रेषण में शिक्षक, शिक्षार्थी, विद्यालय एवं समुदाय की भूमिका की विवेचना कीजिए।

उत्तर – पाठ्यक्रम के प्रभावशाली निर्धारक

बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम

बालक के स्वाभाविक विकास का अध्ययन करने के पश्चात् उसकी आवश्यकताओं, योग्यताओं, अभिरुचियों तथा रुचियों के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्माण करना बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम से बालक की बुद्धि, संवेग, शरीर और सामाजिकता के इष्टतम विकास की सम्भावना रहती है। दर्शन के रूप में इस प्रकार के पाठ्यक्रम की संस्तुति रूसो ने की। बाद में इस पर पेस्तालॉजी, फ्रोबेल, ड्यूवी एवं मॉण्टेसरी ने भी बल दिया। भारत में गाँधीजी तथा टैगोर ने बाल- केन्द्रित पाठ्यक्रम को क्रियात्मक रूप देने का प्रयत्न किया।

बाल-केन्द्रित पाठ्यक्रम बनाने के आधार

गाँधीजी ने बाल-केन्द्रित पाठ्यक्रम निर्माण के लिए बालक के तीन प्रकार के वातावरण पर बल दिया और आग्रह किया कि बालक की सारी शिक्षा निम्नलिखित वातावरण पर आधारित हो-

(1) बालक के भौतिक वातावरण पर आधारित पाठ्यक्रम ।
(2) बालक के सामाजिक वातावरण पर आधारित पाठ्यक्रम ।
(3) क्राफ्ट पर आधारित पाठ्यक्रम ।

विदेशों में मुख्यतः तीन प्रकार के बाल-केन्द्रित पाठ्यक्रम अनेक स्कूलों में चलाये जा रहे हैं।

डाल्टन प्रणाली-
इस प्रणाली के अनुसार स्कूल को घर जैसा रूप दे दिया जाता है और कक्षाएँ प्रयोगशालाओं का रूप धारण कर लेती हैं। सीखने वालों को कुछ कार्य दे दिये जाते हैं जो उन्हें एक निश्चित समय में पूरे करने होते हैं। उन्हें इस समय में पूरी छूट होती है कि वे किसी भी विषय के अध्ययन में जितना समय चाहें, लगायें। इस प्रकार प्रत्येक बालक को अवसर मिलता है— अपनी स्वयं की गति से सीखने का और अपनी योग्यतानुसार सीखने का ।

विटेनका प्रणाली-
कारलेटनं वाशबर्न ने इस प्रणाली का आविष्कार किया। इस प्रणाली में जो प्रमुख शिक्षा-सिद्धान्त है, वह यह है कि सीखने वाले को स्वयं अपनी सीखने की गति के अनुसार सीखने का अवसर प्रदान करना चाहिए। हर एक उस विषय को जो उसके पाठ्यक्रम में है, सूझ द्वारा सीखने से उत्साहित करना चाहिए। यह प्रणाली डाल्टन प्रणाली से इस बात में भिन्न है कि इसमें हर सीखने वाले को विभिन्न विषयों में विभिन्न गति से सीखने की स्वतन्त्रता है, जबकि डाल्टन प्रणाली में बालकों को सब विषयों में एक ही स्तर पर रहना पड़ता है। पाठ्य सामग्री इकाई कार्य या उद्देश्य के रूप में संगठित की जाती है और बालक स्वयं अपने सीखने का परीक्षण कर सकता है। इसके पश्चात् ही वह अपने आपको शिक्षक द्वारा दिये जाने वाली परीक्षण के लिए प्रस्तुत करता है। इस प्रकार इस प्रणाली में असफल होने का प्रश्न नहीं उठता।

प्रोजेक्ट प्रणाली- इस प्रणाली में बालकों को प्रोजेक्ट दिये जाते हैं जो बहुधा चार प्रकार के होते हैं-(1) उत्पादक प्रोजेक्ट, (2) उपभोक्ता प्रोजेक्ट, (3) समस्यात्मक प्रोजेक्ट और (4) अभ्यास प्रोजेक्ट ।

कई बालक मिलकर एक प्रोजेक्ट पर कार्य करती हैं और इस प्रकार सीखना व्यक्तिगत योग्यता तथा रुचि पर निर्भर करता है।

प्रोजेक्ट पद्धति में पाठ्यक्रम एक प्रकार से जीवन्त क्रिया बन जाता है। छात्र समस्याओं का प्रयोगात्मक हल ढूँढ़ना सीखते हैं। सामूहिक परियोजनाओं को पूरी कक्षा करती है। पाठ्यक्रम कई परियोजनाओं का समूह बन जाता है। ये परियोजनाएँ छात्र स्वयं चुनते हैं। अध्यापक एक मार्गदर्शक तथा परामर्शदाता का रूप लेता है। परियोजनाओं में पाठ्य विषयों का सार्थक स्वाभाविक सह-सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम से प्रेरणा, प्रयत्नशीलता, रचनात्मक सक्रियता, उत्तरदायित्व, सहकारिता तथा सहिष्णुता आदि गुणों का विकास होता है।

पाठ्यक्रम तथा अध्यापक

अध्यापक का पाठ्यक्रम के दोनों पक्षों अर्थात् निर्माण में तथा क्रियान्वयन में विशेष महत्त्व है। पाठ्यक्रम शिक्षा प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण अंग है। शिक्षा के उद्देश्य तभी सार्थक होते हैं, जबकि

पाठ्यक्रम का निर्माण तथा क्रियान्वयन प्रभावपूर्ण ढंग से हो और यह निर्माण तथा क्रियान्वयन प्रभावपूर्ण ढंग से तभी हो सकता है, जबकि अध्यापक सजग तथा जागरूक हो और उत्साह एवं लगन के साथ इस कार्य में भाग ले ।

आदर्श पाठ्यक्रम तो वही है जो प्रत्येक छात्र का सर्वांगीण विकास कर सके, परन्तु ऐसे पाठ्यक्रम का निर्माण तो कोरी कल्पना है। वह कार्य तभी सम्भव है जबकि प्रत्येक अध्यापक, प्रत्येक छात्र के लिए अलग-अलग पाठ्यक्रम का निर्माण करे। वैसे विकसित देशों में इस प्रकार के प्रयास किये जा रहे हैं जिनमें शिक्षा तथा पाठ्यक्रम बाल-केन्द्रित हों। मतलब यह है कि बालक की रुचियों, अभिरुचियों तथा शक्तियों के विकास के लिए अधिक से अधिक अवसर प्राप्त

पाठ्यक्रम निर्माण की प्रक्रिया तथा अध्यापक

प्रायः अध्यापकों के मन में यह धारणा प्रचलित है कि पाठ्यक्रम निर्माण में उनका कोई योगदान नहीं लिया जाता। शिक्षाविद् पाठ्यक्रम का निर्माण करते हैं और उसके पश्चात् स्कूलों, अध्यापकों तथा छात्रों पर पाठ्यक्रम थोप दिया जाता है। सरसरी तौर पर सोचने से तो इस धारणा में बल दिखायी देता है, परन्तु गम्भीरतापूर्वक सोचने और चिन्तन करने पर यह तथ्य ठीक प्रतीत नहीं होता है। पाठ्यक्रम निर्माण के लिए भिन्न-भिन्न विषयों तथा क्रियाओं के लिए कई समितियों का गठन किया जाता है। इस समितियों में शिक्षाविदों के साथ-साथ विषय अध्यापक भी होते हैं। प्रत्येक शिक्षाविद् तथा प्रत्येक अध्यापक को पाठ्यक्रम प्रक्रिया में सम्मिलित करना असम्भव है। प्रत्येक वर्ग के कुछ प्रतिनिधि ही लिए जा सकते हैं। इस प्रक्रिया का दूसरा चरण होता है अध्यापकों के लिए गोष्ठियाँ, कर्मशाला आदि का आयोजन करना। विषय समितियों द्वारा प्रस्तावित पाठ्यक्रम में इस प्रकार से अध्यापकों की राय भी ली जाती है। कई बार पाठ्यक्रम को नमूने के तौर पर कुछ स्कूलों में लागू किया जाता है तथा अनुभवों के आधार पर पाठ्यक्रम में संशोधन किये जाते हैं। अतः स्पष्ट है कि पाठ्यक्रम के निर्माण में अध्यापकों का भी हाथ होता है।

विद्यालय तथा पाठ्यक्रम

पाठ्यचर्या शिक्षा का एक गतिशील साधन है। शीघ्रता से परिवर्तित संसार में यह आवश्यक हो जाता है कि शैक्षिक संस्थाएँ भी पाठ्य-वस्तु को नवीन आवश्यकताओं तथा तकनीकों के सन्दर्भ में बदलें। इस दिशा में निम्नलिखित सुझाव दिये जा रहे हैं-

1. पाठ्यचर्या में अनुसंधान-

व्यवस्थित रूप से पाठ्यचर्या के सम्बन्ध में अनुसंधान किया जाए, विशेषज्ञों की खोजों के आधार पर समन्वित सुधार कार्यक्रम के रूप में संशोधन किया जाए। ऐसे अनुसंधान की सुविधाएँ विश्वविद्यालयों, माध्यमिक शिक्षण कॉलेजों, राज्य की शिक्षा-संस्थाओं और राज्य के स्कूल शिक्षा बोर्डों में उपलब्ध होनी चाहिए। यदि राज्य शिक्षा संस्थाओं के निकट सहयोग में काम कर सकें, तो और भी अच्छा हो।

2. पाठ्य-पुस्तकें और शिक्षण साधन तैयार करना –
पाठ्यचर्या में सुधार के किसी भी प्रयत्न की सफलता का आधार उचित पाठ्य-पुस्तकें, शिक्षक-गाइडें और पढ़ने और सीखने की अन्य सामग्रियाँ हैं। ये चीजें स्कूल के हित को ध्यान में रखकर नये कार्यक्रमों की विषय-वस्तु और उसके उद्देश्य निर्धारित करती हैं और छात्र के वास्तविक साधन होने के कारण प्रस्तावित परिवर्तनों को सारवान बनाती हैं। 1

3. शिक्षकों की अन्तः सेवा शिक्षा-
इसके अतिरिक्त शिक्षक को नये पाठ्यक्रम की मुख्य विशेषताएँ समझाना भी आवश्यक है ताकि शिक्षक की क्षमता विकसित की जा सके, शिक्षण कौशल में उन्नति लायी जा सके और आज की परिवर्तित परिस्थिति से सम्बन्धित पढ़ाने और सिखाने की प्रक्रिया को अधिक सूक्ष्मता से समझा जा सके। इसलिए शिक्षकों को संशोधित पाठ्यचर्या में अनुस्थापित (ओरियन्टेड) करने के लिए अन्तःसेवा शिक्षा का एक विस्तृत कार्यक्रम बनाया जाए, जिसमें सेमिनार और पुनश्चर्या-पाठ्यक्रम का भी आयोजन हो।

4. उपलब्ध सुविधाओं से पाठ्यक्रम का सम्बन्ध बैठाना तथा प्रायोगिक पाठ्यक्रम अपनाने के बारे में स्कूलों को स्वतन्त्रता-
पाठ्यक्रम का शिक्षकों की कोटि, स्कूल में उपलब्ध सुविधाओं और छात्रों की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के अनुकूल उनकी आवश्यकताओं से सम्बन्ध बैठाना चाहिए। इन विषयों की दृष्टि से हर संस्था में बड़ा अन्तर होता है। परिणामतः औसत स्कूल की आवश्यकता की पूर्ति के लिए बनाया गया राज्य सरकार का एकमात्र पाठ्यक्रम राष्ट्र की विभिन्न संस्थाओं के लिए बेकार सिद्ध हो जाता है। एक ओर वह कमजोर संस्थाओं की पहुँच के बाहर सिद्ध होता है, तो दूसरी ओर अच्छी संस्थाओं के लिए उसका स्तर बहुत नीचा सिद्ध होता है। समस्या का समाधान इसमें है कि स्कूलों को अपनी ही आवश्यकता के अनुसार पाठ्यक्रम बनाकर प्रयोग में लाने और उन्हें उन्नत बनाने के लिए एक-दूसरे से होड़ करने दिया जाये।

5. उच्च पाठ्यचर्याओं को क्रमिक रूप से लागू करना-
इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि राज्य स्कूल शिक्षा बोर्ड, उच्च पाठ्यक्रम बनाकर क्रमिक कार्यक्रम के रूप में अनेक वर्षों में उन्हें सभी
स्कूल और विषयों में लागू करें। इस प्रयोजन के लिए बोर्ड को उच्च और साधारण दो पाठ्यक्रम बनाने चाहिए। सामान्य पाठ्यक्रम सभी स्कूलों के लिए समान होना चाहिए। उच्च पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए, जिसे इस समय केवल अच्छे स्कूल ही अपना सकें, लेकिन वह कुछ समय बाद सम्भवतः साधारण पाठ्यक्रम बन जाये ।

समुदाय तथा पाठ्यक्रम

(1) टैक्नोलोजी तथा सांस्कृतिक खाई को पाटना-
औपचारिक शिक्षा पद्धति और देश की समृद्धि तथा विविधतापूर्ण सांस्कृतिक परम्पराओं के बीच विद्यमान खाई को पाटना होगा। आधुनिक टैक्नोलोजी के नशे में नई पीढ़ी की जड़ें भारत के इतिहास और संस्कृति से कट नहीं जानी चाहिए। हर कीमत पर संस्कृति-विहीनता, मानव गुण-विहीनता और अलगाव से बचना होगा। शिक्षा को परिवर्तन उन्मुख प्रौद्योगिकियों और देश की सांस्कृतिक परम्पराओं के सातत्य के बीच संश्लेषण का कार्य करना होगा और शिक्षा इसे बखूबी कर सकती है।

शिक्षा की पाठ्यचर्या तथा प्रक्रियाओं को विविध प्रकार से सांस्कृतिक विषय-वस्तु के जरिए समृद्ध बनाया जायेगा। बच्चों में सौन्दर्य, समन्वय और परिमार्जन की भावना विकसित की जायेगी। समाज के साधन सम्पन्न व्यक्तियों को, उनकी औपचारिक शैक्षिक योग्यता पर ध्यान दिये बिना, शिक्षा की सांस्कृतिक समृद्धि में योगदान देने के लिए आमंत्रित किया जायेगा जिसमें अभिव्यक्ति की साहित्यिक और मौखिक परम्पराएँ शामिल होंगी। सांस्कृतिक परम्पराओं को कायम रखने तथा उन्हें आगे ले जाने के लिए परम्परागत तरीकों से पढ़ाने वाले शिक्षकों की भूमिका को सुदृढ़ किया जायेगा तथा इस कार्य को मान्यता दी जायेगी।

(2) मूल्य शिक्षा का विकास –
सारभूत मूल्यों के गिरते हुए स्तर के प्रति बढ़ती हुई चिन्ता और समाज में बढ़ती हुई कटुता से यह जरूरी हो गया है कि पाठ्यचर्या में पुनर्समायोजन लाया जाए ताकि शिक्षा को सामाजिक, नीतिपरक और नैतिक मूल्य पैदा करने के लिए एक सशक्त साधन बनाया जा सके।

(3) सार्वभौमिक भावना का निर्माण-
हमारे सांस्कृतिक और विराट समाज में शिक्षा के जरिए विकसित किये जाने वाले मूल्यों में सार्वभौमिक भावना होनी चाहिए और इनसे हमारे लोगों में एकता और एकीकरण की भावना विकसित होनी चाहिए। इस प्रकार की मूल्य शिक्षा रूढ़िवाद, धार्मिक कट्टरता, हिंसा, अन्धविश्वास और भाग्यवाद को समाप्त करेगी।
इस निर्णायक भूमिका के अतिरिक्त, मूल्य शिक्षा की एक गहन और ठोस विषय-वस्तु हमारी विरासत, राष्ट्रीय और सार्वभौमिक उद्देश्य और विचारों पर आधारित हो। इसमें इस पहलू पर मुख्य रूप से जोर दिया जाना चाहिए।

(4) भाषाएँ –
1968 की शिक्षा नीति में भाषाओं के विकास पर विस्तृत रूप से विचार किया गया था। इसके अनिवार्य उपबन्धों पर अब विचार करने की जरूरत नहीं है और ये आज भी पहले की तरह आवश्यक हैं, तथापि 1968 की नीति के इस भाग का कार्यान्वयन अनियमित रहा है। इस नीति को और अधिक तेजी और सार्थकता से कार्यान्वित किया जायेगा।

(5) मीडिया तथा शैक्षिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग-
शैक्षिक प्रौद्योगिकी को औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों ही क्षेत्रों में लाभदायक सूचना और शिक्षकों के प्रशिक्षण तथा पुनः प्रशिक्षण के प्रसार के लिए लाया जायेगा ताकि गुणवत्ता को सुधारा जा सके, कला और संस्कृति की जागरूकता को प्रखर किया जा सके और अपनाये जाने योग्य मूल्य पैदा किये जा सकें। उपलब्ध व्यवस्थापन का अधिक से अधिक लाभ उठाया जायेगा। जिन गाँवों में विद्युत नहीं पहुँची है वहाँ बैटरी अथवा सौर- ऊर्जा व्यवस्था से कार्यक्रम चलाये जायेंगे।

प्रश्न 6 (i) ‘संरचनावादी उपागम’ की व्याख्या कीजिए।
उत्तर –
वर्तमान में ‘शिक्षा’ संरचनावादी क्रिया है। संरचनात्मक शिक्षा में क्षमताओं का विकास करना भी जोड़ा जाता है, किन्तु क्षमताओं में कई प्रश्न शामिल हैं। अच्छी व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए केवल पाठ्यक्रम में कुछ नवाचारों का समावेश करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि आज के सूचना प्रधान युग में ज्ञान को भली प्रकार किस प्रकार प्रदान किया जाये यह सोचना भी है, जिसका प्रत्युत्तर हमें ज्ञान के संरचनावादी उपागम में मिलता है। इसका तात्पर्य है कि पाठ्यचर्या के सभी सन्दर्भों को बच्चों की सक्रियता व रचनात्मक सामर्थ्य को पोषित व सम्वर्द्धित करनेवाली होना चाहिए। उसका दुनिया में वास्तविक तरीकों से सम्बन्ध बैठाने, दूसरों से जुड़ने की उनकी मूल अभिरुचि को प्रेषित करना चाहिए। संरचनावादी उपागम के अनुसार, सीखना अपने आप में एक सक्रिय व सामाजिक गतिविधि है, अतः इसे संरचनावादी परिप्रेक्ष्य में पूर्ण करना चाहिए।

संरचनावादी परिप्रेक्ष्य में सीखना ज्ञान के निर्माण की एक प्रक्रिया है। विद्यार्थी सक्रिय रूप से पूर्व प्रचलित विचारों में उपलब्ध सामग्री, गतिविधियों के आधार पर अपने लिए ज्ञान की रचना करते हैं (अनुभव)। उदाहरण के लिए, यातायात व्यवस्था को पाठ या चित्र या दृश्य सामग्री का उपयोग करते. हुए पढ़ाने तथा उस पर विद्यार्थियों में चर्चा कराने से उनमें यातायात व्यवस्था सम्बन्धी ज्ञान के निर्माण मैं मदद की जा सकती है। बच्चों के संज्ञान में अध्यापकों की भूमिका को भी रचनावादी परिप्रेक्ष्य में बढ़ाया जा सकता है। यदि वे ज्ञान निर्माण की उस प्रक्रिया में ज्यादा सक्रिय रूप से शामिल हो जाएँ जिसमें बच्चे व्यस्त हैं।

इसी आधार पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को ‘रचनावादी’ या ‘निर्माणवादी’ परिप्रेक्ष्य में समझा जाता है जैसे कि एन.सी.एफ. 2005 में इसकी रचनावादी शिक्षा की वकालत की गई है। इस दृष्टिकोण से यह अर्थ सामान्य तौर पर निकलता है कि हर बच्चा अपने ज्ञान का स्वयं निर्माण करता है। हर बच्चा विलक्षण है और इसलिए उसे न सिर्फ व्यक्तिगत ध्यान की जरूरत है वरन् उसे अपने तरीके से सीखने का मौका मिलना चाहिए इसे प्रदान करना स्कूल व कक्षा की जिम्मेदारी है। रचनावाद की सतही समझ यह अर्थ देती है कि कोई भी बच्चा गलत नहीं समझा जा सकता है। मतलब जो भी बच्चे ने उत्तर दिया, वह उसके दृष्टिकोण से सही है। वैसे रचनावादी पाठ्यक्रम की वकालत कई प्रकार से की जाती है। कुछ लोगों के अनुसार इसके अन्तर्गत स्कूल में पाठ्यक्रम निर्माण, पाठ्य-पुस्तक व किसी भी निर्धारित प्रक्रिया अथवा ढाँचे को नकारा जाता है। इसके अनुसार बच्चों की ज्ञान निर्माण की इच्छा, गति और अनुभव के आधार पर बढ़ना ही ठीक माना जाता है, जबकि कुछ दूसरे शिक्षाविदों के अनुसार इस उपागम हेतु निश्चित पाठ्यक्रम की आवश्यकता नहीं है, बल्कि शिक्षा की प्रक्रिया की रचना अधिगमकर्त्ता के पूर्व अनुभवों को केन्द्र में रखकर की जानी चाहिए।




 

समावेशी शिक्षा नोट्स 

विषय समावेशी शिक्षा नोट्स 

Inclusive Education

पेपर  304
विश्वविद्यालय महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ  विश्वविद्यालय  बी.एड  तृतीय सेमेस्टर  के नोट्स 
सेमेस्टर तृतीय सेमेस्टर
lnfo यहा  महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ  विश्वविद्यालय  बी.एड  तृतीय सेमेस्टर  के नोट्स  के पेपर -304  विषय शिक्षण प्रथम नोट्स दिया गया है | यह  विषय सभी स्टूडेंट्स का समान होता है |  

 

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

निर्देश: प्रश्न संख्या 2 से 9 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न हैं। परीक्षार्थियों को प्रत्येक इकाई से एक प्रश्न का चयन करते हुए कुल चार प्रश्नों का उत्तर देना अनिवार्य है। प्रत्येक प्रश्न के लिए 71⁄2 अंक निर्धारित हैं। (4 x 71⁄2 = 30 अंक)

इकाई-1
प्रश्न 2 (i) समावेशी शिक्षा की अवधारणा, स्पष्ट करें। समावेशी शिक्षा के उद्देश्यों एवं आवश्यकताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर – समावेशी शिक्षा की अवधारणा/सम्प्रत्यय
समावेशीकरण शिक्षा के इतिहास में नया नहीं है, इसकी पहुँच को प्राचीन समय में भिन्न व विशिष्ट मनुष्यों को उन मनुष्यों ने प्रताड़ित, शोषित अमानवता कर दबा दिया था जो अपने आपको सबसे भिन्न व अतिविशिष्ट मानसिकता वाले समझते थे। परन्तु ऐसे अमानवीय कृत्यों को अंजाम देते समय यह मनुष्य भूल गये थे कि अगर ये विशिष्ट भिन्न भी हैं तो क्या इनकी विशिष्टता और भिन्नत मनुष्यों की दमनात्मक, रूढ़िवादी और अपने आपको सर्वश्रेष्ठ एवं अन्य विभिन्नता या विशिष्टता से परिपूर्ण मनुष्यों को हीन मानने व समझने वाली थी। परन्तु समय के परिवर्तन के साथ-साथ जब जनसंख्या में वृद्धि हुई तो विशिष्टता के विभिन्न पक्ष जैसे—सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक, योग्य, निर्योग्य आदि सामने आए। जैसे-जैसे मनुष्य के आपसी व्यवहारों में अंतर होता गया वैसे-वैसे विशिष्टता की मात्रा के आधार पर वर्गीकरण बढ़ता गया। जिसमें जैसी विशिष्टता की मात्रा पायी गई उसे वैसे ही शिक्षा प्रदान की जाने लगी। लेकिन इस बीच ऐसे बालक भी सामने आए जो शिक्षा शब्द के नाम से भी अपरिचित थे और समय के परिवर्तन की माँग को देखते हुए इन बालकों को अपनाने के लिए विद्यालय, समाज या राष्ट्र समावेशन की ओर कदम बढ़ाने लगे। जिसके फलस्वरूप आज इतने प्रयासों के बाद कहीं शिक्षा के अर्थों को समस-समय पर शिक्षाविदों द्वारा बदले जाने के बाद समावेशीकरण का मुद्दा अपना सिर उठा पाया है।
समावेशीकरण वर्तमान समय को देखते हुए एक अतिव्यापक शब्द ही नहीं, बल्कि एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया भी है।
विशिष्टता और भिन्नता को अवसर पूर्ण या सकारात्मक रूप में ही स्वीकार किया जाता है, जो कि इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य सदा से ही सुगम व सरल कार्यों को आसानी से ग्रहण कर लेता है। जबकि कठिन कार्य अन्य मनुष्यों के लिए छोड़ देता है। परन्तु वास्तविकता यह है कि ‘विशिष्टता मात्र पूर्णता एवं सकारात्मकता तक ही सीमित नहीं है। वरन् इसका एक रूप अपरिपूर्ण या विशिष्ट / अतिविशिष्ट आवश्यकताओं वाला होना भी है।’

समावेशी शिक्षा का अर्थ
समावेशी शिक्षा का आन्दोलन सभी नागरिकों की समानता के अधिकार को पहचानने और सभी बालकों को समावेशी आवश्यकताओं के साथ-साथ शिक्षा के समान अवसर के रूप में कहता है। देखा जाता है कि उन्हें कम नियंत्रित तथा अधिक प्रभावशाली वातावरण में शिक्षा देनी चाहिए। कम प्रतिबन्धित वातावरण जो अधिक बालकों को चाहिए केवल सामान्य शिक्षण संस्थाओं में ही दिया जा सकता है। इस प्रकार, समावेशी शिक्षा अपंग बालकों की शिक्षा सामान्य स्कूल तथा सामान्य बालकों के साथ कुछ अधिक सहायता प्रदान करने की ओर इंगित करती है। यह शारीरिक तथा मानसिक रूप से बाधित बालकों को सामान्य बालकों के साथ सामान्य कक्षा में शिक्षा प्राप्त करना विशिष्ट सेवाएँ देकर विशिष्ट आवश्यकताओं के प्राप्त करने के लिए सहायता करती है।

समावेशी शिक्षा की परिभाषाएँ
यूनेस्को (2002) के अनुसार, “समावेशन (EFA) के विकास के लिए यूनेस्को कार्यक्रम के दौरान मौलिक दर्शन और मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में देखा गया था।”
“समावेशी शिक्षा प्रणाली की संरचना तभी की जा सकती है, जब सामान्य विद्यालयों को और भी अधिक समावेशित कर दिया जाए। दूसरे शब्दों में अपने समुदाय के ही अन्दर सभी बच्चों को पढ़ाना और भी बेहतर होगा।””
समावेशी शिक्षा को निम्न परिभाषाओं से भी समझा जा सकता है-

“समावेशी शिक्षा को एक आधुनिक सोच की तरह परिभाषित किया जा सकता है, जो कि शिक्षा को अपने में सिमटे हुए दृष्टिकोण से मुक्त करती है और ऊपर उठने के लिए प्रोत्साहित करती है।”
दूसरे शब्दों में-
“समावेशी शिक्षा अपवर्जन के विरुद्ध एक पहल है।”
शिक्षाशास्त्री के अनुसार, “समावेशीकरण शिक्षकों को छात्रों के रूप में विद्यालय व कक्षागत परिस्थितियों के अंतर्गत उन बालकों के बारे में जानने व प्रशिक्षित होने के लिए तैयार कर देती है। जो सामान्य बालकों से अपने स्वरूप में भिन्न एवं विशिष्ट हैं।”

समावेशी शिक्षा के उद्देश्य
समावेशी शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों को निम्नलिखित पंक्तियों में स्पष्ट किया गया है-
1. समाज में असमर्थ बच्चों में फैली भ्रांतियों को दूर करना ।
2. असमर्थ बच्चों को जीवन की चुनौतियों का सामना करने योग्य बनाना।
3. असमर्थ बच्चों को आत्म-निर्भर बनाकर उनके पुनर्वास का प्रबन्ध करना ।
4. बच्चों की असमर्थताओं का पता लगाकर उनको दूर करने का प्रयास करना।
5. बच्चों में आत्म-निर्भरता की भावना का विकास करना।
6. असमर्थों को शिक्षित करके देश की मुख्यधारा से जोड़ना।
7. असमर्थ बच्चों को सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से समाज से जोड़ना।
8. जागरूकता की भावना का विकास करना।
9. प्रजातांत्रिक मूल्यों के उद्देश्यों को प्राप्त करना।

समावेशी शिक्षा की आवश्यकताएँ
कुछ शिक्षाविद् विशिष्ट शिक्षा के पक्षधर नहीं हैं। उनके अनुसार यह शिक्षा के अवसरों के समान नहीं है तथा बालकों के विचारों में भिन्नता पैदा होती है। सामान्य कक्षायें अपंग बालकों में हीन भावना उत्पन्न करती हैं। कुछ ही समय पहले मनोवैज्ञानिकों ने विचार दिया है कि समावेशी शिक्षा हमारे सामान्य विद्यालयों में दी जाये जिससे सभी बालकों को शिक्षा के समान अवसर मिलें। शिक्षाविद भी इस प्रकार की शिक्षा के पक्षधर हैं तथा इसे निम्न कारणों से उचित बताते हैं-
1. सामान्य मानसिक विकास सम्भव है-विशिष्ट शिक्षा में मानसिक जटिलता मुख्य है। अपंग बालक अपने आपको दूसरे बालकों की अपेक्षा तुच्छ तथा हीन समझते हैं जिसके कारण उनके साथ पृथक्ता से व्यवहार किया जा रहा है। समावेशी शिक्षा-व्यवस्था में, अपंगों को सामान्य बालकों के साथ मानसिक रूप से प्रगति करने का अवसर प्रदान किया जाता है। प्रत्येक बालक सोचता है कि वह किसी भी प्रकार से किसी अन्य बच्चे से तुच्छ रहा है। इस प्रकार समावेशी शिक्षा पद्धति बालकों की सामान्य मानसिक प्रगति को अग्रसर करती है।
2. सामाजिक एकीकरण को सुनिश्चित करती है-अपंग बालकों में कुछ सामाजिक गुण बहुत संगत होते हैं जब वे सामान्य बालकों के साथ शिक्षा पाते हैं। अपंग बालक अधिक संख्या में सामान्य बालकों का संग पाते हैं तथा एकीकरणता के कारण वे सामाजिक गुणों को अन्य बालकों के साथ ग्रहण करते हैं। उनमें सामाजिकता, नैतिक गुण, प्रेम, सहानुभूति, आपसी सहयोग आदि गुणों का विकास होता है। विशिष्ट शिक्षा-व्यवस्था में छात्र में केवल विशिष्ट ध्यान ही नहीं परन्तु विस्तार में शिक्षण तथा सामाजिक स्पर्द्धा की भावना विकसित होती है।
3. समावेशी शिक्षा कम खर्चीली है-निःसन्देह विशिष्ट शिक्षा अधिक महँगी तथा खर्चीली है। इसके अलावा विशिष्ट अध्यापक एवं शिक्षाविदों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम भी अधिक समय लेते हैं। दूसरे दृष्टिकोण से समावेशी शिक्षा कम खर्चीली तथा लाभदायक है। विशिष्ट शिक्षा संस्था को बनाने तथा शिक्षण कार्य प्रारम्भ करने के लिए अन्य कई स्रोतों से भी सहायता लेनी पड़ती है; जैसे-प्रशिक्षित अध्यापक, विशेषज्ञ, चिकित्सक आदि। अपंग बालक की सामान्य कक्षा में शिक्षा पर कम खर्च आता है।
4. समावेशी शिक्षा के माध्यम से एकीकरण सम्भव है-विशिष्ट शिक्षण व्यवस्था की अपेक्षा समावेशी शिक्षण व्यवस्था में सामाजिक विचार-विमर्श अधिक किये जाते हैं, अर्थात् उच्चारण अधिक है। अपंग तथा सामान्य बालक में सामान्य शिक्षा के अन्तर्गत एक प्राकृतिक वातावरण दिया जाता है। इस वातावरण में अपने सहपाठियों से सीखना, स्वीकार करना तथा स्वयं को दूसरों द्वारा स्वीकार कराया जाना समावेशी शिक्षा द्वारा सम्भव है। सामान्य वातावरण में छात्र में उपयुक्तता की भावना तथा भावनात्मक समायोजन का विकास होता है।
5. शैक्षिक एकीकरण सम्भव है-शैक्षिक योग्यता सामान्यतया समावेशी शिक्षा के वातावरण द्वारा सम्भव है। शिक्षाविदों को यह भी मालूम होता है कि विशिष्ट विद्यालयों में छात्र तथा अपंग छात्र शिक्षा के पूर्ण ग्राही (ग्रहण करने वाले) नहीं होते। सामान्य विद्यालयों में बाधित छात्रों को प्रवेश दिलाने कारण, वह ठीक प्रकार से शिक्षण ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं। एक प्रकार से कहा जा सकता है कि लचीले वातावरण तथा आधुनिक पाठ्यक्रम के साथ समावेशी शिक्षा शैक्षिक एकीकरण लाती है।
6. समानता के सिद्धान्त का अनुपालन करना है-भारत में सामान्य शिक्षा व्यापक रूप से विस्तार की संवैधानिक व्यवस्था की गई है और साथ-साथ शारीरिक रूप से बाधित बालकों के लिए शिक्षा को व्यापक रूप से देना भी संविधान के अन्तर्गत दिया गया है। समावेशी शिक्षा के वातावरण के माध्यम से समानता के उद्देश्य की भी प्राप्ति की जानी चाहिए जिससे कोई भी छात्र अपने आपको दूसरों की अपेक्षा हीन न समझे।

प्रश्न 2 (ii) समावेशी शिक्षा के संप्रत्यय को स्पष्ट करें। एकीकृत और समावेशी शिक्षा में प्रमुख अन्तर क्या है?.
अथवा
भारत में समावेशी शिक्षा, विशिष्ट शिक्षा, एकीकृत शिक्षा का विस्तृत वर्णन कीजिए।
उत्तर – समावेशी शिक्षा वह शिक्षा होती है, जिसके द्वारा विशिष्ट क्षमता वाले बालक जैसे मन्दबुद्धि, अन्धे बालक, बहरे बालक तथा प्रतिभाशाली बालकों को ज्ञान प्रदान किया जाता है।
समावेशी शिक्षा के द्वारा सर्वप्रथम छात्रों के बौद्धिक शैक्षिक स्तर की जाँच की जाती है, तत्पश्चात् उन्हें दी जाने वाली शिक्षा का स्तर निर्धारित किया जाता है। अतः यह एक ऐसी शिक्षा प्रणाली है, जो कि विशिष्ट क्षमता वाले बालकों हेतु ही निर्धारित की जाती है। अतः इसे समेकित अथवा समावेशी शिक्षा का नाम दिया गया।
स्टीफन तथा ब्लैकहर्ट के अनुसार- “शिक्षा की मुख्य धारा का अर्थ बाधित (पूर्ण रूप से अपंग नहीं) बालकों की सामान्य कक्षाओं में शिक्षण-व्यवस्था करना है। यह समान अवसर मनोवैज्ञानिक सोच पर आधारित है जो व्यक्तिगत योजना के द्वारा उपयुक्त सामाजिक मानकीकरण और अधिगम को बढ़ावा देती है।”
यरशेल के अनुसार-“समावेशी शिक्षा के कुछ कारण योग्यता, लिंग, प्रजाति, जाति, भाषा, चिन्ता स्तर, सामाजिक-आर्थिक स्तर, विकलांगता, लिंग व्यवहार या धर्म से सम्बन्धित होते हैं।”
शिक्षाशास्त्री के अनुसार- “समावेशी शिक्षा को एक आधुनिक सोच की तरह परिभाषित किया जा सकता है, जो कि शिक्षा को अपने में सिमटे हुए दृष्टिकोण से मुक्त करती है और ऊपर उठने के लिए प्रोत्साहित करती है।
दूसरे शब्दों में, समावेशी शिक्षा अपवर्जन के विरुद्ध एक पहल है।
शिक्षाशास्त्री के अनुसार – ” समावेशी शिक्षा अधिगम के ही नहीं, बल्कि विशिष्ट अधिगम के नये आयाम खोलती है।”
समावेशी शिक्षा एक सतही प्रक्रिया नहीं है, बल्कि मनुष्यों के विकास के लिए मनुष्यों के द्वारा किये गये कुण्ठामुक्त प्रयास है।

समावेशी शिक्षा की विशेषताएँ
समावेशी शिक्षा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. समावेशी शिक्षा ऐसी शिक्षा है जिसके अन्तर्गत शारीरिक रूप से बाधित बालक तथा सामान्य बालक साथ-साथ सामान्य कक्षा में शिक्षा ग्रहण करते हैं। अपंग बालकों को सहायता प्रदान की जाती है। इस प्रकार समावेशी शिक्षा अपंग बालकों के पृथक्कीकरण के विरोधी व्यावहारिक समाधान है।
2. समावेशी शिक्षा विशिष्ट शिक्षा का विकल्प नहीं है। समावेशी शिक्षा तो विशिष्ट शिक्षा पूरक है। कभी-कभी बहुत कम शारीरिक रूप से बाधित बालकों को समावेशी शिक्षा संस्था में प्रवेश कराया जा सकता है। गम्भीर रूप से अपंग बालक को जो विशिष्ट शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं, सम्प्रेषण व अन्य प्रतिभा ग्रहण करने के पश्चात् वे समन्वित विद्यालयों में भी प्रवेश पा सकते हैं।
3. इस शिक्षा का ऐसा प्रारूप दिया गया है जिससे अपंग बालक को समान शिक्षा के अवसर प्राप्त हों तथा वे समाज में अन्य लोगों की भाँति आत्मनिर्भर होकर अपना जीवनयापन कर सकें।
4. यह अपंग बालकों को कम प्रतिबन्धित तथा अधिक प्रभावी वातावरण उपलब्ध कराती है जिससे वे सामान्य बालकों के समान जीवन-यापन कर सकें।
5. यह समाज में अपंग तथा सामान्य बालकों के मध्य स्वस्थ सामाजिक वातावरण तथा सम्बन्ध बनाने में समाज के प्रत्येक स्तर पर सहायक है। समाज में एक-दूसरे के मध्य दूरी कम तथा आपसी सहयोग की भावना को प्रदान करती है।
6. यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत शारीरिक रूप से बाधित बालक भी सामान्य बालकों के समान महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं।
समन्वित, समावेशी एवं विशिष्ट शिक्षा में अन्तर
विशिष्ट शिक्षा
1. विशिष्ट शिक्षा विशिष्ट व सामान्य बालकों को अलग- अलग शिक्षा प्रदान करती है।
2. विशिष्ट शिक्षा भेदभाव के सिद्धान्त पर आधारित है।
3. विशिष्ट शिक्षा, शिक्षा प्रदान करने का एक पुराना विचार है।
4. विशिष्ट शिक्षा अधिक महँगी व खर्चीली शिक्षा है।
5. विशिष्ट शिक्षा कुछ-कुछ चिकित्सा का रूप रखती है।
6. यह व्यवस्था अपंग तथा सामान्य बालकों को अलग- अलग करती है।

समन्वित शिक्षा
(1) समन्वित शिक्षा विशिष्ट व सामान्य बालकों को साथ- साथ व सामान रूप से शिक्षा प्रदान करती है।
(2) समन्वित शिक्षा समानता के सिद्धान्त पर आधारित है।
(3) समन्वित शिक्षा विशिष्ट शिक्षा का नवीन व प्रगतिशील रूप है।
(4) समन्वित शिक्षा कम खर्चीली होती है।
(5) समन्वित शिक्षा का आधार मनोवैज्ञानिक है।
(6) इस व्यवस्था में शिक्षा व अन्य क्षेत्रों में अपंग तथा सामान्य बालकों के साथ-साथ समान रूप से रखा जाता है।
समावेशी शिक्षा

(1) समावेशी शिक्षा प्रतिभाशाली व सामान्य बालकों को एक साथ पूर्ण समय में शिक्षा प्रदान करती है।
(2) समावेशी शिक्षा समानता के आधार पर है।
(3) समावेशी शिक्षा नये एवं पुराने विचारों दोनों के रूप में है।
(4) समावेशी शिक्षा कम खर्चीली होती है।
(5) समावेशी शिक्षा वैज्ञानिक आधार पर है।

प्रश्न 2 (iii) समावेशी शिक्षा को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर – समावेशी शिक्षा को प्रभावित करने वाले कारक
प्रत्येक बालक विद्यालय आने से पहले अलग-अलग परिवेश से आते हैं, जहाँ उनका रहन- सहन, खान-पान व भाषा भी भिन्न होती है। परन्तु विद्यालय में प्रवेश लेने के पश्चात् उसे ऐसे वातावरण की आवश्यकता होती है जिससे सभी बालकों को समान रूप से लाभ मिले।
समस्या यह है कि क्या सामान्य बालक व असामान्य बालक को एक ही परिवेश में रखना सम्भव है?
शिक्षा में समावेशन का प्रयोग इसलिए किया गया जिससे कि प्रत्येक बालक को उसकी आवश्यकता के अनुसार ही परिवेश मिले व विद्यालय में आकर सामाजिकता का पाठ सीखे।
ऐनीजॉन ने भी समावेशी पर अनेक लेख लिखे, जिसमें उन्होंने बताया कि- “समावेशन की प्रक्रिया को जो सबसे अधिक प्रभावित करते हैं, वह हैं-बालक, माता-पिता (उस बालक के माता- पिता तथा अन्य बालकों के माता-पिता), स्कूल प्रशासन, स्कूल के सहयोगी कर्मचारी व शिक्षक।’
यही वह समुदाय है, जिसके लिए समावेश की प्रक्रिया जितनी सम्भव हो, उतनी सुगमता से और ढंग से सम्पन्न हो सके।
परन्तु कुछ ऐसे भी कारक होते हैं, जो समावेशी शिक्षा’ के फलीभूत होने में बाधा उत्पन्न करते हैं। UNESCO ने समावेशी शिक्षा पर अध्ययन करने के पश्चात् कुछ कारकों की सूची तैयार की, जो समावेशन में बाधा उत्पन्न करते हैं, वे अग्र प्रकार हैं-
1. दृष्टिकोण सम्बन्धी कारक-समावेशन की प्रक्रिया में स्वस्थ मानसिकता का होना आवश्यक है। विशिष्ट बालक को हेय दृष्टि से न देखकर उसकी विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उसकी पूर्ति हेतु प्रतिबद्ध होना आवश्यक है।
2. शिक्षकों का दृष्टिकोण व क्षमताएँ-शिक्षकों का दृष्टिकोण एक ऐसा कारक है जो मनोमस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ता है। कुछ शिक्षकों का मानना है कि सामान्य कक्षा में इस प्रकार के बालकों को शिक्षित करना सामान्य छात्रों का नुकसान व समय की बर्बादी करना है।

समावेशीकरण का प्रत्यय इतना व्यापक है कि इसे मूर्त रूप में परिवर्तित करने के लिए समाज के दृष्टिकोण में परिवर्तन आवश्यक है। यदि समाज समावेशीकरण चाहता है तो उसे सामान्य व विशिष्ट बालकों के मध्य भेदभाव को समाप्त करना होगा। जब तक भेदभाव समाप्त नहीं होगा, तब तक समावेशीकरण सम्भव नहीं है।
समाज के सभी नागरिकों को समावेशीकरण के लिए अग्र पंक्ति में खड़ा होना आवश्कयक है, तथा वे स्वयं कर्तव्य समझकर समावेशीकरण में सहयोग प्रदान करें व इसी कड़ी में शिक्षक जोकि समाज का एक ऐसा सदस्य होता है जो स्वयं समाज का व भविष्य का निर्माणकर्ता होता है, शिक्षकों
● को स्वयं में अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार होना चाहिए। उसे स्वयं में महसूस करना होगा कि सामान्य व विशिष्ट बालक एक ही समाज के सदस्य हैं, उनमें भेदभाव सम्भव नहीं है। अतः वह स्वयं भेदभाव कैसे कर सकता है, इसके लिए उसमें आत्मीयता होना अत्यन्त आवश्यक है। जब कोई विशिष्ट बालक, हमारा अपना भाई, बहिन अथवा परिवार का अन्य सदस्य होता है तब हम उसके प्रति सहानुभूति रखते हैं। उसकी सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। परन्तु यही परिस्थिति समाज के किसी अन्य सदस्य के साथ घटित होती है तब हम उसे विशिष्ट कहकर समाज से पृथक् करा देते हैं। ऐसा क्यों? क्या वह हमारे समाज का सदस्य नहीं है? क्या वह किसी माता-पिता का पुत्र तथा पुत्री नहीं है? इन सब प्रश्नों का उत्तर हमारे स्वयं के पास है, और वह है, सामान्य व विशिष्ट बालक के अन्तर को समाप्त कर सामान्य विद्यालयों में उसे शिक्षित करना। उसकी आवश्यकताओं को ध्यान रखते
हुए, उसके विकास में सहयोग प्रदान करना व क्षमताओं को विकसित करना।
में
इस कार्य के लिए प्रत्येक विशिष्ट बालक के प्रति अपनत्व की भावना रखना तथा समाज का योग्य नागरिक बनाने में उसे सहयोग, सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षक को समाज का प्रतिनिधित्व के तौर पर जाना जाता है। यदि शिक्षक विशिष्ट बालक के प्रति सहानुभूति रखता है तो अन्य बालक भी उसके प्रति सहानुभूति रखना सीख जाते हैं।
विशिष्ट बालकों को पढ़ने के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षण देना अत्यन्त आवश्यक है। इन बालकों को मुख्य धारा में तभी शामिल किया जा सकता है, जब शिक्षक स्वयं सहानुभूतिपूर्ण वातावरण का निर्माण कर उसे शिक्षित करें व इस प्रकार के बालकों को शिक्षित करना अपना उत्तरदायित्व समझें।
3. पाठ्यक्रम – मुख्य धारा शिक्षा में विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों को साथ लेकर चलना हो तो पाठ्यक्रम में लचीलापन होना आवश्यक है। नीति नियंताओं व शिक्षाविदों को ऐसे पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए जिसमें उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके।
4. भाषा व सम्प्रेषण-भाषा व सम्प्रेषण ऐसा कारक है, जो उसके (बालक) व्यवहार द्वारा प्रदर्शित होता है। बालक जिस परिवेश से निकलकर विद्यालय में आता है। वह उसी भाषा को बोलता व समझता है। धनी परिवारों से आने वाले (उच्च सामाजिक आर्थिक स्तर) बालकों का शब्दकोश कम होता है। वर्तमान समय में अधिकतर विद्यालयों का माध्यम अंग्रेजी होता है जो कि उन बालकों के लिए समस्या का रूप धारण करता है जो निम्न सामाजिक आर्थिक परिवारों से है। ऐसी समस्या आने पर वह अपने समूह में स्वयं को कम पाते हैं जिससे वे कुण्ठाग्रस्त होने लगते हैं।
5. सामाजिक आर्थिक स्तर—यह एक ऐसा कारक है जो बालक के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। क्योंकि यही वह कारक है जो बालकों को अपने पंखों को फैलाकर खुले आसमान में जीने की अनुमति प्रदान करता है। जो बालक अच्छे परिवार से आते हैं उन्हें सुख- सुविधाएँ व संसाधन अधिक होने के कारण उनका विकास भी अच्छा हो जाता है। परन्तु निम्न सामाजिक आर्थिक स्तर के बालक स्वयं को अयोग्य समझते हैं व इनको अपनी मित्रमण्डली में भी उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। यह परिस्थिति समावेशीकरण की प्रक्रिया को नकारात्मक छवि प्रदान करती है।
6. भौतिक रुकावटें-जब हम किसी बालक को शिक्षित करना चाहते हैं, तब सबसे पहले हम उसे प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश दिलाते हैं, इसके पश्चात् अभिभावकों का सोचना यह होता है कि उनके प्रवेश दिलाने से बालक निश्चित रूप से शिक्षा ग्रहण कर सकेगा। वरन् सत्य कुछ और ही होता है।
विद्यालय के वातावरण, शैक्षिक उपकरणों, संसाधनों आदि का समुचित ढंग का होना या न होना बालकों की शिक्षा को प्रभावित करता है। यदि हम किसी बालक में सकारात्मक रूप से परिवर्तन चाहते हैं तो विद्यालय में इन उपकरणों, संसाधनों एवं वहाँ का परिवेश सुखद होना आवश्यक है। अन्यथा विद्यालय समावेशन का माहौल उत्पन्न करना सम्भव नहीं है, क्योंकि विद्यालय में सभी प्रकार के बालक आते हैं, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति होना आवश्यक है।
7. वित्तीय संसाधन-समावेशीकरण के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि समय-समय पर बालकों की आवश्यकता पूर्ति, आवश्यक संसाधनों की पूर्ति की जाती रहे तथा इन संसाधनों की पूर्ति के लिए वित्त की व्यवस्था होना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि सारे उपकरणों, संसाधनों को वित्त से ही पूर्ण करना सम्भव है, इसके अभाव में समावेशन शून्य की स्थिति में आ जाता है।
जैसे-यदि कोई बालक दृष्टिकोण, श्रवण दोष, अस्थि विकलांगता से पीड़ित है तो उसे क्रमशः नजर का चश्मा, श्रवण यंत्र, बैसाखी अथवा ट्राई-साइकिल की आवश्यकता पड़ेगी। इन | उपकरणों की खरीद तभी सम्भव हो पाती है, जब हमारे पास वित्तीय संसाधन हों। इन संसाधनों की पूर्ति केन्द्र/राज्य सरकार एवं अन्य समाजसेवी संगठनों द्वारा अंशदान के रूप में दी गई राशि से की जा सकती है।

इकाई-II
प्रश्न 3 (i) सामाजिक भेदभाव से आप क्या समझते हैं? इससे प्रभावित बालकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर – किसी भी व्यक्ति अथवा समूह को किसी भी समाज से उसके धर्म, जाति, प्रजाति, रंग आदि के नाम पर उसके अधिकरों से अलग करना भेदभाव माना जाएगा। भेदभाव मनुष्य होने की गुणवत्ता पर प्रश्न-चिह्न लगाता है क्योंकि रंग, जाति, प्रजाति यह सब समाज में रहने वाले व्यक्तियों के बनाये गये अपने दायरे हैं। इन दायरों से उठकर सिर्फ सोचा ही नहीं जाएगा बल्कि ठोस कदम भी उठाया जायेगा, तब ही समावेशन सम्भव है।

केवल शारीरिक या मानसिक रूप से कमी होने पर या जाति, धर्म आदि के नाम पर किसी व्यक्ति या वर्ग को अलग कर देना उचित नहीं है। केवल सामाजिक भेदभाव-सामाजिक पृथक्कीकरण के लिए ही जिम्मेदार नहीं हैं। बल्कि सामाजिक अस्थिरता भी इससे प्रभावित होती है। जिन समूहों अथवा व्यक्तियों का अलग-अलग आधार पर शोषण किया गया, तो वह सबके सामने आ जाता है। उदाहरण के लिए, किन्नर या किन्नरों का समूह भी ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो कि दीर्घकाल से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। क्योंकि समाज ने उन्हें उनकी शारीरिक कमियों की वजह से उन व्यक्तियों के योग्य नहीं समझा जो कि बुद्धिजीवी कहला सके और आज सद्वियों से शोषण के सहने व शिक्षा के अधिकार से वंचित रहने के बाद कहीं जाकर अब वह अपनी पहचान बना पाए हैं।

ऐसे समाज व समाज की सोच पर आसानी से प्रश्न चिह्न लगाया जा सकता है कि क्यों किन्नर समाज के लोगों का समावेशीकरण आज तक नहीं हो पाया या समाज ने उन्हें इसलिए नहीं स्वीकारा कि वह यदि शिक्षा व अधिकार प्राप्त कर लेते हैं तो वे बुद्धिजीवी बन जायेंगे तो समाज के निवास करने वाले उन व्यक्तियों का क्या होगा, जो उनसे घृणा करते हैं।
भेदभाव मनुष्य की समझ का एक नया पक्ष नहीं है, यह उतना ही पुराना है जितना कि मनुष्य के संवेग, जो कि भेदभाव को मनुष्यों की क्रियाओं व व्यवहार में परिलक्षित होते हैं। सामान्य तौर पर सामाजिक भेदभाव का अर्थ है कि किसी-न-किसी कारण (धर्म, जाति, रंग, प्रजाति आदि) सामाजिक संस्थाओं में किसी व्यक्ति अथवा समूह का जाना या वहाँ कार्य करना या उस सामाजिक संस्था से कोई भी सुविधा प्राप्त करना आदि सामाजिक भेदभाव हो सकता है।
सामाजिक संस्थाओं का निर्माण समाज द्वारा समाज के व्यक्तियों के हित एवं विकास हेतु किया जाता है। अतः इनसे किसी भी व्यक्ति या समूह को दूर रखना सामाजिक भेदभाव व सामाजिक पृथक्कीकरण के कारण बालक जो कि उन सामाजिक परिवारों से है वह कहीं-न-कहीं अपने विकास और शिक्षा से दूर रह जाते हैं, अर्थात् नुकसान व अज्ञान में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। जब इस प्रकार के बालकों को शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थानों में प्रवेश नहीं लेने दिया जाता है तो यह शिक्षा की मुख्य धारा से अलग हो जाते हैं।
वैसे तो सरकार ने बहुत सारे ऐसे विद्यालय खोले हैं जो कि इन बालकों की शिक्षा आवश्यकता को पूरा करते हैं। परन्तु विशिष्ट विद्यालय समावेशीकरण को पूरा नहीं होने देते, क्योंकि यहाँ प्रश्न यह उठता है कि अगर इन बालकों की शिक्षा अलग या विशिष्ट विद्यालयों में कराई जायेग तो अलग करने, मुख्य धारा से निकाल देने जैसी बातें उठने लगेंगी। लेकिन अलग पढ़ाने या विशिष्ट कक्षाओं या विद्यालयों में पढ़ाना अलग कर देना होगा तो उसे पूर्णतः स्वीकार नही किया जा सकता क्योंकि विशिष्ट विद्यालयों की रचना विशिष्टता के आधार पर-विशिष्टता की पूर्ति के लिए की गई है। विशिष्ट विद्यालयों में शिक्षा की आवश्यकता को पूरा कर बालकों को वापिस मुख्य धारा वाली शिक्षा में सम्मिलित किया जा सकता है। इस तरह विशिष्ट विद्यालयों का भी सकारात्मक रूप से प्रयोग किया जा
सकता है।

सामाजिक भेदभाव से प्रभावित बालकों की समावेशी शिक्षा
• समावेशीकरण केवल शारीरिक निर्योग्यता या मानसिक निर्योग्यता से पीड़ित या प्रभावित बालकों की समावेशी शिक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें सामाजिक भेदभाव के कारण शिक्षा के अधिकार से दूर रह जाने वाले बालक भी आते हैं।
• सामाजिक भेदभाव के शिकार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़ा वर्ग के व्यक्ति भी हो जाते हैं।
• इन सभी का समावेशन सामाजिक भेदभाव को खत्म कर देने में सहायक सिद्ध होगा। समावेशीकरण के लिए इन्हें सामाजिक स्थलों, शैक्षिक संस्थानों पर स्वतंत्रता से आने-जाने की अनुमति दे देनी चाहिए इसके अलावा सामाजिक सुविधाओं का लाभ उठाने का अवसर देना होगा।
• समावेशी शिक्षा के लिए इन्हें उन सभी बालकों के साथ अध्ययन करने की अनुमति देनी होगी जिन्हें समाज समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने की अनुमति देता है।
• समाज से भेदभाव के कारण अलग हुए तबकों को मुफ्त किताबें, कपड़े और आवश्यकता पड़ने पर खाना की व्यवस्था सरकार की सहमति से सरकारी या गैर-सरकारी विद्यालयों में कराई जा सकती है।
• इनके विकास के लिए समाज के दृष्टिकोण को इनकी शिक्षा के लिए सकारात्मक करना अति आवश्यक है। जिसके लिए समावेशी सम्बन्धी कार्यक्रम, औपचारिक शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा, दूरस्थ शिक्षा आदि को शिक्षित करने के लिए अधिक महत्व देना चाहिए।
• इनके लिये शिक्षा योजना पर Block-Grant (SC/ST) के लिए राज्य सरकारों को देती है। इसके अतिरिक्त Special Scholarships भी प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च माध्यमिक स्तर आदि के बालकों के लिए मुहैया कराई जाती है।
• आवासीय विद्यालयों की सुविधा या विद्यालयों के अन्तर्गत सुविधा भी इन बालकों के दी जाने की योजना है।
• विद्यालयों को ऐसे स्थान पर खोले जाने की घोषणा है जहाँ शिक्षा के प्रचार व प्रसार का अभी तक कोई माध्यम नहीं है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ने इन बालकों की शिक्षा के लिए निम्न प्रावधानों को बताया गया है- 1. अनुसूचित जाति अथवा जनजाति के लिए कस्बों, ग्रामों, पहाड़ी इलाकों व जनजातीय क्षेत्रों
में विद्यालय खोले जायेंगे।
2. इस हद तक प्रयास किये जायेंगे कि इन्हीं की जाति व क्षेत्रों के शिक्षकों को नियुक्त किया
जाएगा।
3. दूर-दराज के स्थानों से आने वाले छात्रों को हॉस्टल की सुविधा दी जाएगी।
4. इस वर्ग के छात्रों के लिए आर्थिक सहायता बढ़ा दी जायेगी।
5. जनजातीय क्षेत्रों में क्षेत्रीय भाषा या अंग्रेजी भाषा को पहली भाषा के रूप में अपनाना।
6. वर्तमान में SSA के तहत् प्राथमिक, उच्च प्राथमिक विद्यालय, आँगनबाड़ी और इन क्षेत्रों में शैक्षिक केन्द्रों को खोलने पर जोर देगा।
7. इन क्षेत्रों के बच्चों को मुफ्त में किताबें, कपड़े व मिड-डे मील देने का प्रयोजन है जो प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्तर पर दिये जाने पर जोर दिया जा रहा है।
8. कोठारी समीशन और SSA ने भी इनकी शिक्षा हेतु प्रयास की बात कही है।

प्रश्न 3 (ii) शिक्षा में आर्थिक भेदभाव से आप क्या समझते हैं?
आर्थिक भेदभाव
शिक्षा में आर्थिक भेदभाव का अर्थ है कि आर्थिक कारणों के कारण ऐसे बालक जो शिक्षा लेने से वंचित रह गए हैं। आर्थिक भेदभाव किसी भी तरह की आर्थिक कमी के कारण हो सकता है। इस तरह का आर्थिक भेदभाव नौकरी में नियुक्ति पर, कार्यस्थल पर, विद्यालयों में प्रवेश लेने पर देखा जा सकता है। आर्थिक कमी के कारण बालक अपनी शिक्षा में निवेश नहीं कर पाते जिसके कारण वे पढ़ नहीं पाते व गुण को विकसित नहीं कर पाते हैं
अतः वे शिक्षा की मुख्यधारा से भी दूर हो जाते हैं और भविष्य में जीविकोपार्जन के लिए अपनी जगह नहीं बना पाते हैं। इनमें किसी भी धर्म, जाति, प्रजाति आदि वर्ग के बालक आते हैं।
इन आर्थिक रूप से वंचित बालकों को या आर्थिक रूप से भेदभाव झेल रहे बालकों की समावेशी शिक्षा की सुविधा प्रदान कर उन्हें मुख्य धारा वाली शिक्षा से जोड़ा जा सकता है।
• समावेशी शिक्षा के लिए इनको सामान्य बालकों के साथ ही कक्षा में ही अध्ययन करवाया
जाए।
• इन्हें अन्य आर्थिक रूप से सम्बद्ध बालकों की तरह ही शिक्षा के अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।
• इन्हें शिक्षा हेतु आर्थिक रूप से सहायता प्रदान की जानी चाहिए।
• इन बालकों की शिक्षा की व्यवस्था हेतु NCERT, UGC एवं अन्य विभिन्न संगठनों के द्वारा छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है जो कि सराहनीय कार्य है।
• आर्थिक रूप से कमजोर बालकों की शिक्षा पर आने वाला व्यय भी निश्चित कक्षा तक माफ कर देना चाहिए एवं इनका भार सरकार एवं अन्य संगठनों द्वारा वहन किया जाना चाहिए।
• गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों से सम्बन्धित बालकों की शिक्षा- व्यवस्था प्रशासन द्वारा की जानी चाहिए।
• प्रतिभाशाली एवं आर्थिक रूप से कमजोर बालकों को समय-समय पर प्रोत्साहन के रूप उनके अच्छे कार्य के लिए पुरस्कृत किया जाना चाहिए।
में
• कोई बालक यदि आर्थिक रूप से कमजोर है तो उसे हेय दृष्टि से नहीं देखना चाहिए।
• इस वर्ग में आने वाले बालकों की शिक्षा-व्यवस्था आवासीय विद्यालयों में की जाये तो अति उत्तम होगा।
• इनके स्वास्थ्य की देखभाल हेतु समय-समय पर विद्यालयों में स्वास्थ्य शिविर में ही स्वास्थ्य परीक्षण करवाना चाहिए।
की
• इसके फलस्वरूप यदि शारीरिक रूप से कोई कमी पायी जाती है तब उसके उपचार
व्यवस्था की जानी चाहिए।
• विद्यालय स्तर पर आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों में सभी को अवसर प्रदान किया।
जाना चाहिए।
• समय-समय पर उनके कार्य के लिए उन्हें अभिप्रेरित करते रहना चाहिए।
• इनके बालकों को उनकी व्यक्तिगत समस्याओं, शैक्षिक समय व व्यावसायिक समस्याओं के समाधान के लिये निर्देशन की व्यवस्था की जानी चाहिए।
प्रश्न 3 (iii) शिक्षा में लैंगिक भेदभाव से आप क्या समझते हैं? लैंगिक भेदभाव को दूर करने के उपाय बताइए
उत्तर – लैंगिक भेदभाव
लैंगिक भेदभाव उसे कहा जाएगा, जहाँ पर किसी व्यक्ति को उसके लिंग के आधार पर प्रताड़ित किया जाय, शिक्षा के समान अवसर प्रदान न करना। लैंगिक भेदभाव एक संवेगात्मक मुद्दा, अस्तित्व का मुद्दा और स्वयं आत्म-सम्मान के साथ दूसरे के सम्मान का मुद्दा, जो कि संवेगों के आक्रामक गुबार के साथ एक-दूसरे के अस्तित्व को बिना भेदभाव के साथ अपनाने का मुद्दा। कौन किससे ज्यादा है इस बात पर ध्यान केन्द्रित न करके समावेश को बढ़ावा देना लैंगिक भेदभाव को कम करने का प्रयत्न है जो कि पुरुष को अपनी परिधि और महिला को अपनी परिधि में रहकर स्वीकारना ही होगा। क्योंकि दोनों ही अपने उत्पत्ति में मनुष्य ही हैं, लैंगिक भेदभाव केवल महिलाओं तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसका प्रभाव पुरुष पर भी है। दोनों ग्रसित भी हैं और प्रभावित भी। जो जिस क्षेत्र में जिससे ज्यादा है वह दूसरे पर उतना ही भारी है। लैंगिक भेदभाव में महिलायें व पुरुष दोनों ही शामिल हैं। अर्थात् दोनों ही प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से इसके अंग हैं
हमारे देश में लम्बे समय से महिलाओं की बड़ी संख्या के लिए शिक्षा थी ही नहीं। शिक्षा को ग्रहण करने की अधिकारी केवल वही महिलायें थीं जो कि धनाढ्य परिवार या राजघराने से सम्बन्धित थीं। सबसे ज्यादा महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबन्ध मुस्लिम काल में लगाये गये। इस काल में कुछ ही विदुषी महिलाओं ने शिक्षा ग्रहण की जिसके यदा-कदा परिणाम मिलते हैं। शिक्षा के अभाव में न तो महिला का विकास हो पाया और न ही उसकी शिक्षा का। शारीरिक और मानसिक रूप से शोषण और लैंगिक रूप से भेदभाव के कारण बहुत समय तक यह तबका विकसित नहीं हो पाया।
धीरे-धीरे समय बदला और वैदिक, बौद्ध, मुस्लिम, अंग्रेजों के काल से होते हुए वर्तमान समय • में स्त्री शिक्षा का स्वरूप बहुत हद तक परिवर्तित हो चुका है। स्त्री शिक्षा के स्वरूप को बदलने के लिए उसे कई परिवर्तनों से गुजरना पड़ा व महिला या स्त्री शिक्षा के लिए कई संगठनों ने बीणा उठाया जिसके फलस्वरूप महिलाओं का घर पर शोषण, शारीरिक शोषण, मानसिक शोषण, संवेगात्मक शोषण, कार्य करने की जगह पर शोषण को रोकने में मदद की है।
वुड का घोषणा-पत्र 1854 में यह महसूस किया गया कि स्त्री शिक्षा के लिए कार्य किया जाना अत्यन्त आवश्यक है एवं स्त्री शिक्षा के लिए कुछ घोषणाएँ की गई थीं जो निम्न प्रकार हैं-
1. बालिका विद्यालयों को विशेष अनुदान।
2. स्त्री शिक्षा हेतु सहयोग प्रदान करने वाले व्यक्तियों को प्रोत्साहन ।
उस समय यही एक ऐसा घोषणा-पत्र था जिसमें स्त्री शिक्षा के विकास की बात कही गई। हण्टर आयोग 1882 में स्त्री शिक्षा के विकास के लिये अनेक सुझाव दिये जो निम्न प्रकार हैं-
1. महिला शिक्षा की निःशुल्क व्यवस्था।
2. निर्धन बालिकाओं को छात्रवृत्ति।
3. छात्रावास की व्यवस्था ।
4. बालिका विद्यालयों को अनुदान ।
5. इनके विद्यालयों में महिला शिक्षक की व्यवस्था व महिला शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय की व्यवस्था ।
6. इन विद्यालयों के निरीक्षण हेतु महिला निरीक्षकों की व्यवस्था।
7. स्थानीय निकायों को बालिकाओं की प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था के लिए निश्चित धनराशि (प्रतिशत) तय करना व इनके लिये अलग से बालिका विद्यालय की व्यवस्था आदि।
राधाकृष्णन् आयोग (1948-49 ) ने स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में जो भी कहा वह देश की आधी आबादी के लिए उचित न था। उसमें स्त्री शिक्षा को सिर्फ गृहकार्यों में दक्ष होने तक ही सीमित रखने को कहा गया कि वर्तमान में उचित नहीं है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) के 12वें भाग में स्त्री शिक्षा में सकारात्मक परिवर्तन लाने हेतु योजना बनाई जिसमें बताया गया कि बालिकाओं के लिये अलग विद्यालय छात्रवृत्ति व महिला शिक्षकों की नियुक्ति आदि की व्यवस्था की जायेगी। इन चरणों से गुजरती हुई स्त्री शिक्षा की जो स्थिति है वह स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है। यह स्थिति समाज के गणमान्य व्यक्तियों द्वारा की गयी थी जिन्हें समाज में स्थानीय दृष्टि से देखा जाता था। परन्तु यह किसे पता था कि जो समाज में गणमान्य व्यक्ति हैं वही समाज पर कुठाराघात किये जा रहे हैं।
मेरा आप से प्रश्न है क्या महिला समाज का अंग नहीं है?
यदि हाँ, तो फिर यह लैंगिक भेदभाव क्यों?
पुत्र के लिए पुत्री को गर्भ में ही समाप्त कर दिया जाता है। समाज में व्यक्तियों को सोचना चाहिए कि स्त्री ही न होती तो संसार का क्या अस्तित्व होता। भारत में पुरुष, महिला में जो भेदभाव किया जाता है। उसके दुष्परिणाम को हम जनसंख्या के उस अनुपात को जान सकते हैं। अर्थात् (1000- 940) जो स्वयं इसकी व्याख्या कर देता है। महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, शैक्षिक, संवेगात्मक, सामाजिक, आर्थिक रूप से सुदृढ़ करना वर्तमान परिस्थिति में अत्यन्त आवश्यक है। भारत जैसे विकासशील देश में महिलाओं की शिक्षा व उनके चहुँमुखी विकास के लिये अनेक कार्यक्रम व नीतियाँ बनाई गयीं। इन नीतियों का क्रियान्वयन सही ढंग से तभी किया जा सकता है जब उसमें संलग्न व्यक्तियों में महिलाओं के प्रति भेदभाव न हो तथा वह महिला को समाज का ही एक अंग समझे।
हमारा संविधान 1950 में लागू किया गया तथा उसके अनुच्छेद 15 (3) में कहा गया कि राज्य को स्त्रियों व बालकों के लिए उपबन्ध बनाने में कोई बाधा नहीं होगी। लैंगिक भेदभाव को
दूर करने के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखकर कार्य किया जाता है-
1. पूर्ण रूप से सभी बालिकाओं को निःशुल्क शिक्षा, इसके अन्तर्गत सरकारी व गैर-सरकारी विद्यालयों को भी रखा जाए एवं गैर सरकारी विद्यालय में प्रवेश के लिए एक निश्चित प्रतिशत तय किया जाए जिन पर सिर्फ महिलाओं को प्रवेश दिया जाए।
2. बालिकाओं की शिक्षा के लिए उचित साधन व्यवस्था, शौचालयों की व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है
3. बालिकाओं के साथ विद्यालयों में किसी भी प्रकार का भेदभाव (लैंगिक, सामाजिक, जाति, धर्म आदि) न किया जाए।
4. समय-समय पर विद्यालय स्तर पर आयोजित प्रतियोगिताओं में भाग लेने हेतु उन्हें प्रोत्साहित करना। 5. परिवारों में बालक, बालिकाओं में किसी भी प्रकार का भेदभाव न करना।
6. परिवारों के सदस्यों को चाहिए कि बालिकाओं की शिक्षा-व्यवस्था उनकी रुचि, व क्षमताओं के अनुरूप करने का प्रयास करें।
7. निर्धन परिवारों से आने वाली बालिकाओं को सहानुभूति पूर्ण वातावरण प्रदान करना चाहिए।
वैसे तो महिलाओं की शिक्षा पर बहुत सारे आयोगों ने कुछ-न-कुछ अवश्य ही बताया है। परन्तु सबसे प्रभावी सुझाव कोठारी कमीशन ने दिये जो निम्न प्रकार हैं-
• पुरुषों व महिलाओं की शिक्षा में कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा।
• स्त्री शिक्षा के लिये विशिष्ट प्रयास किये जायेंगे।
• महिलाओं को विज्ञान व तकनीकी शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।
• महिलाओं को व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा के लिए विशेष सुविधायें प्रदान की जायेंगी।
• राधाकृष्णन् आयोग, राष्ट्रीय महिला शिक्षा, देशमुख आयोग, हंसा मेहता कमेटी ने भी महिलाओं की शिक्षा के प्रचार-प्रसार, महिला शिक्षा हेतु विभागों की स्थापना की गई, जिनका कार्य महिलाओं की शिक्षा के लिए धन की व्यवस्था करना व महिला व पुरुष की शिक्षा में किसी प्रकार की कोई असमानता न होना, पर जोर दिया गया।

प्रश्न 4 (i) समावेशी शिक्षा में योग्यता व निर्योग्यता के कार्यक्षेत्र पर आधारित शैक्षिक प्रथाएँ एवं भेदभाव का वर्णन कीजिए।
अथवा
योग्यता व निर्योग्यता से संबंधित शैक्षिक प्रथाएँ किस प्रकार से शिक्षा को प्रभावित करती हैं। इस कथन को समझाइए ।
उत्तर – 1. आमतौर पर सामान्य योग्यता रखने वाले बालकों को सामान्य विद्यालयों में प्रवेश दे दिया जाता है और उनका अध्ययन कार्य सामान्य तरह से चलता रहता है, पर यहाँ प्रश्न इस बात पर भी उठता है कि क्या जो शिक्षण प्रथाएँ, परम्परागत तरीके से सामान्य बालकों के अध्ययन के लिए अपनायी जाती हैं, वही प्रथाएँ औसत से अधिक या औसत से कम बालकों के लिए अपनायी जायेगी तो यह अपने आप में भेदभाव का कारण होगा।
2. कक्षा या विद्यालय एक शोध स्थल के समान है, जहाँ शिक्षक शोधकर्ता के रूप में होता है और छात्र न्यायदर्श के रूप में। अतः शिक्षक को अपने अनुभव व सूझ-बूझ के आधार पर छात्रों के हित में उन विधियों का प्रयोग करना चाहिए जो छात्र की शैक्षिक आवश्यकता की पूर्ति करती हो, न कि किसी एक विशेष वर्ग वाले छात्रों को ।
3. वास्तविकता तो यह कि जिस तरह किसी व्यक्ति के बीमार होने पर उसे चिकित्सक या वैद्य उसकी आवश्यकतानुसार दवा देते हैं या इलाज करते हैं और समस्या या बीमारी की पहचान हेतु विशिष्ट विधि अपनाते हैं उसी तरह शिक्षक भी विशिष्टता या आवश्यकतानुसार छात्र को अपने कौशलों द्वारा लाभान्वित कर सकते हैं।
4. शिक्षण विधियाँ, पाठ्यक्रम, कक्षागत शिक्षण, कक्षागत परिस्थितियाँ शिक्षण कौशल आदि शिक्षा प्रक्रिया एक ऐसे अंग हैं। जिन्हें शिक्षक, शैक्षिक संगठन, शैक्षिक प्रशासन में कार्यरत व्यक्ति भेदभाव को पैदा करने के लिए या मिटाने के लिए दोनों ही तरह से प्रयोग कर सकते हैं।
5. छात्रों की शैक्षिक आवश्यकतानुसार शिक्षक उन्हें भिन्न-भिन्न तरीकों से विषय-वस्तु को समझा सकते हैं। लेकिन, क्योंकि छात्र अधिगमकर्ता के रूप में एक ही अधिगम दर से सीखें यह बात आवश्यक नहीं। इसीलिए यह आवश्यक है कि पहले उनकी विशिष्टता को समझा जाये फिर उन्हें मुख्य धारा वाली शिक्षा से जोड़ दिया जाये।
6. यदि यह कहा जाये कि समावेशी शिक्षा या समावेशी विद्यालयों के उद्भव के साथ विशिष्ट शिक्षा या विशिष्ट विद्यालयों का अस्तित्व धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है तो यह पूर्णतः गलत होगा क्योंकि इस प्रकार का प्रयोजन भी किया जा सकता है कि सामान्य विद्यालयों में विशिष्ट विद्यालयों के प्रारूप के आधार पर विशिष्ट कक्षाओं की व्यवस्था की जाये जो कि वर्तमान समय में बड़ी संख्या में सामान्य विद्यालयों द्वारा किया जा रहा है। इससे बालकों की विशिष्ट आवश्यकता की भी पूर्ति हो जायेगी और साथ में समावेशीकरण का उद्देश्य भी पूरा हो जायेगा।
7. कोई भी छात्र या बालक अपनी विशिष्टता के कारण अन्य छात्रों या बालकों से अलग होता हैं। विशिष्टता विकास के क्रम में बालक को आगे ले जाने वाली हो सकती है या ऐसी भी जो उसे विकास के क्रम में पीछे ले जाये। इसीलिए यह कहना गलत होगा कि शिक्षा का समावेशीकरण मात्र उन बालकों के लिए हो जो शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक रूप से पिछड़े हैं या निर्योग्य हैं, क्योंकि समावेशीकरण की आवश्यकता उन बालकों के लिए भी है जो अपनी कक्षा में अध्ययन करने वाले सामान्य या औसत छात्रों से शैक्षिक प्रदर्शन में कहीं ऊपर हैं। क्योंकि कक्षागत परिस्थितियों का सच यह है कि अगर सामान्य बालकों के साथ बैठकर यह वर्ग अध्ययन नहीं कर सकता जो विशिष्टता में कमी को प्रदर्शित करता है तो यह भी एक सच है कि जो बालकों का वर्ग विशिष्टता में अधिक होने के कारण सामान्य बालकों के साथ नहीं अध्ययन कर सकता है। अतः इस परिस्थिति में समावेशीकरण का सबसे सरल उपाय यह है कि एक ही सामान्य विद्यालय में बालकों की विशिष्टता को पूरा करना ही उचित होगा जो कि एक ही कक्षा में अध्ययन कराकर सम्भव हो जायेगा। इससे समायोजन के नये आयाम भी प्राप्त किये जा सकते हैं।
8. पहले आवश्यक यह है कि बालक को प्रवेश देते समय उसकी विशिष्टता में अधिकता या कमी होने के कारणों को शिक्षक व विद्यालय प्रशासन द्वारा जाँच लेना चाहिए। इसके बाद विद्यालय परिसर के अन्दर ऐसे प्रयोजन कराये जायें तो छात्र की विशिष्टता की आवश्यकता को पूरा कर सके व उसे सामान्य छात्रों के साथ ही बैठकर अध्ययन कराया जाये जिससे कि समावेशन की प्रक्रिया आसान हो जाये ।
9. समावेशी शिक्षा और समावेशीकरण का स्वरूप बाह्य न होकर आन्तरिक है। इसे और भी जटिल न बनाकर सरलता की ओर ले जाना चाहिए। पाठ्यक्रम की रचना, शिक्षण विधियाँ, शिक्षण कौशल आदि का प्रयोग छात्रों की आवश्यकता को पूरा करते हुये अगर उन्हें समावेशीकरण की ओर अग्रसर कर रहे हैं तो यह भेदभाव को कदापि उत्पन्न नहीं होने देगा।
10. समावेशीकरण को बढ़ावा देने के लिए और भेदभाव को रोकने के लिए सरकार व प्रशासन द्वारा एक ही विद्यालय में नियमित शिक्षक, साधन-सम्पन्न शिक्षक, मनोवैज्ञानिक आदि की भी विद्यालय परिसर में व्यवस्था की जा सकती है ताकि भिन्न प्रकार की विशिष्टताओं की पूर्ति हो
सके।
11. समावेशीकरण को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम विद्यालयी वातावरण में सभी छात्रों के बीच, अभिभावकों व शिक्षकों की उपस्थिति में कराने चाहिए जो कि सकारात्मक दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करें।
12. समावेशीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने के लिए बालकों के अधिगम को उनके प्रदर्शन द्वारा समझा जाना चाहिए। प्रतिपुष्टि में सुधार होना सम्भव है। शिक्षकों को समय-समय पर एकीकरण और समावेशीकरण की नयी विधियों के बारे में अध्ययन करते रहना चाहिए और इन विधियों को सामान्य बालकों की कक्षाओं में विशिष्ट बालकों के साथ या उनके ऊपर समय-समय पर प्रयोग किया जाना चाहिए।
प्रश्न 4 (ii) शारीरिक रूप से अक्षम बालकों से आप क्या समझते हैं? इन्हें विद्यालय में कैसी सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए?
उत्तर -“स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण होता है।” चानलाके की यह परिभाषा सिद्ध करती है कि जब तक शरीर स्वस्थ नहीं होगा तब तक मनुष्य सामान्य रूप से कार्य नहीं कर सकता। शारीरिक स्वास्थ्य उसके कार्य व विकास को प्रभावित करता है। विकलांगिक अक्षम अथवा अपंग बालक शारीरिक रूप से विकलांग कहलाते हैं। अपंग तथा बीमार बालकों की संख्या ध्यान आकर्षित करने वाली है। अपंग बालक चिरकालिक बीमार बालकों से संख्या में कहीं अधिक होते हैं। ऐसे बालक निरन्तर असफल होते हैं और अन्त में विद्यालय आना छोड़ देते हैं। अपंग और बीमार दोनों ही प्रकार के बालक विशिष्ट बालकों की श्रेणी में आते हैं और विशेष शिक्षा के अधिकारी हैं।

विकलांगिक अक्षम (अपंग) बालक का वर्गीकरण

अपंगता का मेडिकल साइंस में विकलांगिक अक्षमता नाम है। अपंग बालकों को हम अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में यदा-कदा देख लेते हैं। अपंगता के प्रकार निम्नलिखित हैं-
1. लूले लंगड़े, हथकटे,
2. एक या इससे अधिक अंगों का लकवा,
3. पाँवफिरा,
4. मेरुदण्ड का वक्र,
5. प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात,
6. विकृत नितम्ब,
7. मेरुदण्डीय द्विशाखी,
8. मांसपेशीय डायसट्रोफी ।
इन समस्त प्रकारों में प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात अधिकतर अपंग बालकों में पाया जाता है। इसका कारण मस्तिष्क में किसी प्रकार की चोट लगना है। इस प्रकार की मस्तिष्कीय चोट प्रायः गर्भावस्था में लगती है। इस प्रकार की अपंगता में ऐच्छिक गामक क्रिया-प्रणाली गड़बड़ा जाती है। यह गड़बड़ मात्रा में बालक से बालक में भिन्न होती है। मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि मस्तिष्क का कौन-सा भाग तथा कितना भाग प्रभावित हुआ। प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात के तीन प्रकार हैं- (अ) मस्तिष्क-संस्तम्भ (ब) एथिटोसिस (स) एटाक्सिया। मस्तिष्क-संस्तम्भ में अकस्मात् व झटकेदार गति होती है। एथिटोसिस में धीमी तथा बार-बार होने वाली गति होती है। इसमें प्रायः गले और मुँह की मांसपेशियों में नियन्त्रण नहीं रहता है। इस कारण निम्नलिखित लक्षण देखने को मिलते हैं-
(i) मुँह से लार टपकती रहती है, (ii) चेहरे की मांसपेशियों का लटंक जाना, (iii) बोलने में कठिनाई ।
एटासिया में अंगों में सामन्जस्य व सन्तुलन नहीं रहता है।
प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात के निम्नलिखित प्रभाव देखने में आते हैं-
(i) मानसिक रूप से पिछड़ापन अथवा प्रतिभायुक्तता, (ii) अधिगम अक्षमता, (iii) दृष्टिदोष (iv) श्रवण दोष, (v) वाक् दोष, (vi) भाषा दोष।
इन दोषों का कारण मस्तिष्क का प्रभावित होना है। मस्तिष्क का कौन-सा भाग प्रभावित हुआ है, यह बात निश्चित करती है कि वर्णित दोषों में से कौन-सा दोष बालक में होगा और मस्तिष्क का कितना भाग प्रभावित हुआ है। यह बात निश्चित करती है कि दोष की मात्रा कितनी होगी। एक य

इससे अधिक अंगों का लकवा भी मस्तिष्कीय चोट अथवा बीमारी के कारण हो जाता है। पाँव फिरा, पाँव टेढ़ा उल्टा आदि होता है। मेरुदण्ड का वक्र मेरुदण्ड के किन्हीं कारण से झुक जाने के कारण होता है। विकृत नितम्ब जन्म से ही होता है और इसका कारण गर्भाशय में विकास में किसी प्रकार की
• रुकावट या बीमारी का होना है। मेरुदण्डीय द्विशाखी में मेरुदण्ड कशेरुका से पूर्णतया ढकी नहीं रहती। यह एक जन्म दोष है। मांसपेशीय डायसट्रोफी एक निरन्तर उत्तरोत्तर विकृत बीमारी होती है। जिसमें मस्तिष्कीय मांसपेशियाँ क्षीण होती जाती हैं। लूलापन या लँगड़ापन या हाथ का कटा होना प्राय:
किसी दुर्घटना के शिकार बन जाने के कारण होता है।
अपंग बालकों के विभिन्न प्रकारों में लूले-लँगड़े, हथकटे, पाँव फिरा, विकृत नितम्ब, मेरुदण्डीय ‘ द्विशाखी तथा मेरुदण्ड का वक्र को छोड़कर अन्य प्रकार मस्तिष्कीय चोटों अथवा बीमारियों अथवा कमियों से सम्बन्धित हैं। अतः निम्नलिखित प्रकारों से ग्रसित बालक मानसिक रूप से विकलांग भी कहलाते हैं-
1. लकवा,
2. प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात,
3. मांसपेशीय डायस्ट्रोफी ।
वास्तव में, उपरोक्त प्रकारों में बालक मानसिक विकलांगता के कारण शारीरिक रूप से विकलांग हो जाता है।
इस प्रकार के बालक खेलों में, मनोरंजन के साधनों में अथवा सामाजिक कार्यक्रमों में भाग नहीं ले पाते। अतएव इन बालकों की शारीरिक क्षमता के अनुरूप ही खेलों तथा मनोरंजन के साधनों की व्यवस्था करनी चाहिए। इन बालकों को अकेला छोड़ देना या इनकी उपेक्षा करना ठीक नहीं।
इन बालकों की बौद्धिक क्षमता अच्छी होती है। इसलिए इनकी रुचि के अनुसार इन्हें कोई न कोई कौशल सिखलाना चाहिए, ताकि ये आत्म-निर्भर बन सकें। इनकी कभी हँसी नहीं उड़ानी चाहिए और न ही इनकी खिल्ली उड़ाई जाए। इनके साथ स्नेहपूर्ण तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। इस प्रकार के व्यवहार से उनमें किसी भी प्रकार का सांवेगिक तनाव नहीं उत्पन्न होगा।
विरूपित या अपाहिज बालकों की शिक्षा
अपाहिज बालकों की शिक्षा की व्यवस्था करते समय इनकी विशेष शारीरिक अक्षमता या अपंगता की हमेशा दृष्टि में रखना चाहिए और इसके अनुसार उन्हें शिक्षण प्रदान करना चाहिए तथा पथ-प्रदर्शन करना चाहिए। उनके लिए बनाया जाने वाला पाठ्यक्रम सभी दृष्टियों से व्यापक होना चाहिए ताकि इनका सब दिशाओं में विकास हो सके। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों पर विशेष ध्यान दिया जाए-
1. दैहिक दक्षता विकसित करना-उनके लिए ऐसी व्यवस्था की जाए कि वे अपनी अपंगता पर जीत हासिल कर सकें। वे जिन अंगों के अभाव से ग्रस्त हैं, उनके स्थान पर कृत्रिम अंग लगाए जा सकते हैं। इससे वे सामान्य बालकों के समान कार्य कर सकेंगे।
2. शारीरिक अपंगता को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम का निर्माण- ऐसे बालकों के। लिए पाठ्यक्रम तथा कार्यक्रम की रचना करते समय उनकी अपंग स्थिति को सामने रखना चाहिए। । लूले लंगड़े बालक सामान्य पाठ्चर्याओं और कार्यक्रमों से लाभ नहीं उठा पाएँगे।
3. चिकित्सा सुविधा प्रदान करना – बालक-बालिकाओं को शारीरिक अपंगता का निदान । कर उसके अनुरूप ही उन्हें चिकित्सा सुविधा प्राप्त करानी चाहिए इससे उनके स्वास्थ्य में सुधार आएगा। अच्छी सेहत होने पर ये दिये जाने वाले प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षण से पूरा-पूरा लाभ
उठा पाएंगे।
4. सांवेगिक समायोजन तथा सुरक्षा प्रदान करना-इन बालकों की शारीरिक अपंगता के कारण उनका सामाजिक तथा सांवेगिक संतुलन बिगड़ जाता है। अतः उनको दिए जाने वाले शिक्षण में सांवेगिक संतुलन को प्राथमिकता देनी चाहिए। इस बात का पूरा-पूरा प्रयास होना चाहिए कि
आत्म-विश्वास से भरे हों और उनमें किसी भी प्रकार की हीन भावना नहीं होनी चाहिए।
5. प्रोत्साहन और प्रेरणा प्रदान करना-इस बात का प्रयास करना चाहिए कि कहीं वे अपंगता के कारण अपने जीवन को सारहीन ही न समझने लगें। उन्हें यह लगना चाहिए कि वे सारे काम सुचारु रूप से कर सकते हैं। कुछ कामों में तो वे सामान्य बालक-बालिकाओं से भी बाजी मार सकते हैं। इन बातों के लिए अध्यापक-अध्यापिकाओं को उन्हें सदा ही प्रोत्साहित और अभिप्रेरित करते रहना चाहिए।
यदि इन बातों को ध्यान में रखकर शिक्षा प्रदान की जाएगी तो ये निश्चय ही सामान्य बालकों के समान प्रगति कर सकेंगे।
इकाई – III
प्रश्न 5 (i) स्कूल स्तर पर समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए परिवार के दायित्वों पर प्रकाश डालिए।
अथवा
अक्षम बालकों के प्रति परिवार के उत्तरदायित्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर – परिवार/परिवार तन्त्र
बच्चे के सामाजीकरण की प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है और इसे अस्वीकार करने का कोई ठोस सबूत भी नहीं है। विशेष आवश्यकता वाले बच्चों का समावेशन द्वारा परिवार तंत्र में उसके समुचित समावेशन से होकर गुजरता है। विशेष आवश्यकता वाले बच्चों पर परिवार का मुख्य ध्यान होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो इस प्रकार के बच्चे या तो हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं या वे सभी से पिछड़ते जाते हैं। विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों को आगे बढ़ने के लिए परिवार के सदस्यों को हमेशा प्रोत्साहित करना चाहिए।
अक्षम बालकों के प्रति परिवार के दायित्व
अक्षम बालक के प्रति परिवार के निम्नलिखित उत्तरदायित्व होते हैं—
(1 ) शिक्षा की व्यवस्था-अक्षम बालकों हेतु शिक्षा की व्यवस्था करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह बालकों की मनोस्थिति के अनुसार हो। जैसे—नेत्र विहीन बालकों के लिए ल लिपि की पुस्तकों व अध्यापकों की व्यवस्था करना।
( 2 ) विशेषज्ञों का परामर्श-अक्षम बालकों की शिक्षा व शिक्षण व्यवस्था करते समय विशेषज्ञों का परामर्श लेते रहना चाहिए। उनसे इस बात की जानकारी व परामर्श लेना चाहिए कि बालकों की आवश्यकताओं तथा उनकी शिक्षण सम्बन्धी समस्याओं को कैसे दूर किया जाए।
(3 ) उपकरण की उपलब्धता – छात्रों को शिक्षण प्राप्ति के दौरान परिवार के सदस्यों को नकी शिक्षण सम्बन्धी समस्त उपकरणों, जैसे-लेखन, पठन व चित्रकला सम्बन्धी इसके साथ-साथ योगात्मक विषयों से सम्बन्धित उपकरणों की व्यवस्था भी करानी चाहिए।
( 4 ) आत्मनिर्भरता-परिवार के सदस्यों को बालकों में आत्मनिर्भरता का गुण विकसित करना चाहिए। उन्हें पठन के लिए प्रोत्साहित करते हुए जीविकोपार्जन हेतु सक्षम बनाने के लिए उनके
आत्मविश्वास को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।
( 5 ) अवसर की उपलब्धता-परिवार के सदस्यों को बालक की रुचियों, अभिरुचियों को समझते हुए उन्हें उनके क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए अवसर उपलब्ध करवाने चाहिए। उनकी छोटी- छोटी कमियों व त्रुटियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
(6) सरकारी सहयोग उपलब्ध कराना-परिवार के सदस्यों को चाहिए कि अक्षम बालकों को सरकार से मिलने वाले सहयोग, जैसे-स्कॉलरशिप, व्हीलचेयर (पैरालाइज्ड/विकलांग) इत्यादि जैसी सुविधाओं को उपलब्ध कराना चाहिए।
सुलभ व
(7) योग्य की सलाह लेना-अक्षम बालकों की शिक्षा हेतु व उनके जीवन को सक्षम बनाने हेतु योग्य व्यक्तियों की सलाह व सहयोग लेना चाहिए। कुशलतानुसार छात्रों को उनके रुचि में आगे बढ़ने हेतु योग्य व्यक्तियों का परामर्श लेना चाहिए।
( 8 ) प्रोत्साहन – छात्रों को प्रोत्साहन से ऊर्जा व कार्य को और अच्छे से करने की शक्ति मिलती है उनमें उत्साहपूर्वक कार्य करने की ललक उत्पन्न हो जाती है। अतः अच्छे कार्य करने के उपरान्त परिवार के सदस्यों को उनका प्रोत्साहन करना चाहिए।
( 9 ) मूल्यांकन – अक्षम बालकों के परिवार के सदस्यों द्वारा समय-समय पर उनका मूल्यांकन करते रहना चाहिए जिससे यह ज्ञात होता रहे कि वे अपने क्षेत्र में कितने सफल हैं और किन- किन क्षेत्रों में उन्हें कठिनाई का अनुभव हो रहा है।
(10) शिक्षा के महत्व को समझना – अक्षम बालकों को परिवार के सदस्यों द्वारा शिक्षा के महत्व व शिक्षित होने के उपरान्त होने वाले परिवर्तन व लाभों को समझाना चाहिए। शिक्षित मनुष्य समाज में यश व सम्मान को प्राप्त करता है।

प्रश्न 5 (ii) अक्षम बालकों के प्रति विद्यालय का दायित्व बताइए।
विद्यालय
बच्चा परिवार के बाद जिस समाज से परिचित होता है वह उसका विद्यालयी समाज है। विशि प्रकार के बच्चों के लिए विद्यालय एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अगर उस विद्यालय क वातावरण उस बच्चे के अनुकूल होता है या उसे पढ़ाया जाने वाला पाठ्यक्रम उसके अनुकूल होता है त वह बच्चा तरक्की व प्रगति के मार्ग पर बढ़ जाएगा नहीं तो वह बच्चा हीन भावना का शिकार हो जाएगा।
N.C.F. (2005) के अनुसार, “समावेशन की नीति को प्रत्येक विद्यालय एवं सम्पूर्ण शिक्षा- व्यवस्था में लागू किए जाने की आवश्यकता है। बच्चे के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह स्कूल में हो या बाहर, सभी बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है। स्कूलों को ऐसे केन्द्र बनाए जाने की आवश्यकता है जहाँ विशिष्ट प्रकार के बच्चों की जीवन की तैयारी कराई जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी बच्चे विशेष रूप से शारीरिक एवं मानसिक रूप से असमर्थ बच्चों और कठिन परिस्थितियों में जीने वाले बच्चों को इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा लाभ मिल सके।”
सभी बालकों को शिक्षा के समान अवसर देना तथा उनकी विभिन्नताओं, गुणों एवं कमियों के बावजूद भी उन्हें अपने गुणों के प्रकाशन एवं विकास के समान अवसर प्रदान करना समावेशी शिक्षा के मौलिक सिद्धान्तों के अन्तर्गत आता है।
में
बूथ एवं एन्सको (1998) ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “समावेशी शिक्षा स्कूल बालकों की भागीदारी में वृद्धि करती है तथा स्थानीय विद्यालयों के समुदायों, पाठ्यर्चा तथा संस्कृति से उनके बहिष्कार को कम करती है।”

यूनीसेफ (2003) ने भी विशिष्ट आवश्यकताओं के बालकों की मुख्यधारा विद्यालयों में को शिक्षा संग्रहण के प्रावधान को उचित ठहराते हुए इस बात पर बल दिया है कि, “यह स्पष्ट हो चुका 7-8 कि सभी असमर्थी बालकों में से 70 प्रतिशत बालक जिनमें मन्द मानसिक दुर्बलता के बालक भी सम्मिलित हैं। सामान्य विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, बशर्ते कि विद्यालय शिक्षा प्राप्ति के वातावरण तक उनकी पहुँच बनाए तथा उन बालकों को उचित समायोजित करने के लिए संस्था में T) सुविधाओं का उचित प्रावधान रखे।”

यूनेस्को (2008) ने समावेश की राह में रुकावटों की सूची बनाई है-दृष्टिकोण सम्बन्धी कारक, भौतिक रुकावटें, पाठ्यक्रम, शिक्षकों के दृष्टिकोण तथा क्षमताएँ, भाषा तथा सम्प्रेषण, सामाजिक, आर्थिक कारक, वित्तीय संसाधन एवं शैक्षिक व्यवस्था का संगठन और नीतियाँ। हालाँकि इनमें से प्रत्येक महत्वपूर्ण हैं परन्तु इनमें दृष्टिकोण सम्बन्धी कारकों जिनका सम्बन्ध स्कूल के दृष्टिकोण तथा माता-पिता के दृष्टिकोणों से होता है। भाषा तथा सम्प्रेषण सामाजिक एवं आर्थिक कारकों तक सीमित रहता है। ये किस प्रकार भारत में रुकावटों को निरूपित करते हैं इन सभी कारकों को हम ही लोगों को देखना व दूर करना पड़ेगा।
समावेशी शिक्षा की सफलता इस बात से तय होती है कि समावेश की प्रक्रिया के प्रति तथा उस बच्चे के प्रति जिसका समावेश किया जाना है उसके प्रति शिक्षक का दृष्टिकोण क्या है? अगर शिक्षक विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों को हीन भावना से देखता है तो उस जगह समावेशी शिक्षा के कोई अर्थ नहीं है और विशिष्ट आवश्यकता के बालक आगे की ओर प्रगति नहीं कर पाते हैं।
इसके अतिरिक्त जो बच्चे शिक्षा की माध्यम वाली भाषा में निपुण नहीं होते हैं और कक्षा के कामकाज में भाग नहीं लेते हैं। उनके साथ उनके सहपाठियों द्वारा भी भेदभाव किया जाता है।
समावेशी शिक्षा को स्कूल स्तर पर बढ़ावा देने के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकारें निरन्तर कार्यरत हैं। इसके लिए वह नए-नए कानून तथा नियमों का निर्माण करती हैं। समावेशी शिक्षा को सुदृढ़ बनाने के लिए हमें और हमारे समाज को भी आगे आना चाहिए। विद्यालय स्तर पर विशिष्ट बालकों तथा समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए शिक्षकों तथा विद्यालय परिवेश की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर शिक्षक चाहे तो किसी बच्चे का भविष्य बना सकता है और बिगाड़ भी सकता है इसलिए समावेशी शिक्षा के विकास के लिए शिक्षक अति महत्वपूर्ण है। विशिष्ट बालकों की पाठ्यचर्या एवं मूल्यांकन विधि सरल बनानी चाहिए।
विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों के लिए उनके अनुसार उपकरण व टी.एल.एम. का प्रयोग करना चाहिए जिससे वह आसानी से और जल्दी सीखें। केन्द्र व राज्य सरकार की नीतियों को बढ़ावा देना चाहिए।
समावेशी शिक्षा को विद्यालय स्तर पर बढ़ावा देने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारें बहुत से नियम कानून बना रही हैं और समय-समय पर उनमें बदलाव व परिवर्तन कर रही हैं जिससे विशिष्ट नावश्यकता वाले बच्चों को आगे लाया जा सके व उनको शिक्षित किया जा सके। विशेष आवश्यकता ले बच्चों को कैसे पढ़ाया जाए क्योंकि उनमें कुछ बच्चे विकलांग, दृष्टिबाधित, बहरे व अन्धे होते । उनको कैसे पढ़ाना चाहिए? और उन बच्चों के लिए प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति करना चाहिए।
समावेशी शिक्षा में अध्यापक की भूमिका का वर्णन कीजिए।
प्रश्न 6 (i) समावेशी शिक्षा में अध्यापक की भूमिका
समावेशी परिवेश में शिक्षण एक जटिल कार्य है इसलिए प्रत्येक अध्यापक को अतिरिक्त समय,
प्रशिक्षण, संसाधन, समुदाय एवं अभिभावक का सहयोग मिलना चाहिए। समावेशी शिक्षा में अध्यापक की भूमिका बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण होती है। समावेशी शिक्षण प्रणाली में सामान्य विशिष्ट एवं संसाधन अध्यापकों के मध्य सहयोग एवं आपसी समझ होना आवश्यक है। समावेशी कक्षा के अध्यापक को 3R (Right, Roles and Responsibilities) अधिकार, भूमिका एवं उत्तरदायित्व की जानकारी होना अति आवश्यक है। समावेशी प्रणाली में एक अध्यापक की भूमिका एवं उत्तरदायित्वों को निम्न रूप से लिखा जा सकता है-
(1) बच्चों की मानवीय विभिन्नताओं को समझना एवं स्वीकार करना सिखाना।
(2) कक्षा-कक्ष गतिविधियों में प्रत्येक बच्चे को प्रतिभागिता के अवसर प्रदान करना।
(3) बाधित बच्चों के प्रभावशाली अधिगम हेतु पाठ्यक्रम का निर्माण करना।
(4) विशिष्ट उपलब्धि के लिए बाधित बच्चों को अभिप्रेरित करना।
(5) निरन्तर मूल्यांकन द्वारा बाधित बच्चों की प्रगति सुनिश्चित करना।
(6) सामान्य एवं बाधित दोनों प्रकार के बच्चों के लिए समान पाठ्यक्रम उपभोग करने के लिए प्रेरित करना।
(7) सामान्य एवं बाधित बच्चों के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित करना।
(8) अभिभावकों से गृह अधिगम को बढ़ावा देने की तकनीकें बताना।
(१) प्रत्येक बच्चे के लिए आवश्यकतानुसार एवं योग्यतानुसार पाठ्यक्रम में गृहकार्य आदि का निर्माण करना।
(10) बच्चों में आत्मविश्वास जाग्रत करना एवं उन्हें जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार करना।
(11) बच्चों को आधुनिक उपकरणों के प्रयोग हेतु प्रशिक्षित करना ।
(12) शारीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं व्यवहारात्मक रूप से असमर्थ बच्चों की शैक्षिक आवश्यकताओं व अपेक्षाओं को समझना ।
(13) विशिष्ट बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उन्हें अन्य व्यवसाय द्वारा सहयोग -प्रदान करना।
(14) बच्चों द्वारा उपयोग में लाई जा रही विशिष्ट सेवाओं की जाँच करना ।
(15) शून्य अस्वीकृति के सिद्धान्त (Zero Rejection Policy) के सिद्धान्त के तहत, प्रत्येक बच्चे का कक्षा-कक्ष में स्वागत करना।
(16) बच्चों में सकारात्मक सोच का विकास करना।
(17) बाधित बच्चों की समस्याओं को समझने के लिए अभिभावकों, शिक्षा कर्मियों की सहायता करना ।
(18) इष्टतम उपलब्धि के लिए बाधित बच्चों को अभिप्रेरित करना।
(19) बाधित बच्चों के लिए निरन्तर मूल्यांकन द्वारा उनकी प्रगति को सुनिश्चित करना ।
(20) समुदाय द्वारा आयोजित किए गए कार्यक्रमों में भाग लेना
(21) बाधित बच्चों के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान देना ।
(22) वैकल्पिक शिक्षण तकनीकी का निर्माण करना।
दृष्टिबाधित बालकों के प्रति अध्यापक का उत्तरदायित्व
दृष्टिबाधित बालक कई प्रकार को हेते हैं, जैसे-दृष्टिहीन, कुछ को कम दिखाई देता है या फिर कई बच्चों की एक ही आँख काम कर रही होती है। इन बच्चों की देखभाल के लिए प्रशिक्षण एवं शिक्षा सामान्य एवं संसाधन अध्यापक दोनों का उत्तरदायित्व होता है-
(1) अभ्यास द्वारा अधिगम में बच्चों के लिए सहायता।
(2) कक्षा में सुलभ संचालन हेतु व्यवस्था।

(3) अल्पदृष्टि बालकों हेतु बड़े अक्षरों वाली किताब की व्यवस्था ।
(4) यह सुनिश्चित करना कि बच्चों को चिकित्सीय सेवा समय पर मिलें।
(5) सामान्य बच्चों को दृष्टिबाधित बच्चों की समस्याओं से अवगत कराना।
(6) दृष्टिबाधित बच्चों को संगीत, नाच, गाना आदि सह-पाठ्यक्रम गतिविधियों में सहभागिता के लिए प्रेरित करना।
(7) दृष्टिबाधित बच्चों के लिए अध्यापक का सकारात्मक दृष्टिकोण।
(8) अल्पदृष्टि वाले बच्चों को आगे बैठाना।
(१) बच्चों को श्रवण प्रशिक्षण देना।
(10) श्यामपट्ट पर लिखते समय ऊँची आवाज में बोलते हुए पढ़ना।
(11) विशिष्ट उपकरणों, जैसे-ब्रेल, श्रवण यंत्र आदि का उपयोग करना।
श्रवणबाधित बालकों के प्रति अध्यापक का उत्तरदायित्व
सामान्य अध्यापक के लिए श्रवण बाधित बालकों को प्रशिक्षण देना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। इस प्रकार के बच्चों को सकारात्मक पुनर्बलन की आवश्यकता होती है। अध्यापक को इस क्षेत्र में निम्नांकित कार्य करना चाहिए-
(1) श्रवण बाधित बालकों की समस्याओं को समझना ।
(2) संसाधन अध्यापक, अभिभावक एवं समुदाय के सम्पर्क में रहना।
(3) बच्चों को शब्दकोश की जानकारी देना।
(4) बोलते समय बच्चों की ओर देखना। (5) छोटे वाक्यों का प्रयोग।
(6) धीमी गति से बोलना।
(7) उन्हें श्यामपट्ट अथवा लेखन सामग्री की सहायता से पढ़ाना।
(8) श्रवण उपकरणों की पूर्ण जानकारी रखना ।
शारीरिक रूप से बाधित बालकों के प्रति अध्यापक का उत्तरदायित्व
ये विद्यार्थी सामान्य विद्यार्थियों से अधिक भिन्न नहीं होते इन्हें समावेशी परिवेश में सामान्य अध्यापकों द्वारा पढ़ाया जा सकता है क्योंकि इन बच्चों का बौद्धिक विकास सामान्य होता है। इनके प्रति शिक्षक के निम्न उत्तरदायित्व हैं-
(1) शारीरिक रूप से बाधित बच्चों की चिकित्सीय सीमाओं को समझना ।
(2) उनमें सकारात्मक आत्मसंप्रत्यय का विकास करना।
(3) बच्चे को उसकी बाधिता को स्वीकार करना सिखाना ।
(4) इन बच्चों की इच्छा शक्ति में वृद्धि करना।
(5) उन्हें अपने शरीर के विभिन्न अंगों का प्रयोग करना सिखाना ।
(6) उनके लिए कक्षा में बैठने की उपयुक्त व्यवस्था करवाना।
(7) उनके सहपाठियों में मधुर सम्बन्ध स्थापित करने में सहायता देना
(8) उन्हें जहाँ तक हो स्वावलम्बी बनाना।
अधिगम असमर्थी बालकों के प्रति अध्यापक के उत्तरदायित्व
समावेशी परिवेश में, इन बालकों की शिक्षा के लिए अध्यापक का प्रभावशाली होना आवश्यक है क्योंकि अध्यापक जितना प्रभावशाली रहेगा बच्चे उतनी अच्छी तरह से पढ़ाई एवं कक्षा की अन्य क्रियाओं में भाग लेंगे। इस प्रकार के बच्चों के लिए अध्यापक की भूमिका निम्नलिखित हैं-
(1) इस प्रकार के बच्चों की व्यावहारिक विशेषताओं का ठीक ढंग से निरीक्षण करना।
(2) बच्चों को तस्वीरों की सहायता से पढ़ाना।
(3) शिक्षा सम्बन्धी समस्यात्मक क्षेत्रों में बार-बार अभ्यास करवाना।
(4) समान अर्थों वाले वाक्यों को अलग-अलग पढ़ाना।
(5) अधिगम असमर्थी बालकों की आवश्यकतानुसार सामग्री की व्यवस्था करना।
प्रमस्तिष्कीय स्तम्भन के लिए बालकों के
प्रति अध्यापक के उत्तरदायित्व
इस प्रकार के बच्चों के लिए पाठ्यक्रम को बदलने की आवश्यकता नहीं होती परन्तु इन बच्चों को पढ़ाने की विधि अलग होनी चाहिए। अध्यापक का इन छात्रों के प्रति निम्नलिखित उत्तरदायित्व हैं—
(1) कक्षा में समायोजन के लिए भावनात्मक सहयोग देना ।
(2) सूचना एवं संचार तकनीकी का प्रयोग ।
प्रश्न 6 (ii) समावेशी शिक्षा सम्बन्धी पाठ्यक्रम तथा इसकी विशेषताएँ बताइए ।
उत्तर – प्रायः हर तरह का शिक्षण-अधिगम पाठ्यक्रम पर आधारित होता है तथा दूसरे उद्देश्य की सफलता अथवा असफलता भी इसी से सुनिश्चित होती है। यह बालकों की शिक्षण-अधिगम से सम्बन्धित मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला होना चाहिए। यह उस ज्ञान एवं कौशल का वर्णन करता है जिन्हें बालक प्राप्त कर सके। पाठ्यक्रम बालक के इन्हीं विभिन्न कौशलों को निखार कर सामने लाने में मददगार होता है। ऐसे में यह भी जरूरी हो जाता है कि पाठ्यक्रम सभी प्रकार के बालकों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाला हो ।
समावेशी शिक्षा सम्बन्धी पाठ्यक्रम भी यह सुनिश्चित करता है कि जिन मानकों के तहत पाठ्यक्रम तैयार किया गया है, वे मानक इतने विस्तृत तथा व्यापक हों कि बालकों की अधिगम- शिक्षण से सम्बन्धित समस्त जरूरतें पूर्ण हो सकें। यह सभी मानकों पर आधारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के ढाँचे को प्रोत्साहित करें। इसमें समावेशीय अनुदेशनात्मक उपागम एवं सामग्री सम्मिलित होनी चाहिए जो विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं वाले बालकों हेतु उपलब्ध हो। यह मूल रूप से शारीरिक तौर पर अशक्त बच्चों के स्तर को ऊँचा उठाने में उपयोगी होता है। इसमें उनके विभिन्न प्रकार के कौशलों का विकास होता है।
पाठ्यक्रम की विशेषताएँ
1. संरचनात्मक मूल्यांकन को नियमित शैक्षिक प्रक्रिया में निहित करना चाहिए ताकि छात्र व शिक्षक दोनों ही अधिगम प्रक्रिया के अभिन्न अंग बनें एवं शिक्षक, छात्रों की कठिनाइयों को पहचान कर इन्हें समाप्त करने में सहायता करें।
2. विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों को नियमित रूप से सहायता देने की
आवश्यकता है जो कि नियमित कक्षाओं में न्यूनतम सहायता से लेकर विद्यालय के अन्दर अधिगम सहायता कार्यक्रमों तक दी जाएगी व आवश्यकता पड़ने पर सहायता के प्रावधान से विशिष्ट शिक्षकों
व बाह्य व्यक्तियों द्वारा बढ़ा दी जायेगी।
3. उपयुक्त तकनीकी का प्रयोग विद्यालय पाठ्यक्रम को सफल बनाने में सहायक होना चाहिए तथा सम्प्रेषण, गतिशील और अधिगम को सहायता देने में तकनीकी सहायता और भी अधिक अल्पव्यय व प्रभावात्मक तरीके से दी जा सकती है। यदि यह किसी स्थान के केन्द्रीय लाभ कोष से दी जा रही है या जहाँ व्यक्ति विशेष की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए तकनीकी का प्रयोग किया जा रहा हो।
4. क्षमताओं के विकास हेतु क्षेत्रीय, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शोधकार्य किये जाने चाहिए, जिससे विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों के लिए उचित तकनीक को विकसित किया जा सके।
5. पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सैद्धान्तिक रूप व व्यावहारिक रूप एवं अन्य पाठ्य सहगामी क्रियाओं के क्रियान्वयन को जोड़ा जाना चाहिए।
6. पाठ्यक्रम की रचना का आधार समावेशन होना चाहिए।
7. पाठ्यक्रम केवल सामान्य बालकों को ध्यान में रखकर ही नहीं विशिष्ट बालकों की आवश्यकताओं को पूरा करने वाला होना चाहिए।
8. पाठ्यक्रम व्यावहारिक व कक्षागत परिस्थितियों में सामान्य व विशिष्ट बालकों को एक साथ लेकर चलने वाला होना चाहिए।
9. पाठ्यक्रम के अन्तर्गत Syllabus को पूरा करते ऐसे अध्याय होने चाहिए जो कि अध्ययन के दौरान बालकों के साथ समायोजन को बढ़ावा दें।
10. पाठ्यक्रम की रचना इस प्रकार की होनी चाहिए कि प्रतिदिन के शिक्षण के दौरान कुछ समय शिक्षकों को सामान्य व विशिष्ट बालकों के मध्य अन्तः क्रिया पर जोर दें जिससे वे एक-दूसरे को समझें ।
11. Curriculum Design पृथकीकरण को एकीकरण में बदल देने वाला होना चाहिए।
12. सालामैन का स्टेटमैण्ट के अनुसार, पाठ्यक्रम में लचीलापन हेतु कुछ तत्त्वों का होना आवश्यक है जो कि बिन्दुवार हैं-
13. पाठ्यक्रम बच्चों के अनुसार होना चाहिए न कि बच्चों को पाठ्यक्रम के अनुसार ।

14. विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बच्चों को नियमित पाठ्यक्रम के अनुसार, अतिरिक्त निर्देश देना चाहिए न कि किसी अन्य पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में दिशा देने वाले सिद्धान्त ऐसे हों जो कि सभी बच्चों को समान शिक्षा, अतिरिक्त सहायता, व मदद उपलब्ध करा सकें।
15. ज्ञान की प्राप्ति केवल औपचारिक या सैद्धान्तिक निर्देश का विषय नहीं है, शिक्षा की वेषय-वस्तु एवं व्यक्ति विशेष की आवश्यकताओं को उच्च मानकों तक इस विचार से ले जाना चाहिए जो कि उन्हें विकास में भागीदार बनाने के लिए प्रोत्साहित करे। शिक्षण बच्चों के अपने अनुभव और व्यावहारिकता से सम्बन्धित होना चाहिए जो कि उन्हें और अधिक अभिप्रेरित कर सके।
16. प्रत्येक बालक की प्रगति का अनुगमन करने के लिए, ऑकलन के तरीकों पर पुनर्विचार करना चाहिए।
17. पाठ्यक्रम शिक्षक द्वारा समय अवधि में दोनों ही प्रकार के सामान्य व विशिष्ट बालकों पर क्रयान्वित करने के लिए उपयोग होना चाहिए।
18. पाठ्यक्रम इस सीमा तक विस्तृत हो जिससे समावेशी शिक्षा को विद्यालय व कक्षागत परिस्थितियों में आसानी से प्रोत्साहित किया जा सके।
19. पाठ्यक्रम शिक्षकों के अन्दर सामान्य व विशिष्ट बालकों की समावेशी शिक्षा को प्रदान करने के लिए लचीला होना चाहिए।

प्रश्न 7 (i) अपवर्जन की अवधारणा, अर्थ, परिभाषा तथा विकास का वर्णन कीजिए।
अपवर्जन की अवधारणा
विशिष्टता प्रकृति के द्वारा दिया हुआ एक वरदान है। जिस प्रकार मानव जीवन में और प्रकृति के द्वारा की गई रचनाओं में विशिष्टता का कोई अन्त नहीं है, उसी प्रकार समावेशीकरण की भी कोई सीमा नहीं है। विशिष्टता और समावेशीकरण का अटूट सम्बन्ध है। यह दोनों एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं, शिक्षा अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। उसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि समावेशीकरण भी अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। यदि हम मनुष्य होकर मनुष्य की विशिष्टताओं को न समझने की भूल करें और शिक्षा को केवल स्वयं को परिपूर्ण मानकर या अपने जैसों तक पहुँचाने का प्रयास करें तो शिक्षा का प्रत्यय व उद्देश्य अपने आपमें ही सिमट कर रह जायेगा। शिक्षित गुणों से परिपूर्ण और आधुनिकीकरण को महत्व देने वाले मनुष्यों से इस भावना की अपेक्षा की जा सकती है कि वह अपनी अनोखी विशिष्टता के साथ-साथ अपने जैसे या उससे भिन्न विशिष्टता वाले मनुष्यों को उनकी भिन्न शारीरिक व मानसिक अवस्थाओं के साथ सामान्य वातावरण में अन्तःक्रिया का अवसर देंगे। इसी श्रेणी में पहला व ठोस कदम शिक्षा को सभी के लिये (Education for All) खास और जीवनोपयोगी बनाने के लिए, समावेशीकरण के लिए आवश्यक है जो कि कागजों पर स्याही से लिखे शब्दों में दबकर रह गई है। अतः समावेशीकरण वर्तमान समय की अति आवश्यक माँग है, जिसका रूप समय के चक्र के साथ अति व्यापक होता जा रहा है। समावेशीकरण अपवर्जन की जड़ों को जड़ से काटने के लिए एक रामबाण की तरह है क्योंकि अगर अपवर्जन को नियंत्रित नहीं किया गया तो यह विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बालकों को ही नहीं बल्कि विशिष्टता के विकास की जड़ों को ही काट देगा।
अपवर्जन का अर्थ एवं परिभाषा
अपवर्जन का शाब्दिक अर्थ है कि “विशिष्ट बालकों की विशिष्टताओं को अनदेखा कर उन्हें सामान्य बालकों की शिक्षा प्रक्रिया व शैक्षिक अवसरों को दूर रखना।”
या
अपवर्जन का अर्थ, “शैक्षिक अवसरों का सभी बच्चों के मध्य असमान वितरण होगा।’ अपवर्जन को एक ऐसी नैतिक क्रिया का दर्जा दिया जा सकता है जो कि विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बालकों को केवल शारीरिक या मानसिक रूप से ही नहीं वरन् मनोवैज्ञानिक रूप से क्षीण कर देना है।
शिक्षा के संकुचित, कुण्ठित और दमनात्मक अर्थ को अपवर्जन कहा जा सकता है।
अपवर्जन, वास्तविकता में प्राचीन काल में मनुष्यों के द्वारा मनुष्यता को समाप्त करने के लिए किये अति निकृष्ट कृत्यों में से एक जिन्हें मनुष्यों ने शारीरिक मानसिक रूप से विकृत अन्य मनुष्यों को नष्ट करने के लिए अपनाया था।
से
• परन्तु अगर हम वर्तमान समय की बात करें तो अपवर्जन अपने प्राचीन अर्थों में अभी उसी स्थान पर रहकर विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बालकों को शिक्षा, समाज व जीवन की दूर किये हुए है।
मुख्यधारा
अपवर्जन को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
• अपवर्जन अपने आप में मुख्य धारा शिक्षा की एक बहुत बड़ी कमी है। अपवर्जन प्रदर्शित करता है कि मुख्य धारा शिक्षा के दायरे बेहद सीमित हैं जो कि सत्य नहीं है।
• अपवर्जन का अर्थ है कि विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों को मुख्य धारा से विरत कर विशिष्ट विद्यालयों में रखकर दूर कर देना है।
• अपवर्जन शिक्षा के एकीकरण के प्रत्यय को पूरा नहीं करता है।
अपवर्जन समावेशन से विशिष्ट बालकों को सामान्य व सभी के लिए शिक्षा हेतु वातावरण से दूर करके एक नियंत्रित वातावरण में बाँध देता है।
समावेशीकरण से सम्बन्धित नीतियों का इतिहास व
कालानुक्रमिक परिवर्तन व विकास
1990 तक भारत में लगभग 40 मिलियन ऐसे बच्चे थे जो कि 4 से 16 वर्ष की आयु में आते थे और जिन्हें शारीरिक एवं मानसिक निर्योग्यताओं से पीड़ित श्रेणी में रखा गया था एवं मुख्य धारा वाली शिक्षा से हमेशा दूर रखा गया, इनमें से अमूमन बच्चे घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे।
परन्तु इस प्रवृत्ति के वे स्वयं की इच्छाशक्ति से ना होकर बल्कि संवेदनाहीन और कठोर विद्यालयी प्रशासन व मानवीय मजाक के घटिया रूप को प्रदर्शित करने वाले योग्य बालकों के अति उत्सुक अभिभावकों एवं उनसे बाह्य होकर ही वह इस प्रवृत्ति के बन गए हैं। संकुचित एवं दमनात्मक सोच वाले मनुष्यों ने कभी भी निर्योग्यता से जूझ रहे बालकों को राष्ट्र में सभी के लिए शिक्षा के उद्देश्य को पूरा करने वाली कक्षाओं में प्रवेश लेने ही नहीं दिया, जबकि संकुचित और दमनात्मक सोच अपने आप में मानसिक-हीनता का प्रदर्शन करती है।
परन्तु वर्तमान समय में यह माँग है कि बड़े अनुपात वाले निर्योग्य व पीड़ित बालकों को मुख्य धारा वाली शिक्षा में जोड़ते हुए उनकी क्षमताओं के विकास पर बल दिया जाए। भारत में मुख्य धारा शिक्षा प्रणाली की शुरुआत 1880 में हुई थी। श्रवणबाधितों के लिए पहला विद्यालय मुंबई में 1833 में खोला गया एवं दृष्टिबाधितों के लिए पहला विद्यालय अमृतसर में सन् 1887 में स्थापित हुआ।, 1947 तक दृष्टिबाधितों के विद्यालयों की संख्या 32 हो चुकी थी एवं श्रवणबाधितों व मानसिक रूप से पिछड़े बालकों के लिए 3 विद्यालय स्थापित किये जा चुके थे।
सन् 2002 तक विशिष्ट विद्यालयों की संख्या बढ़कर 3000 हो गई थी। भारत में 1960 में दृष्टिबाधितों को पढ़ाने के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षित करने की योजना पर बल दिया व समय के साथ कार्यान्वित भी किया।
परन्तु प्रश्न यह था कि शिक्षकों को प्रशिक्षित कैसे किया जाए? शिक्षकों की कम से कम शैक्षिक योग्यता क्या होनी चाहिए जो प्रशिक्षण के लिए आवश्यक है? इसका पाठ्यक्रम कैसा हो?
ऐसे ही कई और प्रश्नों को ध्यान में रखते हुए 1980 में Ministry of Welfare Govt. of India ने इस आवश्यकता को अनुभव किया कि एक ऐसा संस्थान अवश्य होना चाहिए जो विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों के लिए कार्य करे तथा उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें सहायता प्रदान करे।
लेकिन इन संस्थानों के द्वारा जो लाभ हुए उससे कहीं अधिक दुष्परिणाम सामने आए। उन्होंने इन बालकों का एक अलग वर्ग खड़ा कर दिया जो कि मुख्य धारा शिक्षा से पृथक् था। वर्तमान समय मुख्य धारा शिक्षा को ध्यान में रखते ही समावेशीकरण पर बल दिया गया तथा इसका उद्देश्य सामान्य व विशिष्ट दोनों प्रकार के बालकों को एक साथ एक ही शिक्षण कक्ष में उनकी आवश्यकतानुसार परिस्थितियों का निर्माण कर सहानुभूतिपूर्ण वातावरण में शिक्षित करता है।

प्रश्न 7 (ii) समावेशीकरण को बढ़ावा देने व अपवर्जन को रोकने के लिए कार्यक्रमों का वर्णन कीजिए।
समावेशीकरण को बढ़ावा देने व अपवर्जन को रोकने के लिए कार्यक्रम
1. जिला प्राथमिक शिक्षा योजना – DPEP की शुरुआत 1994 में हुई थी, इसमें शिक्षकों को बड़े पैमाने पर प्रशिक्षित किया जाता है। इसमें गुणवत्ता को बढ़ावा दिया जाता है। इसमें गुणवत्ता DPEP में शिक्षण सामग्री, अधिगम सामग्री को और परिष्कृत करने का प्रयास, संगठनों में विशिष्टता से पूर्ण बालकों के समायोजन की क्षमता को बढ़ाना, विभिन्न संगठनों में कार्यरत शिक्षकों व कार्यकर्ताओं को विशिष्ट बालकों की आवश्यकता को पूर्ण करने हेतु समर्थ बनाना, साधन एवं उपकरणों में नवीनीकरण पर जोर देना आदि शामिल है। DPEP में विशिष्टता पूर्ण बालकों के लिए एकीकृत शिक्षा को 1997 में जोड़ा गया।
2. एकीकृत शिक्षा विकास योजना (PIED) — एकीकृत शिक्षा विभाग योजना सरकार द्वारा एकीकृत शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए है। इस योजना में बहु – विशिष्टता से प्रभावित व्यक्तियों को भी शामिल किया गया है।
इस योजना के फलस्वरूप शिक्षकों की अभिवृत्तियों में सकारात्मक परिवर्तन आया है। PIED के फलस्वरूप IEDC Schem सामने आई। I.E.D.C. में शिक्षण से सम्बन्धित प्रणालियों को विकसित `किया। IEDC से आगे चलकर यह लाभ हुआ कि विशिष्टता पूर्ण बालकों की केवल उपस्थिति ही नहीं
बल्कि कक्षाओं में स्थायित्व भी बढ़ा।
3. NCERT के अनुसार, भारत में समावेशीकरण के प्रत्यय व समावेशी शिक्षा को लेकर लोगों में जागरूकता की कमी है। इसे बढ़ाने के लिए अत्यधिक प्रयासों की आवश्यकता होगी, समावेशीकरण को स्थान देने व स्वीकारने के लिए अब तक केवल चलाए जा रहे, विभिन्न कार्यक्रमों में साधन व
• उपकरणों पर ही जोर दिया गया।
4. जिला पुनर्वास केन्द्र और विकलांग व्यक्तियों के पुनर्वास के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम (NPRPD)— भारत में जिला पुनर्वास केन्द्र की स्थापना Ministory of Social Justice & Empowerment द्वारा की गई थी। यह कम से कम 11 राज्यों (ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, हरियाणा, केरल, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश और कर्नाटक) में शुरू किया गया था।
इसके अतिरिक्त 1999 में (NPRPD) को स्थापित किया गया। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत राज्यों की सरकारों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है ताकि यह कार्यक्रम जिला स्तर पर अच्छी तरह से चल सके। इसके लिए केन्द्र सरकार समुदाय पर आधारित पुनर्वास सुविधाओं को बढ़ावा देने के लिए कार्य करती है। इसमें भारत सरकार का मुख्य उद्देश्य विशिष्ट बालकों को परिपक्व बनाने एवं उनके परिवारों व समुदायों को सहायता प्रदान कर सशक्त बनाने का प्रयास करती है। इसमें पुनर्वास कर्मचारी ब्लाक स्तर, व ग्राम पंचायत में भी नियुक्त किये जाते हैं। Direct Referal & Training Centre, State Resources Centre भी स्थापित किये जाते हैं।
District Referral & Training Centre लोगों को विस्तृत पुनर्वास सुविधायें देने का कार्य
करता है जबकि ‘राज्य संसाधन केन्द्र’ राज्य का सबसे श्रेष्ठ संस्थान के रूप में कार्य करता है, जो कि प्रशिक्षण व मानव संसाधन विकास एवं पुनर्वास सुविधाओं को निचले स्तर से प्रदान कराता है
5. जॉयफुल इनक्लूजन पैक, बैंगलोर, कर्नाटक-यह पहल इस धारणा पर आधारित है, कि अधिगम को सभी के लिए सुगम बनाया जा सकता है। इसे कर्नाटक में ग्रामीण क्षेत्र के सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को प्रशिक्षित करने हेतु शुरू किया गया था। Checklist की सहायता से अधिगम में हुई उपलब्धि का माप किया गया। अधिगम को प्राप्त करने वाली क्रियाओं को प्रदर्शित करने के लिए सरलीकृत कार्ड का सहारा लिया जाता है।
यह पहल मूल्यांकन की सीमाओं पर प्रतिबन्ध नहीं लगाती एवं सभी शैक्षिक स्तर के अभिभावकों के लिए भी मूल्यांकन को समझना बेहद आसान है। अतः यह सारी सामग्री Joyful, Inclusion Pack को बनाती है।
6. ओडिशा पोर्टेज प्रोजेक्ट बैंगलोर कर्नाटक-यह प्रोजेक्ट कर्नाटक के स्कूलों में नामांकन की घटती दरों को रोकने के लिए है। इसमें किसी भी बालक को उसके विकास के आरम्भिक दौर में ही किसी विशिष्टता के नकारात्मक प्रभाव को पहचानकर स्कूल में प्रवेश दिया जाता है। इस प्रोजेक्ट की पहुँच घर-घर तक है। इस प्रोजेक्ट की शुरुआत USA (UNESCO, 1955) में हुई थी।
7. श्री रामकृष्ण मिशन विद्यालय व IHRD कार्यक्रम – यह प्रोग्राम साधन सम्पन्न व सामान्य शिक्षकों द्वारा लागू किया जाता है। इसे विशिष्टतापूर्ण बालकों की शिक्षा के लिए IHRD (International Human Resource Development) द्वारा समावेशीकरण को बढ़ावा देने हेतु शुरू किया गया था।
8. सर सापुरजी बिलीमोरिया फाउन्डेशन मुम्बई, महाराष्ट्र – यह संस्था शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए 1998 में शुरू की गई थी। इसके अंतर्गत समावेशी शिक्षा को बढ़ावा दिया गया। इसके साथ-साथ व्यक्तिगत अधिगम, नई तकनीक, सामूहिक कार्य कौशल विकास के लिए कार्यक्रम विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं, विशिष्टताओं आदि का ज्ञान भी सम्मिलित है।
9. शिक्षित युवा सेवा समिति, बस्ती उत्तर प्रदेश – इस समिति का क्रियान्वयन 1994, में शुरू किया गया था जिसके अन्तर्गत दृष्टिबाधित रूप से लाइलाज व्यक्तियों के पुनर्वास के लिए चुना जाता था। इस प्रोजेक्ट में कर्मचारियों को समुदाय आधारित पुनर्वास के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। यह प्रोजेक्ट एक पायलट प्रोजेक्ट था जिसके अन्तर्गत डेनिस दूतावास ने बस्ती जिले को चुना था।
इस प्रोजेक्ट की सफलता सभी प्रकार की विशिष्टता वाले बालकों को सम्मिलित करने से और हो गई।
भी मजबूत
इसके अतिरिक्त वहाँ के शिक्षकों, अभिभावकों में जागरूकता बढ़ी जिसके फलस्वरूप वे वर्तमान समय में जिले के अन्दर ही जागरूकता कार्यक्रम चला रहे हैं।
उपर्युक्त कार्यक्रमों को UNICEF ने अपनी Report में भी प्रमाणित किया है व नीतियों एवं कार्यक्रमों को इसी नीति या कार्यक्रम के रूप में इंगित किया गया है।
इन कार्यक्रमों व नीतियों को कार्यरूप में परिणित करने के लिए आवश्यक है कि इन नीतियों व कार्यक्रमों के प्रति लोगों को जागरूक किया जाए तथा समावेशन का वातावरण तैयार किया जाए। समावेशन एक ऐसी परिस्थिति है जो इंगित करती है कि सभी को उनकी क्षमतानुसार वातावरण उपलब्ध करवाया जाय, और यह तभी सम्भव है जब शिक्षा के क्षेत्र में लगे, प्रशासक, शिक्षक व अन्य कर्मचारी इसमें सहयोग व जागरूकता के साथ कार्य करें।
इकाई-IV
प्रश्न 8 (i) मूल्यांकन के अर्थ एवं उसके महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। समावेशी शैक्षिक
प्रक्रिया में मूल्यांकन की क्या उपादेयता है?
मूल्यांकन का अर्थ
शिक्षा में मापन एवं मूल्यांकन वह स्थिति है जहाँ पर बालकों की निष्पत्ति उनके द्वारा अर्जित ज्ञान तथा कौशल की मात्रा का पता लगाया जाता है तथा उनको एक स्थिति प्रदान की जाती है। मनोवैज्ञानिकों ने परीक्षण द्वारा मापन तथा मूल्यांकन की विधियाँ विकसित की हैं। मौखिक प्रश्नोत्तर, विद्यालय कार्य, गृहकार्य, छात्रों के व्यवहार परिवर्तन का निरीक्षण, साक्षात्कार, लिखित परीक्षण, प्रयोगात्मक परीक्षण आदि के द्वारा छात्रों की योग्यताओं एवं क्षमताओं का मापन किया जाता है तथा बालकों में हो रहे समग्र व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन किया जाता है।
वाण्ट एवं ब्राउन के शब्दों में, “मूल्यांकन किसी वस्तु के मूल्य को निर्धारित करने के कार्य या प्रकिया की ओर संकेत करता है। मूल्यांकन मापन पर निर्भर करता है, मापन का समानार्थी नहीं है। मूल्यांकन इस प्रश्न के उत्तर में मापन से आगे रहता है कि क्या प्राप्त मात्रा वांछनीय है ? मूल्यांकन में मूल्य निर्णय निहित है इसी कारण मूल्यांकन को अर्थ मिलता है।”
मूल्यांकन की परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-
1. रैमर्स एवं गेज – “मूल्यांकन में व्यक्ति या समाज या दोनों की दृष्टि से जो अच्छा है अथवा वांछनीय है, उसको मानकर चला जाता है।”
2. टोरगरसन एवं एडम्स – “किसी वस्तु या प्रक्रिया का मूल्य निश्चित करना। इस प्रकार शैक्षिक मूल्यांकन से तात्पर्य है – शिक्षण प्रक्रिया तथा सीखने की क्रियाओं से उत्पन्न अनुभवों की उपयोगिता के बारे में निर्णय देना ।’
मूल्यांकन प्रक्रिया
मूल्यांकन प्रक्रिया में तीन मुख्य चरण सन्निहित हैं- उद्देश्य, अधिगम अनुभव तथा मूल्यांकन के उपकरण। कुछ लोग व्यवहार परिवर्तन को ही मूल्यांकन का तृतीय चरण मानते हैं। ये तीनों चरण एक-दूसरे पर पास्परिक रूप से निर्भर करते हैं।
मूल्यांकन प्रक्रिया के चरण
उपर्युक्त तीनों बिन्दु मूल्यांकन के अलग-अलग चरणों को इंगित करते हैं-
(i) उद्देश्यों का निर्धारण एवं परिभाषीकरण-बालक की सामाजिक स्थिति, विषय-वस्तु की प्रकृति तथा शैक्षिक स्तर को ध्यान में रखकर उद्देश्य को निर्धारित करना चाहिए। व्यवहार परिवर्तन के रूप में उद्देश्य को सफल रूप से तभी निर्धारित किया जा सकता है जब उपर्युक्त तथ्यों को भली प्रकार समझ लिया जाए। मूल्यांकनकर्ता को यह स्पष्ट रूप में ज्ञात होना चाहिए कि व्यवहार परिवर्तन किस रूप में और किस सीमा तक लाना है। इससे यह जानने में सफलता होगी कि व्यवहार में वांछित परिवर्तन आया है या नहीं। अतः उद्देश्यों के भली प्रकार पहचान लेने और निर्धारित कर लेने पर ही मूल्यांकन की ओर अग्रसर होना चाहिए। उद्देश्यों को परिभाषित करने में विषय-वस्तु और व्यवहार- परिवर्तन दोनों को ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण मानना आवश्यक है।
से
(ii) अधिगम अनुभव की योजना बनाना- एक बार उद्देश्यों को पहचान लेने और उनका निर्धारण कर लेने के पश्चात् अधिगम अनुभव की ओर ध्यान देना चाहिए। अधिगम अनुभव तात्पर्य एक ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना है जिसमें बालक वांछित क्रिया कर सके अर्थात् वह उद्देश्यों के अनुरूप प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कर सके।
एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेक अनुभवों की योजना तैयार करनी पड़ती है। योजना निर्माण के समय बालक की आयु, लिंग, परिवेश, सामाजिक पृष्ठभूमि आदि प्रासंगिक चरों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। इन्हीं के आधार पर शिक्षण सामग्री, शिक्षण विधि, साधन व माध्यम की व्यवस्था की जानी चाहिए।
(iii) विभिन्न उपकरणों के माध्यम से साक्षियाँ प्रदान करना- उद्देश्य एवं अधिगम- अनुभव की योजना तैयार हो जाने पर मूल्यांकनकर्ता को उपयुक्त उपकरण के चयन अथवा विकास की ओर प्रयत्न करना चाहिए। इन उपकरणों को प्रयोग कर साक्षियाँ एकत्रित करें। इन साक्षियों के आधार पर व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन करना चाहिए।
(iv) व्यवहार परिवर्तन के क्षेत्र-बालक के जीवन में आने वाले व्यवहार परिवर्तन, मूल्यांकन के फलस्वरूप ही होते हैं। मूल्यांकन इन व्यवहार परिवर्तनों के लिए एक माध्यम का कार्य करता है। व्यवहार परिवर्तन को मुख्यतः तीन पक्षों में विभाजित किया जाता है-
(a) ज्ञानात्मक पक्ष – यह पक्ष ज्ञान के उद्देश्य पर महत्त्व देता है। ब्लूम ने ज्ञानात्मक पक्ष की विवेचना करते हुए निम्न प्रकार के ज्ञान को इस पक्ष में सन्निहित किया है- 1. विशेष तथ्यों का ज्ञान, 2. विशिष्ट तथ्यों को प्राप्त करने की विधियों का ज्ञान, 3. मान्यताओं का ज्ञान, 4. मापदण्डों का ज्ञान, 5. सिद्धान्तों और सामान्यीकरण का ज्ञान, 6. घटनाओं का ज्ञान, 7. विधियों और प्रणालियों
का ज्ञान ।
इस पक्ष के छह स्तर होते हैं-प्रत्यावाहन तथा अभिज्ञान, बोध, प्रयोग-विश्लेषण, संश्लेषण तथा मूल्यांकन ।
(b) भावात्मक पक्ष – 1. ग्रहण करना, 2. प्रतिक्रिया करना, 3. अनुमूल्यन, 4. विचारण, 5. व्यवस्थापन, 6. चरित्रीकरण ।
(c) क्रियात्मक पक्ष-यह पक्ष मुख्यतः मांसपेशियों एवं आंगिक गतियों की आवश्यकता से सम्बन्धित होता है। इसे शिक्षण प्रक्रिया की दृष्टि से छह स्तरों में बाँटा जा सकता है- 1. उत्तेजना, 2. – क्रियान्वयन, 3. नियंत्रण, 4. समायोजन, 5. स्वभावीकरण, 6. कौशल ।
व्यवहार के इन तीनों पक्षों में परस्पर समन्वय रहता है। बालक के व्यवहार का मूल्यांकन इन तीनों पक्षों के समन्वित रूप में या अलग-अलग किया जाता है।
मूल्यांकन की उपयोगिता
मूल्यांकन के द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में बहुत से लाभ होते हैं। कोई बालक कितना जानता है? शिक्षक को अपनी कक्षा में कितनी सफलता मिली है? शिक्षण विधि क्या हो ? शिक्षण को छात्रों के हित में किस प्रकार समायोजित करना है? आदि प्रश्नों का उत्तर मूल्यांकन द्वारा ही प्राप्त होता है।
छात्रों को यदि अपनी सीमाओं का ज्ञान और उन्हें दूर करना है तो उन्हें मूल्यांकन प्रक्रिया से गुजरना ही पड़ेगा।
मूल्यांकन के माध्यम से शिक्षक सभी छात्रों की प्रगति के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है। इसके आधार पर वह उनका मार्गदर्शन कर सकता है। इसके द्वारा छात्रों की समस्याओं
का ज्ञान प्राप्त कर
उन्हें
उपयुक्त मार्गदर्शन दिया जा सकता है। इसी प्रकार विद्यालय की गतिविधियों में सुधार लाने के लिए मूल्यांकन आवश्यक है।
प्रश्न 8 (ii) समावेशी शिक्षा में ऑकलन से आप क्या समझते हैं? इसकी विशेषताएँ
बताइए |
ऑकलन
किसी के बारे में निर्णय देना ही ऑकलन कहलाता है। ज्यादातर ऑकलन तथा मूल्यांकन का प्रयोग लोग एक-दूसरे के पर्याय के रूप में करते हैं परन्तु वास्तविकता में इन दोनों के बीच में अन्तर
है।
ऑकलन लोगों से सूचना एकत्रित करने की प्रक्रिया है जिन्हें विभिन्न माध्यमों जैसे प्रदत्तकार्य निष्पादन परीक्षा तथा नित्यप्रति परीक्षण द्वारा किया जा सकता है तथा छात्रों को बिना कोई ग्रेड या अंक दिए पृष्ठ-पोषण देने की सुविधा भी प्रदान की जाती है। यह सब छात्रों या उनके समूह द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जब इस पृष्ठ पोषण को छात्रों के अधिगम उद्देश्यों से जोड़ा जाता है तो छात्रों में अंतिम मूल्यांकन से पहले सुधार सम्भव है। एक प्रकार से ऑकलन मूल्यांकन का छोटा रूप है जो प्रक्रिया के पूर्व में पूर्वाभ्यास के रूप में अभिव्यक्त होता है। यह पूछताछ की प्रक्रिया में पहला पद है।
इरविन (1991) के अनुसार, “ऑकलन छात्रों के व्यवस्थित विकास के आधार पर अनुमान है। यह किसी भी वस्तु को परिभाषित कर, चयन, रचना, संग्रहण, विश्लेषण व्याख्या और सूचनाओं का उपयुक्त प्रयोग कर छात्र विकास तथा अधिगम को बढ़ाने की प्रक्रिया है । ”
हुबा एवं फ्रीड के अनुसार, “ऑकलन सूचना संग्रहण तथा उस पर विचार-विमर्श की प्रक्रिया है जिन्हें हम विभिन्न माध्यमों से प्राप्त कर ये जानते हैं कि विद्यार्थी क्या जानता है, समझता है तथा अपने शैक्षिक अनुभवों द्वारा प्राप्त ज्ञान को परिणाम के रूप में व्यक्त कर सकता है। जिसके द्वारा छात्र अधिगम में वृद्धि होती है।

उपरोक्त परिभाषाओं के विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है-
(1) ऑकलन लोगों से सूचना एकत्रित करने की प्रक्रिया है ।
(2) इसके द्वारा पृष्ठ-पोषण को भी दिया जा सकता है।
(3) यह पूछताछ प्रक्रिया का पहला पद है।
(4) इसके द्वारा छात्र अधिगम में सुधार तथा विकास किया जा सकता है।
(5) ऑकलन विचार-विमर्शी प्रक्रिया है।
ऑकलन की विशेषताएँ
ऑकलन द्वारा यह ज्ञात किया जाता है कि बालक ने शिक्षण के अन्त में सही मायने में क्या-क्या सीखा है। एक अच्छे ऑकलन में पाँच गुणों का होना आवश्यक है और शिक्षक को छात्रों का ऑकलन करने से पूर्व यह ज्ञात कर लेना चाहिए कि ऑकलन इन गुणों को पूरा कर रहे हों। आँकलन की ये विशेषताएँ निम्नांकित हैं-

(1) विश्वसनीयता – किसी भी ऑकलन का यह सबसे पहला एवं महत्वपूर्ण गुण ऑकलन किसी भी समय या परिस्थिति में किया जाए किन्तु उसका परिणाम सदैव समान होना चाहिए है। तभी वह विश्वसनीय कहलाएगा। विश्वसनीय सामग्री वही है जिसमें एक स्तर के विद्यार्थी पुनः पुनः परीक्षा में लगभग एक समान उत्तर देते हैं। शिक्षक किसी भी योग्यता का हो ऑकलन प्रायः एक समान
होना चाहिए। अगर शिक्षक द्वारा एक ही ऑकलन हेतु अलग-अलग अंक प्रदान किया जा रहा है तो ऐसा ऑकलन विश्वसनीय नहीं कहलाता है ?
( 2 ) वैधता-वैध ऑकलन वही होता है जो वास्तव में उन्हीं उद्देश्यों का ऑकलन करे जिस उद्देश्य से उसका निर्माण किया गया है। लेकिन प्रायः शिक्षक ऐसे प्रश्नों को बच्चों से पूछने लगते हैं जो प्रामाणिक नहीं होते हैं। उदाहरणार्थ – यदि छात्रों की कुछ बिन्दुओं को याद करने की शक्ति को जाँचने हेतु प्रश्न बनाना है किन्तु ऐसे प्रश्न बना दिए जाएँ जो उनकी तर्क शक्ति को जाँचें ।
(3) मानकीकरण-एक अच्छे ऑकलन की यह भी एक विशेषता होती है कि वह मानकीकृत होना चाहिए। विद्यालयों में प्रायः जो परीक्षण किए जाते हं वे राष्ट्र एवं राज्य के लिए किए जाते हैं लेकिन मानकीकृत ऑकलन वह होता है जो कक्षा स्तर को सम्मिलित करता है। मानकीकरण किस सीमा तक ऑकलन एवं मूल्यांकन प्रशासन प्रक्रियाओं के समान है, को निरूपित करता है और प्रत्येक विद्यार्थियों का ऑकलन का प्राप्तांक समान होना चाहिए। मानकीकृत ऑकलन में कई गुण होते हैं जो उसे अद्वितीय एवं मानक बनाते हैं। एक मानकीकृत ऑकलन वही होता है जिसमें विद्यार्थियों को एक समय सीमा, समान प्रकार के प्रश्न, समान निर्देश दिए जाएँ ताकि छात्र अंक अर्जित करें। मानकीकरण, प्राप्तांक में होने वाली त्रुटियों को समाप्त कर देता है।
( 4 ) व्यावहारिकता-ऑकलन लागत, समय और सरलता की दृष्टि से वास्तविक, व्यावहारिक एवं कुशल होना चाहिए। ऐसा भी हो सकता है कि ऑकलन का कोई तरीका आदर्श हो किन्तु उसे व्यवहार में न लाया जा सके ऐसे तरीकों को भी नहीं अपनाना चाहिए। उदाहरणार्थ- विद्यार्थियों को प्रैक्टिकल की परीक्षा में सभी विद्यार्थियों को एक प्रयोग के स्थान पर अलग-अलग प्रयोग देना अधिक सुविधाजनक एवं व्यावहारिक है क्योंकि सबसे एक प्रयोग करवाने हेतु एक प्रकार के अनेक यंत्र उपलब्ध करवाने होंगे, हो सकता है यह संभव न हो ।
(5) उपयोगिता – ऑकलन विद्यार्थियों के लिए उपयोगी भी होना चाहिए। ऑकलन से प्राप्त परिणामों को छात्रों को बता देना चाहिए जिससे वे उन कमियों को सुधार सकें। ऑकलन द्वारा ही इसका पता लग सकता है कि किस दिशा में सुधार करना है। यह सुधार पठन सामग्री तथा अध्यापन विधि आदि में हो सकता है। इस प्रकार ऑकलन विद्यार्थियों की एवं अध्यापकों की कमियों को जानने एवं उन्हें दूर करने में बहुत लाभकारी होता है।
प्रश्न 9 (i)
विशिष्ट बालक से आप क्या समझते हैं? समावेशी शिक्षा रूपरेखा के उद्देश्यों पर प्रकाश डालिये।
विशिष्ट बालक
विशिष्ट बालक का अर्थ अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग प्रकार से व्यक्त करते हैं। कुछ लोग प्रतिभावान को तो कुछ सृजनात्मक बालकों के लिए विशिष्ट शब्द का प्रयोग करते हैं परन्तु ऐसा नहीं है। विशिष्ट का अर्थ सामान्य बालक से भिन्नता रखने वाले बालकों से है।
क्रो और क्रो के अनुसार, “विशिष्ट प्रकार या विशिष्ट शब्द किसी एक ऐसे लक्षण या उस लक्षण को रखने वाले व्यक्ति पर लागू किया जाता है जबकि इस लक्षण को सामान्य रूप से रखने से प्रत्यय की सीमा इतनी अधिक हो जाती है कि उसके कारण व्यक्ति अपने साथियों का विशिष्ट ध्यान प्राप्त करता है और इससे उसकी व्यवहार की अनुक्रियाएँ तथा क्रियाएँ प्रभावित होती हैं।”
व्यक्तिगत भिन्नता को जानने से पूर्व सभी बालकों को सामान्य बालकों की श्रेणी में रखा जाता
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`था अर्थात् सभी बालकों को सामान्य मानकर चला जाता था। कुछ बालकों को जो सामान्य से भिन्न थे। असामान्य माना जाता था लेकिन मनोविज्ञान के विकास के साथ ही उन बालकों की ओर ध्यान गया। जो सामान्य से थोड़ा भी भिन्न थे तथा उन्हें सामान्य बालकों से पृथक् बालक समझा जाने लगा। दो बालक चाहे वे जुड़वाँ ही क्यों न हों एक दूसरे से पृथक् या भिन्न समझा जाता है। अतः यह निष्कर्ष | निकाला कि अधिकांश छात्र समूह औसत से भिन्न होते हैं। ऐसे बालक शारीरिक तथा मानसिक भिन्नता के कारण विशिष्ट कहे जाते हैं। इसमें सीखने की अक्षमता, बाध्यता तथा शारीरिक विकलांगता पाई जाती है। ये बालक दृष्टि, श्रवण, वाणी तथा मन्दबुद्धि, सेरेबल पॉलिसी, ऑटिज्म
तथा अधिगम अक्षमता रखते हैं।

ऐसे समस्त बालक जो मानसिक रूप से पिछड़े हैं, सीखने में अक्षम हैं या शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं प्रतिभावान या सृजनात्मक बालक हैं तथा ये बौद्धिक रूप से भिन्न कहलाते हैं। मानसिक रूप से पिछड़े बालकों का व्यवहार सामान्य बालकों से हमेशा भिन्न होता है। इसी प्रकार यदि एक समरूप के बालकों के लक्षणों का मापन किया जाए तो उसका वितरण सामान्य वक्र के समान होता है जैसा निम्न चित्र में दिखाया गया है—
समूह
नाम्यम्य बन
इस सामान्य वक्र के मध्य में पड़ी लम्बवत् रेखा यह बताती है कि सामान्य बालक वे हैं जो इस बिन्दु पर पड़ते हैं तथा बिन्दु से हटने वाले समस्त बालक सामान्य से भिन्न हो जाएँगे। अतः सामान्य वक्र के दाएँ तथा बाएँ छोर पर पड़ने वाले 10 प्रतिशत बालकों को औसत से भिन्न माना जा सकता है।
इसी प्रकार 90-110 बुद्धिलब्धि वाले बालकों को सामान्य मानकर अन्य बालकों को बौद्धिक रूप से भिन्न अर्थात् विशिष्ट माना जाता है। 110 से अधिक बुद्धिलब्धि वाले बालक प्रतिभावान तथा 90 से कम बुद्धि लब्धि वाले बालक मानसिक रूप से पिछड़े माने जाते हैं। चित्र के अनुसार पिछड़े एवं प्रतिभावान बालक चोटी के दोनों ओर दर्शाए गए हैं।

प्रतिभान

समावेशी शिक्षा रूपरेखा के उद्देश्य
समावेशी शिक्षा फ्रेमवर्क के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(1) सम्पूर्ण स्कूल गतिविधियों को उत्साहित करना, व्यक्तिगत रूप से व्यक्ति का इन गतिविधियों में भाग लेना तथा समावेशन के विकास हेतु विचार विमर्श करना
(2) समावेशी नीतियों का पुनः अध्ययन कर उनकी योजना का कार्यान्वयन आदि के विषय में
सहायता प्रदान करना।
(3) व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों ही तरीके से प्रदर्शन प्रक्रिया को अपनाना।
(4) समावेशी शिक्षा से सम्बन्धित नीतियों का अधिगमकर्ता द्वारा तेजी से अनुगमन करना। संरचना एवं ढाँचे की सामग्री
(1 ) सिद्धान्त – समावेशी शिक्षा के विकास हेतु कुछ सिद्धान्त दिए गए हैं। जिनका अनुमान कर इसके विकास को उन्मुख किया जा सकता है। जो कि निम्न हैं-
(i) सम्पूर्ण स्कूल समुदाय द्वारा स्वामित्व – इस प्रक्रिया के अन्तर्गत पूरा स्कूल एक समुदाय की भाँति परिणामात्मक ऑकलन के लिए तैयारी करता है तथा समावेशन सम्बन्धी प्रक्रियाओं में आपसी विचार-विमर्श करता है। उन छात्रों को जिन्हें विशेष शिक्षा की आवश्यकता है। उनके विकास हेतु कार्यशील रहता है।
(ii) छात्र एवं स्कूल विविधता की चिन्तनशीलता- ऐसे लोग जिन्हें विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता होती है। उनमें अलग-अलग तरह की क्षमताएँ तथा विशेषताएँ पाई जाती हैं। उनकी अधिगम सम्बन्धी आवश्यकताएँ भी अलग-अलग होती हैं। उन्हें प्राथमिक, उच्च प्राथमिक तथा विशेष विद्यालयों में प्रशिक्षित किया जाता है। वे एक-दूसरे से सीखने में भिन्नता रखते हैं। इस फ्रेमवर्क द्वारा ये सुविधा प्रदान की जाती है कि अलग-अलग क्षमताओं वाले बालक भी एक ही जगह संगठित होकर सीख सकते हैं।
(iii) सहायता हेतु प्रयासरत – प्रत्येक स्कूल में कार्यरत कमेटी का ये कर्तव्य है कि वह समावेशी शिक्षा की नीति को अपने यहाँ सम्मिलित करें। प्रत्येक विद्यालय के लोग ये कोशिश करें कि वह समावेशी शिक्षा फ्रेमवर्क को अधिक बेहतर तरीके से प्रदर्शित करे। इसके द्वारा यह पता चलता है कि व्यक्ति की किस आवश्यकता को प्राथमिकता दी जाए। इस प्रकार अलग-अलग स्तर पर स्व-ऑकलन भी करें।
( 2 ) ढाँचा संरचना -इसमें ढाँचे की संरचना 10 (दस) बिन्दुओं के आधार पर की गई है। (i) नेतृत्व एवं प्रबन्धन – इसके अन्तर्गत नेताओं के गुण तथा कार्यों की व्याख्या की गई, जैसे—नेता प्रत्येक छात्र की समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत महसूस होने वाली आवश्यकताओं को जानते हैं। वे समस्या समाधान करते हैं साथ ही छात्रों को सलाह भी देते हैं तथा नेता प्रत्येक बालक को समान नियम व समान आवश्यकताएँ प्रदान करने की कोशिश भी करते हैं।
(ii) सम्पूर्ण विद्यालय की विकास योजना-इसके अंतर्गत ये कोशिश की जाती है कि प्रत्येक विद्यालय अपनी गुणवत्ता बढ़ाए तथा परिवर्तनों को स्वीकारें तथा ऐसे नियम बनाए जिससे भविष्य में विकास निश्चित हो । विद्यालय विकास योजना में सभी नीतियों तथा प्रक्रियाओं को जो विद्यालयीय जीवन से सम्बन्धित हों इसमें शामिल किया जाता है।
(iii) सम्पूर्ण विद्यालय वातावरण-इसके अन्तर्गत विद्यालयी जीवन से सम्बन्धित सभी आवश्यकताएँ शामिल हैं चाहे वे परिवहन से सम्बन्धित हो, बिल्डिंग से, उपकरण से, सुविधाओं से अर्थात् पूरे वातावरण से सम्बन्धित आवश्यकताएँ इसमें शामिल होती हैं।
(iv) सम्प्रेषण – सम्प्रेषण का अर्थ यहाँ उस बातचीत से है जो विद्यालय के स्टाफ, अभिभावक
• तथा विद्यालय के अन्य लोगों के मध्य पाया जाता है। यह सम्प्रेषण मौखिक एवं लिखित संकेतों,
श्रव्य सामग्री आदि किसी के द्वारा किसी भी तरह से हो सकता है।
दृश्य-
(v) छात्र एवं कर्मचारी हित-विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों की सांवेगिक तथा शारीरिक सुरक्षा के साथ ही साथ स्टाफ कर्मचारी की भी आवश्यकताएँ शामिल हैं तथा साथ ही उनमें अपने सहयोगी साथियों को सहयोग देने की भावना भी होनी चाहिए। खुलकर बातचीत करना इस नीति का अंग है साथ ही आपस में होने वाली समस्या का समाधान भी स्टाफ के लोग मिलकर सुलझाएँ ऐसा सुझाव दिया गया।
प्रमुख
(vi) समावेशन हेतु पाठ्यचर्या नियोजन – इस नीति के अन्तर्गत ऐसा कहा गया कि विद्यालय का अकादमिक वर्ग तथा स्टाफ कर्मचारी समावेशी शिक्षण एवं अधिगम हेतु मिलकर पाठ्यचर्या तैयार करें। पाठ्यचर्या योजना समावेशन के लिए अधिगम अनुभवों को प्राप्त करने का मुख्य उद्देश्य है जिसमें विभिन्न प्रक्रियाओं तथा सहायक सामग्री का प्रयोग किया जाता है। विभिन्न गतिविधियों को शामिल करने का निर्देश दिया जाता है जिसके द्वारा छात्र अपनी विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें।
(vii) व्यक्तिगत शिक्षा योजना – समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत व्यक्तिगत आवश्यकता से सम्बन्धित योजना बनाना महत्वपूर्ण कार्य है। इसमें यह बताया गया कि अलग-अलग आवश्यकता वाले बालकों का शिक्षण तथा अधिगम उनके पाठ्यक्रम के अनुसार किस प्रकार किया जाए। प्रत्येक छात्र की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति की जाए तथा व्यक्तिगत योजना भी बनाई जाए जो प्रत्येक छात्र से व्यक्तिगत रूप से सम्बन्धित हो ।
(viii) शिक्षण एवं अधिगम की रणनीति- इसके अन्तर्गत दो बिन्दु शामिल हैं-अधिगम अनुभव तथा शिक्षण अनुभव ।

प्रत्येक व्यक्ति में व्यक्तिगत भिन्नता होती है तथा व्यक्तिगत आवश्यकता भी । प्रत्येक व्यक्ति के अधिगम को धनात्मक क्रियाओं तथा वातावरण के सहयोग द्वारा बढ़ाया जा सकता है। इसके अन्तर्गत विद्यालय का वातावरण तथा परिवार का वातावरण दोनों ही सहयोग प्रदान करते हैं। प्रभावपूर्ण शिक्षण हेतु सही शिक्षण एवं अधिनियम विधियाँ/प्रविधियाँ, संगठित क्रियाएँ शामिल होती हैं। ये सब मिलकर सहकारी शिक्षण को अग्रसारित करती अर्थात् बढ़ावा देती हैं।
(ix) कक्षा-कक्ष प्रबन्धन – इस ढाँचे में कहा गया है कि कक्षा का वातावरण विभिन्न संरचनात्मक चार्ट्स, मॉडल तथा अधिगम सम्भावनाओं से परिपूर्ण होना चाहिए जिससे छात्र कक्षा में बैठकर वहाँ के वातावरण से भी ज्ञान प्राप्त कर सकें तथा जो ज्ञान प्राप्त करें वह उनके सहयोग से रुचिपूर्ण तथा आनन्ददायक हो सके।
(x) अधिगम की मान्यता एवं समर्थन-उपलब्धि का ऑकलन तथा प्रत्याभिमान अधिगम महत्वपूर्ण भाग है। समय-समय पर व्यक्ति की उपलब्धि का ऑकलन कर उन्हें चित्र द्वारा प्रदर्शित किया जाना चाहिए तथा अधिगम के अगले स्तर की सूचना प्रदान करनी चाहिए।
चक्र का
प्रश्न 9 (ii)
श्रवण बाधित बालकों का वर्गीकरण करें एवं श्रवण बाधिता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
श्रवणबाधितों के प्रकार
वे बालक जिन्हें सुनने में कठिनाई आती है, श्रवणबाधिता के अन्तर्गत आते हैं। श्रवणबाधिता इस बात पर निर्भर करती है कि कान की खराबी किस हद तक है। ध्वनि का परिसर 1 से 130 डेसिबल्स तक होता है। 130 db से ऊपर की ध्वनि दर्द की संवेदना होती है। ध्वनि के परिसर के अनुसार श्रवणबाधित बालकों को अग्र चार भागों में बाँटा जा सकता है-
1. कम श्रवणबाधित बालक-ऐसे बालक 35-54 db तक की श्रवणबाधिता रखते हैं अर्थात् ये बालक 54 db तक की ध्वनि को नहीं सुन पाते। यदि सामान्य स्तर पर बात की जाए तो सुन लेते हैं, परन्तु धीमी आवाज नहीं सुन पाते
2. मन्द श्रवणबाधित बालक-इन बालकों में 55-96 db तक की श्रवणबाधिता होती है। अतः सामान्य स्तर अर्थात् 65 db पर बोलने पर ये बालक सुन नहीं पाते (थोड़ा ऊँचा बोलने पर ही सुनते हैं) ।
3. गम्भीर रूप से श्रवणबाधित बालक-इन बालकों में 70-89 db तक की श्रवणबाधिता होती है और इन्हें सुनाने के लिए अधिक ऊँचा बोलना पड़ता है। इस प्रकार के बालकों को विशेष प्रकार का शिक्षण दिया जाता है।
4. पूर्ण श्रवणबाधित बालक – ऐसे बालकों का श्रवणबाधित 90 db और इससे भी अधिक स्तर का होता है। ये बहुत ऊँचा बोलने पर भी केवल कुछ ही शब्द सुन पाते हैं। श्रवण यंत्रों के प्रयोग के बावजूद भी कठिनाई का अनुभव होता है ।
श्रवणबाधिता के कारण
श्रवणबाधिता के कारण निम्नलिखित हैं—
1. जन्म से पूर्व – यदि गर्भवती स्त्री जहरीले पदार्थों का सेवन कर लेती है, शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन करती है अथवा धूम्रपान करती है या बीमार रहती है अथवा कुपोषण का शिकार होती. है तो श्रवणबाधित बालक होने के आसार बढ़ जाते हैं। उचित आहार न मिलने पर उसका प्रभाव गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ता है।
2. जन्म के समय – बच्चे के जन्म के समय ऑक्सीजन की कमी, शल्यक्रिया के दौरान चिमटी आदि का गलत प्रयोग, समय से पहले बच्चे का जन्म आदि भी श्रवण शक्ति पर प्रभाव डालता है। कई बार जन्म के साथ ही बच्चे को पोलियो हो जाता है, जिसका इलाज शीघ्र अति शीघ्र कराना चाहिए अथवा यह भी बाधिता का एक कारण बन सकता है।
3. जन्म के पश्चात्-कई बार ऐसा पाया जाता है कि जन्म के समय तो बच्चा ठीक होता है परन्तु बाद में कुछ कारणों से वह श्रवणबाधित हो जाता है; जैसे-कनफड़ा, खसरा, चेचक, मोतीझरा, कुकर खाँसी, कान में मवाद आदि बीमारी श्रवणबाधिता का कारण बनती हैं। इसी प्रकार दुर्घटना हो जाना अथवा जोर का धमाका आदि भी कर्णपटल को बुरी तरह प्रभावित कर देते हैं।
4. दवाइयाँ-गर्भवती महिला अगर दवाइयों का अधिक प्रयोग करती है या किसी तेज दवा का प्रयोग करती है तो वह श्रवणबाधिता का कारण बन सकती है। अतः गर्भवती स्त्री को अधिक दवाइयों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
5. जर्मन खसरा- सन् 1980 में जर्मनी में खसरा महामारी के रूप में फैला था और यह देखा गया था कि जो माताएँ उस समय गर्भवती थीं, वे इस बीमारी से बुरी तरह पीड़ित हुई थीं और उनकी सन्तानें श्रवणबाधित पैदा हुई थीं। इसी से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि खसरा भी श्रवणबाधिता का कारण होता है।
प्रश्न 9 (iii) समावेशी विद्यालयों की संरचनात्मक जरूरतों के बारे में विस्तार से चर्चा
कीजिए।
स्कूल भवन की संरचना
समावेशी विद्यालयों की संरचनात्मक जरूरतों के बारे में निम्न की आवश्यकता होती है-
(1) मुख्याध्यापक का कार्यालय – यह कार्यालय किसी महत्त्वपूर्ण जगह पर होना चाहिए जहाँ से उसकी उपस्थिति को सशक्त रूप से अनुभव किया जा सके और प्रत्येक आने-जाने वालों को मुख्याध्यापक आसानी से देख सके। मुख्याध्यापक के कार्यालय के साथ शौचालय, विश्राम कक्ष आदि भी होने चाहिए। मुख्यालय का कार्यालय खुला होना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर स्टाफ की मीटिंग बुलाई जा सके।
(2) आगंतुकों के लिए कमरा – मुख्याध्यापक से मिलने के इच्छुक व्यक्तियों को आराम से बैठने के लिए सुसज्जित कक्ष होना चाहिए।
(3) स्कूल कार्यालय – कार्यालय में काम करने वाले क्लर्क, स्टेनो, मुख्य क्लर्क आदि से मुख्याध्यापक को हर समय काम पड़ता रहता है। इसलिए स्कूल का कार्यालय मुख्याध्यापक के कार्यालय से जितना निकट होगा उतना ही अच्छा है। वास्तव में स्कूल का समूचा संचालन कार्यालय की कुशलता पर ही निर्भर करता है। इस कार्यालय कक्ष में इतनी जगह हो कि सभी कर्मचारी अपना काम स्वतंत्रतापूर्वक कर सकें और आपस में सुगमतापूर्वक संपर्क भी स्थापित कर सकें।
(4) कक्षाएँ – कक्षा कमरों के दरवाजे, खिड़कियाँ, रोशनदान, दोनों ओर खुलने चाहिए ताकि वे पर्याप्त रूप से हवादार हों। इसके अतिरिक्त कमरे इस प्रकार होने चाहिए कि उत्तर दिशा में पर्याप्त प्रकाश आने की व्यवस्था हो । कक्षा कमरों में प्रयुक्त होने वाला फर्नीचर विद्यार्थियों के लिए उपयोगी होना चाहिए। कमरे में दोहरे डेस्क लगवाने चाहिए और डेस्कों के अंदर दराज हों ताकि विद्यार्थी उसमें अपनी किताबें रख सकें। कक्षा कमरों में कप बोर्ड तथा अलमारियाँ होनी चाहिए जिसमें कक्षा की आवश्यक वस्तुएँ उसी में रखी जा सकें। ब्लैक-बोर्ड प्रत्येक कक्षा कमरे के लिए आवश्यक है। यह विद्यार्थियों से इतनी दूर होना चाहिए कि प्रत्येक विद्यार्थी इस पर लिखे लेख को अच्छी तरह से पढ़
सके।
(5) स्टाफ कक्ष-स्टाफ रूम अर्थात् अध्यापकों का कमरा स्कूल में ऐसी जगह होना चाहिए कि इससे किसी भी कक्षा के काम में बाधा न पड़े। इसमें सभी आधुनिक सुविधाएँ भी होनी चाहिए।
(6) विज्ञान प्रयोगशालाएँ – स्कूल में भौतिक विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, जीव विज्ञान आदि की अलग-अलग प्रयोगशालाएँ बनाई जाएँ। रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला एक उचित स्थान पर होनी चाहिए ताकि प्रयोग करते समय उठने वाली दुर्गन्ध से समूचा वातावरण दूषित न हो जाए।
(7) पुस्तकालय-पुस्तकालय को स्कूल का हृदय कहा जाता है अतः यह एक महत्त्वपूर्ण भाग है यह इतना आकर्षक हो कि विद्यार्थी अपने आप ही यहाँ आने में रुचि दिखाएँ तथा किताबें पढ़ें।
(8) ड्राइंग रूम – ड्राइंग अत्यंत उपयोगी विषय है जो बच्चों के विकास में सहायता प्रदान करता है। इसके लिए पृथक् कक्ष होना चाहिए। यह एक प्रकार की प्रयोगशाला है जहाँ विद्यार्थी हाथों से काम करते हैं। यहाँ पर विद्यार्थी पेंसिल, कागज, ब्रश, रंगों के प्रयोग से काम करते हैं।
(१) भूगोल कक्ष-भूगोल के अध्यापक को पढ़ाते समय कभी ग्लोब दिखाना पड़ता है तो कभी नक्शा दिखाना पड़ता है इसलिए भूगोल शिक्षण कमरा अलग होना चाहिए।
(10) स्कूल की कैंटीन -इसमें एक कमरा तो खाने-पीने की वस्तुएँ बनाने के लिए होना चाहिए और दो कमरे ऐसे हों जहाँ विद्यार्थी बैठकर जलपान कर सकें। इसमें से एक कमरा अध्यापक के लिए होना चाहिए। इन कमरों में हाथ धोने के लिए वाश बेसिन भी होना चाहिए।
(11) हॉल – पूरे स्कूल की सभा के लिए एक हॉल भी होना चाहिए। इस हॉल को परीक्षाओं के लिए तथा उत्सवों के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
(12) खेल के मैदान – खेल का मैदान स्कूल-प्रांगण का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। अधिक-से- अधिक विद्यार्थी खेल में भाग ले सकें इसके लिए स्कूल में ज्यादा-से-ज्यादा खेलों की व्यवस्था होनी चाहिए।
(13) पानी पीने का कमरा – इस कमरे में पानी पीने का प्रबंध होना चाहिए। अगर हो सके तो बच्चों के लिए वाटर कूलर भी लगवाया जाए।
(14) साइकिल शेड-साइकिल शेड के बिना साइकिलों को व्यवस्थित ढंग से नहीं रखा जा सकता। यह स्कूल के प्रवेश द्वार के निकट होना चाहिए।
(15) शौचालय – शौचालय स्कूल प्रांगण में एक ओर होने चाहिए। कर्मचारियों तथा विद्यार्थियों के लिए अलग-अलग शौचालय होने चाहिए ।
(16) उद्यान – स्कूल प्रांगण में घास का मैदान, छोटे-छोटे वृक्ष तथा रंग-बिरंगे फूलों से सम्पन्न एक उद्यान होना चाहिए। उन्हें देखकर बच्चों का मन बहुत प्रसन्न होता है। इस प्राकृतिक सुंदरता में बच्चे खाली समय भी अच्छी तरह गुजार सकते हैं।
(17) स्टाफ के आवास-जहाँ तक हो सके स्टाफ के लिए आवास की व्यवस्था भी होनी चाहिए। विशेषकर देहातों में काम करने वाली अध्यापिकाओं के लिए तो व्यवस्था होनी चाहिए।
(18) स्कूल-हॉस्टल-हॉस्टल का जीवन अपने आप में एक शिक्षा है, क्योंकि बच्चा यहाँ पर सारे काम अपने आप ही करता है।
प्रश्न 9 (iv) श्रवण बाधिता के कारणों को स्पष्ट कीजिए।
श्रवण बाधिता आनुवांशिक या वातावरण दोनों के परिणामस्वरूप हो सकती है। ये दोनों तत्त्व बच्चों की श्रवण क्षमता को प्रभावित करते हैं, जिसके कारण श्रवण बाधिता हो सकती है। आनुवांशिक व वातावरण सम्बन्धी प्रभावों का अध्ययन तीन स्तरों पर किया जा सकता है-
1. जन्म से पूर्व प्रभावित करने वाले कारक
(अ) आनुवांशिकी-श्रवण सम्बन्धी दोषों का एक प्रमुख कारण आनुवांशिकता है। यदि माता-पिता में से किसी को भी श्रवण दोष होता है तो बालक में श्रवण दोष होने के अधिक आसार होते हैं। माता-पिता के द्वारा दोषपूर्ण जीन्स व क्रोमोसोम के कारण यह रोग हो सकता है।
(ब) दवाओं का उपयोग-गर्भावस्था के दौरान प्रयोग की जाने वाली दवाइयाँ स्ट्रेप्टोमाइसिन,
L.S.D. आदि विभिन्न प्रकार की दवाइयों के प्रयोग से भ्रूण शिशु को नुकसान होता है तथा ये श्रवण बाधिता के कारण बन सकते हैं। इसलिए गर्भवती महिला को इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए।
(सं) रूबैला – रूबैला एक जर्मन खसरा है जो मुख्यतः गर्भवती महिलाओं में होता है। श्रवण बाधितों में 30% बच्चे जर्मन खसरा से प्रभावित पाये जाते हैं। यह देखा गया है कि जो गर्भवती माताएँ इस बीमारी से पीड़ित हुईं, उनकी सन्तानें श्रवण बाधित हुईं।
(द) संक्रमण या छूत रोग – गर्भवती माँ को होने वाली छूत की बीमारियाँ, जैसे- कनफेड़ और इन्फ्लूएन्जा आदि के कारण बच्चे की श्रवण शक्ति प्रभावित होती है।
(य) कुपोषण व भुखमरी – बालक अपने पोषण हेतु गर्भकाल में भोजन ग्रहण करता है इसलिए माँ के खान-पान, स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखना चाहिए। गर्भवती माँ को विटामिन आदि से भरपूर भोजन करना चाहिए तथा कुपोषण से बचना चाहिए। कुपोषण व भुमखरी भी श्रवण बाधिता का एक कारण बन सकता है। माँ द्वारा जहरीले पदार्थ व शराब का सेवन भी बच्चे को श्रवण बाधित बना देता है।

2. जन्म के समय प्रभावित करने वाले कारक-अध्ययनों से पता चला है कि समय से पहले प्रसव व कम वजन वाले बच्चों में श्रवण बाधिता अधिक पायी जाती है। जन्म के समय बहुत- से कारक ऐसे होते हैं जो बच्चे की श्रवण क्षमता को प्रभावित करते हैं, जैसे-ऑक्सीजन की कमी, प्रसव के दौरान प्रयोग किये जाने वाले औजार, एन्सथेटिक दवाइयों का प्रयोग, प्रसव के समय अधिक रक्त-प्रवाह आदि अनेक कारणों से बच्चों में श्रवण बाधिता हो सकती है।
3. जन्म के बाद प्रभावित करने वाले कारक- शिशुकाल में ही यदि बच्चे को संक्रमण या बीमारियाँ हो जाती हैं तो वे बच्चे के लिए श्रवण सम्बन्धी दोष पैदा कर सकती हैं। कोई दुर्घटना, कान की बीमारी आदि विभिन्न कारण भी बच्चे की श्रवण शक्ति कम कर सकते हैं। जन्म के बाद श्रवण बाधिता के लिए उत्तरदायी कारकों का वर्णन इस प्रकार है-
(अ) मेनिनजाइटिस – यह एक बैक्टीरिया या वायरस से होने वाला संक्रमण है जो केन्द्रीय स्नायु संस्थान में होता है। इस संक्रमण के कारण पूर्ण श्रवण बाधिता हो सकती है।
(ब) कर्णशोथ – यह भी श्रवण बाधिता का अन्य कारण है जो मध्य कर्ण को प्रभावित करता है। यदि इस रोग का पूर्ण इलाज न किया जाये तो कान में पस बनना या श्रवण बाधिता हो सकती है। (स) दुर्घटनाएँ – कोई दुर्घटना भी श्रवण तन्त्र को हानि पहुँचा सकती है। किसी लकड़ी या पिन से कान का मैल निकालते समय भी बालक अनजाने में कर्णपटल को नुकसान पहुँचा देता है। विभिन्न प्रकार की दुर्घटनाओं के परिणामस्वरूप जब कोई गहरा आघात श्रवण अंगों या मस्तिष्क को पहुँचता है तो उसकी परिणति श्रवण दोषों में होती है ।
(द) बीमारियाँ व संक्रमण – बहुत-सी ऐसी बीमारियाँ होती हैं जो श्रवण दोष उत्पन्न करती हैं, जैसे—चेचक, कनफेड़, खसरा, मोतीझरा, कुकुर खाँसी व कान में मवाद आदि अनेक बीमारियाँ हैं जिनके कारण श्रवण दोष पैदा होते हैं। इन दोषों के निवारण के लिए ली गयी दवाइयों के गलत हं प्रभाव से भी श्रवण दोष हो सकता है।

(य) शैशवकाल में बालक यदि कुपोषण, भुखमरी तथा मिलावटी खाद्य एवं पेय पदार्थों है के हानिकारक प्रभावों का शिकार हो जाये तो उसके परिणामस्वरूप उसकी श्रवण शक्ति नष्ट हो
जाती है।

प्रश्न 9 (v)
अथवा
दृष्टि बाधित बच्चों के लिए एकीकृत शिक्षा का वर्णन कीजिए। दृष्टिबाधित बच्चों के शिक्षण के लिए क्या व्यवस्था होनी चाहिए?
बहु
बहुत से दृष्टि बाधित बच्चों को सामान्य विद्यालय में ही शिक्षा दी जा सकती है। ये बच्चे सुनकर व स्पर्श द्वारा सूचना ग्रहण करते हैं। क्योंकि ये केवल सुनकर व स्पर्श द्वारा ज्ञान ग्रहण करते हैं इसलिए पाठ्यक्रम व शिक्षण विधियाँ ऐसी होनी चाहिए जिनसे वह इन्द्रिय अनुभव दिया जा सके। इसलिए धनात्मक पाठ्यक्रम को विशेष महत्त्व दिया जाना चाहिए। धनात्मक पाठ्यक्रम द्वारा उन्हें सीखने में सहायता मिलती है और उनके लिए सुविधाजनक होता है। कौशलों के विकास से सीखने में सरलता होती है। धनात्मक पाठ्यक्रम में निम्न छः क्षेत्र शामिल हैं—
(अ) ब्रेल लिपि – यह अन्धों के पढ़ने-लिखने की एक मूल प्रणाली है। इस लिपि का प्रतिपादन लुईस ब्रेली ने 1829 में किया जो कि एक फ्रांसीसी संगीतकार थे। पूर्ण रूप से अन्धों व जिनको
बहुत ही कम दिखाई देता है, उनके लिए ब्रेल प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। यह 6 डाट सेल की बनी होती है जो 63 भिन्न-भिन्न चरित्रों को बताती है। 26 बिन्दुओं का प्रयोग 26 अक्षरों के लिए किया जाता है तथा बाकी 33 बिन्दु चिह्नों आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं। ब्रेल प्रणाली में प्रायः लिखने के दो तरीकों का वर्णन किया जाता है-
(i) Perkins Brailler, (ii) The State and Stylus.
Perkins Brailler में 6 चाबियाँ होती हैं पिंजरे की हर एक dot के लिए। इन बिन्दुओं पर 1 से 6 तक नम्बर दिये जाते हैं तथा उन 6 नम्बरों पर ब्रेल अक्षरों का प्रयोग किया जाता है।
Slate और Stylus ब्रेल प्रणाली Perkins Brailler से अधिक कठिन होती है। इस प्रणाली में छात्रों को स्पर्श व महसूस करके ब्रेल लिपि को पढ़ना होता है। इसके बाद इसी तरह ब्रेल लिपि को याद किया जाता है।
आजकल ब्रेल लिपि को विकसित करने के लिए Computer Braille Printers का प्रयोग किया जा रहा है।
(ब) रुचि/रुझान व गतिशीलता – बच्चों की रुचि व योग्यता के अनुसार उन्हें आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध करानी चाहिए। इसका आधार श्रवण क्षमता, स्पर्श, सुगन्ध, स्वाद आदि होना चाहिए। लोगों द्वारा परामर्श और मशीनी उपकरणों का प्रयोग करके दृष्टि बाधित बच्चों को गतिशील बनाया जा सकता है। ऐसे बच्चों की मानसिक मानचित्र बनाने में सहायता करनी चाहिए जिससे उन्हें दूरी व दिशा का ज्ञान प्राप्त हो जाये । उनको इस प्रकार की शिक्षा दी जाये जिससे वे कम व ज्यादा दूरी
में फर्क कर सकें और अपने रास्ते की बाधाओं को पार कर सकें।
(स) सहायक सामग्री का प्रयोग-तकनीकी विकास ने दृष्टि बाधित बच्चों के लिए भी सामान्य बच्चों की तरह नम्रतापूर्ण कार्य करना आसान बना दिया है। आंशिक व पूर्ण अन्धों के लिए बोलने वाले कैलकुलेटर का प्रयोग किया जाता है। इसमें संख्यात्मक प्रविष्टियों को ईयर प्लग द्वारा ऊँचा बोला जाता है। संख्यात्मक घड़ियों व मैगनीफाइंग शीशा का भी प्रयोग बढ़ा है। इस प्रकार के शीशे द्वारा हम मुद्रित सामग्री को बड़े आकार में देख सकते हैं और सुगमता से पढ़ सकते हैं। कुर्जवैल
पढ़ने वाली मशीन छपी हुई सामग्री को मौखिक अंग्रेजी में बदल देती है।

उत्तल दर्पण, चश्मे व अन्य दृष्टि यन्त्रों को भी प्रयोग किया जाता है। दृष्टि कैमरा व चलायमान
टेलिस्कोप का भी उपयोग किया जाता है। ओप्टेकॉन एक छोटी-सी मशीन है, जिससे हम हर एक अक्षर को व्यवहारगत हावभाव में आसानी से बदल सकते हैं। इस मशीन को हाथ में भी रखा जा सकता है। इस प्रकार हम मुद्रित सामग्री को बिना ब्रेल लिपि में बदले आसानी से पढ़ सकते हैं। सोनिक शीशों द्वारा अल्ट्रासोनिक आवाज किरणें निकलती हैं जिनको हर किसी के द्वारा सुना नहीं जा सकता। लेकिन जब ये किरणें किसी माध्यम / बाधा से टकराती हैं तो आवाज उत्पन्न करती हैं और इस प्रकार इन्हें सुनकर अन्धे लोग आसानी से सीख सकते हैं।
(द) सामाजिक कौशल का विकास-दृष्टि बाधित बच्चों के लिए समाजीकरण एक समस्या है। इनमें सामाजिक कौशल का अभाव होता है। इन्हें अपने साथी बच्चों द्वारा हीन दृष्टि से देखा जाता है। वे इन्हें आसानी से अपना नहीं पाते। अतः इनमें सामाजिक कौशल विकसित करने के लिए शाब्दिक अभिप्रेरणा दी जानी चाहिए। सामाजिक अच्छे व्यवहारों के लिए प्रोत्साहित किया जायें। साथी समूह द्वारा अपनाया जाये। कक्षा में बोलने का अवसर दिया जाये, जिससे उनमें आत्मविश्वास का विकास हो सके। उत्तम आचरण का प्रशिक्षण दिया जाये।
(य) दिनचर्या सम्बन्धी कौशल – दृष्टि दोष होने के कारण ये बालक अपनी दिनचर्या सम्बन्धी गतिविधियाँ भी सुचारु रूप से नहीं कर पाते हैं। इन्हें बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार इन बच्चों को उचित मार्गदर्शन व अनुभव द्वारा इनके खाने सम्बन्धी कौशल, कपड़े पहनना, अपने आपको स्वस्थ रखना, नहाना, खरीदारी, मशीनी उपकरण प्रयोग, खाना बनाना व अपना बिस्तर लगाना आदि दिनचर्या सम्बन्धी कौशलों को विकसित किया जा सकता है। इनकी दिनचर्या नियमित करने के लिए माता-पिता व अध्यापक दोनों ही अहम् भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार ये बच्चों को कठिनाइयों का निदान करना सिखाते हैं ताकि वे अपने आपको आत्मविश्वासी बना सकें।
(र) विविध इन्द्रियों का प्रशिक्षण-दृष्टि बाधित बच्चों को बहु इन्द्रिय सहायक सामग्री का उपयोग करने से बहुत लाभ होता है। इनकी इन्द्रियाँ प्रशिक्षित होती हैं व कौशलों का विकास होता है। इस प्रकार के प्रशिक्षणों में भाषा शिक्षक का बहुत योगदान होता है। टेलीविजन भी सूचना का प्राथमिक स्रोत है जिससे इन्द्रियों का विकास होता है। असमर्थी बच्चों को कम्प्यूटर से भी सहायता मिलती है। इस प्रकार दृष्टि बाधितों के लिए बहुत से ऐसे प्रशिक्षण व कार्यक्रम हैं जिनसे उनकी इन्द्रियों का विकास हो।
प्रश्न 9 (vi) प्रतिभाशाली बच्चों की विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
प्रतिभाशाली बालक राष्ट्र की रीढ़ होते हैं। ये समाज के हर कोने में पाये जाते हैं। ये किसी भी जाति, धर्म, लिंग और किसी भी समुदाय से सम्बन्धित हो सकते हैं। बहुत-से विकलांग बच्चों, जैसे- गूँगे-बहरे, अस्थि बाधित, वाणी और भाषा सम्बन्धी दोष वाले बच्चों में भी प्रतिभाशाली बच्चे देखने को मिलते हैं। हमारे सामने इतिहास के पन्नों में छिपे हुए ऐसे बहुत-से उदाहरण आते हैं जो अपने प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के लिए जाने जाते हैं, जैसे- ग्राहम बेल, थॉमस एडीसन, जॉर्ज वाशिंगटन आदि कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं जो अपनी-अपनी अधिगम असमर्थताओं के लिए जाने जाते हैं। सूरदास जो जन्मांध थे, मिल्टन व ब्रीटहोवन आदि भी गम्भीर दृष्टि या श्रवण बाधिता के कारण प्रतिभाशाली लोगों की श्रेणी में आते हैं। हम बहुत-से ऐसे नामों को भी जानते हैं, जिनका शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य ठीक न होते हुए भी उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में नाम व प्रसिद्धि कमायी है। अतः प्रतिभाशाली बच्चे
केवल बुद्धि में उत्तम नहीं होते बल्कि शारीरिक, संवेगात्मक, सामाजिक शिक्षा तथा अपनी आयु कई बच्चों से कई और विशेषताओं में भी उत्तम होते हैं।
सामान्यतः हम प्रतिभाशाली बच्चों की विशेषताओं का वर्णन दो वर्गों में करते हैं-
1. धनात्मक विशेषताएँ
2. ऋणात्मक विशेषताएँ
1. धनात्मक विशेषताएँ
के
(अ) शारीरिक विशेषताएँ – प्रतिभाशाली बच्चे वे होते हैं जो शारीरिक तौर पर विकसित होते हैं। ये सामान्यतः लम्बे होते हैं व इनका वजन ज्यादा होता है।
(i) इनका डील-डौल उचित होता है और वे अच्छे स्वास्थ्य वाले होते हैं।
(ii) इनकी ज्ञानेन्द्रियाँ प्रखर होती हैं।
(iii) इनका व्यवहार बहुत अच्छा होता है।
(iv) ये साधारण बच्चों की अपेक्षा बैठना, खड़े होना, दाँत निकालना तथा बोलना छोटी आयु में ही सीख जाते हैं।
(ब) बौद्धिक विशेषताएँ – इसमें निम्नलिखित विशेषताओं को शामिल किया जाता है—
(i) इनकी रुचियाँ भिन्न-भिन्न तथा विस्तृत होती हैं।
(ii) इनका भाषात्मक विकास उच्च स्तर का होता है।
(iii) इनमें मौलिक विचारों के निर्माण व समस्याओं का समाधान करने की योग्यता होती है।
(iv) ये सीखने व समझने में तेज होते हैं तथा इनकी ग्राह्य शक्ति अच्छी होती है।
(v) इनकी स्मृति बहुत तेज होती है। ये बहुत तेज गति से सीखते हैं।
(vi) इनमें तर्क-वितर्क शक्ति व समस्या समाधान की योग्यता अधिक होती है।
(vii) ये निरन्तर ध्यान दे सकते हैं और जब किसी चीज को दोहराया जाता है तो ऊब अनुभव करते हैं।
(vii) इनका शब्द-भण्डार विशाल होता है। इनका साधारण ज्ञान भी अच्छा होता है।
(viii) (ix) इनकी आत्माभिव्यक्ति अच्छे स्तर की होती है। यह फुर्तीली और स्पष्ट होती है।
(ix) (x) ये किसी एक क्षेत्र, जैसे—कला, संगीत, साहित्य आदि में विशिष्ट योग्यता रखते हैं
(x) (xi) टरमैन के अनुसार इनका I. Q. स्तर 140 से ऊपर होता है।
(xii) ये अपनी आयु के आम बच्चों से संगठन करने, विश्लेषण करने, कल्पना करने, दलील – करने, कंठस्थ करने आदि की उत्तम योग्यता के मालिक होते हैं। इनका सामान्य ज्ञान भी अधिक होता है।
(स) व्यक्तित्व की विशेषताएँ – प्रतिभाशाली बच्चों की व्यक्तित्व की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(i) इनमें समायोजन, प्रबन्धन, विश्लेषण व संश्लेषण योग्यताएँ पायी जाती हैं।
(ii) कई बार ये बच्चें संवेगात्मक अस्थिरता भी दिखाते हैं।
(iii) इनका व्यक्तित्व सामान्यतः विशिष्ट होता है।
(iv) इनमें हास्य-विनोद का स्वभाव अधिक होता है।
(v) ये घर, स्कूल व समाज के कार्यों में रुचि लेते हैं और कार्य का सौंपा जाना पसन्द करते हैं. क्योंकि ये कार्य को उत्तरदायित्व की भावना से पूरा करना चाहते हैं। इनमें उत्तरदायित्व की भावना अधिक होती है।
(vi) ये बालक सामाजिक दृष्टि से भी सुदृढ़ होते हैं।
2. ऋणात्मक विशेषताएँ
प्रतिभाशाली बच्चों में कुछ ऋणात्मक विशेषताएँ भी पायी जाती हैं, जो इस प्रकार हैं-
(i) ये बच्चे सामान्य कक्षाकक्ष में उदासीनता महसूस करते हैं। सामान्यतः तब जब विषय इनकी पसन्द का न हो।
(ii) ये अभिमानी और ईर्ष्यालु व्यवहार की अभिव्यक्ति करते हैं। (iii) ये बेकरार, गाफिल तथा ऊधम मचाने वाले होते हैं। (iv) इनकी लिखाई खराब तथा वर्तनी अशुद्ध होती है ।
(v) प्रतिभाशाली बालक कई बार लापरवाह हो जाते हैं।
(vi) ये सामान्य बच्चों के लिए बनाये गये पाठ्यक्रम को पसन्द नहीं करते हैं ।
(vii) ऐसे बच्चों की रुचि दूसरों की आलोचना करने में अधिक होती है।
प्रश्न 9 (vii) मानसिक मंदता के कारणों को स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर- मानसिक मंदन के लिए कोई ऐसे सामान्य कारण निर्धारित करना सम्भव नहीं है। मानसिक मंदिता एक व्यक्तिगत समस्या है। अतः प्रत्येक मन्दबुद्धि बालक अपनी मन्दबुद्धि के लिए कुछ अपूर्ण कारण रखता है, मन्दबुद्धि बच्चों से सम्बन्धित कारणों को अग्र तीन भागों में बाँटा जा सकता है—
1. जन्म से पूर्व के कारण
(a) आनुवांशिकी व दोषपूर्ण गुणसूत्र – मानव शरीर में 23 जोड़े गुणसूत्र होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने माता-पिता से आधे गुणसूत्रों को ग्रहण करता है। मानसिक मंदिता माता या पिता अथवा दोनों के गुणसूत्रों में उपस्थित दोषपूर्ण पैतृकों के कारण पैदा हो सकती हैं। कुछ जैविक बीमारियों का * वर्णन इस प्रकार है-
(i) डाउन्स सिण्ड्रोम – इसे मंगोलिज्म के नाम से भी जाना जाता है। इस बीमारी में गुणसूत्रों का एक जोड़ा गर्भधारण के समय अलग हो जाता है। फ्रांस के वैज्ञानिकों ने यह बता दिया कि व्यक्तियों के क्रोमोसोम्स के 21 वें जोड़े में एक अतिरिक्त क्रोमोसोम होता है, जिससे इन लोगों में 46 की बजाय 47 क्रोमोसोम होते हैं। इन लोगों के चेहरे की बनावट मंगोलियन जाति के लोगों से मिलती-जुलती होती है, इसलिए इन्हें ‘मंगोलिज्म’ कहा जाता है। इनका चेहरा गोल, नाक छोटी व चपटी, आँखें धँसी हुई, हाथ छोटे और मोटे तथा जीभ में एक दरार होती है।
(ii) टर्नर सिण्ड्रोम – इस मानसिक दुर्बलता का कारण यौन क्रोमोसोम में गड़बड़ी होती है। यह मानसिक दुर्बलता केवल बालिकाओं में ही पायी जाती है। इन बालिकाओं की गर्दन छोटी और झुकी हुई होती है। इस प्रकार के बच्चों में अधिगम सम्बन्धी समस्याएँ सामान्यतः पायी जाती हैं, जिसमें श्रवण बाधिता भी शामिल है। आँखों में X क्रोमोसोम की कमी से यह दुर्बलता होती है।
(iii) क्लाईनफैल्टर सिण्ड्रोम – इस प्रकार की दुर्बलता पुरुषों में एक अतिरिक्त क्रोमोसोम
(XXY) की उपस्थिति के कारण दिखाई देती है। इसका कारण भी यौन क्रोमोसोम्स में विसंगति का होना है। इस अतिरिक्त क्रोमोसोम को हम 47 गिनते हैं। इस दुर्बलता के कारण पुरुषों में सामान्यतः महिलाओं की विशेषताएँ विकसित होने लगती हैं।
(अ) गर्भवती माता की जटिलताओं के कारण एक्स-रे करवाना पड़ता है तथा इन किरणों का शिशु के मानसिक विकास पर प्रभाव पड़ता है।
(ब) गर्भधारण के शुरुआती तीन महीनों में संक्रमण आदि पैदा होने के कारण भ्रूण के विकास पर प्रभाव पड़ सकता है तथा मानसिक मन्दन का कारण बन सकता है
(स) गर्भवती माता को मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियाँ होने से तथा पर्याप्त पोषण न मिल पाने, माता का मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य ठीक न होने से आदि बातें बालक को मानसिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ बनाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं
(द) गर्भावस्था में थॉयराइड हॉर्मोन्स की कमी या अधिकता भी विकसित भ्रूण में मानसिक मंदिता पैदा कर सकती है।
(य) कुपोषण भी मानसिक मंदिता का मुख्य कारण है। गर्भवती माता या जन्म के बाद बच्चे को यदि पर्याप्त पोषण प्राप्त नहीं होता तो मंदिता उत्पन्न होती है।
(र) गर्भवती माता द्वारा शराब, सिगरेट व नशीली दवाइयों का सेवन भी मानसिक मंदिता का कारण बन सकता है।
(ल) कम आयु में गर्भ धारण भी मानसिक मंदिता का एक कारण है। कम आयु में गर्भवती होने से भ्रूण का विकास पूर्ण रूप से नहीं हो पाता है।
2. जन्म के समय के कारण
(अ) समय से पूर्व (24 हफ्तों और 34 हफ्तों के बीच जन्म) बच्चे का पैदा होना भी मानसिक मंदिता का एक कारण है।
(ब) जन्म के समय शिशु का वजन कम होने के कारण बच्चे का मानसिक विकास कम हो पाता है जो मानसिक मंदिता का कारण बन सकता है।
(स) जन्म के समय ऑक्सीजन की कमी भी बच्चे में मानसिक मंदिता पैदा करती है।
(द) प्रसव के समय माता के बहुत कम या अधिक प्रसव वेदना होने, अप्रशिक्षित हाथों द्वारा प्रसव होने अथवा प्रसव के लिए ऑपरेशन करते समय असावधानी होने आदि कारणों के फलस्वरूप बालक के मस्तिष्क या स्नायु संस्थान पर आघात पहुँचा जाता है तो यह मानसिक मंदिता का कारण बन
सकता है।
(य) ऑपरेशन के समय प्रयुक्त किये जाने वाले औजारों से कई बार शिशु के सिर पर घाव बन जाते हैं। ये घाव प्रायः मानसिक मन्दन का कारण बन जाते हैं।
(र) एनीथिसिया और दर्द निवारकों का प्रयोग प्रसव के समय करने से भी मानसिक मंदिता हो सकती है।
3. जन्म के बाद के कारण
(अ) सीसा जहर मानसिक मंदिता का एक महत्त्वपूर्ण कारण है। सीसा प्रायः धरती, पानी तथा वातावरण में पाया जाता है। यह प्रायः पेण्ट, फर्नीचर, खिलौनों, बैटरी के खेलों आदि पर पाया जाता
है। बच्चे प्रायः इसको चाट लेते हैं या पेन्सिल या सिक्का खा जाते हैं जिसके कारण बच्चे मानसिक मंदिता का शिकार हो जाते हैं।
(ब) किसी दुर्घटना के फलस्वरूप मस्तिष्क के स्नायु संस्थान को आघात पहुँचने के कारण मानसिक मंदिता हो सकती है।
(स) जन्म के बाद बच्चे को सन्तुलित आहार और उचित पोषण न मिलने के कारण भी मानसिक मंदिता हो सकती है।
(द) फेनिलकीटोन्यूरिया – सबसे पहले इसे 1934 में खोजा गया। इस दुर्बलता का सम्बन्ध प्रोटीन मेटाबोलिज्म में गड़बड़ी से है। प्रोटीन मेटाबोलिज्म में गड़बड़ी के कारण Phyenylalanine अधिक मात्रा में शरीर में जमा हो जाती है, जिससे मस्तिष्क की कोशिकाएँ जर्जर हो जाती हैं तथा बच्चों में मानसिक दुर्बलता पैदा हो जाती है।
(य) बाल्यकाल में बच्चों को होने वाली बीमारियों, जैसे—जर्मन खसरा, ऐपीलैप्सी (मिरगी), कोनजिनियल सिफलिस आदि से भी मानसिक मंदिता हो सकती है
(र) मेनिनजाइटिस एक दिमागी संक्रमण भी मानसिक मंदिता का एक मुख्य कारण है।
(ल) संवेगात्मक कुसमायोजन एवं मानसिक चिन्ता, तनाव और संघर्ष का शिकार रहना आदि के कारण भी मानसिक मंदिता हो सकती है।

 

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